Book Title: Gunratnagani ki Tarka Tarangini
Author(s): Jitendra Jetli
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210450/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुणरत्नगणि को तर्कतरङ्गिणी [जितेन्द्र जेटली ] अनेकान्तवाद का आचरण करने वाले जैनाचार्यों ने इस तर्कतरङ्गिणी के अभ्यास से यह स्पष्ट प्रतीत होती अपने सम्प्रदाय के दार्शनिक ग्रन्थों पर टीका-टिप्पण आदि है कि “ी गुणरत्नगणिजी अनेक शास्त्रों के विद्वान होते की रचना की है यह आश्चर्य की बात नहीं है किन्तु अन्य हुए एक अच्छे तार्किक थे । थे खरतरगच्छ के थे इसलिए दर्शन के ग्रन्थों पर भी प्रामाणिक व्याख्या रूप टीकार्ये उस गच्छ के लिए यह अत्यन्त गौरस को बात है। वे किस लिखी हैं । ऐसी रचनाओं में से श्रीगुणरत्नगणिजी की तर्क- प्रकार के उच्च श्रेणी के तार्किक थे यह तर्कतरङ्गिणो से हो तरङ्गिणी भी है। ज्ञात होता है। श्रीगणरत्नगणि विनयसमद्रगणि के शिष्य थे। विनय मुद्रगाण के शिष्य थे। विनय- तर्कतरङ्गिणी गोवर्धन की प्रकाशिका की टीका होने समुद्रगगि जिनमाणिक्य के शिष्य थे जो कि जिनचन्द्रसूरि के से सामान्यत: चर्चा में गोवर्धन का वे अनुसरण करते हैं फिर समानकालीन थे। जिनचन्द्रसूरि श्रीहीरविजयसूरि के समान- भी वे जिन सिद्धान्तों की चर्चा गोवर्धनजी ने नहीं की है कालीन थे। उनका समय मोगल सम्राट अकबर के समय उन सिद्धान्तों की चर्चा भी समय २ पर करते हैं। जैसे कि का है क्योंकि वे उनके दरबार में आमन्त्रित हुआ करते थे। गोवर्धन मङ्गलवादकी कोई विशेष चर्चा नहीं करते हैं श्री गुणरत्नगणि ने तर्कतरङ्गिणो के उपरान्त 'काव्यप्रकाश' फिर भी गणरत्नगणि अपनो तर्कतरङ्गिणो में अन्य नैयायिक के ऊपर एक १०००० श्लोकप्रमाण की सुन्दर टीका लिखी है। निहालों की भांति विद्वानों की भांति मङ्गलवादको चर्चा विरतार से करते हैं। यह टीका उन्होंने अपने शिष्य रत्नविशाल के लिए लिखी। इस चर्चा में बे उदयनाचार्य, गङ्गश, पक्षधर मित्र आदि है। इसी तरह यह तर्कतरङ्गिणी भी उन्होने उसी शिष्य के रुढ प्राचीन तथा अर्वाचीन f द्वानों को वे मङ्गल विषयक वास्ते लिखो है । तर्कतरङ्गिणी पुस्तिका में यह स्पष्ट निदेश मतों की आलोचना करके दे गङ्गश उपाध्याय के मत से है । वे लिखते है कि सम्मत होते हैं। श्रीमदल विशालाख्यस्वशिष्याध्ययनहेतवे । मङ्गलवाद के अनन्तर वे न्यायसूत्र के प्रमाण प्रमेय गुणरत्नगणिश्चक्रे टोकां तकंतरङ्गिणीम् ॥ आदि प्रथम सूत्र को लेकर समासवाद की चर्चा करते हैं । यह तर्कतरङ्गिणी गोवर्धन की प्रकाशिका जो कि केशव यद्यपि गोवर्धन ने यह चर्चा मोक्षवाद के अनन्तर की है। मिश्र की तर्कभाषा के ऊपर टीका है उसकी प्रतीक है। परन्तु गुणरत्नगणि ने यह चर्चा यहीं पर की है और तरङ्गिणी की समाप्ति में और मङ्गल में इस विषय का उचित स्थान भी यही है क्योंकि समासवाद की चर्चा से ही निर्देश किया गया है। न्यायसूत्र के प्रमाण को लेकर अपवर्ग का अर्थ स्पष्टतर होता १ द्रष्टव्य 'जनेतर ग्रन्थों पर जेन विद्वानों की टोकाएँ' भारतीय विद्या वर्ष २ अङ्क ३ ले० अगरचन्द नाहटा तथा सप्तपदार्थी जिनवईनसूरि टीका सहित प्रस्तावना पृ० ७ से ६ । प्र० ला० द० भारतीय विद्यामन्दिर अहमदाबाद २ द्रष्टव्य युगध्धान श्रीजिनचन्द्रसूरि पृ० १६३-१६४ श्री अगर चन्द नाहटा, भंवरलाल नाहटा ! Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १०, है इस वास्ते यह चर्चा यहां की जाय यह अधिक तर्कसंगत न्यायसूत्र के वात्यस्यापन भाष्य में शास्त्र की विविध प्रतीत होता है। प्रवृत्ति, उद्देश, लक्षण तथा परीक्षा निर्दिष्ट है । तर्कभाषाकार ___ समासवाद में गोवर्धन ने न्यायसूत्र के प्रथमसूत्र में इत- इन तीनों का लक्षण देते हैं। प्रकाशिका के कर्ता गोवर्धन रेतर द्वन्द समास कहकर सूत्र को समझाया है । गुणरत्लग णि ने इन तीनों विषय की विस्तृत चर्चा करते हैं। उन्हीं का भिन्न-भिन्न द्वन्द्व समासों की चर्चा पाणिनि के सूत्र के आधार अनुसरण करते हुए गुणरत्न इन विषयों की ओर विस्तृत पर की है। वे कर्मधाराय और द्वन्द्व के भेद को समझकर चर्चा करते हैं। उनकी इस चर्चा में उनका नव्यन्याय सत्र में इतरेतर द्वन्द्व समास क्यों है इस विषय को स्पष्ट का पाण्डित्य स्पष्ट प्रतीत होता है। करते हैं। इस चर्चा से गुणरत्नगणि अच्छे वैयाकरण थे यह भी प्रतीत होता है। उद्देश, लक्षण और परीक्षा इन तीनों की चर्चा के पीछे __ समासवाद के अनन्तर प्रकाशिकाकार मोक्षवाद को चर्चा प्रमाण वगैरह सोलह पदार्थो का विचार शुरू होता है । विस्तार से करते हैं। न्याय के सोलह पदार्थों का तत्वज्ञान प्रमाण का क्रम प्रथम होने से स्वाभाविक रूप से प्रमाण का मोक्ष का कारण किस तरह होता है यह समझाने का प्रयल लक्षण और परीक्षा को जाती है । गुणरत्न प्रमाण के लक्षण करते हैं । वे शास्त्र तथा तत्वज्ञान को मोक्ष का सीधा कारण में प्रमा की यथार्थता क्या है इसको चर्चा गोवर्धन का अनुन मानकर शास्त्र तथा तत्वज्ञान मोक्ष के प्रयोजक हैं ऐसा सरण करते हुए विस्तार से करते हैं। यथार्थत्व को समसिद्ध करते हैं ।५ गुणरत्न प्रकाशिका के प्रामाणिक टोका- झाते हुए तद्वति तत्प्रकारात्व में गुणरत्न 'तद्वति' पद के कार होनेसे गोवर्धन की इस बात का समर्थन करते हुए इसे अर्थ में जितने भी दिरोधि अर्थ हैं उनका युक्ति से खण्डन विस्तार से समझाते हैं और किस तरह शास्त्र और तत्वज्ञान करते हैं। प्रमा का करण प्रमाण है ऐसा लक्षण करने मोक्ष का सीधा जनक न होकर प्रयोजक हैं इसे स्पष्ट करते में जैसे प्रमा के लक्षण की चर्चा करनी होती है उसी हैं। इस चर्चा में गुणरत्नग णि काशीमरण से मुक्ति होती है तरह करण की भी चर्चा स्वाभाविक