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जैन आगमों में मूल्यात्मक
प्रो० सागरमल जैन
पनप रही है, उसका कारण शिक्षा की यही गलत दिशा ही है। हम शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को सूचनाओं से भर देते हैं, किन्तु उसके व्यक्तित्व का निर्माण नहीं करते हैं।
वस्तुत: आज शिक्षा का उद्देश्य ही उपेक्षित है। आज शिक्षक और शिक्षार्थी, शासक और समाज कोई भी यह नहीं जानता कि हम क्यों पढ़ रहे हैं और क्यों पढ़ा रहे हैं? यदि वह जानता भी है तो या तो वह उदासीन है या फिर अपने को अकर्मण्यता की स्थिति में पाता है। आज शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र अराजकता है। इस अराजकता या दिशाहीनता की स्थिति के सम्बन्ध में भी जो कुछ चिन्तन हुआ है, उसे शिक्षा को आजीविका से जोड़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं हुआ। वर्तमान में रोजगारोन्मुख शिक्षा न होने से ही आज समाज में अशान्ति है, किन्तु मेरी दृष्टि में वर्तमान सामाजिक संघर्ष और तनाव का कारण व्यक्ति का जीवन के उद्देश्यों या मूल्यों के सम्बन्ध में अज्ञान या गलत दृष्टिकोण ही है। स्वार्थपरक भौतिकवादी जीवन-दृष्टि ही समस्त मानवीय दु:खों का मूल है।
सबसे पहले हमें यह निश्चय करना होगा कि हमारी शिक्षा का प्रयोजन क्या है? यदि यह कहा जाय कि शिक्षा का प्रयोजन रोजी-रोटी कमाने या मात्र उदरपूर्ति के योग्य बना देना है, तो यह
एक भ्रान्त धारणा होगी। क्योंकि रोजी-रोटी की व्यवस्था तो वर्तमान युग ज्ञान-विज्ञान का युग है। मात्र बीसवीं सदी में
अशिक्षित भी कर लेता है। पशु-पक्षी भी तो अपना पेट भरते ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जितना विकास हुआ, उतना विकास
ही हैं। अत: शिक्षा को रोजी-रोटी से जोड़ना गलत है। यह सत्य मानवजाति के अस्तित्व की सहस्त्रों शताब्दियों में नहीं हुआ था,
है कि बिना रोटी के मनुष्य का काम नहीं चल सकता। दैहिक आज ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा एवं शोधकार्य में संलग्न सहस्रों
जीवन मूल्यों में उदरपूर्ति व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता है, विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और शोध-केन्द्र है। यह सत्य है
इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता है किन्तु इसे ही शिक्षा कि आज मनुष्य ने भौतिक जगत के सम्बन्ध में सूक्ष्मतम ज्ञान
का “अथ और इति" नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि यह कार्य प्राप्त कर लिया है। आज उसने परमाणु को विखण्डित कर
शिक्षा के अभाव में भी सम्भव है। यदि उदरपूर्ति/आजीविका
अर्जन ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य हो तो फिर मनुष्य पशु से उसमें निहित अपरिमित शक्ति को पहचान लिया है, किन्तु यह
भिन्न नहीं होगा। कहा भी हैदुर्भाग्य ही है कि शिक्षा एवं शोध के इन विविध उपक्रमों के माध्यम से हम एक सभ्य, सुसंस्कृत एवं शान्तिप्रिय मानव
"आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतद पशुभि: नराणाम्। समाज की रचना नहीं कर सके।
ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो ज्ञानेनहीना नर पशुभिः समाना।" वस्तुतः आज की शिक्षा हमें बाह्य जगत और दूसरों के
पुन: यदि यह कहा जाय कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारी प्रदान कर देती है, किन्तु उन
अधिक सुख-सुविधा पूर्ण जीवन-जीने योग्य बनाना है, तो उसे भी उच्च जीवन मूल्यों के सम्बन्ध में वह मौन ही है, जो एक सुसभ्य हम शिक्षा का उद्देश्य नहीं कह सकते। क्योंकि मनुष्य के दुःख समाज के लिये आवश्यक है। आज शिक्षा के माध्यम से हम
ज शिक्षा के माध्यम से हम और पीड़ाएँ भौतिक या दैहिक स्तर की ही नहीं है, वे मानसिक विद्यार्थियों को सूचनाओं से तो भर देते हैं, किन्तु उन्हें जीवन के
स्तर की भी हैं। सत्य तो यह है कि स्वार्थपरता, भोगाकांक्षा और उद्देश्यों और जीवन मूल्यों के सन्दर्भ में हम कोई जानकारी नहीं तृष्णाजन्य मानसिक पीड़ाएँ ही अधिक कष्टकर हैं, वे ही देते हैं। आज समाज में जो स्वार्थपरताजन्य, संघर्ष और हिंसा मानवजाति में भय एवं संत्रास का कारण है। यदि भौतिक सुख
सुविधाओं का अम्बार लगा देने में ही सुख होता है जो आज ० अष्टदशी / 900
