Book Title: Darshan aur Vigyan ke Alok me Pudgal Dravya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211150/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगोपीलाल अमर एम०ए०, शास्त्री, काव्यतीर्थ, साहित्यरत्न जैन संस्कृत डिग्री कालेज, सागर (म० प्र०) दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य प्रारम्भिक-जैन दर्शन ने विश्व को जहाँ स्याद्वाद और अनेकान्त के अखण्ड सिद्धान्त दिये हैं वहाँ पूदगलद्रव्य की अद्वितीय मान्यता भी दी है. उधर जैनेतर दर्शनों ने पुद्गल द्रव्य को तत्तत् रूपों में स्वीकार किया है और इधर विज्ञान भी इस द्रव्य को स्पष्ट रूप से मान्यता देता जा रहा है. हम यहाँ पुद्गल द्रव्य का एक सुस्पष्ट विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे. सर्वप्रथम हमें जैन दर्शन के अनुसार इस का अध्ययन करना होगा, फिर जैनेतर दर्शनों में उसकी तह खोजनी होगी और तब उसका वैज्ञानिक विश्लेषण करना होगा. जैन सिद्धान्त विश्व (Universe) को छह द्रव्यों (Substances) से निर्मित मानता है. जो सत् (Existent) हो या जिसकी सत्ता (Existance) हो वह द्रव्य है.' जिसमें पर्यायों (Modifications) की दृष्टि से उत्पाद (Manifestation) और विनाश (Disappearance) प्रतिसमय होते रहते हों और गुणों (Fundamental realities) की दृष्टि से, प्रतिसमय ध्रौव्य (Continuity) रहता हो वह सत् (Existent) है. द्रव्य छह है. (१) जीव (Soul, substance possessing consciousness) (२) पुद्गल (Matter & Energy) (३) धर्म (Medium of motion of souls, matter and energies) (४) अधर्म (Medium of rest of souls, matter and energies) (५) आकाश (Spacc, medium of location of soul etc.) और (६) काल (Time) पुद्गल का स्वरूप-पुद्गल शब्द एक पारिभाषिक शब्द है लेकिन रूढ़ नहीं. इसकी व्युत्पत्ति कई प्रकार से की जाती है. पुद्गल शब्द में दो अवयव हैं, 'पुद्' और 'गल', 'पुद्' का अर्थ है पूरा होना या मिलना (Combination) और १. सद् द्रव्यलक्षणम् । ---आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थमूत्र, अ०५, सू० २६. २. उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् । -वही, अ० ५, सू० ३० । ३. जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आयासं. -आचार्य कुन्दकुन्दः पंचास्तिकाय. Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३६६ -0--0--0--0-0-0--0--0--0-0 'गल' का अर्थ है गलना या मिटना (Disintegration) जो द्रव्य प्रतिसमय मिलता-गलता रहे, बनता-बिगड़ता रहे, टूटता-जुड़ता रहे वह पुद्गल है.' सम्पूर्ण विश्व में पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जो खण्डित भी होता है और पुनः परस्पर सम्बद्ध भी. पुद्गल की एक सबसे बड़ी पहिचान यह है कि वह छुआ जा सकता है, चखा जा सकता है, सूघा जा सकता है और देखा भी जा सकता है. अतः कहा जा सकता है कि जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण, चारों अनिवार्यतः पाये जावें वह पुद्गल है.