Book Title: Jain Darshan ke Sandharbh me Pudgal
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4****** जैनदर्शन के सन्दर्भ में पुद्गल 124863 14++++++++** जैनदर्शन के संदर्भ में संदर्भ में पुद्गल : * रमेशमुनि, साहित्यरत्न 'पुद्गल' यह जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है । जिस अर्थ में पुद्गल शब्द जैनदर्शन में व्यवहृत हुआ है उस अर्थ में वह अन्य दर्शनों में प्रयुक्त नहीं हुआ । तथागत बुद्ध ने पुद्गल शब्द का प्रयोग किया है । वह आलय विज्ञान चेतना संतति के अर्थ में है। अन्य दर्शनकारों ने जिसे भूत और आधुनिक विज्ञान जिसे मैटर कहता है उसे ही जैनदर्शन ने पुद्गल कहा है । षट् द्रव्यों में पाँच द्रव्य अमूर्त हैं, केवल एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्त है। यही कारण है कि दृश्य जगत् को भौतिक जगत् और इस से सम्बन्धित विज्ञान को भौतिक विज्ञान या Material Science कहते हैं । ३७५ पुद्गल शब्द का विशेष अर्थ है, जो पुद् + गल इन दो शब्दों के मिलने से बनता है। पुद् का अर्थ है पूर्ण होना या मिलना और गल का अर्थ है गलना या बिछुड़ना । क्योंकि विश्व में जितने भी दृश्य पदार्थ हैं वे मिल-मिल के बिछुड़ते हैं और बिछुड़ बिछुड़ कर फिर मिलते हैं, जुड़-जुड़ कर टूटते हैं और टूट-टूट कर फिर जुड़ते हैं । इसीलिए उन्हें पुद्गल कहा है । पुद्गल यह एक विचित्र पदार्थ है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, कीड़े-मकोड़े आदि जितने भी दृश्य पदार्थ हैं, वे सभी पुद्गल हैं । पुद्गल इतने प्रकार के हैं कि उनकी परिगणना करना भी सम्भव नहीं है । तथापि जैन साहित्य में सभी पदार्थों को षट्काय में विभक्त किया है, पाँच स्थावर और एक त्रस । ये भेद जीव के हैं पर वस्तुतः ये सभी भेद जीव के नहीं, अपितु उनके काय व शरीर के हैं। ये षट्काय जाति के शरीर तब तक जीव के शरीर या जीव कहलाते हैं जब तक जीवित हैं, और मर जाने के पश्चात् ये अजीव पुद्गल कहलाते हैं। वास्तव में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो पहले जीव का शरीर न रहा हो। ईंट, पत्थर, हीरे पन्ने आदि सभी पदार्थ पृथ्वीकाय थे क्योंकि ये सभी खनिज पदार्थ हैं। ये दिखलायी देने वाले भव्य भवन, चमचमाते हुए बर्तन सभी पृथ्वीकाय से उत्पन्न हुए हैं। उमड़घुमड़ कर बरसने वाली वर्षा, ओस, वाष्प, बर्फ आदि जलकाय के जीवित या मृत शरीर हैं। गैस आदि वायुकाय के जीव हैं अथवा उनके मृत शरीर हैं। लकड़ी के बने हुए सुन्दर फर्नीचर, बढ़िया वस्त्र सभी वनस्पतिकाय के जीवित या मृत शरीर हैं। फर्नीचर, वनस्पति का ही एक रूपान्तर है तो वस्त्र रूई का । इसी प्रकार अन्य सभी वस्तुएं मी जैसे दूध, घृत, दही, रेशम, चमड़ा, हाथी दांत के खिलौने आदि सकाय के मृत शरीर हैं । । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच भूत कहलाते हैं। इनका मेल होने पर जिस पदार्थ में जिसका अंश अधिक रहता है वह उसके अनुरूप ठोस या तरल दिखलायी देता है । पाँचों के संघात में पृथ्वी का भाग अधिक होने पर वह मिश्र पदार्थ ठोस बनेगा । यदि जल की अधिकता होगी तो तरल बनेगा अग्नि का माग अधिक होने पर तेजवान् या उष्ण बनेगा, वायु का भाग अधिक होने पर हलका या गतिवान बनेगा । यदि आकाश का भाग अधिक होगा तो खाली दिखायी देगा । उदाहरण के रूप में, जब तेज वर्षा होती है उस समय वायु में जल की प्रधानता होती है और भीष्म प्रीष्म ऋतु की वायु में अग्नितत्व होता है तथापि वह जल और अग्नि न होकर वायु ही कहलाती है क्योंकि उसी का अंश प्रमुख है। इस पौगलिक या भौतिक जगत् में जो विविधता दृष्टिगोचर होती है वह सभी वास्तव