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| इन्द्रिय-विज्ञान की भूमिका
श्रमण संघीय प्रवर्तक श्री रमेशमुनिजी महाराज
भारतीय दर्शनिकों ने मन-योग को काफी चर्चा का विषय बनाया
और विद्युत सदृश बल-प्राण हैं । दोनों है। भिन्न-भिन्न उपमाओं से मन को उपमित किया। इस सम्बन्ध में
के सहयोग से ही क्रियाओं की निष्पत्ति भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ प्रस्तुत हुईं। अलग-अलग विद्वानों-लेखकों
किंवा पूर्णता होती चली जाती है। द्वारा विभिन्न मंतव्य उल्लिखित हुए मन के संबंध में।
जैन दर्शन का मनोवैज्ञानिक माना कि मन का महत्व अपने स्थान पर है। मन का वेग, मन
तर्क यथार्थ धरातल पर एक नये की प्रवृत्ति और मन का कार्यक्षेत्र काफी विस्तृत रहा है। उसी प्रकार
आयाम को उद्घाटित करता है। इन्द्रियों का प्रभाव भी कम नहीं समझना चाहिये । इंद्रियों की प्रवृत्ति
उसका यह उद्घोष है कि मन: पर्याप्ति और इन्द्रियों का कार्यक्षेत्र भी मन के कार्य क्षेत्र की अपेक्षा काफी
के पूर्व ही इस पार्थिव शरीर के साथ विस्तृत लोकाकाश की परिधि में जीवाणु जगत् के क्षितिज पर्यंत
स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, चक्षु-इन्द्रिय
जी रमेशमुनि महाराज और कर्णेन्द्रिय इस प्रकार पांचों परिव्याप्त है। समनस्क और अमनस्क जीव-जगत को स्पर्शित किया
इंन्द्रियों के उद्भव का एक व्यवस्थित क्रम अनादि काल से चालू रहा हुआ है। मानसिक शक्ति के अभाव में सूक्ष्म किंवा स्थूल शरीर और
है। इस क्रम बद्ध व्यवस्था प्रणाली को आज का विज्ञान भी मान्य शरीर के अवयवों का काम रुका नहीं, अपितु शरीर की प्रवृत्ति सतत
करता है। उक्त क्रमानुसार ही इन्द्रियों का सम्बन्ध शरीर के साथ और चालू रही है।
शरीर का सम्बन्ध इन्द्रियों के साथ चिरकाल से जुड़ता रहा और परंतु ज्ञातव्य है कि- ऐन्द्रिय (इन्द्रिय-सम्बन्धी) शक्ति के अभाव बिछुड़ता रहा है । एकेन्द्रिय (पृथ्वी-अप-तेउ-वाय-वनस्पति अर्थात ५२ में भौतिक शरीर की स्थिति अति शोचनीय बन जाती है । इन्द्रिय-बल लाख जीव योनिक) सत्वों के साथ केवल स्पर्शेन्द्रिय का, द्वीन्द्रिय प्राण क्या है? मेरी दृष्टि में विद्युत तरंगों का एक समूह है। एक तरह (छोटे-छोटे कीटाणु अर्थात् दो लाख जीवयोनिक) प्राणियों के साथ से नेगेटिव और पोजेटिव के मिश्रण का रूप है। जब विद्युत तरगें स्पर्श और रसनेन्द्रिय का त्रीन्द्रिय (कीड़े-मकोड़े-जू-लीक-खटमल केन्द्र के साथ जुड़ जाती हैं। तभी प्रकाश का वातावरण निर्मित होता इत्यादि (दो लाख जीव योनिक) प्राणियों के साथ स्पर्श-रसना एवं है। दोनों शक्तियाँ जहाँ तक अलग-थलग कार्यरत रहती है, वहाँ तक घ्राणेन्द्रिय का, चतुरिन्द्रिय (मक्खी, मच्छर, बिच्छ, पतंगें इत्यादि - दो केन्द्र में इधर-उधर लगे सभी बल्ब कार्य करने में सक्षम नहीं होते लाख जीव योनिक) प्राणियों के साथ स्पर्शन-रसना,घाण और हैं। अंधकार का एक छत्र साम्राज्य फैला रहता है।
चक्षु-इन्द्रिय का इसी प्रकार पंचेन्द्रिय (जलचर, थलचर, खेचर, उरपर, उसी प्रकार पांचों इन्द्रियाँ, विद्युत तरंगों से विहीन बल्ब के