२ पुद्गल (Matter of Energy) के गलन-मिलन स्वभाव (Disintegration and combination phenomena) को वैज्ञानिक शब्दों में भी समझाया जा सकता है. पुद्गल के मिलने या सम्बद्ध होने (Combination) का अर्थ है कि एक स्कन्ध (Molecule) दूसरे स्निग्ध-रूक्ष गुणयुक्त स्कन्ध से मिल सकता है और इस प्रकार अधिक स्निग्ध-रूक्ष गुणयुक्त स्कन्ध उत्पन्न हो सकता है. पुद्गल के गलने या खण्डित होने का अर्थ है कि एक स्कन्ध में से कुछ स्निग्ध-रूक्ष गुणयुक्त देश (भाग) अलग हो सकता है और इस प्रकार कम स्निग्ध-रूक्ष गुणयुक्त स्कन्ध उत्पन्न हो सकता है. ईसा की उन्नीसवीं शती तक वैज्ञानिकों का मत था कि तत्त्व (Elements) अपरिवर्तनीय (Non-transformable) हैं. एक तत्त्व दूसरे तत्त्व के रूप में परिवर्तित (Transformed) नहीं हो सकता. किन्तु अब तेजोद्गरण (Radio activity) आदि के अनुसन्धानों से यह सिद्ध हो गया है कि तत्त्व परिवर्तित भी हो सकता है. किरणातु (Uranium) के एक अणु (Atom) में से जब तीन अ-कण (Particles) विच्छिन्न हो जाते हैं तो वह एक तेजातु (Radium) के अणु के रूप में परिवर्तित हो जाता है. इसी तरह जब तेजातु का एक अणु पाँच अ-कणों में विच्छिन्न हो जाता है तो वह सीसा (Lead) के अणु के रूप में परिवर्तित हो जाता है. यह तो हुई विगलन या खण्डन (Disintegration) की क्रिया और अब देखिये पूरण या मिलन (Combination) की क्रिया-भूयाति (Nitrogen) के एक अणु की न्यष्टि (Nuclues) में जब एक अ-कण मिल जाता है तो एक जारक (Oxygen) का अणु बन जाता है. यही प्रक्रिया लघ्वातु (Lithium) और विहूर (Beryllium) में भी संभव है. पुद्गल के गुण :-जैसा कि उक्त परिभाषा से स्पष्ट है, पुद्गल के मूलतः चार गुण होते हैं, स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण. इन चारों के भी बीस भेद होते हैं. यह वर्गीकरण अत्यन्त स्थूल रूप में किया गया है, वास्तव में तो ये गुण अपने विभिन्न रूपों में अगणित होते हैं. स्पर्श :—पुद्गल में आठ प्रकार का स्पर्श पाया जाता है—स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, कठोर, शीत, उष्ण, लघु (हलका) और गुरु (भारी). १. (१) पूरणात् पुद् गलयतीति गलः । -शब्दकल्पद्र मकोष. (२) पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गलाः आचार्य अकलंकदेव : तत्त्वार्थराजवार्तिक, -अ०५, सू० १, बा० २४. (३) छविहसंठाणं बहुविहि देहेहि पूरदित्ति गलदित्ति पोग्गला. --धवला ग्रन्थ. (४) पुंगिलनात् पूरणगलनद्वा पुद्गल इति । -आचार्य अकलंक देव : तत्त्वार्थराजवार्तिक, अ०५, सू० १६, वा० ४०. (५) वर्ग-गन्ध-रस-स्पशैंः-पूरणं गलनं च यत् । कुर्वन्ति स्कन्धवत् तस्मात् पुद्गलाः परमाणवः । -आचार्य जिनसेनः हरिवंशपुराण, सर्ग ७, श्लो० ३६. (६) पूरणाद् गलनाच्च पुद्गलाः | ---गणी सिद्धसेन : तत्त्वार्थभाष्य की टीका, अ०५, सू० १. (७) पूरणाद् गलनाद् इति पुद्गलाः । -न्यायकोष, पृ० ५०२. २. सर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः । -आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, अ०५, सू० २३. VS LOAN M/ARO Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -----------------0-0-0 ३७० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय पुद्गल के एक स्कन्ध (Molecule) में एक साथ स्निग्ध और रूक्ष में से कोई एक, मृदु और कठोर में से कोई एक, शीत और उष्ण में से कोई एक तथा लघु और गुरु में से कोई एक, ऐसे कोई चार स्पर्श अवश्य पाये जाते हैं लेकिन अणु (Ultimate atom) में स्निग्ध और रूक्ष में से कोई एक तथा शीत और उष्ण में से कोई एक, ऐसे कोई दो स्पर्श ही पाये जाते हैं क्योंकि वह पुद्गल का सूक्ष्मतम अंश है अतः उसके मृदु या कठोर और लघु या गुरु होने का प्रश्न ही नहीं उठता. रस (स्वाद):-रस पाँच होते हैं, मधुर, अम्ल (खट्टा), कटु, तिक्त (तीखा, चरपरा आदि) और कषायला (जैसे आंवले का स्वाद). इन रसों का सम्बन्ध भोजन से है. साहित्यशास्त्र में भी नौ रसों की मान्यता है. जैन दर्शन नौ रसों का अन्तर्भाव जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य दोनों में करता है. इनमें से प्रत्येक के हम दो भेद कर सकते हैं, अनुभूतिरूप और शब्दरूप. अनुभूति चूंकि जीव (आत्मा) करता है अतः अनुभूतिरूप रस जीव में और शब्द, जिसकी चर्चा आगे की जावेगी, चूंकि पुद्गल की पर्याय है अतः शब्दरूप रस पुद्गल में अन्तर्भूत होता है. गन्ध :-गन्ध दो प्रकार की है, सुगन्ध और दुर्गन्ध. वर्ण (रंग):-वर्ण मुख्यतः पाँच प्रकार का होता है, कृष्ण (काला), रक्त (लाल), पीत, श्वेत और नील. दा या दो से अधिक रंगों के मिश्रण से बहुत-से नये रंग बन जाते हैं, उनका अन्तर्भाव यथासंभव इन्हीं पाँच रंगों में होता है. पंचवर्णों का सिद्धान्त जैन दर्शन के अनुसार वर्ण पाँच होते हैं जब कि सौर वर्णपटल (Solar-spectrum) में सात वर्ण होते हैं और प्राकृतिक (Natural) और अप्राकृतिक (Pigmetory) वर्ण तो अनेकों होते हैं. इसका समाधान यह है कि यहाँ वर्ण शब्द से जैनाचार्यों का तात्पर्य सौर वर्णपटल के वर्षों से अथवा अन्य बों से नहीं, प्रत्युत पुद्गल के उस मूलभूत (Fundamental Property) गुण से है जिसका प्रभाव हमारी आंख की पुतली पर लक्षित होता है और हमारे मस्तिष्क में कृष्ण, रक्त आदि आभास कराता है. आप्टिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका (Optical society of America) ने वर्ण की यह परिभाषा दी है-वर्ण एक व्यापक शब्द है जो आंख के कृष्ण पटल और उससे सम्बद्ध शिराओं की क्रिया से उद्भूत आभास को सूचित करता है. रक्त, नील, पीत, श्वेत और कृष्ण इसके उदाहरण हैं.' पञ्चवर्णों का सिद्धान्त यही तो है कि यदि किसी वस्तु का ताप बढ़ाया जावे तो उसमें से सर्वप्रथम अदृव्य (Dark) ताप किरणें (Heat Rays) निस्सरित (Emitted) होती हैं और फिर ज्यों-ज्यों उसके ताप को बढ़ाया जावेगा त्यों-त्यों उसमें से क्रमशः रक्त, पीत, श्वेत और यहां तक कि नील किरणें निस्सरित होने लगती हैं. श्रीमेघनाद शाहा और बी० एन० श्रीवास्तव ने लिखा है कि कुछ तारे नील-श्वेत रश्मियां छोड़ते हैं जिससे स्पष्ट है कि उनका तापमान बहुत है. तात्पर्य यह कि ये पांच वर्ण ऐसे प्राकृतिक वर्ण हैं जो किसी भी पुद्गल से विभिन्न तापमानों (Temperatures) पर उद्भूत हो सकते हैं और इसलिए उन्हें पुद्गल के मूलगुण मानना पड़ेगा. वैसे जैन विचारकों ने वर्ण के अनन्त भेद माने हैं. हम सौर वर्णपटल (Solar Spectrum) के वर्षों (Colours) 8. Colour is a general term for all sensations, arising from the activity of retina and its attached nervous machanisms. It may be examplified by the enumeration of characteristic instances such as red, yellow, blue, black and white............ Prof. G. R. Jain : Cosmology old & New. य Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Echovation गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३७१ में देखते हैं कि यदि रक्त से लेकर कासनी (Violet) तक तरंगप्रमाणों (Wavelengths) की विभिन्न अवस्थितियों ( Stages) की दृष्टि से विचार किया जाय तो ये अनन्त सिद्ध होंगी और इनके अनन्त होने के कारण वर्ण भी अनन्त सिद्ध होंगे. इसका भी कारण यह है कि यदि एक प्रकाशतरंग प्रमाण में दूसरी प्रकाशतरंग से अनन्तवें भाग ( Infinitesimal amount) भी न्यूनाधिक होती है तो वे तरंगें दो विसदृश वर्णों को सूचित करती हैं. पुद्गल की विशेषताएँ वैसे तो पुद्गल की मुख्य विशेषता उसके स्पर्श आदि चार गुण ही हैं, ये चारों उसके असाधारण भाव हैं अर्थात् उसके अतिरिक्त किसी अन्य द्रव्य में सम्भव नहीं हैं. ऐसी विशेषताएँ मुख्यतः छह कही जा सकती हैं. पुद्गल द्रव्य के स्वरूप का विश्लेषण करना ही इन विशेषताओं का उद्देश्य है. पुद्गल द्रव्य है— द्रव्य की परिभाषा हम पहले प्रस्तुत कर चुके हैं और उस की कसौटी पर पुद्गल खरा उतरता है. इसे समझाने के लिए हम एक उदाहरण देंगे. सुवर्णं पुद्गल है. किसी राजा के एक पुत्र है और एक पुत्री. राजा के पास एक सुवर्ण का घड़ा है. पुत्री उस घड़े को चाहती है और पुत्र उसे तोड़कर उसका मुकुट बनवाना चाहता है. राजा पुत्र की हठ पूरी कर देता है. पुत्री रुष्ट हो जाती है और पुत्र प्रसन्न. लेकिन राजा की दृष्टि केवल सुवर्ण पर ही है जो घड़े के रूप में कायम था और मुकुट के रूप में भी कायम है. अतः उसे न हर्ष है न विषाद.' एक उदाहरण और लीजिए. लकड़ी एक पुद्गल द्रव्य है. वह जलकर क्षार हो जाती है. उससे लकड़ीरूप पर्याय का विनाश होता है और क्षाररूप पर्याय का उत्पाद, किन्तु दोनों पर्यायों में वस्तु का अस्तित्व अचल रहता है, उसके आंगारत्त्व ( Carbon) का विनाश नहीं होता. मीमांसा दर्शन के प्रकाण्ड व्याख्याता कुमारिल भट्ट ने इस सिद्धान्त का समर्थन ऐसे ही एक उदाहरण द्वारा मुक्तकण्ठ से किया है." द्रव्य की परिभाषा एक-दूसरे ढंग से भी की जा सकती है. जिसमें गुण ( Fundamental realities ) और पर्यायें (Modifications) हों वह द्रव्य. ३ जो द्रव्य में रहते हों और स्वयं निर्गुण हों वे गुण कहलाते हैं. * चूंकि गुण द्रव्य में अपरिवर्तनीय (Non-transformable) और स्थायी रूप से रहते हैं अतः वे द्रव्य के ध्रौव्य (Continuity) के प्रतीक हैं. संज्ञान्तर या भावान्तर अर्थात् रूपान्तर को पर्याय (Modification) कहते हैं. पर्याय का स्वरूप ही चूंकि यह है कि वह प्रतिसमय बदलती रहे, नष्ट भी होती रहे और उत्पन्न भी, अतः वह उत्पाद और विनाश, दोनों की प्रतीक है. द्रव्य की इस परिभाषा की