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अमेरिका (U.S.A.) जैसे विकसित देशों का व्यक्ति अधिक हम भूल रहे हैं। वर्तमान सन्दर्भ में फिराक का यह कथन कितना सुखी होता, किन्तु हम देखते हैं वह संत्रास और तनाव से अधिक सटीक है, जब वे कहते हैग्रस्त है। यह सत्य है कि मनुष्य के लिये रोटी आवश्यक है,
सभी कुछ हो रहा है, इस तरक्की के जमाने में, लेकिन वही उसके जीवन की इति नहीं है, ईसामसीह ने ठीक ही
मगर क्या गजब है कि आदमी इनसां नहीं होता। कहा था कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं जी सकता है। हम मनुष्य
आज की शिक्षा चाहे विद्यार्थी को वकील, डाक्टर, को भौतिक सुखों का अम्बार खड़ा करके भी सुखी नहीं बना
इंजीनियर आदि सभी कुछ बना रही है, किन्तु यह निश्चित है सकते। सच्ची शिक्षा वही है जो मनुष्य को मानसिक संत्रास ओर
कि इन्सान नहीं बना पा रही है। जब तक शिक्षा को चरित्र निर्माण तनाव से मुक्त कर सके। उसमें सहिष्णुता,समता, अनासक्ति,
के साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के साथ नहीं जोड़ा जाता कर्तव्यपरायणता के गुणों को विकसित कर, उसकी स्वार्थपरता
है तब तक वह मनुष्य का निर्माण नहीं कर सकेगी। हमारा पर अंकुश लगा सके। जो शिक्षा मनुष्य में मानवीय मूल्यों का
प्राथमिक दायित्व मनुष्य को मनुष्य बनाना है। बालक को विकास न कर सके उसे क्या शिक्षा कहा जा सकता है? यह
मानवता के संस्कार देना है। अमेरिका के प्रबुद्ध विचारक टफ्ट्स हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज शिक्षा का सम्बन्ध "चारित्र' से
शिक्षा के उद्देश्य, पद्धति और स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते नही "रोटी'' से जोड़ा जा रहा है। आज शिक्षा की सार्थकता को
है- “शिक्षा चरित्र निर्माण के लिये, चरित्र द्वारा चरित्र की शिक्षा चरित्र-निर्माण में नहीं, चालाकी (डिप्लोमेसी) में खोजा जा रहा है।
है।'' इस प्रकार उनकी दृष्टि में शिक्षा का अथ और इति दोनों शासन भी इस मिथ्या धारणा से ग्रस्त है। नैतिक शिक्षा या चरित्र
ही बालकों में चरित्र निर्माण एवं सुसंस्कारों का वपन है। भारत की शिक्षा में शासन को धर्म की "बू' आती है, उसे अपनी
की स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण करने धर्मनिरपेक्षता दूषित होती दिखाई देती है, किन्तु क्या धर्म
हेतु सुप्रसिद्ध दार्शनिक डॉ० राधाकृष्णन, सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ० निरपेक्षता का अर्थ धर्महीनता या नीतिहीनता है? मैं समझता हूँ
दौलतसिंह कोठारी और शिक्षा शास्त्री, डा० मुदालियर की धर्म निरपेक्षता का मतलब केवल इतना ही है कि शासन किसी
अध्यक्षताओं में जो विभिन्न आयोग गठित हुये थे उन सबका धर्म विशेष के साथ आबद्ध नहीं रहेगा। आज हुआ यह है कि धर्म
निष्कर्ष यही था कि शिक्षा को मानवीय मूल्यों से जोड़ा जाय। निरपेक्षता के नाम पर इस देश में शिक्षा के क्षेत्र से नीति और
जब तक शिक्षा मानवीय मूल्यों से नहीं जुड़ेगी, उसमें चारित्र की शिक्षा को भी बहिष्कृत कर दिया गया है। चाहे हम
चरित्रनिर्माण और सुसंस्कारों के वपन का प्रयास नहीं होगा, तब अपने मोनोग्रामों में "सा विद्या या विमुक्तये' की सूक्तियाँ
तक विद्यालयों एवं महाविद्यालयों रूपी शिक्षा के इन कारखानों उद्धृत करते हों। किन्तु हमारी शिक्षा का उससे दूर का भी कोई
से साक्षर नहीं राक्षस ही पैदा होंगे। रिश्ता नहीं रह गया है। आज की शिक्षा योजना में आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों की शिक्षा का कोई स्थान नहीं है, जबकि उच्च
भारतीय चिन्तन प्राचीनकाल से ही इस सम्बन्ध में सजग शिक्षा एवं माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में अभी तक बिठाये गये
रहा है। औपनिषदिक युग में ही शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते तीनों आयोगों ने अपनी अनुशंसाओं में आध्यात्मिक एवं नैतिक
हुए कहा गया था- सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् विद्या वही मूल्यों की शिक्षा की महती आवश्यकता प्रतिपादित की है। आज
जो विमुक्ति प्रदान करे। प्रश्न हो सकता है कि यहाँ विमुक्ति से का शिक्षक शिक्षार्थी दोनों ही अर्थ के दास हैं। एक ओर शिक्षक
हमारा क्या तात्पर्य है? विमुक्ति का तात्पर्य मानवीय संत्रास और इसलिये नहीं पढ़ाता है कि उसे विद्यार्थी के चरित्र निर्माण या
तनावों से मुक्ति है, अपनत्व और ममत्व के शुद्ध घेरों से विकास में कोई रुचि है, उसकी दृष्टि केवल वेतन दिवस पर ।
विमुक्ति है। मुक्ति का तात्पर्य है- अहंकार, आसक्ति, राग-द्वेष टिकी है, वह पढ़ने के लिये नहीं पढ़ाता, अपितु पैसे के लिए