भुजपर - मनुष्य - नैरयिक और देव अर्थात २६ लाख जीव योनिक)
जीवों के साथ स्पर्श, रसना घ्राण, चक्षु और कर्णेन्द्रिय का सम्बन्ध सदृश रही हुई हैं। बल-प्राणों की तरंगें ज्योंही इन्द्रियों के साथ जुड़
जुड़ा हुआ है। शरीर की निष्पत्ति के साथ ही इन्द्रियों के उद्गम का जाती हैं बस निष्क्रिय निष्पयोजन बनी वे इन्द्रियां दनादन अपने-अपने
श्री गणेश हो जाता है। सूक्ष्म किंवा स्थूल शरीर हो उसका महत्व कार्यक्षेत्र में सक्रिय हो जाती हैं। क्योंकि - बल प्राणों का साथ जो
इन्द्रियों के होने पर ही है। वरना शरीर का क्या महत्व? वह केवल मिला। बल-प्राण शक्ति के अभाव में प्राणियों के प्रत्येक कार्य कलाप
मांस-पिंड ही माना जायेगा। खतरे के बिंदु को छूने लगते हैं गति-शील प्रवृत्तिमोह में अव्यवस्था
वस्तुत: इन्द्रियों के सद्भाव में मनः पर्याप्ति की भजना है। का होना स्वाभाविक है। दिल-दिमागों में उभरे हुए व्यक्त या अव्यक्त, प्रगट किंवा प्रच्छन्न, गोपनीय या अगोपनीय मनोभावों की अभिव्यक्तियां,
अर्थात् द्रव्य मन हो भी सकता है और नहीं भी। परन्तु मन की सत्ता माध्यम के अभाव में उद्घोषित उद्घाटित होना संभव नहीं। इसी में हटियों का होना निशित जोमन के कार्य क्षेत्र को विकसित करने प्रकार वाक शक्ति का प्रगटीकरण क्या शक्य है? बल्ब का सही में आदेश को शिरोधार्य करने में आगे बढ़ाने में, प्रत्यक्ष किंवा परोक्ष स्थिति में रहना उतना ही आवश्यक है जितना विद्युत तरंगों का भी। रूप में, अपने-अपने कार्य क्षेत्र में रहकर सभी इन्द्रियां पूर्णत: सहयोग बल्ब की गड़बड़ी तरंगों को पकड़ नहीं पायेगी और तरंगों की करती रही हैं । तो इधर इन्द्रियां अपने-अपने कार्य क्षेत्र की एक नियत शिथिलता बल्ब को आलोकित कैसे करेगी? दोनों एक दूसरे के पूरक परिधि में कार्यरत रही हैं। इस अपेक्षा से इन्द्रियों का महत्व मन: रहे हैं । वस्तुत: दोनों का व्यवस्थित होते रहना जरूरी है। ठीक उसी पर्याप्ति के उद्भव के पूर्व ही उद्घोषित और उद्भासित मान्य किया प्रकार बल्ब सदृश इन्द्रियां हैं। इन्द्रियों का स्वस्थ रहना आवश्यक है।
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचता
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आज्ञाराधन से सदा, आत्म शक्ति अभिराम । जयन्तसेन उसे मिले, आत्माराम ललाम ॥
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साधन के अभाव में साधक क्या करेगा? साध्य को प्राप्त करने है। पुण्य-सकृत में सेवा-स्वाध्याय में ज्ञान-दर्शन-चरित्र की अभिवृद्धि के लिये साधक को तत्सम्बन्धी साधनों का यथोचित उपयोग करना में, देव-गुरु की भक्ति में सद्व्यय करना लाभदायक सिद्ध हुआ है आवश्यक है। भले साध्य-भौतिक हो या अध्यात्म/स्वर्ग हो या और मुक्ति का हेतु माना है। अपवर्ग । तदनुसार ऐन्द्रिय शक्ति को भी आवश्यक साधन माना है। अन्याय-अनीति में, हिंसा-हत्या में, चोरी, शिकारी, भ्रष्टाचार. जिनके द्वारा देहधारी भले वे विकसित हों या अविकसित, मूक हों या अनाचार मार्गों में शक्ति के स्त्रोतों का दुरुपयोग-दखवर्धक, वधरूप अमूक, समनस्क