Book Title: Gavdi Parshwanathadi Stotratrayam
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००९ क्षमारंग ↓ श्री ज्ञानतिलकप्रणीतम् गवडीपार्श्वनाथदिस्तोत्रत्रयम् सं. म. विनयसागर साहित्य के क्षेत्र में अद्भुत छटा बिखेरने वाले उपाध्याय धर्मवर्द्धन ( धर्मसी) के शिष्य ज्ञानतिलक भी उत्कृष्ट कोटि के विद्वान थे । ज्ञानतिलक श्रीजिनभद्रसूरि की परम्परा में हुए हैं अतः उनकी गुरु परम्परा का वंशवृक्ष देना आवश्यक है । रत्नलाभ ↓ राजकीर्ति विजयहर्ष ↓ धर्मवर्द्धन जिनभद्रसूरि पद्ममेरु ↓ मतिवर्द्धन #··H·· ज्ञानतिलक मेरुतिलक दयाकलश अमरमाणिक्य विमलतिलक साधुसुन्दर महिमसुन्दर ↓ ↓ ↓ विमलकीर्ति उदयकीर्ति ↓ विमलचन्द उ. साधुकीर्ति ↓ ज्ञानमेरु कीर्तिसुन्दर ४३ कनकसोम (देखे खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास पृ. ३४२ ) नयमेरु ↓ लावण्यरत्न कुशलसागर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनुसन्धान ४८ उपाध्याय धर्मवर्द्धन विजयहर्ष के शिष्य थे । इनका प्रभाव राजा, महाराजाओं पर भी था और जोधपुर नरेश तथा बीकानेर नरेश इनके भक्त थे । इनके द्वारा रचित श्रेणिक चौपाई, अमरसेन वयरसेन चौपाई, सुरसुन्दरी रास इत्यादि प्रमुख कृतियों के साथ ३०० से अधिक लघु रचनाएं भी प्राप्त होती हैं । इन रचनाओं का संग्रह धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली के नाम से विस्तृत प्रस्तावना के साथ पूर्व में प्रकाशित हो चुका है । जिसके सम्पादक अगरचन्द भंवरलाल नाहटा थे । ___ ज्ञानतिलक कहाँ के रहने वाले थे, ज्ञात नहीं । किन्तु, इनका जन्मनाम नाथा था और जिनरत्नसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने संवत् १७२६ वैशाख वदि ११ चिरकाना में तिलकनन्दी स्थापित की थी। तदनुसार इनका दीक्षा नाम ज्ञानतिलक रखा और विजयहर्ष के पौत्र शिष्य बनाए (दीक्षानन्दी सूची)। सम्भवत: ये राजस्थान प्रदेश के ही होंगे । ज्ञानतिलक रचित साहित्य में १. सिद्धान्त चन्द्रिका वृत्ति (अभी तक अप्रकाशित है ।) बिकानेर के ज्ञान भण्डार के अन्तर्गत महिमा भक्ति ज्ञान भण्डार में इसकी प्रति प्राप्त है । २. विज्ञप्ति पत्र-यह पत्र जिनसुखसूरि को ज्ञानतिलक ने भेजा था । (इसका प्रकाशन सिंघी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत विज्ञप्ति लेख संग्रह प्रथम भाग में आचार्य जिनविजयजी ने प्रकाशित किया है । जो पृष्ठ १०७ से ११३ में प्रकाशित है । यह विज्ञप्ति विजयवर्द्धनगणि के नाम से छपी है जो कि ज्ञानतिलक की ही है ।) ३. विज्ञप्ति पत्र-यह अप्रकाशित है और अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में प्राप्त है । इसके अलावा कुछ लघु कृतियाँ भी प्राप्त हैं । प्रस्तुत कृतियाँ इन तीन लघु कृतियों के माध्यम से कवि ने अपना पाण्डित्य भी प्रदर्शित किया है । प्रत्येक कृति में उनका अनूठापन नजर आता है । प्रथम कृति गौड़ीपार्श्वनाथ स्तोत्र शृङ्खलाबद्ध है । साथ ही इसकी भाषा संस्कृत है और देशी रागिनी में इसकी रचना की गई है । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००९ ४५ द्वितीय कृति सरस्वती स्तोत्र की रचना पद्य १ से ५ मात्रिक सोरठा छन्द में की गई है और पद्य ६ से १४ तक त्रिभंगी छन्द में और १५ वाँ पद्य षट्पदीछन्द में है । त्रिभंगी छन्द का लक्षण - इसमें सात चतुर्मात्रिक होते हैं और अन्त में जगण निषिद्ध है । तृतीय कृति दादा जिनकुशलसूरिजी की स्तुति में प्रारम्भ के ५ पद्य आर्या छन्द में रचित हैं, ६ से १३ तक त्रिभंगी छन्द में और १४ वा कवित्त के रूप में प्रस्तुत किया गया है । प्रारम्भ के ५ पद्य छोड़कर त्रिभंगी छन्द में निरूपित दादा जिनकुशलसूरिजी छन्द का पूर्व में कई ग्रन्थो में प्रकाशन हुआ है, उसी के अनुसार मैंने भी दादागुरु भजनावली में उन्हीं का अनुकरण किया है, प्रारम्भ के पाँच पद्य उसमें भी नहीं दिए गए हैं। संस्कृत के कवि भी लोक देशों का आश्रय लेकर और प्राकृत के प्रचलित छन्दों में रचना करने में अपना गौरव समझते थे इस दृष्टि से ये तीनों प्रतियाँ श्रेष्ठ हैं । विद्वद्जनो के लिए यह तीनों स्तोत्र प्रस्तुत हैं : श्रीज्ञानतिलकप्रणीतम् गवडीपार्श्वनाथस्तोत्रम् शाश्वतलक्ष्मीवल्लीदेवं, देवा नतपदकमलं रे । मलिनकलुषतुषहरणे वातं, वार्तकरं कृतकुशलं रे ।शा०||१|| शलभनिभे कर्मणि दावाग्नि, वाग्निर्जित वद जीवं रे । जीवदयापालितसमविश्वं, विश्वसमयरसक्षीबं रे ।शा०।।२।। क्षीबितगर्वितदुर्जयमोहं, मोहितबहुजनकोकं रे । कोकिलकूजितकलरववाचं, वाचा प्रीणितलोकं रे शा०॥३॥ लोकितसदसन्नानाभावं, भवभयदर्शितपारं रे । परकुमतीनां हतपाखण्डं, खण्डितमारविकारं रे ।शा०॥४॥ कारं कारं विनयं वन्दे, वन्द्यमहं श्रितनागं रे । नगसुदृढं श्रीगौडीपाश्र्वं पार्श्वेशं जितरागं रे ।शा०॥५|| Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अनुसन्धान ४८ रागान्निर्मम मम सुनिकामं, कामं पूरय सततं रे । सन्ततमस्तु च तव मे सेवा, सेवक विश इति घटतं रे शा० ॥६॥ (स्रग्धरावृत्तम्) इत्थं गौडीशपाश्र्वं पृथुतरयशसं पार्श्वपाख्यियक्षं, बिभ्राणं ज्ञानपूर्वं तिलकमतितरां ये जना भक्तिमन्तः । सेवन्ते सनियुज्य प्रवरकरपुटं मूर्ति संजातहर्ष, यन्नाम्नः स्रग्धरास्ते प्रतिदिनमचिरात् सातजातं लभन्ते । इति श्री गौडीपार्श्वजिनस्तवनम् सरस्वती-स्तोत्रम् जय जय वागीशे जये दात्रि ज्ञप्तिं देहि । कुरु कुरु कमलासिनि कृपां धाम स्वं सन्धेहि ॥१॥ विश्वं वागुपवेणिता प्रीणयसि त्वं वाणि । अधरितसुधामधु ह्यन्तो वीणां किं करवाणि ॥२॥ कालिदासप्रमुखान्पुरा मन्दान्मतिभारेण । व्यधिया गुरुतुल्यान्वरे साधितबहुसारेण ॥३॥ तव देवि क्षणतो द्रुतं कीट: करितामेति । तस्य न चित्रं किल कृतौ मनसा यदभिप्रैति ।।४।। श्रुत्वा त्वापि समागमं लघुशिशुकं विज्ञाय । भिनु मे कामितसञ्चयं विधिवद्रत विधाय ।।