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Dडा. कस्तूरचन्द कासलीवाल
[निदेशक : साहित्य शोध विभाग, महावीर भवन, जयपुर-३]
ग्रन्थों की सुरक्षा में राजस्थान
के जैनों का योगदान
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सारे देश में हस्तलिखित ग्रन्थों का अपूर्व संग्रह मिलता है। उत्तर से दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तक सभी प्रान्तों में हस्तलिखित ग्रन्थों के भण्डार स्थापित हैं । इसमें सरकारी क्षेत्रों में पूना का भण्डारकर-ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट, तंजौर की सरस्वती महल लायब्ररी, मद्रास विश्वविद्यालय की ओरियन्टल मैनास्क्रप्टस लायब्ररी. कलकत्ता की बंगाल एशियाटिक सोसाइटी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । सामाजिक क्षेत्र में अहमदाबाद का एल० डी० इन्स्टीट्यूट, जैन सिद्धान्त भवन आरा, पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बई, जैन शास्त्र भण्डार कारंजा, भिम्बीडी, सूरत, आगरा, देहली आदि के नाम लिये जा सकते हैं। इस प्रकार सारे देश में इन शास्त्र भण्डारों की स्थापना की हुई है। जो साहित्य संरक्षण एवं संकलन का एक अनोखा उदाहरण है।
लेकिन हस्तलिखित ग्रन्थों के संग्रह की दृष्टि से राजस्थान का स्थान सर्वोपरि है। मुस्लिम शासन काल में यहां के राजा महाराजाओं ने अपने निजी संग्रहालयों में हजारों ग्रन्थों का संग्रह किया और उन्हें मुसलमानों के आक्रमण से अथवा दीमक एवं सीलन से नष्ट होने से बचाया है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात सरकार ने जोधपुर में जिस प्राच्यविद्या शोध प्रतिष्ठान की स्थापना की थी उसमें एक लाख से भी अधिक ग्रन्थों का संग्रह हो चुका है जो एक अत्यधिक सराहनीय कार्य है । इसी तरह जयपुर, बीकानेर, अलवर जैसे कुछ भूतपूर्व शासकों के निजी संग्रह में भी हस्तलिखित ग्रन्थों की सर्वाधिक संख्या है। लेकिन इन सबके अतिरिक्त भी राजस्थान में जैन ग्रन्थ भण्डारों की संख्या सर्वाधिक है और उनमें संग्रहीत ग्रंथों की संख्या तीन लाख से कम नहीं है।
राजस्थान में जैन समाज पूर्ण शान्तिप्रिय एवं भावक समाज रहा । इस प्रदेश की अधिकांश रियासतें जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, उदयपुर, बूंदी, डूगरपुर, अलवर, भरतपुर, कोटा, झालावाड़, सिरोही में जैनों की घनी आबादी रही । यही नहीं शताब्दियों तक जैनों का इन स्टेटस् की शासन व्यवस्था में पूर्ण प्रभुत्व रहा तथा वे शासन के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित रहे।
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और इसी कारण साहित्य संग्रह के अतिरिक्त राजस्थान जैन पुरातत्त्व एवं कला की दृष्टि से उल्लेखनीय प्रदेश रहा ।।