हों या अमनस्क अर्थात-प्राण-जीव-सत्व सभी उन्हीं एवं अधोगति का प्रतीक माना है। मतलब यह कि संगति किंवा दर्गति इन्द्रियों के माध्यम से अपनी कायिक-वाचिक और मानसिक में जीवात्माओं को धकेलने में इन्द्रियाँ भी कारण भूत रही हैं । इन्द्रियाँ आवश्यकताओं की आंशिक पूर्ति करने में सफल होते हैं और हिताहित वे नालियाँ रही हैं जिन मार्गों से सतत मिथ्यात्व-अविरत, प्रमाद, कषाय ज्ञान-विज्ञान से परिचित भी ।यह निर्विवाद सत्य है कि चैतन्य शक्ति और योगिक प्रवृत्ति रूपी गंदगी का प्रवाह अर्थात-पापस्रव जीवन रूपी का सहयोग प्रतिपल प्रतिक्षण के बिना देह धारियों के द्रव्यमन और घर में एकत्रित होता रहता है। उक्त विपरीत प्रवृत्ति पर जब नियन्ता भाव मन से प्रादर्भुत अच्छे बुरे संकल्प-विकल्पों की तरंगें न साकार अंकश लगाने में सफल हो जाता है, तब सत्यं शिवं-संदरम् का प्रतीक हो पाती है और न प्रगट ही....।
संवर धर्म की फसल होने लगती है। यह साधक की सामयिक विवेकता विश्व के विराट कोषागार में प्रतिक्षण अगणित क्रियाएं संचालित पर निर्भर है। हैं। कुछ क्रियाएँ किसी न किसी साधना द्वारा संचालित हुआ करती इन्द्रिय विज्ञान के सम्बन्ध में जितना गहन गंभीर हैं। यद्यपि क्रियाओं का सम्बन्ध कर्ता के साथ जुड़ा हुआ है। फिर विश्लेषण-विवेचन जैनागम वाङ्मय में उपलब्ध होता है. उतना अन्य भी कर्ता किसी न किसी माध्यम पर आधारित रहता है । वस्तुत: साधन धर्म ग्रन्थों में नहीं मिलता है। इन्द्रिय-संस्थान, इन्द्रिय-ग्राह्यशक्ति, अगर शिथिल हो. कमजोर हो तो वह कर्ता अपनी योजना में सफल इन्द्रिय विषयक भेद-प्रभेद, इन्द्रिय अवगाहना, इन्द्रियअवगाहित नहीं हो पायेगा भले वे क्रियाएं शारीरिक, मानसिक या वाचिक हों,
आकाश प्रदेश, एवं कामी इन्द्रिय और भोगी इन्द्रिय इत्यादि मुद्दों पर इसी प्रकार घर-परिवार - गांव - नगर - देश सम्बन्धी हों या अध्यात्म
सविस्तार उल्लेख मिलता है। साधना से जुड़ी हों। सजीव इन्द्रियों के माध्यम से ही पूर्ण होती देखी
स्पर्श- इन्द्रिय जाती हैं। मैं सुन रहा हूँ। देख रहा हूँ। सँघ रहा हूँ। चख रहा हूँ और स्पर्शानुभव कर रहा हूँ। उक्त क्रियाएं इन्द्रियों के द्वारा ही पूर्ण
स्पर्शेन्द्रिय की परिव्याप्ति शरीर पर्यन्त सभी इन्द्रियों में पाई होती हैं।
जाती है। इस कारण इसका महत्व पर्याप्त माना है। कर्कश-कोमल, पांचों इन्द्रियों में स्वाभाविक भिन्न-भिन्न विशेषता वाले भिन्न-भिन्न
गुरु, लघु, शीतोष्ण और स्निग्ध-रुक्ष । सामान्य तया उक्त आठों विषयों
के ज्ञानाज्ञान की अनुभूति चैतन्य को करवाना, यह स्पर्शेन्द्रिय का अपना यंत्र नियोजित हैं। एक विलक्षण नैसर्गिक व्यवस्था का प्रावधान है।
धर्म है। इसका यही नियत कार्यक्षेत्र रहा है। स्पर्शेन्द्रिय की यह कर्णेन्द्रिय में बल प्राण रूप यंत्र हुआ है उसका काम है - श्रव्यध्वनियों
सीमित परिधि इन्हीं आठ विषयों में रही है। इसमें सूक्ष्मतम नैसर्गिक की तरंगों को अपनी ओर आकृष्ट करना, पकड़ना । नाक में भी एक ऐसे यंत्र की व्यवस्था है जो केवल गांधिक पुद्गलों के परमाणुओं