दृष्टि से भी पुद्गल की द्रव्यता सिद्ध होती है. १. नाशोरादस्थितिक्थम् । शोक-प्रमोद माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ आचार्य समन्तभद्र आप्तमीमांसा, श्लोक ५६. २. वर्धमान कमंगे च रुचकः क्रियते यदा । पूर्वा प्रति हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्मात् वस्तूभयात्मम् । नोत्पाद स्थितिभंगानामभावे स्थान् मतित्रयम् । न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता ।। -मीमांसाश्लोकवार्तिक, श्लोक २१-२३. ३. गुणपर्ययावद द्रव्यम् । आचार्य उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र, अ० ५,०३८ । ४. द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः । वही, अ०५, सू० ४१. ५. संज्ञान्तरं भावान्तरं च पर्यायः । -- आचार्य सिद्धसेन गणीः तत्त्वार्थभाष्य टीका, अ, ५, सू० ३७. For Private & Personal Use On Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ------------------ ३७२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय पुद्गल नित्य और अवस्थित है जिसका तद्भाव-अव्यय हो अर्थात् जिसकी मौलिकता (Fundamental reality) कभी नष्ट न हो वह वस्तु नित्य कहलाती है.' पुद्गल की मौलिकता स्पर्श रस गंध और वर्ण में है और वे चारों उससे एक समय के लिए भी पृथक् नहीं होते अतः वह नित्य है. यह एक अलग बात है कि यह मौलिकता रूपान्तरित (Modified) हो जाती है. कच्चा आम हरा और खट्टा होता है, और वही पककर पीला हो जाता है लेकिन वह वर्णहीन और रसहीन नहीं हो सकता. सोने की चूड़ी को पिघलाकर हार बनाया जा सकता है, लेकिन सोना फिर भी कायम रहेगा, वह तो हर हालत में नित्य है. जो संख्या में कम या बढ़ न हो, जो अनादि भी हो और अनन्त भी और जो न स्वयं को अन्य द्रव्य के रूप में परिवर्तन करे वह वस्तु या द्रव्य अवस्थित कहलाती है. अनादि अतीत काल में जितने पुद्गल-परमाणु थे वर्तमान में उतने ही हैं और अनन्त भविष्य में भी उतने ही रहेंगे. पुद्गल द्रव्य की अपनी मौलिकता यथावत् कायम रहती चली जावेगी. पुद्गल द्रव्य की अपनी मौलिकता (स्पर्श आदि गुण) किसी अन्य द्रव्य में कदापि परिवत्तित नहीं होती और नहीं किसी अन्य द्रव्य की मौलिकता पुद्गल द्रव्य में परिवत्तित होती है. पुद्गल की एक अद्वितीय विशेषता है उसका रूप. यहाँ रूप शब्द का अर्थ है शरीर अर्थात् प्रकृति और ऊर्जा (Matter & energy) जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण स्वयं सिद्ध हैं. ३ पुद्गल का छोटा या बड़ा, दृश्य या अदृश्य, कोई भी रूप हो, उसमें स्पर्श आदि चारों गुण अवश्यंभावी हैं. ऐसा नहीं कि किसी पदार्थ में केवल रूप या केवल गन्ध आदि पृथक्-पृथक् हों. जहां स्पर्श आदि में से कोई एक भी गुण होगा वहाँ अन्य शेष गुण प्रकट या अप्रकट रूप में अवश्य पाये जावेंगे. न्यायदर्शन की मान्यता लेकिन न्यायदर्शन के अन्तर्गत केवल पृथ्वी में ही चारों गुण माने गये हैं; जल में केवल स्पर्श, रस और रूप, तेज में केवल स्पर्श और रूप तथा वायु में केवल स्पर्श ही माना गया है. इस भ्रान्ति का कारण यह है कि न्यायदर्शन में पृथ्वी, जल, तेज और वायु को