ग्रंथों की सुरक्षा एवं संग्रह की दृष्टि से राजस्थान के जैनाचार्यों, साधुओं, यतियों एवं श्रावकों का प्रयास विशेष उल्लेखनीय है । प्राचीन ग्रंथों की सुरक्षा एवं नये ग्रंथों के संग्रह में जितना ध्यान जैन समाज ने दिया उतना अन्य समाज नहीं दे सका । ग्रंथों की सुरक्षा में उन्होंने अपना पूर्ण जीवन लगा दिया और किसी भी विपत्ति अथवा संकट के समय ग्रथों की सुरक्षा को प्रमुख स्थान दिया । जैसलमेर, जयपुर, नागौर, बीकानेर, उदयपुर एवं अजमेर में जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ भण्डार हैं वे सारे देश में अद्वितीय हैं तथा जिनमें प्राचीनतम पाण्डुलिपियों का संग्रह है। इन शास्त्र भण्डारों में ताड़पत्र एवं कागज पर लिखी हुई प्राचीनतम पाण्डुलिपियों का संग्रह मिलता है । संस्कृत भाषा के काव्य चरित, नाटक, पुराण, कथा एवं अन्य विषयों के ग्रंथ ही इन भण्डारों में संग्रहीत नहीं हैं किन्तु प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा के अधिकांश ग्रंथ एवं हिन्दी राजस्थानी का विशाल साहित्य इन्हीं भण्डारों में उपलब्ध होता है। यही नहीं कुछ ग्रंथ तो ऐसे हैं जो इन्हीं भण्डारों में उपलब्ध होते हैं, अन्यत्र नहीं।
ग्रंथ भण्डारों में बड़े-बड़े पण्डित लिपिकर्ता होते थे जो प्रायः ग्रंथों को प्रतिलिपियाँ किया करते थे। जैन महारवों के मुख्यालयों पर ग्रथ लेखन का कार्य अधिक होता था। आमेर, नागौर, अजमेर, सागवाडा, जयपर, कामा आदि के नाम विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं। ग्रंथ लिखने में काफी परिश्रम करना पड़ता था। पीठ भुके हुए कमर एवं गर्दन नीचे किये हुए, आँखें झुकाये हुए कष्ट पूर्वक ग्रन्थों को लिखना पड़ता था। इसलिए कभी-कभी प्रतिलिपिकार निम्न श्लोक लिख दिया करते थे जिसमें पाठक, ग्रंथ की स्वाध्याय करते समय अत्यधिक सावधानी रखे
"भग्न पृष्ठि कटि ग्रीवा वक्रवृष्टिरधोमुखम् । कष्टेनलिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपाल्यताम् ॥" बद्ध मुष्टि कटि ग्रीवा मददृष्टिरधोमुखम् । कष्टेनलिखितं शास्त्र यत्नेन परिघातयेत ॥ लघु दीर्घ पद हीण वंजण हीण लखाणुहुई ।
अजाण पणई मूढ पणह पंडत हई ते करि भणज्यो । राजस्थान के जैन शास्त्रभण्डार प्राचीनतम पाण्डुलिपियों के लिए प्रमुख केन्द्र हैं । जैसलमेर के जैन शास्त्रभण्डार में सभी ग्रन्थ ताड़पत्र पर हैं जिसमें सम्बत् १११७ में लिखा हुआ ओघ नियुक्ति वृत्ति सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसी भण्डार में उद्योतन सूरि की कृति कुवलयमाला सन् १०८२ की कृति है।
राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में यद्यपि ताड़पत्र एव कागज पर ही लिखे हुए ग्रन्थ मिलते हैं लेकिन कपड़े एवं ताम्रपत्र पर लिखे हुए ग्रन्थ भी मिलते हैं । जयपुर के एक शास्त्र भण्डार में कपड़े पर
१. सम्वत् १११७ मंगलं महाश्री ॥ छ । पाहिलेन लिखित मंगलं महाश्री ॥ छ । २. सम्वत् ११३६ फाल्गुन वदि १ रवि दिने लिखितमिद पुस्तकमिति ।।
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लिखे हुए प्रतिष्ठा-पाठ की प्रति उपलब्ध हुई है जो १७वीं शताब्दि की लिखी हुई है और अभी तक पूर्णतः सुरक्षित है। कपड़ों पर लिखे हुए इन भण्डारों में चित्र भी उपलब्ध होते हैं जिनमें चार्टस् के द्वारा विषय का प्रतिपादन किया गया है। प्रायः प्रत्येक मन्दिर में ताम्रपत्र एवं सप्तधातु पत्र भी उपलब्ध होते हैं।
इन भण्डारों में ग्रन्थ लेखक के गुणों का भी वर्णन मिलता है जिसके अनुसार इसमें निम्न गुण होने चाहिये
सर्वदेशाक्षराभिज्ञः सर्वभाषा विशारदः । लेखकः कथितो राज्ञः सर्वाधिकरणषु वै ॥ मेधावी वाक्पटु धीरो लघुहस्तो जितेन्द्रियः ।