एक चुम्बकीय यंत्र लगा हुआ है। वस्तुका स्पर्श होते ही वह यंत्र को अपनी ओर खींचता रहता है। रसनेन्द्रिय में भी वह यंत्र है जो
सक्रिय बनकर अपने स्वामी (जीव) को सूचित करने में तनिक भी देर
नहीं करता है। वस्तुत: इसको योगी इन्द्रिय माना है। इसका आयाम पंचविध रसद पुद्गल परमाणुओं का ज्ञान करवाता है। स्पर्शेन्द्रिय में नियोजित यंत्र-हल्के भारी, शीत, उष्ण, रुक्ष स्निग्ध, कर्कश, कोमल
विष्कुम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) जघन्योत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग पुद्गलों की अनुभूति करवाता रहता है । चक्षु-इन्द्रिय में स्थापित यंत्र
एवं एक हजार योजनाधिक मानी है। की विलक्षणता न्यारी है । दूरस्थ किंवा समीपस्थ दृश्य-मान चीजों का
उपर्युक्त आठों विषय सचिताचित, मिश्र, शुभाशुभ और अंत में
राग-द्वेष की परिणतियों में परिणत होते हुए आगे चलकर ८६ विकारी ज्ञान कराता चला जाता है।
विकल्पों में फैल जाते हैं। स्पर्शेन्द्रिय का संस्थान (आकार) नाना प्रकार बल-प्राण बनाम यंत्र के बिगड़ने पर या उसकी पकड़ शक्ति
माना है। इसकी विषय ग्राह्य शक्ति कम से कम अंगुल के असंख्यातवें शिथिल होने पर वे प्राणी बहरे, अंधे, काने, लले, लंगड़े-मक की कोटि
भाग, उत्कृष्ट चारसौ धनुष्य से लेकर नौ योजन दूरस्थ पदार्थों को में गिने जाते हैं फिर उन्हें कृत्रिम साधनों का सहारा लेना होता है।
आकृष्ट करने की क्षमता रही हुई है । उक्त विकारी परिणतियों से आत्मा बुराई भलाई में सुकृत-विकृत में, हिंसा, अहिंसा में सत्यासत्य का हित नहीं, अहित ही हुआ है। शुभ स्पर्शों से राग की निष्पत्ति और में रागात्मक-द्वेषात्मक प्रवृत्ति में, आस्रव-संवर में उक्त पांचों इन्द्रियों अशुभ स्पर्शों से द्वेष भावों की वृद्धि होती रही है। जैसा कि आगम का सक्रिय योगदान रहा है । वस्तुत: अपेक्षा दृष्टि से ऐन्द्रिय शक्ति की में कहा है - ऊर्जा देहधारियों के लिये हानिकारक भी और लाभदायक भी रही शरीर, स्पों को ग्रहण करता है और स्पर्श, शरीर का ग्राह्य रहा
है। सुखद स्पर्श राग का और दुखद स्पर्श द्वेष का कारण है।
श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन पंथ/वाचना
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अमृत आज्ञाराधना, विराधना विष जान । जयन्तसेन सुधा ग्रहण हो सुखदा सुविहाण ॥
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जो प्राणी सुखद स्पर्शों में अति आसक्त होता है। वह जंगल जिस प्रकार औषधि की सुगन्ध से मूर्च्छित हुआ सर्प मारा जाता के सरोवर के ठण्डे पानी में पड़े हुए और मगर द्वारा ग्रसे हुए भैंसे है, उसी प्रकार गंध में अत्यन्त आसक्त जीव अकाल में काल कवलित की तरह अकाल में ही मृत्यु पाता है।
होता है। रसना- इन्द्रिय
चक्षु- इन्द्रिय रसनेन्द्रिय के माध्यम से द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय और दृश्यमान वस्तुओं को यथारूप में प्रस्तुत करना, चक्षुइन्द्रिय का पंचेन्द्रिय प्राणी कवलाहार ग्रहण करते हैं। शरीर के समस्त केन्द्रों काम है । देखने का माध्यम आँख है। इसके अभाव में देहधारी