में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के ही चमत्कार हैं । निश्चयनय की दृष्टि से जीव और पुद्गल हैं । जीव अरूपी है तो पुद्गल रूपी है । किन्तु अनन्तकाल से जीव और पुद्गल नीर-क्षीर की तरह एकमेक हो गये हैं । तथापि कोई भी द्रव्य अपने मूल द्रव्यत्व का उल्लंघन नहीं करता। पुद्गल कमी जीव नहीं बनता, जीव कभी जड़ नहीं बनता । शब्द, 0 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ३७६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ++ ++ ++ +++++++ ++++++++++++ ++. + ++ + S ++ + ++ + + ++ + + ++ ++ ++ ++++ ++ ++ + + + + + ++ ++ + ++ ++ अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, धूप, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श ये सभी पुद्गलों की विविध परिणतियां हैं। ये कभी मिलते हैं और कभी भिन्न होते हैं । पुद्गल के सप्रदेशी होने से अस्तिकाय में उसकी परिगणना की गयी है। कितने ही पुद्गल एक प्रदेशी, दो प्रदेशी, संख्यात-असंख्यात अनन्त प्रदेशी भी होते हैं। जैन साहित्य में पुद्गल के अष्टस्पर्शी और चतुःस्पर्शी-ये दो भेद किये गये हैं। जिनमें वर्ण, गन्ध, रस, संस्थान के साथ अष्ट स्पर्श होते हैं वे अष्टस्पर्शी पुद्गल कहलाते हैं और जिनमें शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ये चार स्पर्श पाये जाते हैं वे चतुःस्पर्शी कहलाते हैं । पुद्गल के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु-ये चार भेद हैं । अणुओं का समुदाय स्कन्ध है । स्कन्ध के बुद्धिकल्पित भाग को देश कहते हैं । स्कन्ध या देश में मिले हुए अति सूक्ष्म विभाग जिसका पुनः विभाग न हो सके वह प्रदेश है। पुद्गल का सबसे सूक्ष्म अविभाज्य अंश परमाणु है। जब तक वह स्कन्धगत है तब तक वह प्रदेश है और स्कन्ध से अलग होने पर वह परमाणु कहलाता है । वह भी एक वर्ण, एक गन्धं, एक रस, और दो स्पर्श वाला होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से भी पुद्गल के चार भेद होते है। द्रव्य से वह अनन्त द्रव्य रूप है, क्षेत्र से वह लोकाकाश पर्यन्त व्याप्त है, काल से वह आदि-अन्त रहित है और भाव से वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सहित है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की दृष्टि से पुद्गल पर शास्त्रकारों ने गहराई से चिन्तन किया है और उसके ५३० भेद बताये हैं। पुद्गल सारे लोकाकाश में भरे पड़े हैं । वे सूक्ष्म भी हैं और बादर भी। परमाणु से लेकर चतुस्पर्शी स्कन्ध तक सभी पुद्गल सूक्ष्म हैं। कार्मण वर्गणा, मनोवर्गणा के पुद्गल इसी कोटि में आते हैं। पुद्गल रूपी है, यह हम पूर्व ही बता चुके हैं । इसलिए सूक्ष्म पुद्गलों को विशिष्ट ज्ञानी ही देख सकते हैं । जब परमाणु से स्कन्ध बनता है तब वे सूक्ष्म पुद्गल इन्द्रियगोचर हो जाते हैं। पुद्गलों में जीव के पारस्परिक परिणति की दृष्टि से तीन प्रकार की परिणतियों होती हैं (१) प्रयोग परिणत-जीव की प्रेरणा से मन, वचन, काया से की जाने वाली समस्त चेष्टाओं से नाना द्रव्यों के रूप में परिणत होने वाले पुद्गल । (२) मिश्र परिणत पुद्गल-जीव के द्वारा केश, नाखून, मल-मूत्र तथा मृत-शरीर आदि के रूप में परित्यक्त पुद्गल । (३) विस्रसा परिणत-जिन पुगलों में जीव का सहाय नहीं है और स्वयं परिणत है वैसे पुद्गल जैसे बादल, इन्द्रधनुष । जीव और पुद्गल दोनों का सम्बन्ध अनादिकाल से है । पूर्व पुद्गल निर्जरित होने पर नये पुद्गलों को वह ग्रहण करता है। जीव और पुद्गलों का सम्बन्ध ही संसार है । जीव का संसार में परिभ्रमण का मूल कारण ही पुद्गल रहा हुआ है । जीव के साथ पुद्गल से सम्बन्धित आठ श्रेणियाँ इस प्रकार हैं (१) औदारिक वर्गणा-स्थूल शरीर के निर्माण में काम आने वाले योग्य पुद्गल । (२) वैक्रिय वर्गणा-विविध रूप बनाने में काम आने वाले पुद्गल । (३) आहारक वर्गणा-आहारक शरीर के निर्माण में काम आने वाले पुद्गल । (४) तेजस वर्गणा-विद्युत् परमाणु समूह । (५) कार्मण वर्गणा-कर्म रूप में परिणत होने वाले पुद्गल । (६) भाषा वर्गणा-भाषा के योग्य पुद्गल । (७) मनोवर्गणा-मन रूप में परिणत होने वाले पुद्गल । (८) श्वासोच्छ्वास वर्गणा-जीवों के श्वास और उच्छ्वास में परिणत होने वाले पुद्गल । पुद्गल वर्गणा को बिना ग्रहण किये देहधारी का कार्य नहीं चलता। वह प्रतिपल प्रतिक्षण पुद्गल ग्रहण करता है और परित्याग करता है । सांसारिक आत्मा पुद्गलों से प्रभावित है। जैनदर्शन में पुद्गल परावर्तन काल का वर्णन है जिसका तात्पर्य है-संसार अवस्था में जीव औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण, श्वासोच्छ्वास, मन, वचन, के परमाणुओं को अनेकों बार ग्रहण कर चुका है और उनका परित्याग भी किया है। ऐसे अनेकों पुद्गल परावर्तन इस जीव ने किये हैं। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन के सन्दर्भ में : पुद्गल 377 ++ mr++HHHHHHorrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr++++++++++++++++++ पुद्गल के सम्बन्ध में जैन साहित्य में अत्यधिक विस्तार से चिन्तन किया गया है। आधुनिक विज्ञान भी पुद्गल के सम्बन्ध में शोधकार्य कर रहा है। आजकल विज्ञान जिसे परमाणु कहता है वह स्थूल है / जैन दृष्टि की अपेक्षा वह परमाणु नहीं, किन्तु स्कन्ध ही है / क्योंकि जैन दृष्टि से जो परमाणु है वह अच्छेद्य, अभेद्य, अग्राह्य, अदाह्य और निविभागी है। किन्तु विज्ञानसम्मत परमाणु अनेक परमाणुओं का पिण्ड है अतः वह जोड़ा व तोड़ा जा सकता है, यन्त्र विशेष की सहायता से देखा-जाना जा सकता है किन्तु जैनदर्शन का परमाणु किसी भी यन्त्र की सहायता से जाना या देखा नहीं जा सकता / वैज्ञानिकों के परमाणु में तो अनेकों इलेक्ट्रोन हैं जो बराबर एक प्रोटान के चारों ओर घूम रहे हैं / ___सारांश यह है कि पुद्गल पर इतना गम्भीर चिन्तन जैनदर्शन में किया गया है कि यदि उस पर विस्तार से लिखा जाय तो एक विराटकाय ग्रन्थ बन सकता है / मैंने बहुत ही संक्षेप में पुद्गल के सम्बन्ध में विचार व्यक्त किये हैं। मैं समझता हूँ कि मेरे ये विचार जिज्ञासुओं को गम्भीर अध्ययन करने की प्रबल प्रेरणा प्रदान करेंगे। श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री ने 'जैनदर्शनः स्वरूप और विश्लेषण' ग्रन्थ में पुद्गल पर विस्तार से विवेचन किया है, विज्ञगण विशेष जानकारी के लिए उसे पढ़ें यह मेरा नम्र सूचन है। -----पूष्क र वाणा -0--0-0-0--0--0--0----------------------- 2 ---0--0--0--0--0--0-0--0--0--0--0-0--0--- मानव जीवन एक रत्न है, विषय वासना कर्दम सम / दुर्दम है कायर को लेकिन, शूरवीर के लिए सुगम / / अस्थिर तन-धन-यौवन है फिर, स्थिर कैसे इनका अभिमान / 'जाना है' यह जाना पर क्या, जाना है जाने का स्थान / / पल का नहीं भरोसा, कल की चिन्ता करने वाले मूढ़। सरलतया कब जाना जाता, जीने का उद्देश्य निगूढ़ / / स्त्री के प्रति नर, नर के प्रति स्त्री, करती है मिथ्या अनुराग। कोई नहीं किसी का साथी, बाती जलती नहीं चिराग / / सत्संगति से शास्त्र-श्रवण से, दृढ़ हो जाता है वैराग्य / होता है वैराग्य उसी को, जिसका हो ऊँचा सौभाग्य / ---0-0--0--0--0--0--0--0--0--0-0-0--0--0-- 4-0-0--0--0-0--0--0--0--0-0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0-o-or-o-rs