परशास्त्र परिजाता, एवं लेखक उच्येत ॥ ग्रन्थ लिखने में किस-किस स्याही का प्रयोग किया जाना चाहिये इसकी भी पूरी सावधानी रखी जाती थी। जिसमें अक्षर खराब नहीं हों, स्याही नहीं फूटे तथा कागज एक दूसरे के नहीं चिपके । ताड़पत्रों के लिखने में जो स्याही काम में ली जाने वाली है उसका वर्णन देखिये
सहवर-भूगः त्रिफाना, कासिं लोहमेव तीली।
समकत्जाल बोलपुता, भवति मषी ताडपत्राणां ॥ प्राकृत भाषा में निबद्ध इस ग्रंथ में २५४ पत्र हैं। इसी तरह महाकवि दण्डी के काव्यादर्श की। पाण्डुलिपि सन् ११०४ की उपलब्ध है जो इस ग्रन्थ की अब तक उपलब्ध ग्रन्थों में सबसे प्राचीन है।' जैसलमेर के इस भण्डार में और भी ग्रन्थों की प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ हैं, जिनके नाम निम्न प्रकार हैं
अभयदेवाचार्य की विपाकसूत्र कृति सन् ११२८ जयकीतिसूरि का छन्दोनुशासन सन् ११३५ अभयदेवाचार्य की भगवती सूत्र कृति सन् ११३८
विभत्नसरि द्वारा विरचित पउम चखि की सन् ११४१ में लिखित प्राचीन पाण्डुलिपि भी इसी भण्डार में संग्रहीत है। यह पाण्डुलिपि महाराजाधिराज श्री जयसिंह देव के शासन काल में लिखी गयी थी। वर्द्धमानसूरि की व्याख्या सहित उपदेशपढ़प्रकरण की पाण्डुलिपि जिसका लेखन अजमेर सम्बत १२१२ में हुआ था- इसी भण्डार में संग्रहीत है।
संवत् १२१२ चैत्र सुदि १३ गुरौ अधेट श्री अजयमेरू दुर्गे समस्त राजकवि विराजित परम भट्टारक महाराजाधिराज श्री विग्रह देव विजय राज्ये उपदेश टीका लेखिति ।
चन्द्रप्रभस्वामी चरित (यशोदेवसूरि) की भी प्राचीनतम पाण्डुलिपि इसी भण्डार में सुरक्षित है जिसका लेखन काल सन् १९६० है तथा जो ब्राह्मण गच्छ के पं० अभयकुमार द्वारा लिपिबद्ध की गयी थी।
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१. सम्वत् ११६१ भाद्रपदे । २. सम्बत् ११६८ कार्तिक वदि १३ ।। छ । महाराजाधिराज श्री जयसिंघ विजय देव राज्ये भग कच्छ
समवस्थितेन लिखितेयं मिल्लणेन । ३. सम्वत् १२१७ चैत्र वदि ६ बुधौ ॥ छ । ब्राह्मणगच्छे पं० अभयकुमारस्व
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इतिहास और संस्कृति
इसी तरह भगवती सूत्र सम्वत् १२३१ लिपिकर्ता हाणचन्द्र । व्यवहार सूत्र सम्वत् १२३६ लिपिकर्ता जिनबंधुर । महावीर चरित्र गुणचन्द्रसूरि सम्वत् १२४२ ।
भवभावनाप्रकरण-मलधारि हेमचन्द्रसूरि सम्वत् १२६० की भी प्राचीनतम प्रतियाँ इसी भण्डार में संग्रहीत हैं। ताड़पत्र के समान कागज पर उपलब्ध होने वाले ग्रन्थों में भी इन भण्डारों में प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध होती हैं, जिनका संरक्षण अत्यधिक सावधानी पूर्वक किया गया है । नये मन्दिरों में स्थानान्तरित होने पर भी उनको सम्हाल कर रखा गया तथा दीमक, सीलन आदि में बचाया गया। इस हष्टि से मध्य युग में होने वाले भट्टारकों का सर्वाधिक योगदान रहा।
जयपुर के दि० जैन तेरह पंथी बड़ा मन्दिर के शास्त्र भण्डार में समयसार की संवत १३२६ की पाण्डुलिपि है जो देहली में गयासुद्दीन बलवन के शासन काल में लिखी गयी थी। योगिनीपुर जो देहली का पुराना नाम था उसमें इसकी प्रतिलिपि की गयी थी।