अवयवों एवं नाड़ी संस्थानों को इसी इन्द्रिय द्वारा रस मिलता रहा है। प्राणी अन्धे कहलाते हैं फिर उनके लिये कदम-कदम पर शारीरिक रसद स्त्रोत का माध्यम यही इन्द्रिय है। इसी प्रकार वाक् शक्ति की क्रियाओं में व्यवधान और अवरोध पैदा होना स्वाभाविक है। अभिव्यक्ति इसी से होती है।
पराधीनता का जाल पूरे शरीर पर और संपूर्ण जीवन पर्यन्त फैल जाता इसका संस्थान (आकार) खरपा जैसा माना है। अनंत प्रदेशी है। मुमुक्षु आत्मा अपने आराध्य के समक्ष प्रतिज्ञा सूत्र समर्पित करता यह असंख्य आकाश प्रदेशों में अवगाहित है। इसकी चौडाई हुआ कहता है- भंते ! युगल नेत्रों के सिवाय संपूर्ण शरीर आप की जघन्योत्कष्टअंगल के असंख्यातवें भाग और लम्बाई दो से नौ अंगल आराधना में तत्पर रहेगा। आँखों के अभाव में जीव दया की परिपालना प्रमाण मानी है। यह भोगी और न्यूनाधिक ६४ धनुष्य से लगाकर ६
संभव नहीं । वस्तुत: इस अनुमान से चक्षु इन्द्रिय के महत्व को भली योजन दूरस्थ वस्तुओं को अपना ग्राह्य विषय बनाने की क्षमता रखती , प्रकार समझ सकते हैं। इस-इन्द्रिय का संस्थान मसूर की दाल जैसा
गोल माना है। अनंत प्रदेशी यह आकाश के असंख्य प्रदेशों की तीखा-कड़वा, कसेला, खट्टा और मीठा, इन पांच विषयों में
परिधि में परिव्याप्त है। दृश्यमान चीजें स्वत: इस इन्द्रिय के पास रसना की गति रही है। इन्हीं पांच स्वादों का परिज्ञान अपने स्वामी
चलकर नहीं आती हैं। अपितु चक्षु की दर्शन शक्ति की पैठ उत्कृष्ट जीव को करवाती रहती है । उक्त पांचों भेद सचिताचित्त, मिश्र शुभाशुभ
एक लाख योजन पर्यन्त रही है। इस कारण यह कामी इन्द्रिय मानी और राग द्वेष के रूप में परिणत होकर साठ विकारी परिणतियों में रूपांतरित होते हैं। राग-द्वेषात्मक पर्याय ही संसार है।
काला, नीला, लाल, पीला और सफेद इन पांच तरह के रंग-रूपों रस न किसी को दःखी और न किसी को सखी करता किंत में चक्षु की गति रही है। सचिताचित्त, मिश्र, शुभाशुभ और राग-द्वेष जीव स्वयं अमनोज्ञ रसों में द्वेष करके अपने ही किये हुए भयंकर द्वेष के पर्यायों में परिणत हुए भेद-प्रभेद साठ विकारी विकल्पों में परिव्याप्त से दुःखी होता है। जिस प्रकार मांस खाने के लालच में फंसा हुआ होते हैं । फलितार्थ यह हुआ कि अभीष्ट रूप के प्रति राग और अनिष्ट मच्छ कांटे में फंसकर जीवन लीला समाप्त कर देता है उसी प्रकार रूप के प्रति द्वेष पैदा होता है। जैसा कि आगम में कहा है... रसों में आसक्त जीव अकाल में मृत्यु का ग्रास बन जाता है।
रूप को ग्रहण करने वाली चक्ष-इन्द्रिय है और रूप चक्षु के प्रिय रस राग का और अप्रिय रस द्वेष का कारण है। दोनों ग्रहण होने योग्य है। प्रिय रूप राग का और अप्रिय रूप द्वेष का प्रकार की स्थितियों में वह समभाव रखता है। वह वीतरागी है। कारण है।
या जिस प्रकार दृष्टि के राग में आतुर होकर पतंगा मृत्यु पाता है। घ्राण- इन्द्रिय
उसी प्रकार रूप में अत्यन्त आसक्त होकर जीव अकाल में ही मृत्यु सुंगध किंवा दुर्गन्ध पुद्गलों को पकड़ना, यह घ्राणेन्द्रिय का पाते हैं। विषय रहा है। नासिका इसका अपर नाम है। इसी के माध्यम से अल्पज्ञ आत्माओं को गंध का विवेक होता है। यह अनंत प्रदेशी