रूपसे करनी पड़ती या नहीं इसकी भी चर्चा करते हैं और नैयायिक मतानसार है। गोवर्धन प्रमा करण प्रमाण को समझाते हुए काशीमरण से तत्वज्ञान होता है और तत्वज्ञान मोक्षका 'अनुभवत्वव्याप्याजात्यवच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणताश्रयत्वे प्रयोजक है इस बात को वे सिद्ध करते हैं। यहां काशी सति प्रमाकरणत्वम् प्रमावं' ऐसी प्रमाण की व्याख्या मरण जैसा सरल मार्ग को छोड़कर शास्त्रभ्यास जैसा कठिन देते हैं। गुणरत्न नव्यन्याय की पद्धति से विस्तार से मार्ग क्यों लिया जाय ? जैसे पूर्वपक्ष का खण्डन गुणरत्न प्रमाण के इस लक्षण का पकृत्य करके समझाते हैं।' प्रामाणिक टीकासार के नाते करते हैं। वे चाहते तो इस कारण के लक्षण को समझाते हुए उन्होंने पांचों विषय का अच्छी तरह खण्डन कर सकते थे पर प्रामाणिक अन्यथासिद्धि को भी विस्तार से स्पष्ट किया है। टीकासार होनसे ही उन्होंने ऐसा यहां नहीं किया है। तदनन्तर तीनों प्रकार के करण तथा समवायि कारण और ३ द्रष्टव्य मङ्गलवाद तर्कतरङ्गिणी पृ० १ से ८ सं० डॉ० वसन्त पारीख ४ द्रष्टव्य वही पृ० १० ७ , वही पृ० ३७-५१ ८ द्रष्टव्य वही पृ०५८ ५ द्रष्टव्य तर्कतरङ्गिणी मोक्षवाद पृ० २३-२८ , , पृ०-६७-७१ तथा पृष्ठ ७८-८४ ६ , वही पृ० ३० १० , पृ० ८४-६० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १ ] उपादान कारण में क्या भेद है इसकी चर्चा भी की है ११ । प्रमाण के लक्षण में प्रत्यक्ष प्रमाण की चर्चा में तर्क भाषाकार और प्रकाशिकाकार का अनुसरण करते हुए उन्होंने बौद्ध और मोमांसक के प्रत्यक्ष लक्षणों की भी विस्तार से चर्चा करके खण्डन किया है १२ । प्रत्यक्ष के अनन्तर अनुमान प्रमाण को चर्चा में 'अनुमान का कारण लिंग परामर्श हो है' इस तर्कभाषाकार ओर प्रकाशिकाकार के मत की गुणरत्न ने विशदता से नव्यन्याय के आधार पर समझाया है। इस चर्चा में व्याप्ति के लक्षण को चर्चा गोवर्धन ने अधिक नहीं को है परन्तु गुणरत्न नव्यन्याय के प्रस्थापक गंगेश उपाध्याय के व्याप्ति के लक्षण को लेकर व्याप्ति के अनेक लक्षण प्रस्तुत करते हैं और इससे उनके नव्यन्याय के ज्ञान की विशिष्टता स्पष्टतया गोचर होती है१४ । इस चर्चा में वे उपाधि, तर्क वगैरह की चर्चा करते हुए मीमांसक जैसे अन्य दार्शनिकों के मतों की भी व्याप्तिग्राह्यत्व के विषय में चर्चा करते हैं । चार्वाक जोकि प्रत्यक्ष प्रमाण का स्वीकार ही नहीं करते हैं उनके मत का भी गुणरल ने नैयायिक पद्धति से खण्डन किया है १५ । अनुमान में व्याप्ति की चर्चा के साथ हेतु की चर्चा भी अनिवार्य है । नैयायिक अन्वयव्यतिरेकी केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी तीनों प्रकार के हेतुओं का स्वीकार करते हैं । इस चर्चा में गुणरत्न उदयन के मत का अनुसरण ११ तर्कतरङ्गिणी पृ० १०० और आगे १२ १३ १४ १५ १६ १७ "" द्रष्टव्य , " د. " " पृ० १७४ वही प० पृ० पृ पृ० ور 33 و" " १८३-१८४ १८७ ओर आगे २४२ २७२ २७५ करते हुए केवलयतिरेक व्याप्ति अन्वय रूप से भी कैसे हो सकती है उसे स्पष्ट करते हैं १६ । पक्षता की चर्चा में 'अनुमित्साविरह विशिष्ट सिद्धयभावः पक्षता' के लक्षण में विशिष्टाभाव के अर्थ को चर्चा वे विशदतासे और विस्तार से करते हैं १७ । अनुमान की चर्चा में हेत्वाभास की चर्चा अनिवार्य है । गुणरत्न हेत्वाभास का गोवर्द्धन से प्रस्तुत लक्षण किस तरह पांचों हेत्वाभासों को आबूत करता है यह एक प्रामाणिक टीकाकार के नाते विस्तार दिखाते हैं। वे प्रत्येक हेत्वाभास में क्या फर्क है, विशेषतः असिद्ध और विरुद्ध में क्या अन्तर है इसका सूक्ष्म निरूपण उदयन के मत का अनुसरण करते हुए देते हैं। साथ में एक ही स्थान पर हेत्वाभासों का संग्रह हो जाय, अर्थात् अनेक हेत्वाभास हों तो उसमें कोई दोष नहीं है, इस बात को भी स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करते हैं? . I अनुमान के अनन्तर उपमान की चर्चा टीकाकार गोवर्धन के अनुसार अत्यन्त संक्षेप में करके वे शब्दप्रमाण की चर्चा करते हैं । गोवर्द्धन शब्द प्रमाण को चर्चा को अधिक विस्तार से “एतावत्प्रपंचस्थ बालबोधार्थं करणात्' ऐसा कह कर नहीं करते हैं, परन्तु गुणरत्न शब्द प्रमाण की अनेक विशेषताओं की चर्चा विस्तार से करते हैं ( पृ० ३०७ ) | वे गङ्गदेश के मत को उद्धृत करके गोवधंन के दिये हुए लक्षण को विस्तार से समझाते हैं, और आसत्व क्या है, तथा आकांक्षा, योग्यता आदि भी क्या १८ 'वायुर्गन्धवान् स्नेहान्' इस हेत्वाभास के उदाहरण में वे लिखते हैं कि एकस्यैव 'स्नेहस्य अनैकान्तिकविरुद्धेत्यादि पञ्चत्वव्यवहारः कथमित्याशङ्कायामुत्तरम् - उपाधेयसङ्करेऽप्युपाध्यसङ्कर इति न्यायाद्दोषगत संख्यामादाय दुष्टहेतौ पञ्चत्वादिसंख्या व्यवहारः ' - तर्कतरङ्गिणी सं० डॉ० परीख, हस्तलिखित प्रति पृ० ६०५-६०६ । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] है, यह भी सट करते हैं । तर्कभाषाकार और प्रकाशि काकार ने शब्द के अनित्यत्व की चर्चा यद्यपि नहीं को है किन्तु इसका महत्त्व समझते हुए गुणरत्न इस चर्चा को छेड़ते हैं, और शब्द- नित्यत्व आदि मोमांसक के मत का खण्डन भी करते हैं । इस चर्चा में शब्द की शक्तियाँ, अभित्रा, लक्षणा और व्यञ्जना की चर्चा भो समाविष्ट हो जाती है ( पृ० ३५) । चारों प्रमाणों की स्थापना के अनन्तर अर्थापत्ति, अनुपलब्धि, किंवा अभाव ये दो प्रमाणों का अन्तर्भाव अनुमान में न्याय और वैशेषिक परम्परा करती है। तरङ्गिगीकार भी उनका अनुसरण करते हुए इन प्रमाणों का अमान में अन्तर्भाव करते हैं। प्रमाण के अन्तर्भाव की इस चर्चा में विशेषण विशेष्य भाव सम्बन्ध से अभाव का प्रत्यक्षज्ञान कैसे होता है यह भी विशदता