और तृष्णा से मुक्ति। यही बात जैन आगम इसिभासियाई पढ़ाता है। दूसरी ओर शासन, सेठ और विद्यार्थी उसे गुरु नहीं (ऋषभासत) में कहा गई है"नौकर'' समझते हैं। जब गुरु नौकर है तो फिर संस्कार एवं इमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण उत्तमा। चरित्र निर्माण की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। आज तो गुरु शिष्य जं विज्जं साइहत्ताणं सव्वदुक्खाण मुच्चती।। के बीच भाव-मोल होता है, सौदा होता है। चाहे हमारे प्राचीन ग्रन्थों जेण बन्धं न मोक्खं च, जीवाणं गतिरागति। में "विद्यायाऽमृतमश्नुते' की बात कही गई है हो, किन्तु आज आयाभावं च जाणाति, सा विज्जया दुक्खमोयणी।। तो विद्या अर्थकरी हो गयी है। शिक्षा के मूल-भूत उद्देश्यों को ही
-इसिभासियाई, १७/१-२
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वही विद्या महाविद्या है और वही विद्या समस्त विद्याओं में विभिन्न दृष्टियों से विवेचना की गयी है। यदि उस समग्र विवेचना उत्तम है, जिसकी साधना करने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती को एक ही वाक्य में कहना हो तो जैन आचार्यो की दृष्टि में है। विद्या दुःख मोचनी है। जैन आचार्यों ने उसी विद्या को उत्तम शिक्षा का प्रयोजन चित्तवृत्तियों एवं आचार की विशुद्धि है। माना है जिसके द्वारा दुःखों से मुक्ति हो और आत्मा के शुद्ध चित्तवृत्तियों का दर्शन ज्ञान-यात्रा का प्रारम्भ है। आचारांग में मैं स्वरूप का साक्षात्कार हो।
कौन हूँ? इसे ही साधना-यात्रा का प्रारम्भ बिन्दु कहा गया है। अब प्रश्न यह उपस्थित है कि दु:ख क्या है और किस आचारांग ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में आत्म-जिज्ञासा से दु:ख से मुक्त होना है? यह सत्य है कि दुःख से हमारा तात्पर्य
ही ज्ञान-साधना का प्रारम्भ माना गया है, उपनिषद का ऋषि दैहिक दुःखों से भी होता है, किन्तु ये दैहिक दुःख प्रथम तो कभी कहता है “आत्मानं विद्धि', आत्मा को जानो। बुद्ध ने भी पर्णतया समाप्त नहीं होते क्योंकि उनका केन्ट हमारी चेतना “अत्तानं" कहकर इसी तथ्य की पुष्टि की। ज्ञातव्य है कि यहाँ न होकर हमारा शरीर होता है। जैन परम्परा के अनुसार तीर्थंकर
आत्मज्ञान का तात्पर्य अमूर्त आत्म तत्व की खोज नहीं, अपितु अपनी वीतराग दशा में भी दैहिक दु:खों से पर्णत: मक्त नहीं हो अपने ही चित्त की विकृतियों और वासनाओं का दर्शन है। सकता। जब तक देह है क्षुधा, पिपासा आदि दु:ख तो रहेंगे ही। चित्तवृत्ति और आचार की विशुद्धि की प्रक्रिया तब ही प्रारम्भ हो अत: जिस दुःख से विमुक्ति प्राप्त करनी है, वे दैहिक नहीं
सकती है, जब हम अपने विकारों और वासनाओं को देखें, मानसिक है। व्यक्ति की रागात्मकता, आसक्ति या तृष्णा ही एक
क्योंकि जब तक चित्त में विकारों, वासनाओं और उनके कारणों ऐसा तत्व है, जिसकी उपस्थिति में मनुष्य दुःखों से मुक्ति प्राप्त
के प्रति सजगता नहीं आती तब तक चरित्र शुद्धि की प्रक्रिया नहीं कर पाता है। इससे स्पष्ट होता है कि जैन आचार्यों की दृष्टि प्रारम्भ ही नहीं हो सकती। आचारांग में ही कहा गया है कि जो में शिक्षा का प्रयोजन मात्र रोजी-रोटी प्राप्त कर लेना नहीं रहा मन का ज्ञाता होता है, वही निर्ग्रन्थ (विकार-मुक्त) है।"५ है। जो शिक्षा व्यक्ति में आध्यात्मिक आनन्द या आत्मतोष नहीं जैन आचार्यों की दृष्टि में उस शिक्षा या ज्ञान का कोई अर्थ दे सकती, वह शिक्षा व्यर्थ है। आत्मतोष ही शिक्षा का सम्यक् नहीं है जो चारित्र शुद्धि या आचार शुद्धि की दिशा में गतिशील प्रयोजन है। शिक्षा-पद्धति स्पष्ट करते हुए “इसिभासियाई" में न करता हो, इसीलिए सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से कहा गया है कहा गयाहै कि जिस प्रकार एक योग्य चिकित्सक सर्वप्रथम रोग कि "विज्जाचरणं पमोक्ख'६ अर्थात् विद्या और आचरण से ही को जानता है फिर उस रोग के कारणों का निश्चय करता है, विमुक्ति की प्राप्ति होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में शिक्षा के प्रयोजन फिर रोग की औषधि का निर्णय करता है और फिर उस औषधि को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि श्रुत की आराधना से जीव द्वारा रोग की चिकित्सा करता है। उसी प्रकार हमें सर्वप्रथम अज्ञान का क्षय करता है और संक्लेश को प्राप्त नहीं होता। मनुष्यों के दु:ख के स्वरूप को समझना होता है, तत्पश्चात् दुःख इसे और स्ष्ट करते