श्रोत्र - इन्द्रिय भोगी इन्द्रिय मानी जाती है। असंख्य लोकाकाश प्रदेशों को अवगाहित सुनने की समस्त क्रियाएं इसी इन्द्रिय से संपन्न होती हैं इसकी करती है। आयाम, विष्कुम्भ (लंबाई-चौड़ाई) की दृष्टि से न्यूनाधिक कार्यशीलता के अभाव में वे नर-नारी बहरे कहलाते हैं। प्रत्येक जीवों अंगुल के असंख्यातवें भाग की मानी गई है। इसका संस्थान धमनी को यह इन्द्रिय प्राप्त नहीं है। केवल पंचेन्द्रिय देह धारियों को ही जैसा माना है। विषय ग्राह्य क्षमता जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्राप्त है। वे ही सुनने के पात्र बने हैं और उन्हीं जीवों को युगल कर्ण की ओर उत्कृष्ट सौ धनुष्य प्रभृति नौ योजन की मानी गई है। जोड़ी मिली है। श्रोत्रेन्द्रिय का संस्थान कदम फूल सद्दश माना है।
इसके दोनों विषय सुगन्ध और दुर्गन्ध सचित, अचित और मिश्र अन्य इन्द्रियों की तरह यह भी अनंत प्रदेशी और असंख्य पर्याय में परिणत होकर राग-द्वेष की उत्पत्ति के कारण भूत बनते हैं। आकाश-प्रदेशों में अवगाहित रही है। यह कामी इन्द्रिय है। शब्दों इस प्रकार १२ विकारी पर्यायों में परिणत होते रहते हैं।
को श्रवण कर कामोत्पत्ति होना स्वाभाविक है। शब्दों की गड़गड़ाहट गंध को नासिका ग्रहण करती है और गंध नासिका का ग्राह्य । जब कानों में लगे यंत्र से टकराती है तब तत्काल ज्ञान हो जाता है। है। सुगन्ध राग का कारण और दर्गन्ध द्वेष का कारण है। कि नि:सृत यह शब्दावली जीव-अजीव या मिश्र तत्त्व की है।
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना
आज्ञा पालन से सदा, होत अहं का नाश । जयन्तसेन प्रीति सुधा, देत जीवन प्रकाश ॥
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________________ अच्छी-बुरी या शुभाशुभ है / शब्द तरंगों को पकड़ने की क्षमता इसकी जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है वह पराश्रित, बाधा सहित, जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक योजन से 12 बंध का कारण और विषम होने के कारण वास्तविक सुख नहीं, योजन पर्यन्त रही है। शब्दावली कभी शभ रूप में तो कभी अशुभ दुःखरूप है। रूप में परिवर्तित होती है। तत्पश्चात राग और द्वेष की परिणतियों में इन्द्रिय रूपी चपल घोड़े नित्य दुर्गति मार्ग पर दौड़ते हैं। जिस परिणत होकर 12 विकारी भेदों में फैल जाती हैं। कहा भी है - तरह काठ में जन्म लेने वाले घूण जंतु काठ को भीतर ही भीतर शब्दों में मूर्च्छित हुआ प्राणी, मनोहर शब्द वाले पदार्थों की कमजोर कर देते हैं। उसी प्रकार मनुष्यों के चरित्र को इन्द्रियाँ भीतर प्राप्ति, रक्षण एवं व्यय में तथा वियोग की चिंता में लगा रहता है, वह ही भीतर असार कर देती है। संभोग काल में भी अतृप्त ही रहती है। फिर उसे सुख कहाँ है? ज्ञान-ध्यान और तपोबल से इन्द्रिय-विषयों-कषायों को बलपूर्वक रोकना चाहिये। जैसा कि लगाम के द्वारा घोड़ो को बलपूर्वक रोका 'जे गुणे से आवट्टे जो आवट्टे से गुणे' (आचारांगसूत्र) जाता है। वश किया हआ बलिष्ट