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जैनदर्शन के सन्दर्भ में पुद्गल
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जैनदर्शन के संदर्भ में संदर्भ में पुद्गल
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* रमेशमुनि, साहित्यरत्न
'पुद्गल' यह जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है । जिस अर्थ में पुद्गल शब्द जैनदर्शन में व्यवहृत हुआ है उस अर्थ में वह अन्य दर्शनों में प्रयुक्त नहीं हुआ । तथागत बुद्ध ने पुद्गल शब्द का प्रयोग किया है । वह आलय विज्ञान चेतना संतति के अर्थ में है। अन्य दर्शनकारों ने जिसे भूत और आधुनिक विज्ञान जिसे मैटर कहता है उसे ही जैनदर्शन ने पुद्गल कहा है । षट् द्रव्यों में पाँच द्रव्य अमूर्त हैं, केवल एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्त है। यही कारण है कि दृश्य जगत् को भौतिक जगत् और इस से सम्बन्धित विज्ञान को भौतिक विज्ञान या Material Science कहते हैं ।
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पुद्गल शब्द का विशेष अर्थ है, जो पुद् + गल इन दो शब्दों के मिलने से बनता है। पुद् का अर्थ है पूर्ण होना या मिलना और गल का अर्थ है गलना या बिछुड़ना । क्योंकि विश्व में जितने भी दृश्य पदार्थ हैं वे मिल-मिल के बिछुड़ते हैं और बिछुड़ बिछुड़ कर फिर मिलते हैं, जुड़-जुड़ कर टूटते हैं और टूट-टूट कर फिर जुड़ते हैं । इसीलिए उन्हें पुद्गल कहा है ।
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पुद्गल यह एक विचित्र पदार्थ है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, कीड़े-मकोड़े आदि जितने भी दृश्य पदार्थ हैं, वे सभी पुद्गल हैं । पुद्गल इतने प्रकार के हैं कि उनकी परिगणना करना भी सम्भव नहीं है । तथापि जैन साहित्य में सभी पदार्थों को षट्काय में विभक्त किया है, पाँच स्थावर और एक त्रस । ये भेद जीव के हैं पर वस्तुतः ये सभी भेद जीव के नहीं, अपितु उनके काय व शरीर के हैं। ये षट्काय जाति के शरीर तब तक जीव के शरीर या जीव कहलाते हैं जब तक जीवित हैं, और मर जाने के पश्चात् ये अजीव पुद्गल कहलाते हैं। वास्तव में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो पहले जीव का शरीर न रहा हो। ईंट, पत्थर, हीरे पन्ने आदि सभी पदार्थ पृथ्वीकाय थे क्योंकि ये सभी खनिज पदार्थ हैं। ये दिखलायी देने वाले भव्य भवन, चमचमाते हुए बर्तन सभी पृथ्वीकाय से उत्पन्न हुए हैं। उमड़घुमड़ कर बरसने वाली वर्षा, ओस, वाष्प, बर्फ आदि जलकाय के जीवित या मृत शरीर हैं। गैस आदि वायुकाय के जीव हैं अथवा उनके मृत शरीर हैं। लकड़ी के बने हुए सुन्दर फर्नीचर, बढ़िया वस्त्र सभी वनस्पतिकाय के जीवित या मृत शरीर हैं। फर्नीचर, वनस्पति का ही एक रूपान्तर है तो वस्त्र रूई का । इसी प्रकार अन्य सभी वस्तुएं मी जैसे दूध, घृत, दही, रेशम, चमड़ा, हाथी दांत के खिलौने आदि सकाय के मृत शरीर हैं ।
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पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच भूत कहलाते हैं। इनका मेल होने पर जिस पदार्थ में जिसका अंश अधिक रहता है वह उसके अनुरूप ठोस या तरल दिखलायी देता है । पाँचों के संघात में पृथ्वी का भाग अधिक होने पर वह मिश्र पदार्थ ठोस बनेगा । यदि जल की अधिकता होगी तो तरल बनेगा अग्नि का माग अधिक होने पर तेजवान् या उष्ण बनेगा, वायु का भाग अधिक होने पर हलका या गतिवान बनेगा । यदि आकाश का भाग अधिक होगा तो खाली दिखायी देगा । उदाहरण के रूप में, जब तेज वर्षा होती है उस समय वायु में जल की प्रधानता होती है और भीष्म प्रीष्म ऋतु की वायु में अग्नितत्व होता है तथापि वह जल और अग्नि न होकर वायु ही कहलाती है क्योंकि उसी का अंश प्रमुख है। इस पौगलिक या भौतिक जगत् में जो विविधता दृष्टिगोचर होती है वह सभी वास्तव में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के ही चमत्कार हैं । निश्चयनय की दृष्टि से जीव और पुद्गल हैं । जीव अरूपी है तो पुद्गल रूपी है । किन्तु अनन्तकाल से जीव और पुद्गल नीर-क्षीर की तरह एकमेक हो गये हैं । तथापि कोई भी द्रव्य अपने मूल द्रव्यत्व का उल्लंघन नहीं करता। पुद्गल कमी जीव नहीं बनता, जीव कभी जड़ नहीं बनता । शब्द,
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