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हेमचन्द्राचार्यनी काव्य-व्युत्पत्ति-सूचक एक वधु उदाहरण
ह. भायाणी 'छन्दोनुशास'ना सातमा अध्यायमा अपभ्रंश छंद सिंहपदनुं हेमचंद्राचार्ये जे स्वरचित उदाहरण आपेलुं छे, तेमां कालिदासकृतं 'रघुवंश'ना सोळमा सर्गना पंदरमा पद्मनो प्रतिशब्द होवा बाबत में ध्यान खेंच्युं छे (जुओ, 'अनुसंधान १', १९९३, पृ. ८; तथा 'छन्दोनुशासन' नो अनुवाद, १९९६, पृ. १५१-१५२). त्यां में कह्यु हतुं के 'सिंहपय' नाम गूंथाय ते रीतनुं उदाहरणपद्य रचवा माटे हेमचंद्राचार्यने 'रघुवंश'ना उपर्युक्त पद्यनुं अवलंबन लेवा माटे संस्मरण थयु, जेने तेमना 'रघुवंश'ना अनुशीलननु, काव्यरसना भावकत्वर्नु अने तीक्ष्ण स्मृतिनुं सूचक गणी शकीए.
आ वातनुं समर्थन करतुं एक बीजुं उदाहरण हमणां मारा लक्षमां आव्यु.
"देशीनाममाला'ना छठ्ठा वर्गना ११०मा सूत्रमा नीचेना देश्य शब्दो अर्थ साथे नोंध्या छे :
मंतेल्ल, मयणसलाया = सारिका; मल्हण -- लीला; मंधाओ, महायत्तो
= आढ्य; महेड्रो -- पंक.
आ शब्दोने गूंथी लईने हेमचंद्रे रचेली उदाहरण-गाथा अने तेनो अर्थ (बेचरदास दोशीना अनुवाद अनुसार) नीचे प्रमाणे छ :
एतम्मि महायत्ते मल्हंती णव-महेड्बुरुह-णयणा । पाढइ मंधाय-वहू मयणसलायापिएत्थ मंतेल्ली ।।
'जेने सारिका-मेना प्रिय छे एवो ए धनसंपन्न प्रिय ज्यारे आवे छे त्यारे महालती-लीला करती, तथा ताजा कमळनी जेवां नयनोवाळी ए धनाढ्यनी वहू अहीं सारिकाने-मेनाने पढावे छे.'
आपणने तरत ज कालिदासना 'मेघदूत'ना जाणीता पद्य (सुशीलकुमार देना संपादन प्रमाणे क्रमांक (८२)ना उत्तरार्धनुं स्मरण थशे :
पृच्छंती वा मधुरवचनां सारिकां पंजरस्था कच्चिद् भर्तुः स्मरसि रसिके त्वं हि तस्य प्रियेति ॥
सारिका वाचक शब्दनो समावेश करतुं उदाहरण रचतां हेमचंद्राचार्यनी स्मृतिमां आ 'मेघदूत'नो संदर्भ जाग्रत थाय छे तेथी तथा शरूमां निर्दिष्ट उदाहरणथी तेमनी कालिदासप्रीति प्रगट थती होवानु आपणे जरूर मानी शकीए ।
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'प्रबन्धचिन्तामणि' गत एक अनुप्रासनी युक्तिवाळु पद्य
ह. भायाणी मेरुतुंगना 'प्रबंधचिंतामणि' मां परमारराजा भोजने लगती दंतकथाओमां एक वार शियाळामां रत्रिचर्या निमित्ते नगरमां नीकळेला राजाए एक देवळनी पासे कोई दरिद्र माणसने ठंडीथी रक्षण मेळववा तेनी पाशे कशुं साधन न होवाथी पोतानुं दुःख एक पद्यमां वर्णवतो सांभळ्यो. पछी रात पूरी थतां राजाए एने सवारे बोलावीने पूछ्य के तुं रात्रे ठंडीथी थतुं दुःख व्यक्त करतो हतो, तो तुं शियाळानी टाढ कई रीते सहे छे.
पेलाए जे कद्यं ते पद्य एक हस्तप्रतमां नीचे प्रमाणे छे : शीतत्रान पटी, न चाग्निशकटी, भूमौ च घृष्टा कटी निर्वाता न कुटी, न तंदुल-पुटी. तुष्टिर् न चैका घटी ! वृत्तिर् नारभटी, प्रिया न गुमटी, तन् नाथ मे संकटी.
श्रीमद भोज ! तव प्रसादकरटी भक्तां ममापत्तटीम् ॥ "शियाळामां पोतानी दुर्दशा वर्णवतो दीनदरिद्र कहे छे :
'मारी पासे ठंडीथी रक्षण आपनारी गोदडी नथी नथी सगडी; नथी पवनने पेसवा न दे तेवी बंध मदुली; नथी सुभटवृत्ति, नथी जुवान, गोरी पत्नी; नथी चावळनी चपटी. घडीएक पण शांति मळती नथी. मारे भारे संकट छे, भोंय पर पीठ घसतां हुं रात गाळू छं. तो हे महाराज भोज, तारी कृपानो गजराज मारी आपत्तिरूपी भेखडने तोडी पाडो.'