हुए इसी ग्रन्थ में पुन: कहा गया है कि जिस के कारणों का विश्लेषण करके फिर उन कारणों के निराकरण प्रकार धागे से युक्त सुई गिर जाने पर भी विनष्ट नहीं होती है का उपाय खोजना होता है और अन्त में इन उपायों द्वारा उन अर्थात् खोजी जा सकती है, उसी प्रकार श्रुत सम्पन्न जीव संसार कारणों का निराकरण किया जाता है। यही बातें जैन धर्म में में विनष्ट नहीं होता। इसी ग्रन्थ में अन्यत्र यह भी कहा गया है शिक्षा के प्रयोजन एवं पद्धति को स्पष्ट करती है। सम्यक् शिक्षा कि ज्ञान, अज्ञान और मोह का विनाश करके सर्व विषयों को वही है जो मानवीय दु:खों के स्वरूप को समझे, उनके कारणों प्रकाशित करता है। यह स्पष्ट है कि ज्ञान-साधना का प्रयोजन का विश्लेषण करे फिर उनके निराकरण के उपाय खोजे और अज्ञान के साथ-साथ मोह को भी समाप्त करना है। जैन आचार्यों उन उपायों का प्रयोग करके दुःखों से मुक्त हो। वस्तुत: आज की दृष्टि में अज्ञान और मोह में अन्तर है। मोह अनात्म विषयों की हमारी जो शिक्षा नीति है, उसमें हम इस पद्धति को नहीं के प्रति आत्म बुद्धि है, वह राग या आसक्ति का उद्भावक है अपनाते। शिक्षा से हमारा तात्पर्य मात्र बालक के मस्तिष्क को उसी से क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का जन्म सूचनाओं से भर देना है। जब तक उसके सामने जीवन-मूल्यों होता है। अत: उत्तराध्ययन के अनुसार जो व्यक्ति की क्रोध, को स्पष्ट नहीं करते, तब तक हम शिक्षा के प्रयोजन को न तो मान, माया आदि की दूषित चित्त वृत्तियों पर अंकुश लगाये, वही सम्यक् प्रकार से समझ ही पाते हैं न मनुष्य के दु:खों का सच्ची शिक्षा है।१० केवल वस्तुओं के सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त निराकरण ही कर पाते है। जैन आगमों में ऋषिभाषित एवं कर लेना शिक्षा का प्रयोजन नहीं है। उसका प्रयोजन तो व्यक्ति आचारांग से लेकर प्रकीर्णकों तक में शिक्षा के उद्देश्य की को वासनाओं और विकारों से मुक्त कराना है। शिक्षा व्यक्तित्व
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या चरित्र का उदात्तीकरण है। जब तक शिक्षा को केवल जानकारियों तक सीमित रखा जायेगा तब तक वह व्यक्तित्व की निर्माता नहीं बन सकेगी। दशवैकालिक सूत्र में शिक्षा के चार उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि
१. मुझे श्रुत ज्ञान ( आगम ज्ञान ) प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिये ।
२. मैं एकाग्रचित होऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिये। ३. मैं अपने आप को धर्म में स्थापित करूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिये।
४. मैं स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थित करूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिये । ११
आचरण का हेतु है, मात्र वह ज्ञान जो व्यक्ति की आचार शुद्धि का कारण नहीं होता, निरर्थक ही माना गया है। जिस प्रकार शस्त्र से रहित योद्धा और योद्धा से रहित शस्त्र निरर्थक होता है, उसी प्रकार से रहित आचरण और आचरण से रहित ज्ञान निरर्थक होता है।
इस प्रकार दशवैकालिक के अनुसार अध्ययन का प्रयोजन ज्ञान प्राप्ति के साथ-साथ चित्त की एकाग्रता तथा धर्म (सदाचार ) में स्वयं स्थित होना तथा दूसरों को स्थित करना माना गया है। जैन आचार्यों की दृष्टि में जो शिक्षा चरित्र शुद्धि में सहायक नहीं होती, उसका कोई अर्थ नहीं है। चंद्रवेध्यक नामक प्रकीर्णक में ज्ञान और सदाचार में तादाम्य स्थापित करते हुए कहा गया है। कि जो विनय है, वही ज्ञान है और जो ज्ञान है उसे ही विनय कहा जाता है। १२ श्रुतज्ञान में कुशल हेतु और कारण का जानकार व्यक्ति भी यदि अविनीत और अहंकारी है तो वह ज्ञानियों द्वारा प्रशंसनीय नहीं है। १३ जो अल्पश्रुत होकर भी विनीत है वही कर्म का क्षय कर मुक्ति प्राप्त करता है, जो बहुश्रुत होकर भी अविनीत, अल्पश्रद्धा और संवेग युक्त है वह चरित्र की आराधना नहीं कर पाता है। १४ जिस प्रकार अंधे व्यक्ति के लिये करोड़ों दीपक भी निरर्थक हैं उसी प्रकार अविनीत (असदाचारी) व्यक्ति के बहुत अधिक शास्त्रज्ञान का भी क्या प्रयोजन ? जो व्यक्ति जिनेन्द्र द्वारा उपदृष्ट अति विस्तृत ज्ञान को जानने में चाहे समर्थ नही हो, फिर भी जो सदाचार से सम्पन्न है वस्तुतः वह धन्य है और वही जानी है। जैन आचार्य यह मानते हैं कि ज्ञान