पृथक्-पृथक् द्रव्य माना गया है जबकि वास्तव में, ये सब अपने परमाणुओं (ultimate atoms) की दृष्टि से एक पुद्गल द्रव्य के ही अन्तर्गत आते हैं. न्यायदर्शन की इस मान्यता के खण्डन में मुख्यतः चार तर्क दिये जाते हैं. प्रथम यह कि यदि पृथ्वी आदि चारों पृथक्पृथक् द्रव्य होते तो उनमें के एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए थी जबकि होती अवश्य है. उदाहरणार्थ मोती पृथ्वी द्रव्य के अन्तर्गत है लेकिन उत्पन्न होता है वह जल द्रव्य से. बांस पृथ्वी द्रव्य के अन्तर्गत है लेकिन जंगलों में देखते हैं कि दो बांसों की रगड़ से अग्नि द्रव्य उत्पन्न हो जाता है. दियासलाई आदि का दृष्टान्त भी ऐसा ही है. जो नामक अन्न भी पृथ्वी द्रव्य के अन्तर्गत है लेकिन उसके खाने से वायु द्रव्य उत्पन्न होता है. उजन (Hydrogen) और जारक (Oxygen) ये दो वातियां (Gases) हैं, और वायु द्रव्य के अंतर्गत आती हैं लेकिन उनके रासायनिक संयोग से जल द्रव्य बन जाता है. दूसरा तर्क यह है कि जिस प्रकार पृथ्वी में चारों गुण हैं उसी प्रकार जल, तेज और वायु में से प्रत्येक में भी चारोंचारों गुण हैं. विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है, और जब सभी में समान-समान (चारों-चारों) गुण हैं तो उन्हें पृथक्-पृथक् द्रव्य मानकर द्रव्यों की मूल संख्या बढ़ाना उचित नहीं. न्यायदर्शन जल में गन्ध का निषेध करता है लेकिन १. तद्भावाव्ययं नित्यम् । ... प्राचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अ०५, सू० ४२. २. रूपिणः पुद्गलाः ।वही, अ०५, सू०५. ३. रूपमूर्तिः रूपादिसंस्थानपरिणामः, रूपमेपामस्तीति रूपिणः पुद्गलाः । -आचार्य पूज्यपादः सर्वार्थसिद्धि, अ०५, सू०५. Jain Education Interational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३७३ उसीमें गन्ध तब कितनी स्पष्ट हो उठती है जब खेतों में पहली बरसात होती है ? चूंकि यह गन्ध जल के संयोग से उत्पन्न होती है अतः उसे केवल पृथ्वी का ही गुण न मानकर जल का भी गुण मानना होगा. वायु में न्यायदर्शन ने केवल स्पर्श गुण ही माना है लेकिन जब उद्जन (Hydrogen) और जारक (Oxygen) वायुओं का संयोग होकर जल बनता है तो उसके सभी गुण प्रत्यक्ष हो जाते हैं. तीसरे तकं में हम यह बताएँगे कि न्यायदर्शनकार अग्नि के तेजस्वी रूप के समान सुवर्ण के तेजपूर्ण वर्ण को देख उसमें अप्रकट अग्नितत्त्व की अद्भुत कल्पना करता है.' यह बात यदि शक्ति की अपेक्षा कही जाय तो जल के परमाणुओं तक में अग्निरूप परिणत होने की शक्ति सिद्ध होती है. चौथा तर्क वैज्ञानिक है. विज्ञान सिद्ध करता है कि जिस वस्तु में स्पर्श, रस, गन्ध और रूप, इन चारों में से एक भी गुण होगा उसमें प्रकट या अप्रकट रूप में शेष तीन गुण अवश्यमेव होंगे. सम्भव है कि हमारी इन्द्रियों से किसी वस्तु के सभी गुण अथवा उनमें से कुछ गुण लक्षित न हो सकें. जैसे उपस्तु किरणें (Infrared rays) जो अदृश्य तापकिरणें हैं, हम लोगों की आंखों से लक्षित नहीं हो सकतीं, किन्तु उल्लू और बिल्ली की आँखें इन किरणों की सहायता से देख सकती हैं. कुछ ऐसे आचित्रीय पट (Photographic plates) होते हैं जो इन्हीं किरणों से अविष्कृत हुए हैं और जिनके द्वारा अन्धकार में भी आचित्र (Photographs) लिए जा सकते हैं. इसी प्रकार अग्नि की गन्ध हमारी नासिका द्वारा लक्षित नहीं होती किन्तु गन्धवहन-प्रक्रिया (Tele-olefaction phenomenon) से स्पष्ट है कि गन्ध भी पुद्गल का (अग्नि का भी) आवश्यक गुण है. एक गन्धवाहक यंत्र (Tele-olefactory cell) का आविष्कार हुआ है जो गन्ध को लक्षित भी करता है. यह यंत्र मनुष्य की नासिका की अपेक्षा बहुत सद्यहृष (Sensitive) होता है और सौ गज दूरस्थ अग्नि को लक्षित करता है. इसकी सहायता से फूलों आदि की गन्ध एक स्थान से ६५ मील दूर दूसरे स्थान तक तार द्वारा या विना तार के ही प्रेषित की जा सकती है. स्वयंचालित अग्निशमक (Automatic fire Control) भी इससे चालित होता है. इससे स्पष्ट है कि अग्नि आदि बहुत से पुद्गलों की गन्ध हमारी नासिका द्वारा लक्षित नहीं होती किन्तु और अधिक सद्यहृष (Sensitive) यंत्रों से वह लक्षित हो सकती है. पुद्गल सक्रिय और शक्तिमान् है. पुद्गल में क्रिया होती है. शास्त्रीय शब्दों में इस क्रिया को परिस्पन्दन कहते हैं. यह परिस्पन्दन अनेक प्रकार का होता है. इसका सविस्तार विवेचन भगवती सूत्र के टीकाकार अभयदेव सूरि ने किया है.२ पुद्गल में यह परिस्पन्दन स्वतः भी होता है और दूसरे पुद्गल या जीव द्रव्य की प्रेरणा से भी. परमाणु की गतिक्रिया की एक विशेषता है कि वह अप्रतिघाती होती है, वह वज्र और पर्वत के इस पार से उस पार भी निकल जा सकता है पर कभी-कभी एक परमाणु दूसरे परमाणु से टकरा भी सकता है. पुद्गल में अनन्त शक्ति भी होती है. एक परमाणु यदि तीव्र गति से गमन करे तो काल के सबसे छोटे अंश अर्थात् एक समय (Timepoint) में वह लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक जा सकता है. आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा भी सिद्ध है कि पुद्गल में अनन्त शक्ति होती है एक ग्राम (Gram) पुद्गल में जितनी शक्ति (energy) होती है उतनी शक्ति ३००० टन (८४००० मन) कोयला जलाने पर मिल सकती है. पुद्गल में संकोच-विस्तार होता है-पुद्गल आदि द्रव्य लोक में अवस्थित हैं. लोक में असंख्यात (Countless) प्रदेश (absolute units of space) ही होते हैं जबकि पुद्गल द्रव्य ही केवल अनन्तानन्त (Infinite in number) हैं. अब प्रश्न यह उठता है कि अनन्तानन्त पुद्गल असंख्यात प्रदेश वाले लोक में कैसे स्थित हैं जबकि एक प्रदेश, आकाश का वह अंश है जिससे छोटा कोई अंश संभव ही न हो ? उत्तर यह होगा कि सूक्ष्म परिणमन और अवगाहनशक्ति के १. सुवर्ण तैजसम् , असति प्रतिबन्धकेऽयन्ताग्निसंयोगेऽपि अनुच्छिद्यमानद्रवत्वाधिकरणत्वात् । -आचार्य अन्नंभट्टः तर्कसंग्रह, पू० ८. २. शतक ३, उद्दश ३. Jain EduS 2.