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________________ १४४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ वस्तुतः सत्य के इन दस रूपों का सम्बन्ध तथ्यगत सत्यता हों"- इस प्रकार आमंत्रण देनेवाले कथनों की भाषा आमन्त्रणी कही के स्थान पर भाषागत सत्यता से है। कथन-व्यवहार में इन्हें सत्य माना जाती है। ऐसे कथन सत्यसनीय नहीं होते। इसलिए ये सत्य या असत्य जाता है। यद्यपि कथन की सत्यता मूलत: तो उसकी तथ्य से संवादिता की कोटि से परे होते हैं। पर निर्भर करती है। अत: ये सभी केवल व्यावहारिक सत्यता के सूचक हैं, वास्तविक सत्यता के नहीं। २. आज्ञापनीय जैन दार्शनिकों ने सत्य के साथ-साथ असत्य के स्वरूप पर “दरवाजा बन्द कर दो", "बिजली जला दो", आदि आज्ञाभी विचार किया है। असत्य का अर्थ है कथन का तथ्य से विसंवादी वाचक कथन भी.सत्य या असत्य की कोटि में नहीं आते। एजे० होना या विपरीत होना। प्रश्नव्याकरण में असत्य की काफी विस्तार से एयर प्रभृति आधुनिक तार्किकभाववादी विचारक भी आदेशात्मक भाषा चर्चा है, उनमें असत्य के ३० पर्यायवाची नाम दिये गये हैं। यहाँ हम को सत्यापनीय नहीं मानते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने समग्र नैतिक उनमें से कुछ की चर्चा तक ही अपने को सीमित रखेंगे। कथनों के भाषायी विश्लेषण के आधार पर यह सिद्ध किया है कि वे अलीक- जिसका अस्तित्व नहीं है, उसको अस्ति रूप विधि या निषेध रूप में आज्ञासूचक या भावनासूचक ही हैं, इसलिए वे कहना अलीक वचन है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय में न तो सत्य हैं और न तो असत्य। इसे असत्य कहा है। अपलाप- सद् वस्तु को नास्ति रूप कहना अपलाप है। ३. याचनीय विपरीत- वस्तु के स्वरूप का भिन्न प्रकार से प्रतिपादन 'यह दो' इस प्रकार की याचना करने वाली भाषा भी सत्य करना विपरीत कथन है। और असत्य और असत्य की कोटि से परे होती है। एकान्त- ऐसा कथन, जो तथ्य के सम्बन्ध में अपने पक्ष का प्रतिपादन करने के साथ अन्य पक्षों या पहलुओं का अपलाप करता है, ४. प्रच्छनीय वह भी असत्य माना गया है। इसे दुर्नय या मिथ्यात्व कहा गया है। यह रास्ता कहाँ जाता है? आप मुझे इस पद्य का अर्थ इनके अतिरिक्त हिंसाकारी वचन, कटुवचन, विश्वासघात, बतायें? इस प्रकार के कथनों की भाषा प्रच्छनीय कही जाती है। चूंकि दोषारोपण आदि भी असत्य के ही रूप हैं। प्रज्ञापना में क्रोध, लोभ यह भाषा भी किसी तथ्य का विधि-निषेध नहीं करती है, इसलिए आदि के कारण नि:सृत वचन को तथ्य से संवादी होने पर भी असत्य इसका सत्यापन सम्भव नहीं है। माना गया है। ५. प्रज्ञापनीय अर्थात् उपदेशात्मक भाषा सत्य-मृषा कथन जैसे चोरी नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, वे कथन जिनका अर्थ उभय कोटिक हो सकता है, सत्य- आदि। चूँकि इस प्रकार के कथन भी तथ्यात्मक विवरण न हो करके मृषा कथन हैं। “अश्वत्थामा मारा गया" यह महाभारत का प्रसिद्ध कथन उपदेशात्मक होते हैं, इसलिए ये सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते। सत्य-मृषा भाषा का उदाहरण है। वक्ता और श्रोता इसके भिन्न-भिन्न आधुनिक भाषा विश्लेषणवादी दार्शनिक नैतिक प्रकथनों का अन्तिम अर्थ ग्रहण कर सकते हैं। अत: जो कथन दोहरा अर्थ रखते हैं, वे मिन विश्लेषण प्रज्ञापनीय भाषा के रूप में ही करते हैं और इसलिए इसे भाषा के उदाहरण हैं। सत्यापनीय नहीं मानते हैं, उनके अनुसार वे नैतिक प्रकथन जो बाह्य रूप से तो तथ्यात्मक प्रतीत होते हैं, लेकिन, वस्तुत: तथ्यात्मक नहीं असत्य-अमृषा कथन होते; जैसे- चोरी करना बुरा है, उसके अनुसार इस प्रकार के कथनों लोकप्रकाश के तृतीय सर्ग के योगाधिकार में बारह (१२) का अर्थ केवल इतना ही है कि तुम्हें चोरी नहीं करना चाहिए या चोरी प्रकार के कथनों को असत्य-अमृषा कहा गया है। वस्तुत: वे कथन के कार्य को हम पसन्द नहीं करते हैं। यह कितना सुखद आश्चर्य है कि जिन्हें सत्य या असत्य को कोटि में नहीं रखा जा सकता, असत्य- जो बात आज के भाषा-विश्लेषक दार्शनिक प्रस्तुत कर रहे हैं, उसे अमषा कहे जाते हैं। जो कथन किसी विधेय का विधान या निषेध नहीं सहस्राधिक वर्ष पूर्व जैन विचारक सूत्र रूप में प्रस्तुत कर चुके हैं। करते, उनका सत्यापन सम्भव नहीं होता है और जैन आचार्यों ने ऐसे आज्ञापनीय और प्रज्ञापनीय भाषा को असत्य-अमृषा कहकर उन्होंने कथनों को असत्य-अमृषा कहा है, जैसे आदेशात्मक कथन। निम्न १२ आधुनिक भाषा-विश्लेषण का द्वार उद्घाटित कर दिया था। प्रकार के कथनों को असत्य अमृषा-कहा गया है ६.प्रत्याख्यानीय १. आमन्त्रणी किसी प्रार्थी की माँग को अस्वीकार करना प्रत्याख्यानीय "आप हमारे यहां पधारें", 'आप हमारे विवाहोत्सव में सम्मलित भाषा है। जैसे, तुम्हें यहाँ नौकरी नहीं मिलेगी अथवा तुम्हें भिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210690
Book TitleJain Darshan me Gyan ke Pramanya aur Kathan ki Satyata ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages39
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size632 KB
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