से तरंगिणी में समझाया गया है ( पृ० ३३५-३५७) । प्रमाणों को चर्चा में तर्कभाषाकार ने प्रामाण्यवाद की चर्चा भी की है । इस विषय में तर्कभाषाकार पूर्व पक्ष में भट्टमत के सिद्धान्त को रखते हैं । प्रकाशिका का स्वतः प्रामाण्यवादो मीमांसक के तीनों मतों को लेकर उनका खण्डन करते हैं । गुगरल मोमांस और नैयायिक दोनों के मतों को समझाकर प्रथम ज्ञानप्रामाण्य क्या है, यह विस्तार से समझाते हैं और मीमांसक के प्रत्येक मत को विशदता से और विस्तार से चर्चा करते हैं ( पृ० ३६१६२) । यद्यपि इस विषय में जैन सिद्धान्त न्याय वैशेषिक के सिद्धान्त से पृथक् है । फिर भी गुणरल इसे प्रामाणिकता से न्याय वैशेषिक के परतः प्रामाण्यवाद का स्थापन और मण्डत करते हैं । करीब आधा ग्रन्थ तरंगिणीकार ने प्रमाण की चर्चा में उपयुक्त किया है । प्रमाणको चर्चा के अनन्तर न्याय दर्शन के बारह प्रयों की चर्चा शुरू होती है । इन बारह प्रमेयों में भी से मुख्य आत्मा, शरीर, और इन्द्रिय की आव्या चर्चा होनी चाहिए परन्तु प्रमाण-विचार जितनी चर्चा इन प्रमेयों की नहीं की गई है । इस विषय में तर्कभाषाकार से लेकर तरङ्गिणीकार तक सब समान हैं । शरीर की चर्चा गुणरत्न ने शरीरत्व जाति है या नहीं इसकी चर्चा छेड़ी है ( पृ० ४३८ - ३६) और साङ्कर्य दोष होते हुए मी शरीरत्व जाति है ऐसा स्वीकार किया है। में चतुर्थ प्रमेय अर्थ की चर्चा में वैशेषिक मत के सातों पदार्थों का निरूपण तर्कभाषाकार ने किया है। इससे कुछ पदार्थों को चर्चा की पुनरुक्ति होती है । गुणरत्न इस वास्ते इस विषय की कोई विस्तृत चर्चा नहीं करते हैं । यहां 'एवम्' पद का विचार श्रीगुणरत्न विस्तार से करते हैं ( पृ० ४४८ ) । चर्चा का समापन करते हुए 'एव' पद का अर्थ अन्योन्याभाव हो सकता है ऐसे लीलावतीकार के मत को वे समर्थित करते हैं । अर्थ में से द्रव्य पदार्थ के निरूपण में पृथ्वी का निरूपण आता है। इसमें विशेष चर्चा पाकज प्रक्रिया की को गई है । यह चर्चा यहां संक्षेप में ही की जाती है, क्योंकि इस चर्चा का उचित स्थान गुणों की चर्चा में है । द्रव्यों की चर्चा में तेजस द्रव्य सुवर्ण को चर्चा भी स्वभावतः की जाती है । इस विषय में तरंगिणीकार सूचन करते हैं कि यद्यपि सुवर्ण में तेजस रूप तथा स्पर्श उत्पन्न होता है किन्तु पृथ्वी के परमाणु को अधिकता होने से पार्थिवरूप और पार्थिव स्वर्श से अभिभूत हो जाते हैं ( पृ० ४५२-५४) । पृथ्वी, जल, तेज और वायु के निरूपण के अनन्तर चारों द्रव्यों के परमाणुओं की चर्चा में परमाणुवाद की चर्चा की जाती है ! जैनदर्शन के पुद्गल और न्यायवैशेषिक के परमाणु भिन्न होने पर भी श्री गुणरत्न यहां केवल परमाणुवाद की चर्चा करते हैं । परमाणुओं से सृष्टिसंहार की प्रक्रिया कैसे होती है, यह वैशेषिक मत के अनुसार समझाया गया है। यहां पर प्रलय के समय सारे परमाणुओं का विभाजन कैसे होता इसे विस्तार से तर्क Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरङ्गिगोमें श्रीगुणचन्द्र समझाते हैं (पृ० ४५५-५६) । यहां सति एतेवृत्तिमात्रवृत्तिगुणेचसाक्षाद्व्याप्यजातिकत्वं परिमाणपर प्राचीन और नवीन नैयायिकों के मतभेदमें गुणरत्न प्राचीन त्वम्' (पृ० ५०४ ) स्पष्ट लक्षण देते हैं । 