सन् १३३४ में लिखित महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण के द्वितीय भाग उत्तर पुराण की एक पाण्डुलिपि आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर में संग्रहीत है। यह पाण्डुलिपि भी योगिनीपुर में मोहम्मद साह तुगलत के शासन काल में लिखी गयी थी । इसकी प्रशस्ति निम्न प्रकार है___संवत्सरे स्मिन् श्री विक्रमादित्य गताबदाः सम्वत् १३६१ वर्षे ज्येष्ठ बुदि ६ गुरुवासरे अधेह श्री योगिनीपुरे समस्त राजावलि शिरोमुकट माणिक्य खचित नखरश्मौ सुरत्राण श्री मुहम्मद सहि नाम्नी महीं विभ्रति सति अस्मिन राज्ये योगिनीपुरस्थिता ...... ।
यहाँ एक बात और विशेष ध्यान देने की है और वह यह है कि जैनाचार्यों एवं श्रावकों ने अपने शास्त्र भण्डारों में ग्रन्थों की सुरक्षा में जरा भी भेदभाव नहीं रखा । जिस प्रकार उन्होंने जैन ग्रन्थो की सुरक्षा एवं उनका संकलन किया उसी प्रकार जैनेतर ग्रन्थों की सुरक्षा एवं संकलन पर भी विशेष जोर दिया।
घोर परिश्रम करके जैनेतर ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ या तो स्वयं ने की अथवा अन्य विद्वानों से उनकी प्रतिलिपि करवायीं । आज बहत से ऐसे ग्रन्थ हैं जिनकी केवल जैन शास्त्र भण्डारों में ही पाण्डलिपियाँ मिलती हैं। इस दृष्टि से आमेर, जयपुर, नागौर, बीकानेर, जैसलमेर, कोटा, बूंदी एवं अजमेर के जैन शास्त्र भण्डारों का अत्यधिक महत्व है। जैन विद्वानों ने जैनेतर ग्रन्थों की सुरक्षा ही नहीं की किन्तु उन कृतियाँ, टीका एवं भाष्य भी लिखे । उन्होंने उनकी हिन्दो में टीकायें लिखीं और उनके प्रचार । प्रसार में अत्यधिक योग दिया। राजस्थान के इन शास्त्र भण्डारों में काव्य, कथा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित विषयों पर सैकड़ों रचनायें उपलब्ध होती हैं । यही नहीं स्मति, उपनिषद एवं संहिताओं का भी भण्डारों में संग्रह मिलता है । जयपुर के पाटौदी के मन्दिर में ५०० ऐसे ही ग्रन्थों का संग्रह किया हुआ उपलब्ध है।
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१. सम्वत १३२६ चैत्र बुदी दसम्यां बुधवासरे अधेह योगिनीपुरे समस्त राजावलि सयालंकृत श्री
गयासुद्दीन राज्ये अत्रस्थित अग्रोतक परमश्रावक जिनचरनकमल ।
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ग्रन्थों की सुरक्षा में राजस्थान के जैनों का योगदान
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मम्मट के काव्यप्रकाश की सम्बत् १२१५ की एक प्राचीनतम पाण्डलिपि जैसलमेर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । यह प्रति शाकंभरी के कुमारपाल के शासन काल में अणहिल पहन में लिखी गयी थी। सोमेश्वर कवि की काव्यादर्श की सन् ११२६ की एक ताडपत्रीय पाडुलिपि भी यहीं के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। कवि रुद्रट के काव्यालंकार की इसी भण्डार में सम्वत् १२०६ आषाढ़ बदी ५ को ताडपत्रीय पाण्डुलिपि उपलब्ध होती है। इस पर नमि साधु की संस्कृत टीका है । इसी विद्वान द्वारा लिखित टीका की एक प्रति जयपर के आमेर शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। इसी तरह कुत्तक क वक्रोक्ति जीवित, वासन कवि का काव्यालंकार, राजशेखर कवि का काव्यमीमांसा, उद्भट कवि का अलंकारसंग्रह, की प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ भी जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, अजमेर एवं नागौर के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं।