५।। (अथ त्रिभंगीवृत्तम्) हरिहरधात्राद्या जगदभिवाद्यास्तैरभिवाद्या सुस्मार्या, जनजनितानन्दा मुखारविन्दा भासितचन्दा हृदि धार्या । अद्भुतवागीशा प्रणतदिगीशा श्रितभूमीशा भक्तिभरं, त्वं कुरु गीर्वाणी श्रेयस्कारिणी दुःखनिवारिणी बुद्धिवरम् ॥१॥ जगतीविख्याता जगतां माता शब्दव्राता निष्णाता, सेवककृतसाता योगीध्याता सदावदाता स्वाम्नाता । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००९ विद्वज्जनसेव्या जनतासेव्या बोधैर्भव्या विगतदरं, त्वं कुरु गीर्वाणी श्रेयस्कारिणी दुःखनिवारिणी बुद्धिवरम् ।।२।। विकसितकजनेत्रा परिहितनेत्रा पूतक्षेत्राऽभ्यस्तकला, गतिजितकलहंसा शिरोवतंसा यानितहंसा गुणविमला । अमृतद्युतिवदना मौक्तिकरदना धृतधीसदना सुखनिकर, त्वं कुरु गीर्वाणी श्रेयस्कारिणी दुःखनिवारिणी बुद्धिवरम् ॥३|| कलकण्ठीकण्ठा गेयोत्कण्ठा सुन्दरकण्ठा प्रियतालैः, सङ्गीतविभेदा वेदितवेदा खेदितखेदाऽङ्गलिचालैः । स्वररसझरवाहाऽतिशयवगाहा यदुपाविणयदुदितकर, (?) त्वं कुरु गीर्वाणी श्रेयस्कारिणी दुःखनिवारिणी बुद्धिवरम् ॥४|| प्रतिवर्णविकल्पाः स्वरविधिकल्पा: कल्पाकरविस्पष्टा, जातिव्यक्तिभ्यां सयुक्तिभ्यामस्तस्फोटिभुवि शिष्टा(?) । यद्यानादिस्थं सर्वं सस्थं व्यक्तीचक्रे परमपरं, त्वं कुरु गीर्वाणी श्रेयस्कारिणी दुःखनिवारिणी बुद्धिवरम् ।।५।। जाड्याम्बुधिमग्ना-लाकृतिभुग्ना स्नेहाभुग्ना जननिचया, अज्ञानतमोन्धा यथा दिवान्धा लसदमृताम्भा विधिनिचया । सर्वांस्तान् क्षणतः सद्वीक्षणतस्सल्लक्षणतस्चित्सुवरं । त्वं कुरु गीर्वाणी श्रेयस्कारिणी दुःखनिवारिणी बुद्धिवरम् ॥६॥ सत्पुस्तकहस्ता चेतःशस्ता बुद्धिनिरस्ता बुधताया, वाग्भङ्गीतरङ्गा निर्जितगङ्गा सत्कतरङ्गा सच्छाया । उपनिषदादाना वरं ददाना तत्त्वनिदाना मुत्प्रकरं, त्वं कुरु गीर्वाणी श्रेयस्कारिणी दुःखनिवारिणी बुद्धिवरम् ।।७।। सारस्वतरूपा ज्योतीरूपा भास्वद्रूपा नित्यस्था, देवेन्द्रै—ता शुद्धाकूता विद्यापूता मध्यस्था । ओङ्कारोदारा चेष्टेस्फारा ज्ञानद्वारा घनरुचिरं, त्वं कुरु गीर्वाणी श्रेयस्कारिणी दुःखनिवारिणी बुद्धिवरम् ॥८॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अनुसन्धान ४८ (षट्पदकवित्वम्) विदिता कल्पलतेव सिद्धिवृद्धः पूरणतः, क्षोणिजनतायाश्च देव्यसि त्वां मे भणतः । शुभवति शुभभावेन नयनप्राघुणकीकृत्यं, वितर वितर मे मुहु तत्त्वरायं संस्कृत्य । विजयादिहर्षमुत्कर्षतः सविजयवर्द्धनकं सदा । सद्ज्ञानतिलकदायं ततं ज्ञत्व सौख्यकरण मुदा १।९।। इति सरस्वती स्तोत्रं पितामह - श्रीजिनकुशलसूरिछन्दः (आर्याच्छन्दः) जिनकुशलं सूरीशं रत्नत्रयप्रभृतिरत्नवारीशम् । . गायामि मुनिगणेशं वागनवद्यैः शुभं पद्यम् ।।१।। पञ्चे पंचमअरके विषमे घनतापकारके तप्तान् । सुरतरुरिव यो जीवान् सुखयति सच्छायमधिकददः ॥२॥ यत्कीर्तिप्रस्फूर्त्या विचित्रमपि चित्रितं हि भुवनतलम्, विशदमिव भाति सर्वं तं सततं कीर्तयामि हितार्थम् ॥