'पृथक्त्व' गुण नैयायिकों के मत को समर्थित करते हुए समवायि कारण को समझाते हुए वे अन्योन्याभाव से पृथक्त्व किस तरह के नाश से कार्य का नाश होता है, इस सिद्धान्त को भिन्न है इसका स्पष्टोकरण विशदतासे करते हैं। स्वीकार करते हैं। द्रव्य की चर्चा में गणरत्न आत्मा की तदनन्तर वे संयोग को समझाते हुए इसका भी समुचर्चा प्रमेय में हो जाने के कारण पुनरुक्ति दोष के वारण के चित लक्षण “विभागप्रतियोगिकान्योन्याभावत्वे सति एकलिये नहीं करते हैं। वृत्तिमात्रवृत्तिगुणत्वसाक्षाद्व्याप्य जातिकत्वं सयोगत्वम्" देते द्रव्य के अनन्तर गण निरूपण में तर्कभाषाकार गुण हैं। इस लक्षण को पदकृत्य शैली से समझा कर संयोग का लक्षण "सामान्यवानसमाधिकारणमस्यन्यात्मा गण:" के भेद को भी वे समझाते हैं। इस विषय में नैयायिक ऐसा देते हैं। प्रकाशिकाकार गोवर्धन इस लक्षण में 'कर्म- जो कि संयोग को अव्याप्य वृत्ति कहते हैं उनके साथ द्रव्यभिन्नत्वे सति' ऐसा विशेषण बढ़ाते हैं। गुणरत्न इस अपनी असम्मति प्रकट करते हुए श्रीगुणरत्न संयोग को भी विशेषण वृद्धि को विस्तार से समझाते हैं और रघुनाथ व्याप्य वृत्ति सिद्ध करते हैं। अपने मत के समर्थन में वे शिरोमणि के गुण के लक्षण को भी उद्धत करते हैं । गुण की लीलावती को उद्धृत करते हैं (पृ० ५१३-१६) । संयोग चर्चा में रूप को चर्चा भी की जाती है। गणरत्न प्राचोन के अनंतर स्वाभाविक क्रम से विभाग का निरूपण आता नेयायिकों के मत को पुष्ट करते हुए चित्ररूप को आवश्य- है। विभाग यह संयोग का अभाव नहीं है. किन्तु स्वतंत्र कता समझाते हैं (पृ. ४८६)। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गण है--यह बात एक अच्छे तार्किक की तरह गणरत्न इन चारों गुणों के लक्षण को पदकृत्य शैली से समझा कर समझाते हैं । पाचन प्रक्रिया की विस्तार से चर्वा करते हैं। यहां पिठर- तदनन्तर परत्न, अपरत्व इत्यादि गगों को संक्षेप में पाकवादी नैयायिक और पीलााकवादीपिक के मतों को समझा कर वे शब्द निरूपण की चर्चा विस्तार से करते हैं । वे विस्तार से और विशदता से निष्पक्ष रूप से स्थापित 'वोचोतरङ्गन्याय' किंवा 'कदम्ब मुकुलन्याय' से नये-नये शब्द करते हैं। इस प्रक्रिया में विभागज विभाग को सहायता से किस तरह उत्पन्न होते हैं और श्रोत्रन्द्रिय में हो उत्पन्न परमाणु में रूपादि का फर्क कैगे होता है यह बात अपने होकर शब्द का किस प्रकार ग्रहण होता है इसे