जैनागम उत्तराध्ययनसूत्र में शिक्षा प्राप्ति में बाधक निम्न पाँच कारणों का उल्लेख हुआ है (१) अभिमान (२) क्रोध (३) प्रमाद (४) आलस्य और (५) रोग। इसके विपरीत उसमें उन आठ कारणों का भी उल्लेख हुआ है जिन्हें हम शिक्षा प्राप्त
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करने का साधक तत्व कह सकते हैं - ( १ ) जो अधिक हँसीमजाक नहीं करता हो (२) जो अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण रखता हो, (३) जो किसी की गुप्त बात को प्रकट नहीं करता हो (४) जो अशील अर्थात् आधारहीन न हो (५) जो दूषित आचार वाला न हो (६) जो रस लोलुप न हो (७) जो क्रोध न करता हो और (८) जो सत्य में अनुरक्त हो । १७ इससे यही फलित होता है कि जैनधर्म में शिक्षा का सम्बन्ध चारित्रिक मूल्यों से रहा है।
वस्तुतः जैन आचार्यों को ज्ञान और आचरण का द्वैत मान्य नहीं है वे कहते हैं- जो ज्ञान है, वही आचरण है, जो आचरण है, वही आगम-ज्ञान का सार है । १८ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में उस शिक्षा को निरर्थक ही माना गया है जो व्यक्ति का चारित्रिक विकास या व्यक्तित्व विकास करने में समर्थ नहीं है। जो शिक्षा मनुष्य को पाशविक वासनाओं से ऊपर नहीं उठा सके, वह वास्तविक शिक्षा नहीं है।
जैन आचार्य शिक्षा का अर्थ व्यक्ति को जीवन और जगत के सम्बन्ध में जानकारियों से भर देना नहीं मानते हैं, अपितु वे इसका उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास या सद्गुणों का विकास मानते हैं, किन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि वे शिक्षा को आजीविका या कलात्मक कुशलता से अलग कर देते हैं। रायपसेनीयसुत में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है - १. कलाचार्य २. शिल्पाचार्य एवं ३. धर्माचार्य । १९ उसमें इन तीनों आचार्यों के प्रति शिष्य के कर्तव्यों का भी निर्देश है इससे यह फलित है कि जैन चिन्तकों की दृष्टि में शिक्षा व्यवस्था तीन प्रकार की थी। कलाचार्य का कार्य जीवनोपयोगी कलाओं अर्थात् ज्ञान-विज्ञान और ललित कलाओं की शिक्षा देना था। भाषा, लिपि, गणित के साथ-साथ खगोल, भूगोल, ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीत, नृत्य आदि की भी शिक्षा कलाचार्य देते थे। वस्तुतः आज हमारे विश्वविद्यालयों में कला, सामाजिक विज्ञान एवं विज्ञान संकाय जो कार्य करते हैं, उन्हीं से मिलता-जुलता कार्य कलाचार्य का था। जैनागमों में पुरुष की ६४ एवं स्त्री की ७२ कलाओं का निर्देश उपलब्ध है । २° इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि शिक्षा जीवन के सभी पहलुओं का स्पर्श करती है।
कलाचार्य के बाद दूसरा स्थान शिल्पाचार्य का था । शिल्पाचार्य वस्तुतः वह व्यक्ति होता था जो आजीविका अर्जन से सम्बन्धित विविध प्रकार के शिल्पों की शिक्षा देता था । आज जिस प्रकार विभिन्न औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थायें प्रशिक्षण प्रदान करती हैं, उस काल में यही कार्य शिल्पाचार्य करते । इनके ऊपर धर्माचार्य का स्थान था इनका दायित्व वस्तुतः व्यक्ति के
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चारित्रिक गुणों का विकास करना था। वे शील और सदाचार की जहाँ तक आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा का प्रश्न था यह शिक्षा देते थे। इस प्रकार प्राचीन काल में शिक्षा को तीन भागों धर्माचार्य के सान्निध्य में उपदेशों के श्रवण के माध्यम से प्राप्त में विभक्त किया गया था और इन तीनों विभागों का दायित्व की जाती थी। इसके लिए व्यक्ति को कुछ व्यय नहीं करना होता तत्-तत् विषयों के आचार्य निर्वाह करते थे।
है। सामान्यतया श्रमण परम्परा में धर्माचार्य भिक्षाचर्या से ही जैन परम्परा में कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य के अपनी उदरपूति करते थे और उनके कोई स्थायी आश्रम आदि जो निर्देश उपलब्ध होते हैं उनसे ऐसा लगता है कि भारतीय भी नहीं होते थे, अत: वे व्यक्ति और समाज पर भार स्वरूप चिन्तन में जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थों की शिक्षा नहीं होते थे। इसके विपरीत वैदिक परम्परा में धर्माचार्य की व्यवस्था अलग-अलग तीन आचार्यों के लिए नियत की गई सपरिवार अपने आश्रमों में रहते थे तथा धर्माचार्य और कलाचार्य थी। शिल्पाचार्य का कार्य अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा देना था, तो ।
का कार्य एक ही व्यक्ति करता था कुछ कलाचार्य सम्पन्न कलाचार्य का काम भाषा, लिपि और गणित की शिक्षा के साथ