कालिदास, माघ, भारवि, हर्ष, हलायुध एवं भद्री जैसे संस्कृत के शीर्षस्थ कवियों के काव्यों की प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ भी राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं। यही नहीं इन भण्डारों में कुछ काव्यों की एक से भी अधिक पाण्डुलिपियाँ हैं। किसी किसी भण्डार में तो यह संख्या २० तक भी पहँच गयी है। जैसलमेर के शास्त्र भण्डार में कालिदास के रघुवंश की १४वीं शताब्दि की प्रति है। इन काव्यों पर गुणारतन सूरि, चरित्रवर्द्धन, मल्लिनाथ, समयसुन्दर, धर्म भैरु, शान्तिविजय जैसे कवियों की टीकाओं का उत्तम संग्रह है। किरात्जुनीय काव्य पर प्रकाश वर्ष की टीका की एक मात्र प्रति जयपुर के आमेर शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। प्रकाश वर्ष ने लिखा है कि वह काश्मीर के हर्ष का सुपुत्र है।
उदयनाचार्य की किरणावली की एक प्रति टीका सहित, आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर में उपलब्ध है। सांख्य सप्तति की पाण्डुलिपि भी इसी भण्डार में संग्रहीत है । जो सम्बत १४२७ की है।' इसी ग्रन्थ की इसी प्राचीन पाण्डुलिपि जिसमें भाष्य भी है, जैसलमेर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है, और वह सम्बत् १२०० की ताडपत्रीय प्रति है। इसी भण्डार में सांख्यतत्वकौमुदी (वाचस्पति मिश्र) तथा ईश्वरकृष्ण की सांख्य सप्तति की अन्य पाण्डुलिपियाँ भी उपलब्ध होती हैं।
इसी तरह पातञ्जल योग दर्शन भाष्य (वाचस्पति हर्ष मिश्र) की पाण्डुलिपि भी जैसलमेर के भण्डार में सुरक्षित है। प्रशस्तपादभाष्य की एक १२वीं शताब्दि की पाण्डुलिपि भी यहीं के भण्डार में मिलती है।
__ अलंकार शास्त्र के ग्रन्थों के अतिरिक्त कालिदास, मुरारी, विशाखदत एवं भट्ट नारायण के संस्कृत नाटकों की पाण्डुलिपियाँ भी राजस्थान के इन्हीं भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। विशाखदत्त का मुद्राराक्षस नाटक, मुरारी कवि का अनर्घ राघव, कृष्ण मिश्र का प्रबोधचन्द्रोदय नाटक, महाकवि सुबंध की वासवदत्ता आख्यायिका की ताडपत्रीय प्राचीन पाण्डुलिपियां जैसलमेर के भण्डार में एवं कागज पर अन्य शास्त्रभण्डारों में संग्रहीत हैं।
१. देखिये-जैन ग्रन्थ भण्डार्स इन राजस्थान, पृष्ठ संख्या २२० । २. वही।
सपार्यप्रवर अभिमापार्यप्रवर अभि श्रीआनन्द अन् श्रीआनन्द अन्य
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داعیه عموم ملاع منعقادي هو موقع غير محكوم عرفی
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इतिहास और संस्कृति
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अपभ्रंश का अधिकांश साहित्य जयपुर, नागौर, अजमेर एवं उदयपुर के शास्त्र भण्डारों में मिलता है। महाकवि स्वयंभू का पउमचरिउ एवं रिद्धणौमिचरिउ की प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ जयपुर एवं अजमेर के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं। पउमचरिउ की संस्कृत टीकायें भी इन्हीं भण्डारों में उपलब्ध हुई हैं। महाकवि पुष्पदन्त का महापुराण, जसहरचरिउ, णम्यकुमार चरिउ की प्रतियाँ भी इन्हीं