वे विस्तार शिष्य को स्पष्टता के वास्ते वे समझाते हैं (पृ०४६४)। से समझाते हैं । शब्द का अनित्यत्व और केवल तीन क्षण चार सुणों के निरूपण में संख्या का निरूपण तर्क- तक शब्द केसे रहता है यह समझाते हुए बुद्धि केवल दो क्षण भाषाकार करते हैं । गुणरत्नजी ने यहां पर गोवर्धन के लक्षण तक ही रहती है ऐसा स्पष्ट करते हैं। शब्द के नाश के के साथ असम्मति प्रगट करते हुए कहा है कि "वस्तुतस्तु तदपि विषय में पूर्व पक्ष के मत को तर्कभाषाकार का मत समलक्षणं न संभवति तस्य लक्षणतावच्छेदकत्वात्" । इतना कह झने में भल गणरलजी ने यहाँ पर की है। यह कुछ केशव मिश्र की बात को समझने में गलती से हो गया है। कर वे अपनी ओर से “व्यासज्यवृत्तित्वे सति पृथक्त्वात्म शब्द के अनन्तर बुद्धि, धर्म, अधर्म आदि आत्मा के गणों गुणत्वव्याप्यजातिमत्वम्" (पृ० ४६६) ऐसा यथार्थ लक्षण का निरूपण करते हुए भ्रम किंवा अन्यथाख्याति का भी देते हैं। यह बात उनको सूक्ष्मेक्षिका की बोधक है। इसी निरूपण वे करते हैं । इस निरूपण में ख्यातवाद और तरह वे परिमाण नामक गण का भी 'कालवत्तिवृत्तित्वे भिन्न-भिन्न ख्यातियों की चर्चा की गई है (पृ. ५३०) । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य और गुण की चर्चा के अनन्तर कर्म निरूपण में हैं। यद्यपि हेमचन्द्रसूरि ने केवलवाद को ही स्वीकार जैन गुणरत्न कर्म का स्वतंत्र लक्षण ही देते हैं। यह है “संयोग- दर्शन को दृष्टि से प्रमाणमीमांसा में किया है फिर भी यहां विभागयोरनपेक्षकारणं कर्म" (पृ० 532) / यहां वे प्रशस्त- प्रामाणिक टीकाकार गुणरत्न तीनों को अच्छी तरह समझा पाद भाष्य का अनुसरण करते हैं। उन्हें तर्कभाषाकार कर तीनों के भेद की आवश्यकता भो समझाते हैं। कथा का और गोवर्धन का दिया हुआ लक्षण संतोष नहीं दे को चर्चा के इस प्रसंग में निग्रहस्थान की चर्चा भी समासका है। सामान्य, विशेष समवाय और अभाव ये चारों विष्ट होती है। कथा में केवलवादी और प्रतिवादी ही पदार्थ वैशेषिक के ही अपने पदार्थ हैं। फिर भी यहाँ भाग लेते हैं इस मत का खण्डन करते हुए गोवर्धन वादी गणरत्न इन पदार्थों का खण्डन नहीं करते हैं सामान्य और प्रतिवादी के समूह अर्थात् एक से अधिक व्यक्ति भो में सामान्य या जाति उपाधि से किस तरह भिन्न है, यह इसमें भाग ले सकते हैं, गुणरल उन्हीं का अनसरण करते समझाते हैं। उनके मतानुसार जाति संकर से मुक्त होनी हैं। इस विषय में रत्नकोशकार ने कथा के जो अन्तर प्रकट चाहिए (पृ० 534) / "ब्राह्मणत्व" जाति किस तरह किया है उसका खण्डन भी गुणरत्न करते हैं / निग्रह चारों प्रकार से शक्य होती है यह तार्किक युक्ति से वे स्थान की चर्चा में हेत्वाभास की चर्चा एक बार आचकी प्रस्तुत करते हैं / विशेष की खास चर्चा न करते हए समवाय है वे इस वास्ते पुनरावृत्ति नहीं करते हैं। छल