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________________ नहीं दी जा सकती। ७. इच्छानुकूलिका किसी कार्य में अपनी अनुमति देना अथवा किसी कार्य के प्रति अपनी पसन्दगी स्पष्ट करना इच्छानुकूलिका भाषा है। तुम्हें यह कार्य करना ही चाहिए, इस प्रकार के कार्य को मैं पसन्द करता हूँ। मुझे झूठ बोलना पसन्द नहीं है। आधुनिक नीतिशास्त्र का संवेगवादी सिद्धान्त भी नैतिक कथनों को अभिरुचि या पसन्दगी का एक रूप बताता है, और उसे सत्यापनीय नहीं मानता है। जैन दर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन की सत्यता का प्रश्न ८. अनभिग्रहीत ऐसा कथन जिसमें वक्ता अपनी न तो सहमति प्रदान करता है और न असहमति, अनभिग्रहीत कहलाता है। जैसे, 'जो पसन्द हो, वह कार्य करो”, “जो तुम्हें सुखप्रद हो, वैसा करो" आदि। ऐसे कथन भी सत्यापनीय नहीं होते। इसलिए इन्हें भी असत्य - अमृषा कहा गया है। ९. अभिग्रहीत किसी दूसरे व्यक्ति के कथन को अनुमोदित करना अभिग्रहीत कथन है। जैसे- 'हाँ, तुम्हें ऐसा ही करना चाहिए ऐसे कथन भी सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते हैं। १०. संदेहकारिणी Jain Education International , जो कथन प्रचर्थक हो या जिनका अर्थ स्पष्ट न हो, संदेहात्मक १४५ कहे जाते हैं। जैसे, सैन्धव अच्छा होता है यहाँ वक्ता का यह तात्पर्य स्पष्ट नहीं है कि सैन्धव से नमक अभिप्रेत है या सिन्धु देश का घोड़ा। अतः ऐसे कथनों को भी न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य । ११. व्याकृता व्याकृता से जैन विचारकों को क्या अभिप्रेत है, यह स्पष्ट नहीं होता हैं हमारी दृष्टि में व्याकृत का अर्थ परिभाषित करना ऐसा हो सकता है। वे कथन, जो किसी तथ्य की परिभाषाएं हैं, इस कोटि में आते हैं। आधुनिक भाववादी विश्लेषक दार्शनिकों की दृष्टि से कहें तो वे पुनरुक्तियाँ हैं जैन विचारकों ने इन्हें भी सत्य या असत्य की कोटि में नहीं रखा है, क्योंकि इनका कोई अपना विधेय नहीं होता है या ये कोई नवीन कथन नहीं करते हैं। १२. अव्याकृता वह भाषा जो स्पष्ट रूप से कोई विधि निषेध नहीं करती है, अव्याकृत भाषा है। यह भी स्पष्ट रूप से विधि-निषेध को अभिव्यक्त नहीं करती है। इसलिए यह भी सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आती है। आज समकालीन दार्शनिकों ने भी आमंत्रणी, आज्ञापनीय, याचनीय, पृच्छनीय और प्रशापनीय आदि कथनों को असत्य-अमृषा (असत्यापनीय) माना है। एयर आदि ने नैतिक प्रकथनों को आज्ञापनीय मानकर उन्हें (असत्यापनीय) माना है जो जैन दर्शन की उपर्युक्त व्याख्या के साथ संगतिपूर्ण है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.210690
Book TitleJain Darshan me Gyan ke Pramanya aur Kathan ki Satyata ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages39
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size632 KB
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