भण्डारों में मिलती हैं। अब तक उपलब्ध या पाण्डुलिपियों में उत्तरपुराण की सम्वत १३९१ की पाण्डुलिपि सबसे प्राचीन है और वह जयपुर के ही एक भण्डार में संग्रहीत है।' महाकवि नयनन्दि की सूदसण चरिउ की जितनी संख्या में जयपुर के शास्त्र भण्डारों में पाण्डुलिपियाँ संग्रहीत हैं उतनी अन्यत्र कहीं नहीं मिलतीं। नयनन्दि ११वीं शताब्दि के अपभ्रंश के कवि थे । इसका एक अन्य ग्रन्थ समल विहिविहाण काव्य की एक मात्र पाण्डुलिपि जयपुर के आमेर शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। इसमें कवि ने अपने से पूर्व होने वाले कितने ही कवियों के नाम दिये हैं। इसी तरह शृगार एवं वीर रस के महाकवि वीर का जम्बू सामी चरिउ भी राजस्थान में अत्यधिक लोकप्रिय रहा था और उसकी कितनी ही प्रतियाँ जयपुर एवं आमेर के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। अपभ्रंश में सबसे अधिक चरित काव्य लिखने वाले महाकवि रइधू के अधिकांश ग्रन्थ राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध हए हैं।
रइध कवि ने इस भाषा में २० से भी अधिक चरित्र काव्य लिखे थे और उनमें आधे से अधिक तो विशालकाय कृतियां हैं। इसी तरह अपभ्रंश के अन्य कवियों में महाकवि यशःकीति, पंडित लाख, हरिषेण, श्रुतकीर्ति, पद्य्न कीति, महाकवि श्रीधर, महाकवि सिंह, धनपाल, श्री चन्द, जयमिपहल, नरसेन, अमरकीति, गणिदेवसेन, माणिक्कराज एवं भगवतीदास जैसे पचासों कवियों की छोटी बड़ी सैकड़ों रचनायें इन्हीं भण्डारों में संग्रहीत हैं । १८वीं शताब्दि में होने वाले अपभ्रंश के अन्तिम कवि भगवतीदास की कृति मृगांकलेखाचरित की पाण्डुलिपि भी आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में संग्रहीत है। भगवतीदास हिन्दी के अच्छे विद्वान थे, जिनकी २० से भी अधिक रचनायें उपलब्ध होती हैं। अपभ्रंश भाषा में निबद्ध मृगांकले-खाचरित सम्वत् १७०० की कृति है।
संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के समान ही जैन ग्रन्थ भण्डारों में हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के ग्रन्थों की पूर्ण सुरक्षा की गयी। यही कारण है कि राजस्थान के इन ग्रन्थ भण्डारों में हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा की दुर्लभ कृतियाँ उपलब्ध हुई हैं और भविष्य में और भी होने की आशा है। हिन्दी के बहचित ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो की प्रतियाँ कोटा, बीकानेर एवं चुरू के जैन भण्डारों में उपलब्ध हुई हैं। इसी तरह वीसलदेव रासो की भी कितनी ही पाण्डुलिपियाँ अभयग्रन्थालय, बीकानेर एवं खरतरगच्छ जैन शास्त्र भण्डार, कोटा में उपलब्ध हो चुकी हैं। प्रसिद्ध राजस्थानी कृति कृष्ण रुक्मणि बेलि पर जो टीकायें उपलब्ध हुई हैं वे भी प्राप्त सभी जन भण्डारों में संरक्षित हैं। इसी तरह बिहारी सतसई, रसिकसिया, जैतसीरासो, वैताल पच्चीसी, विल्हण चरित चौपई की प्रतियाँ राजस्थान के विभिन्न शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं। हिन्दी की अन्य रचनाओं में राजसिंह कवि की जिनदत्त चरित (सम्बत् १३५४), साघास
१. देखिये प्रशस्ति संग्रह-डा० कस्तूर चन्द कासलीवाल । २. वही