व्यक्तियों या राजाओं या सामन्तों के घर जाकर भी शिक्षा प्रदान साथ काम पुरुषार्थ की शिक्षा देना था। धर्माचार्य का कार्य मात्र
करते थे फिर भी सामान्यतया, वे शिक्षा अपने आश्रमों में ही धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ से ही सम्बन्धित था इस प्रकार विविध
प्रदान करते थे। आश्रम पद्धति की विशेषता यह थी कि विद्यार्थी जीवन मूल्यों की शिक्षा के लिए विविध आचार्यों की व्यवस्था
और शिक्षक अपनी आजीविका या तो अपने श्रम से उपार्जित थी, चूँकि जैनधर्म में मूलत: एक निवृत्ति मूलक की शिक्षा के
करते अथवा भिक्षाचर्या के माध्यम से उसकी पूर्ति करते। लिए विविध आचार्यों की व्यवस्था थी। चूँकि जैनधर्म मूलत: एक
इसलिए उस युग में शिक्षा न तो व्यक्ति पर भार स्वरूप थी ओर निवृत्ति मूलक और संन्यासपरक धर्म था इसलिए धर्माचार्य का न राज्य पर । समृद्ध व्यक्ति अथवा राजा समय-समय पर दारादि कार्य धर्म और मोक्ष की पुरुषार्थ की शिक्षा देने तक ही सीमित देकर शिक्षकों को सम्मानित अवश्य करते थे। विद्यार्थी भी रखा गया था। इस प्रकार जीवन के विविध मूल्यों के आधार पर अपनी शिक्षापूर्ण करने के पश्चात् जब स्वयं आजीविका अर्जन शिक्षा की व्यवस्था भी अलग-अलग थी। आज हम सम्पूर्ण
आज म करने लगता, तो वह भी गुरु दक्षिणा देकर अपने गुरु को जीवन मूल्यों के लिए जो एक ही प्रकार की शिक्षा व्यवस्था की
सम्मानित करता था। फिर भी यह समग्र व्यवस्था मूलत:
सम्मानित करता था। फि बात करते हैं. वह मल में भ्रांति है. जहाँ शिल्पाचार्य और ऐच्छिक थी। शिल्पाचार्य आजीविका अर्जन से सम्बन्धित कलाचार्य वत्तिमलक शिक्षा प्रदान करते थे वहाँ धर्माचार्य निवनि विभिन्न शिल्पों की शिक्षा देते थे। विद्यार्थी शिल्पाचार्य के मूलक शिक्षा प्रदान करते थे। पुन: यह भी आवश्यक है कि जो सान्निध्य में रहकर ही शिल्प सीखते थे। इसमें शिक्षण और आचार्य जिस प्रकार की जीवन शैली जीता है, वह वैसी ही शिक्षा आजीविका अर्जन की प्रक्रिया साथ-साथ ही चलती थी। प्रदान कर सकता है। अतः धर्माचार्य से अर्थ और काम की
सामान्यतया शिक्षा पिता-पुत्र की परम्परा से चलती थी। किन्तु शिक्षा और शिल्पाचार्य एवं कलाचार्य से धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ कभी-कभी व्यक्ति दूसरों के सान्निध्य में भी ऐसी शिक्षा प्राप्त की शिक्षा की अपेक्षा करना उचित नहीं है। वर्तमान सन्दर्भ में करता था। "रायपसेनीय" में स्पष्ट रूप में यह उल्लिखित है यह आवश्यक है कि हम शिक्षा के विविध क्षेत्रों का दायित्व कि किस प्रकार के शिक्षक को किस प्रकार से सम्मानित करना विविध आचार्यों को सौंपे और इस बात का विशेष ध्यान रखें चाहिये। शिल्पाचार्य और कलाचार्य के सम्मान की पद्धति कि जो व्यक्ति जिस प्रकार की शिक्षा देने के योग्य हो, वही
धर्माचार्य के सम्मान की पद्धति से भिन्न थी। कलाचार्य और उसका दायित्व सम्भालें। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक
शिल्पाचार्य की शिष्यगण तेलमालिश, स्नान आदि के द्वारा न शिक्षा के क्षेत्र में मानव के सर्वांगीण विकास की कल्पना सार्थक केवल शारीरिक सेवा करते थे, अपितु उन्हें वस्त्र, आभूषण आदि नहीं होगी। "रायपसेनीयसुत्त' में कलाचार्य, शिल्पाचार्य और से अलंकृत कर सरस भोजन करवाते थे तथा उनकी आजीविका धर्माचार्य की व्यवस्था दी गयी है इससे यह स्पष्ट होता है कि एवं उनके पुत्रादि के भरण-पोषण की योग्य व्यवस्था भी करते शिक्षा के ये तीनों क्षेत्र मानव जीवन के तीन मल्यों से सम्बन्धित थे। दूसरी ओर धर्माचार्य को वन्दन नमस्कार करना. उसके थे तथा एक-दूसरे से पृथक थे और सामान्य व्यक्ति तीनों ही उपदेशों को श्रद्धापूर्वक सुनना, भिक्षार्थ आने पर आहारादि से प्रकार की शिक्षायें प्राप्त करता था, फिर भी प्राचीनकाल में यह
उसका सम्मान करना- यही शिक्षार्थी का कर्तव्य माना गया शिक्षा पद्धति व्यक्ति के लिये भार स्वरूप नहीं थी।
था।२२ ज्ञातव्य है कि जहाँ शिल्पाचार्य और कलाचार्य अपने शिष्यों से भमि, मुद्रा आदि के दान की अपेक्षा करते थे, वहाँ