घोड़ा जिस प्रकार बहुत लाभदायक अर्थात-शब्द-रूप-रस-गंध और स्पर्श, उक्त पांचों इंन्द्रियों के मौलिक होता है उसी प्रकार धैर्य रूपी लगाम द्वारा वश की हुई स्वयं की गुण हैं / संसार का भयंकर भ्रमण शील यह जाल है। जिसके प्रभाव से पामर प्राणी भवोदधि में जन्म-मरण किया करते हैं। पांचों इन्द्रियां इन्द्रियाँ तेरे लिये लाभदायक होगी। अतएव इन्द्रियों का निग्रह होना और मन, दोनों शब्दादि गुणों से प्रभावित होते रहते हैं और इसीसे उत्तेजना और तमोगुण की वृद्धि होती है / इन्द्रिय जन्य विषयों में एक उसी का इन्द्रिय निग्रह प्रशस्त होता है, जिसका मन ऐसा लुभावना मोहाभिभूत करने वाला आकर्षण रहा हुआ है कि शब्द-रूप-गंध-रस और स्पर्श में न तो अनुरक्त होता है और न द्वेष देहधारी भ्रमित हुए बिना नहीं रहता। इन्द्रियों और शब्दादि विषयों करता हैं। का एक ऐसा सम्बन्ध है जहां इन्द्रियों की सत्ता का सद्भाव है। वहाँ मा इन्द्रिय सम्बन्धी इस निबन्ध का अध्ययन करके प्रबुद्धआत्माओं शब्द रूप-गंध-रस-स्पर्श इत्यादि गुण रहेंगे। दोनों के बीच देहधारी को अनासक्त भाव का आलंबन लेना चाहिये। अनासक्त भाव, भवजंतु के शिकार होते रहे हैं। यथार्थ जानकारी के अभाव में जीवात्माओं को जितेन्द्रिय बनाने वाला राजमार्ग, धर्म मार्ग है और मुर्ख-अज्ञानी आत्माएँ इन्द्रिय जन्य सखों को ही असली सख मानती मोक्ष-प्राप्ति में पूर्ण सहयोगी भी। रही हैं - जैसा कि कहा भी है - चाहिये। मधुकर मौक्तिका स्वार्थ अधम प्रकृति है। स्वार्थपना अधम प्रवृत्ति है और आत्मा की अवनति का उपाय है। ऐसा मलिन स्वभाव-ऐसी मलिन प्रवृत्ति भव को नि:शेष समाप्त होने नहीं देती। इसमें कोई शक नहीं है कि जहाँ स्वार्थ है, वहाँ भवस्थिति अपना साम्राज्य मजबूत करके रहती जागृति के दिनमणि का प्रकाश फैलते ही आधि, व्याधि और उपाधि की रोगत्रयी पलायन कर जाने में ही अपना भला मानती है और फिर जीव को परम अर्थ की अनुभूति होने लगती है। यह अनुभूति उसे स्वभाव के शिखर पर बिठा देती है। तो ऐसी है स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ की पगडंडी। प्रार्थना प्रार्थनीय से की जाती है। जो प्रार्थनीय है, उसका विश्लेषण भी आवश्यक है। सेवक-स्वामित्व के भाव को समझ कर हृदय में उसे मूर्तरूप प्रदान करना भी वांछनीय है। कूड़ा-करकट दूर किये बिना रंग कर्म टिक नहीं सकता। वस्तु में जो तेज आना चाहिये-वह आ नहीं सकता। इसलिए साफ सफाई करके धरातल को समतल बना लेना अत्यन्त आवश्यक है। प्रार्थना तो जन्म जन्म से करते आये हैं, फिर भी वह आज तक प्रबल न हो सकी। कारण इतना ही है कि हमने भाव-स्वभाव को ध्यान में लेकर नहीं की, अपितु भव की तरफ ध्यान में रख कर की। ***** 'वीतराग ! जगत में परमोत्तम ! पुरुषोत्तम देव ! आपकी जय हो। इसीलिए कि आप जेता हैं, विजेता है, त्राता हैं और संसार के प्राणी मात्र को विजेता बनने का प्रबल सामर्थ्य प्रदान करनेवाले हैं। श्रीमद जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथावाचना देश काल का जगत में, नहीं जिसे सद् नाण / जयन्तसेन मिले नहीं, उस को उत्तम ठाण // .