और गति की चर्चा में स्वरूप सम्बन्ध से समवाय किस तरह भिन्न के विषय में भी वे अधिक कुछ विवरण नहीं करते हैं है और अवयवी केवल अवयवों का समूह न होकर अवयवों क्योंकि कथा की चर्चा में ये सब आ जाते हैं। से भिन्न है यह न्याय वैशेषिक का सिद्धान्त वे अच्छी तरह ___ संक्षेप में तर्कभाषाकार और उनके टीकाकार प्रकाप्रतिपादित करते हैं (पृ०५३७ ) / शिकाकार गोवर्धन ने जिन विषयों की विशेष चर्चा नहीं समवाय के बाद अभाव की चर्चा वे विशेष रूप से / की है, ऐसे विषयों की चर्चा गणरत्न ने अपनी तर्कतरकरते हैं। अन्योन्याभाव से संसर्गाभाव, जिसके तीन ङ्गिणी में आधुनिक प्रामाणिक टीकाकार की तरह की है। प्रकार हैं, वह कैसे पृथक हैं इसे विशदता से और विस्तार ये विषय हैं (1) मङ्गलवाद, (2) काशीमरण मुक्ति, (3) से वे समझते है। इपो चर्चा में प्रत्येक अभाव एक दूसरे उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा का विस्तार से विवरण, (4) से क्यों भिन्न हैं यह भी वे अच्छी तरह समझाते हैं (पृ०. कारण लक्षण (5) षोढा सन्निकर्ष (6) व्याप्ति (7) अवच्छे५४१-५२) / मीमांसक जो कि अभाव को अलग नहीं दकत्व (8) सामान्यलक्षणा तथा ज्ञानलक्षणा प्रत्यासत्ति (6) मानते हैं उनका खण्डन भी वे न्याय वैशेषिक के सिद्धान्तों हेतु केतीन प्रकार (10) सत्प्रतिपक्ष और संदेह का भेद (11) के अनुसार करते हैं। शब्द की अनित्यता (12) शब्द शक्तियाँ (13) प्रामाण्यवाद आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और अर्थ के निरूपण के अनन्तर में मीमांसकों के तीनों मत की आलोचना (14) शरीरत्व न्याय के अवशिष्ट आठ प्रभेदों में वे अत्यन्त संक्षेप करते जाति (15) प्रलय (16) गुण का लक्षण (17) चित्ररूप हैं। सिद्धान्त की चर्चा में गणरल गोवर्धन का अनुसरण (18) पाकज प्रक्रिया (16) पृथक्त्व और अन्योन्याभाव का करते हैं और गोवर्धन ने वार्तिककार के मतानुसार तर्क भेद (20) अन्यथाख्याति और अभाव के प्रकारों के भेद भाषाकार जो कि भाष्यकार वात्स्यायन के मत का इत्यादि हैं। स्वीकार करते हैं उनका खण्डन करते हैं / गुणरल भी उसी तरह तर्कभाषाकार के मत का खंडन विशेषत: अभ्यु- न्याय की अन्य कृतियों में शशधर टिप्पण वगैरह भी पगम सिद्धान्त के भेद के विषय में करते हैं। सिद्धान्त के उन्होंने लिखा है। काव्यप्रकाश की भी विस्तृत टीका उनको बाद तर्क का लक्षण देकर प्रकाशिकाकार के अनुसार तर्क कृति है इस तरह खरतरगच्छ के यह विद्वान अपने समय के प्रकार समझाते हैं (पृ० 583-84) / के पदवाक्यप्रमाणज्ञ ऐसे एक गच्छ के गौरव प्रदान करने न्याय शास्त्र के अन्य पदार्थों को विशेष चर्चा न करते वाले विद्वान थे। आशा है खरतर गच्छ के श्रेष्ठी उनकी हावे वादजल्प और वितण्डा ये तीन पदार्थों को समझाते कृतियों को प्रकाश में लाने का सविशेष प्रयत्न करगे / .