३।। योऽरण्येषूदन्यत य: चाप: पाययत्यहो अभिकान् । असमयजातघनौघं विकुळ विद्युत्सनितमिश्रम् ||४|| धनी धनीरपि मनुजः सुतीरपि स्यात् सुती परमभक्तः, सुखी सुखीरपि नित्यं भवत: शुभदृष्टिसृष्टिचयात् ॥५॥ (त्रिभंगीछन्दः) यो भूमीषष्ठे पृथुलवरिष्ठे गाढगरिष्ठे भातितरां, यः कृच्छं कक्षं मौाध्यक्षं सर्वसमक्षं दातितराम् । कुर्वनिरपायं सौख्यन्तरायं छेदितमायं बुद्धिगुरुं, तं वारंवारं सेवे स्फारं सच्छीकारं कुशलगुरुम् ||१|| Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २००९ यं दर्पकरूपा मधुरसकूपाः शश्वद् भूपाः सेवन्ते, यं नामं नामं सदा प्रकामं पूरितकामं देवं ते । भास्वद्वेषा सुषमारेखा दृप्यलेखा विश्वगुरुं, तं वारम्वारं सेवे स्फारं सच्छ्रीकारं कुशलगुरुम् ॥२॥ येन च घनदावं प्रज्वलदावं संभृतभावं पुरं कृतं, यन्निशितं शस्त्रं मृदुशतपत्रं पत्त्रीपत्रं विषममृतम् । धरणीगमनानां त्वद्ध्यानानान्तरमानानां साधुगुरुं, तं वारम्वारं सेवे स्फारं सच्छ्रीकारं कुशलगुरुम् ||३|| यस्मै भूहरये दीप्त्या हरये भयगजहरये भवतु नमः, कामितफलकर्त्रे दमरविहर्त्रे जगतो भर्त्रे पुनर्नमः । श्रीकरणप्रभवे मुनिताप्रभवे विभुताविभवे सफलतरूं, तं वारम्वारं सेवे स्फारं सच्छ्रीकारं कुशलगुरुम् ॥४॥ यस्माद् गुरुनाम्नो बहुगुणधाम्नस्तव गुणदाम्नो नुः परमान्नेशुः सपायाः सदान्तराया दुःखनिकाया गतभ्रमात् । स भवति श्रेयो यस्माच्छ्रेयो बहुलप्रेयो धर्मगुरु, तं वारम्वारं सेवे स्फारं सच्छ्रीकारं कुशलगुरुम् ॥१५॥ यस्य श्रीस्तूपाः पूता यूपा इव सद्रूपा भुवनतले, सत्केतूत्तुंगा लसत्सुरंगा नानाभंगा सन्त्यखिले । चन्दनघनसाराद्याश्रितसारा गन्धोदाराः शान्तगुरुं, तं वारम्वारं सेवे स्फारं सच्छ्रीकारं कुशलगुरुम् ||६|| यस्मिन् मार्त्तण्डे तेजश्चण्डे भारतखण्डे सामुदिते, तम इव न व्याधि क्वेव दुराधिः स्वान्तसमाधिः स्यात् प्रीते । न च बन्दी रोगा न च दुर्योगा भासुरभोगा भूमितरुं, तं वारम्वारं सेवे स्फारं सच्छ्रीकारं कुशलगुरुम् ॥७॥ करुणारससागर ! नूतननागर ! जनकृतजागर ! शुभशालिन् !, देवेष्टं पूरय दुःखं दूरय शत्रूचरय मुनिमालिन् ! ४९ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान 48 भक्त्या भक्तानां त्वत्सक्तानां त्वद्रक्तानां सुखितमरु, तं वारम्वारं सेवे स्फारं सच्छीकारं कुशलगुरुम् // 8 // (कवित्वम्) विघ्नद्रुमगजराज ! रुचिरविरुदानां धारय, कलियुगसुरघटतुल्य ! विपुलविद्यानां पारय / विजयहर्षभृतां नृणां विजयवर्द्धनसत्करां, विदधच्चरितदेवं धरणितलजीवाधाराम् / / जिनचन्द्रसूरिपट्टे स्थितस्तावद् विजयस्व द्रुतम् / यावत् सुराद्रिसूरौ त्वकं 'ज्ञानतिलक' दो विश्रुतम् // 9 // C/o. प्राकृत भारती, 13-A, मेन मालवीय नगर जयपुर 302017 1. ये रचनाएं काफी अशुद्ध लगती है। यदि सम्पादकजीने शुद्ध वाचना के लिए प्रत्यन्तरोंसे मिलान इत्यादि रूप प्रयत्न किया होता तो काफी आनन्द होता / ___- शी.