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________________ ग्रन्थों की सुरक्षा में राजस्थान के जैनों का योगदान 193 रामा A कवि का प्रद्युम्नचरित (सम्वत् 1411) की दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ भी जयपुर के जैन शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं। ये दोनों ही कृतियाँ हिन्दी के आदिकाल की कृतियाँ हैं, जिनके आधार पर हिन्दी साहित्य के इतिहास की कितनी ही विलुप्त कड़ियों का पता लगाया जा सकता है। कबीर एवं गोरखनाथ के अनुयायियों की रचनायें भी इन भण्डारों में संग्रहीत हैं, जिनके गहन अध्ययन एवं मनन की आवश्यकता है। मधुमालती कथा, सिंहासन बत्तीसी, माधवानल प्रबन्ध कथा की प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ भी राजस्थान के इन भण्डारों में संग्रहीत हैं। वास्तव में देखा जावे तो राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों ने जितने हिन्दी एवं राजस्थानी ग्रन्थों को सुरक्षित रखा है उतने ग्रन्थों को अन्य कोई भी भण्डार नहीं रख सके हैं। जैन कवियों की सैकड़ों गद्य पद्य रचनायें इनमें उपलब्ध होती हैं जो काव्य, चरित, कथा, रास, बेलि, फागु, ढमाल, चौपई, दोहा, बारहखड़ी, विलास, गीत, सतसई, पच्चीसी, बत्तीसी, सतावीसी,पंचाशिका, शतक के नाम से उपलब्ध होती हैं। १३वीं शताब्दि से लेकर १६वीं शताब्दि तक निबद्ध कृतियों का इन भण्डारों में अम्बार लगा हुआ है, जिनका अभी तक प्रकाशित होना तो दूर रहा वे पूरे प्रकाश में भी नहीं आ सके हैं। अकेले 'ब्रह्म जिनदास' ने पचास से भी अधिक रचनायें लिखी हैं जिनके सम्बन्ध में विद्वत् जगत अभी तक अन्धकार में ही है। अभी हाल में ही महाकवि दौलतराम की दो महत्वपूर्ण रचनाओं-जीवन्धर स्वामी चरित एव विवेक विलास का प्रकाशन हुआ है। कवि ने 18 रचनायें लिखी हैं और वे एक-से-एक उच्चकोटि की हैं। दौलतराम १८वीं शताब्दि के कवि थे और कुछ समय उदयपुर भी महाराणा जगतसिंह के दरबार में रह चुके थे। पाण्डुलिपियों के अतिरिक्त इन जैन भण्डारों में कलात्मक एवं सचित्र कृतियों की भी सुरक्षा हई है। कल्पसूत्र की कितनी ही सचित्र पाण्डुलिपियां कला की उत्कृष्ट कृतियाँ स्वीकार की गयी हैं। कल्पसूत्र कालकाचार्य की एक ऐसी ही प्रति जैसलमेर के शास्त्रभण्डार में संग्रहीत है। कला प्रेमियों ने इसे १५वीं शताब्दि की स्वीकार की है। आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर में एक आदिनाथ पुराण की सम्वत 1461 (सन् 1404) की पाण्डुलिपि है। इसमें 16 स्वप्नों का जो चित्र है वह कला की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसी तरह राजस्थान के अन्य भण्डारों में आदिपुराण, जसहरचरिउ, यशोधर चरित, भक्तामर स्तोत्र, णमोकार महात्म्य कथा की जो सचित्र पाण्डलिपियाँ हैं वे चित्र कला की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं। ऐसी कृतियों का संरक्षण एवं लेखन दोनों ही भारतीय चित्रकला के लिए गौरव की बात है। जया 1. देखिये-दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल / 2. जैन ग्रंथ भण्डार्स इन राजस्थान-डा० के० सी० कासलीवाल / ABADABADABABAJANASAWAJASeALAIJATABASABALBABASABARADABA D DOO. aoDMAJBALADAAVAAAALAIMARJANATALABADABADAANABARABANAAN NI निभाचार्यप्रवर आभा प्रामाआठ waw