आम अगियार 'टी'कार वाळा पद्यनुं पठन सांभळीने भोजराजे तेने अगियार लाख दानमा आप्या.
संभव छे के 'प्रबंध चिंतामणि'मां मळता आ मुक्तक माटे 'हनुमन्नाटक' नुं नीचे आपेलुं पद्य (३.२२) प्रेरक बन्यु होय. हतोत्साह अमने प्रसन्न करवा रामलक्ष्मणे दंडकारण्यमां रमणीय पर्णकुटी बनावी. तेनुं आ लक्ष्मणे करेलुं वर्णन
एषा पंचवटी रघूत्तम-कुटी यत्रास्ति पंचावटी पांथस्यैक-घटी पुरस्कृत-तटी संश्लेष-भित्तौ वटी ।
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[112 गोदा यत्र नटी तरंगित-तटी कल्लोल-चंचत्-पुटी दिव्यामोद-कुटी भवाब्धि-शकटी भूत-क्रिया-दुष्कुटी । आमां बार टीकारान्त शब्दोनो प्रयोग करेलो छे.
ए पछी रामनी स्तुतिरूप ११ टकारान्त शब्दो वालु पद्य (३.२३) नीचे प्रमाणे छे :
क्रीडा-कल्प-वटं विसर्पित-जटं विश्वांवुजन्मावटं पिष्टांडौघ-घटं धृतांघ्रि-शकटं ध्वस्त-क्षमा-संकटम् । विद्युच्चारु रुधा विधूत-कपटं सीताधरा-लंपटं भित्रारीभ-घटं विरुग्ण-शकटं वंदे गिरां दुर्घटम् ॥
'सिद्धहेम'ना एक अपभ्रंश दोहा- अर्वाचीन रूपांतर
ह. भायाणी हेमचंद्राचार्ये तेमना व्याकरणना अपभ्रंश विभागमा उदाहरण रूपे, तेमने उपलब्ध साहित्यमांथी जे दोहा आप्या छे, तेमांथी केटलाक वधतेओछे रूपांतरे उत्तरकालीन जूनी गुजराती-राजस्थानी साहित्यमां तथा मौखिक परंपराना चारणी साहित्यमा प्रचलित होवानुं जाणीतुं छे ।
मारा सिद्धहेम'ना अपभ्रंश विभागना अनुवादमां में एमांथी केटलांक नोंध्या छे.
अहीं तेवा ज एक रसप्रद उदाहरण प्रत्ये हुं ध्यान खेचुं छु । सूत्र ४३० नीचे आपेलुं त्रीजुं उदाहरण अने तेनो अनुवाद नीचे प्रमाणे छे.
सामी-पसाउ स-लज्जु पिउ, सीमा-रुधिटि वासु ।
पेक्खिवि बाहु-बलुल्लडा, धण मेलइ नीसासु ॥ 'मालिकनी कृपा, शरमाळ प्रियतम, सीमाडा भेगा थाय त्यां वसवाट अने प्रियतमनुं बाहुबल ए जोईने प्रिया निःश्वास मूके छे.'
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तात्पर्य एवं छे के उक्त परिस्थितिमां गमे त्यारे पतिने युद्ध करवा जवुं पडे अने युद्धमां ते खपी जाय.
तख्तदान रोहडिया संपादित 'दुहो दशमो वेद' ए परंपरागत तेम ज वर्तमानमां रचायेल दुहाओना संग्रहमां क्रमांक ३२ तरीके आपेलो नीचेनो दुहो उपर्युक्त दोहा साथै सरखाववा जेवो छे :
अरि नेडा पियु बंकडो, सायधण हे कुळ- शुद्ध । हालो नणदी हेळवा, (हवे ) अजैया कुंवर दूध ॥
अर्थ : शत्रु निकटमां छे, पियु बंको पराक्रमी छे। अने हुं तेनी प्रिया शुद्ध कुळनी छु । हे नणंद, चालो आपणे कुंवरने बकरीना दूधथी हेळवीए' ।
तात्पर्य एवं छे के पति रणमां खपी जशे पोते ऊंचा कुळनी होवाथी पाछळ सती थशे । एटले पछी बाळ कुंवरने बकरीनुं दूध पाईने उछेरवो पडशे । तो तेने अत्यारथी ज एनो हेवायो करी दईए, जेथी पाछळथी तेने ए अरुचिकर लागे
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जूना दोहामा नायिकानो डर व्यक्त थयो छे, तेने, बदले अहीं ए भावी निश्चित होवानुं अने एवी परिस्थिति पहोंची वळवा अत्यारथी तैयारी करवानुं नायिकाना वचनो व्यक्त करे छे । आ अर्वाचीन रूपान्तरमां जे उद्दीपन विभाव कविए योज्यो छे, ते वास्तविक परिस्थितिने तादृश करीने नायकनी वीरता ऊंडा मर्मथी ध्वनित करे छे ।
बीजां पण बे दोहानां रूपांतर ए ज पुस्तकमांथी नीचे आपुं हुं :
(१)
घाइ विलग्गी ऊंगडी, सिरु ल्हसिउ खंधर |
तो - वि कटाइ हत्थउउ, बलि किज्जउं कंतस्सु (४४५, ३)
आंतरडुं पगे वळग्युं छे, शिर स्कंध पर ढळी पड्युं छे, पण तो ये हाथ कटारी उपर ज छे : आवा कंथ पर हुं बलिदान रूपे अपाउं छं (= वारी जाउं छं' । )
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आनुं प्राकृत रूपांतर में 'वज्जालग्ग 'मांथी मारा 'सिद्धहेम'ना अपभ्रंश विभागना अनुवादमां में नोंध्युं छे. (पृ. १८३)
(२) अम्मि पयोधर वज्जमा, निच्चु जे संमुक थंति । महु कंतो समरंगण, गय- घड भज्जिउ जंति । ( ३९५, ५)
आ साथै सरखावो नीचेना दुहानो उत्तरार्ध :
लेटाकर वित आपणा, देतो रजपूतांह ।
धड धरती पग पागडे, आंतर गोधडीआंह ||
('दुहो दशमो वेद', क्रमांक ३६६ )
'माडी मारा स्तन वज्र जेवा छे, कारण के ते सदैव मारा कान्तनी सन्मुख रहे छे, ज्यारे समरांगणमां गजघटाओ पण मारा कान्त पासेथी हारीने भागी जाय छे ?