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धर्माचार्य अपरिग्रही होने के कारण अपने प्रति श्रद्धाभाव को छोड़कर अन्य कोई अपेक्षा नहीं रखते थे यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि शिल्पाचार्य और कलाचार्य सामान्यतया गृहस्थ होते थे और इसलिए उन्हें अपने पारिवारिक दायित्वों को सम्पन्न करने के लिए शिष्यों से मुद्रा आदि की अपेक्षा होती, किन्तु धर्माचार्य की स्थिति इससे भिन्न थी, वे सामान्य रूप से सन्यासी और अपरिग्रही होते थे, अतः उनकी कोई अपेक्षा नहीं होती थी। वस्तुतः नैतिकता और सदाचार की शिक्षा देने का अधिकारी वही व्यक्ति हो सकता था जो स्वयं अपने जीवन में नैतिकता का आचरण करता हो और यही कारण था कि उसके उपदेशों एवं आदेशों का प्रभाव होता था। आज हम नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा देने का प्रथम तो कोई प्रयत्न ही नहीं करते दूसरे उसकी अपेक्षा हम उन शिक्षकों से करते हैं जो स्वयं उस प्रकार का जीवन नहीं जी रहे होते हैं, फलतः उनकी शिक्षा को कोई प्रभाव भी नहीं होता। यही कारण है कि आज विद्यार्थियों में चरित्र-निष्ठा का अभाव पाया जाता है क्योंकि यदि शिक्षक स्वयं चरित्रवान नहीं होगा तो वह अपने विद्यार्थियों को वैसी शिक्षा नहीं दे पायेगा, कम से कम धर्माचार्य के सन्दर्भ में तो यह बात आवश्यक है । जब तब उसके जीवन में चारित्रिक और नैतिक मूल्य साकार नहीं होंगे, वह अपने शिष्यों पर उनका प्रभाव डालने में समर्थ नहीं होगा। चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक कहता है कि सम्यक् शिक्षा के प्रदाता आचार्य निश्चय ही सुलभ नहीं होते। २३
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जैन आगमों में इस प्रश्न पर भी गम्भीरता से विचार किया गया है कि शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी कौन है ? चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में उन व्यक्तियों को शिक्षा के अयोग्य माना गया है, जो अविनीत हों, जो आचार्य का और विद्या का तिरस्कार करते हों, मिथ्या दृष्टिकोण से युक्त हों तथा मात्र सांसारिक भोगों के लिए विद्या प्राप्त करने की आकांक्षा रखते हौं २४ इसी प्रकार योग्य आचार्य कौन हो सकता है इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि जो देश और काल का ज्ञाता, अक्षर को समझने वाला अभ्रान्त, धैर्यवान अनुवर्तक और अमायावी होता है, साथ ही लौकिक, आध्यात्मिक और वैदिक शास्त्रों का ज्ञाता होता है, वही शिक्षा देने का अधिकारी है। इस ग्रन्थ में आचार्य की उपमा दीपक से दी गयी है। दीपक के समान आचार्य स्वयं भी प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं । २६
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आचार्य के गुणों की संख्या ३६ स्वीकार की गयी हैं किन्तु ये ३६ गुण कौन-कौन है इस सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थकारों के विभिन्न
दृष्टिकोण हैं । भगवती आराधना में आचारत्व आदि ८ गुणों के साथ-साथ १० स्थित कल्प १२ तप और ६ आवश्यक, ऐसे ३६ गुण माने गये हैं। २७ इसी के टीकाकार अपराजितसूरि ने ८ ज्ञानाचार, ८ दर्शनाचार, १२ तप, ५ समिति और ३ गुप्ति ये ३६ गुणों माने हैं । २८ श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांग में आचार्य को आठ प्रकार की निम्न गणि सम्पदाओं से युक्त बतलाया गया है- १. आचार सम्पदा, २ श्रुत सम्पदा, ३. शरीर सम्पदा, ४ . वचन सम्पदा, ५. वाचना सम्पदा, ६ मति सम्पदा, ७. प्रयोग सम्पदा (वादकौशल) और ८. संग्रह परिज्ञा (संघ व्यवस्था में निपुणता ) । १९ प्रवचनसारोद्वार में आचार्य के ३६ गुणों का तीन प्रकार से विवेचन किया गया है। सर्वप्रथम उपरोक्त ८ गणि सम्पदा के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से ३२ भेद होते हैं, इनमें आचार्य, श्रुत, विक्षेपणा और निर्घटनये विनय में चार भेद सम्मिलित करने पर कुल २४ भेद होते हैं, इनमें १२ प्रकार का तप मिलाने पर ३६ भेद होते हैं, प्रकारान्तर से ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चारित्राचार के आठ-आठ भेद करने पर २४ भेद होते हैं। उनमें १२ प्रकार का तप मिलाने पर ३६ भेद होते हैं। कहीं-कहीं आठ गण सम्पदा, १० स्थितिकल्प, १२ तप ओर ६ आवश्यक मिलाकर आचार्य में ३६ गुण माने गये हैं, प्रवचनसारोद्धार के टीकाकार ने आचार्य के निम्न ३६ गुणों का भी उल्लेख किया है- १ देशयुत, २. कुलयुत ३. जातियुत, ४ रूपयुत, ५. संहननयुत, ६. घृतियुत, ७. अनाशंसी, ८. अविकत्थन, ९ अयाची १०. स्थिर परिपाटी ११. गृहीतवाक्य, १२ जितपर्यंतु, १३ जितनिद्रा, १४. मध्यस्थ, १५. देशज्ञ, १६. कालज्ञ, १७. भावज्ञ, १८. आसन्नलब्धप्रतिम १९. नानाविध देश भाषज्ञ, २० ज्ञानाचार, २१. दर्शनाचार, २२ चारित्राचार, २३. तपाचार, २४. वीर्याचार, २५. सूत्रपात, २६. आहरलनिपुण, २७ हेतुनिपुण, २८. उपनयनिपुण, २९ नयनिपुण, ३० ग्राहणाकुशल, ३१. स्वसमयज्ञ, ३२ परसमयज्ञ, ३३. गम्भीर, ३४. दीप्तिमान, ३५. कल्याण करने वाला और ३६ सौम्य । ३०