आ साधे सरखावो :
शैल धर्मका क्यों सह्या, क्यों सहिआ गज- दंत । कठण पयोधर खूंचतां, तुं कणकणियो' तो कंथ | ( उक्त पुस्तक क्रमांक २११ )
'शत्रुंजयमंडन - ऋषभदेव स्तुति' : थोडी पूर्ति
मुनि भुवनचंद्रजी संपादित आ कृति 'अनुसंधान - ५' मां (पृ.४०-४३) मुद्रित थयेली छे. त्यां एना कर्ता विजयदानसूरि शिष्य 'वासणा' ( वासण ? ) साधु जणावेल छे अने 'जैन गूर्जर कविओ' तथा 'गुजराती साहित्यकारो ( मध्यकाल ) 'नो हवालो आपवामां आव्यो छे.
जयंत कोठारी
'अनुसंधान - ६' मां मुनि भुवनचन्द्रजी आ कृतिनी अन्य बे हस्तप्रतोनी माहिती आपे छे अने संस्कृत टीकावाळी प्रतमां आरंभे स्पष्ट रीते विजयतिलक
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________________ [115] उपाध्यायर्नु कर्ता तरीके नाम छे तेथी "जैन गूर्जर कविओ" अने गुजराती साहित्यकोश'नी माहिती परिमार्जननो विषय बने छ एम योग्य रीते ज कहे छे. परंतु आ अंगे थोडी स्पष्टता अने पूर्तिने अवकाश छे : (1) 'जैन गूर्जर कविओ' (बीजी आवृत्ति) भा.१, पृ. 363 पर आ कृति 'आदिनाथ स्तवन' ए नामथी वासणने नामे मुकायेली छे परंतु भा. 7 पृ. 804 पर आनी शुद्धि आपवामां आवी छे अने कर्ता विजयतिलक होवार्नु जणावायुं छे. (2) 'जैन गूर्जर कविओ' भा. 1 पृ. 468 पर 'आदिनाथ स्तवन' विजयतिलक उपाध्यायने नामे मळे ज छे. त्यां प्रशियन स्टेट लाइब्रेरीनी त्रण प्रत नोंधायेली छे जेमांनी बे संस्कृत अवसूरि साथे छे अने एक गुजराती बालावबोध साथे. संस्कृत अवसूरि विजयतिलक उपाध्याय कर्ता तरीके स्पष्ट रीते नाम आपे छे. (उपर निर्दिष्ट शुद्धिनो आधार आ माहिती ज छे.) (3) उपरांत, आ कृतिनी घणी हस्तप्रतो . विजयतिलकने नामे ज - ला.द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद तथा हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर, पाटणमां प्राप्य होवानी पण त्यां ज नोंध छे. कृतिनी आटलीबधी हस्तप्रतो होवी ने एना पर संस्कृतमा टीका ने गुजरातीमां बालावबोध रचावा ते बतावे छे के कृतिनुं संप्रदायमा विशिष्ट ने महत्व, स्थान हतुं. आ बधां साधनोनो उपयोग करीने संस्कृत टीका अने गुजराती बालावबोध साथे कृतिनुं संपादन करवानु, अने एनी साथे पोतानो अभ्यास जोडवायूँ कोई विचारे तो ए श्रम सार्थक हशे एम लागे छे. भाषादृष्टिए पण केटलीक मूल्यवान सामग्री एमाथी सांपडशे. (4) 'गुजराती साहित्यकोश (मध्यकाल)'मां वासणने नामे आ कृति छे ते उपरांत 'विजयतिलक उपाध्याय ने नामे पण आ कृति छे ! (पृ. 401) आनो आधार, अलबत्त, प्रशियन स्टेट लायब्रेरीनी प्रतो ज. 21 मे 1996