इन गुणों की चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आगमों में आचार्य कैसा होना चाहिये इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया था और मात्र चरित्रवान एवं उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठावान व्यक्ति को ही आचार्यत्व के योग्य माना गया था ।
इससे यह फलित भी होता है कि जो साधक अहिंसादि महाव्रतों का स्वयं पालन करता है तथा आजीविका अर्जन हेतु मात्र भिक्षा पर निर्भर रहता है जो स्वार्थ से परे हैं, वही व्यक्ति आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का शिक्षक होने का अधिकारी है।
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________________ 2. इसिमा विद्यार्थी कैसा होना चाहिये, इसकी चर्चा करते हुए सन्दर्भ : उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि जो भिक्षाजीवी, विनीत, 1. बाइबिल, उद्धत नये संकेत, आचार्यरजनीश, पृ. 57 सज्जन व्यक्तियों के गुणों को जानने वाला, आचार्य के मनोभावों इसिभासियाई, 17/1 के अनुरूप आचरण करने वाला, सर्दी-गर्मी भूख-प्यास आदि आचारांग. 1/1/1 को सहन करने वाला, लाभ-अलाभ में विचलित नहीं होने वाला, कठोपनिषद, 3/3 सेवा तथा स्वाध्याय हेतु तत्पर, अहंकार रहित और आचार्य के 5. आचारांग, 2/3/15/1 कठोर वचनों को सहन करने में समर्थ शिष्य ही शिक्षा का सूत्रकृतांग, 1/12/11 अधिकारी है।३१ ग्रन्थकार यह भी कहता है कि शास्त्रों में शिष्य उत्तराध्ययन, 32/2 की जो परीक्षा विधि कही गयी है उसके माध्यम से शिष्य की वही, 29/60 परीक्षा करके ही उसे मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त करना चाहिये।३२ / / 9. वही, 32/2 उत्तराध्ययन सूत्र में शिष्य के आचार-व्यवहार के सन्दर्भ में 10. वही, 32/102-106 निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो शिष्य गुरु के सान्निध्य में 11. दशवैकालिक, 9/4 रहता है, गुरु के संकेत व मनोभावों को समझता है, वही विनीत 12. चन्द्रवेध्यक, 62 कहलाता है, इसके विपरीत आचरणवाला अविनीत। योग्य शिष्य 13. वही, 56 सदैव गुरु के निकट रहे, उनसे अर्थ पूर्ण बात सीखे और निरर्थक 14. वही, 64 बातों को छोड़ दे, गुरु द्वारा अनुशासित होने पर क्रोध न करे, 15. वही, 68 शूद्र व्यक्तियों के संसर्ग से दूर रहे, यदि कोई गलती हो गयी 16. उत्तराध्ययनसूत्र, 11/3 हो तो उसे छिपाये नहीं अपितु यथार्थ रूप में प्रकट कर दे। बिना 17. वही, 11/4-5 पूछे गुरु की बातों मे बीच में न बोले, अध्ययन काल में सदैव 18. चन्द्रवेध्यक, 77 अध्ययन करे। आचार्य के समक्ष बराबरी से न बैठे, उनके आगे, 19. रायपसेनीयसुत्त (घासीलालजी म.) सूत्र 956, पृ. ३३८न पीछे सटकर बैठे। गुरु के समीप उनसे अपने शरीर को सटाकर भी नहीं बैठे, बैठे-बैठे ही न तो कुछ पूछे और न उत्तर 20. समवायांग-समवाय 72 (देखें-टीका) दे। गुरु के समीप उकडू आसन से बैठकर हाथ जोड़कर जो 21. रायसेनीयसुत्त (घासीलालजी म.) सूत्र 956, पृ. ३३८पूछना हो उसे विनयपूर्वक पूछे / 33 341 ये सभी तथ्य यह सूचित करते हैं कि जैन शिक्षा व्यवस्था 22. वही, पृ. 338-341 में शिष्य के लिए अनुशासित जीवन जीना आवश्यक था। यह 23. चन्द्रवेध्यक, 20 कठोर अनुशासन वस्तुत: बाहर से थोपा हुआ नहीं था, अपितु 24. वही, 51-53 मूल्यात्मक शिक्षा के माध्यम से इसका विकास अन्दर से ही होता 25. वही, 25, 26 था। क्योंकि जैन शिक्षा व्यवस्था में सामान्यतया शिष्य में ताड़न 26. वही, 30 वर्जन की कोई व्यवस्था नहीं थी। आचार्य और शिष्य दोनों के / 27. भगवतीआराधना, 528 लिए ही आगम में उल्लेख अनुशासन का पालन करना 28. वही, टीका आवश्यक था। जैन शिक्षा विधि में अनुशासन आत्मानुशासन 29. स्थानांग-स्थान, 8/15 था। व्यक्ति को दूसरे को अनुशासित करने का अधिकार तभी 30. प्रवचन सारोद्धार, द्वार 64 माना गया था, जब वह स्वयं अनुशासित जीवन जीता हो। 31. देखें - उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय 1 एवं 11 आचार्य तुलसी ने निज पर शासन फिर अनुशासन का जो सूत्र 32. चन्द्रवेध्यक, 53 दिया है वह वस्तुत: जैन शिक्षा विधि का सार है। शिक्षा के साथ 33. उत्तराध्ययनसूत्र, 1/2-22 जब तक जीवन में स्वस्फूर्त अनुशासन नहीं आयेगा, तब तक वह सार्थक नहीं होगी। 341 0 अष्टदशी/960