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ : मुनि श्री हज़ारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय कारण परमाणु और स्कन्ध सभी सूक्ष्मरूप परिणत हो जाते हैं और इस प्रकार एक ही आकाशप्रदेश में अनन्तानन्त पुल रह सकते हैं. २ उदाहरणार्थ, एक कमरे में एक दीपक का प्रकाश पर्याप्त होता है, लेकिन उसमें सैकड़ों दीपकों का प्रकाश भी समा सकता है अथवा एक दीपक का प्रकाश, जो किसी बड़े कमरे में फैला रहता है, किसी छोटे वर्तन से ढँके जाने पर उसी में समा जाता है. इससे स्पष्ट है कि पुद्गल के प्रकाश- परमाणुओं में सूक्ष्म परिणमन शक्ति विद्यमान है, उसी प्रकार पुद्गल के प्रत्येक परमाणु की स्थिति है. परमाणु की भांति स्कन्धों में भी सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन शक्ति होती है. अवगाहन शक्ति के कारण परमाणु अथवा स्कन्ध जितने स्थान में स्थित होता है उतने ही, उसी स्थान में अन्य परमाणु और स्कन्ध भी रह सकते हैं. सूक्ष्म परिणमन की क्रिया का अर्थ ही यह हुआ कि परमाणु में संकोच हो सकता है, उसका घनफल कम हो सकता है. वैज्ञानिक समर्थन यह सूक्ष्म परिणमन क्रिया विज्ञान से मेल खाती है. अणु ( Atom) के दो अंग होते हैं, एक मध्यवर्ती न्यष्टि (Nucleus ) जिसमें उत्कण (Protons) और विद्युत्कण (Neutrons) होते हैं और दूसरा वाह्यकक्षीय कवच (Orbital Shells) जिसमें विद्युदणु (Electrons) चलकर लगाते हैं. व्यष्टि (Nucleus) का पनफल पूरे अणु (Atom) के फल से बहुत ही कम होता है. और जब कुछ कक्षीय कवच (Orbital Shells) अणु से विच्छिन्न (Disintigrated) हो जाते हैं तो अणु का घनफल कम हो जाता है. ये अणु विच्छिन्न अणु ( Stripped atoms ) कहलाते हैं. ज्योतिष सम्वन्धी अनुसन्धाताओं से पता चलता है कि कुछ तारे ऐसे हैं जिनका घनत्व हमारी दुनिया की घनतम वस्तुओं से भी २०० गुणित है. एडिंग्टन ने एक स्थान पर लिखा है कि एक टन (२८ मन ) न्यष्टीय पुद्गल (Nuclear matter ) हमारी वास्केट के जेब में समा सकता है. कुछ ही समय पूर्व एक ऐसे तारे का अनुसन्धान हुआ है जिसका घनत्व ६२० टन ( १७३६० मन) प्रति घन इंच है. इतने अधिक घनत्व का कारण यही है कि वह तारा विच्छिन्न अणुओं ( Stripped atoms) से निर्मित है, उसके अणुओं में केवल व्यष्टियां ही हैं, कक्षीय कवच (Orbital shells) नहीं. जैन सिद्धान्त की भाषा में इसका कारण अणुओं का सूक्ष्म परिणमन है. पुद्गल द्रव्य का जीव द्रव्य से संयोग भी होता है. आगे पुद्गल द्रव्य के वर्गीकरण (Classification) का विषय आने वाला है. यह वर्गीकरण कई प्रकार से सम्भव है. एक प्रकार से पुद्गल को २३ वर्गणाओं या वर्गों में रखा जाता है. इन वर्गणाओं में से एक है कार्मण वर्गणा. कार्मण वर्गणा का तात्पर्य ऐसे पुद्गल परमाणुओं से है जो जीव द्रव्य के साथ संयुक्त हुआ करते हैं पुद्गल परमाणुओं का संयोग जीव द्रव्य के साथ दो प्रकार से होता है, प्रथम अनादि और द्वितीय सादि. सम्पूर्ण जीवद्रव्यों का संयोग पुद्गल परमाणुओं के साथ अनादिकाल से है या था. इस अनादि संयोग से मुक्त भी हुआ जा सकता है, मुफ्त जीव को फिर यह संयोग कदापि नहीं होता लेकिन अमुफ्त वा वद (संसारी) जीव को यह प्रतिक्षण होता व मिटता रहता है. इसी होने-मिटने वाले संयोग को सादि कहते हैं. १. सूक्ष्मपरिणामावगाह्य शक्तियोग गात् परमाण्वादयो हि सूक्ष्ममानेन परिणता एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ता व्यवतिष्ठन्ते, अवगाहनशक्तिश्चैषामव्याहताऽस्ति, तस्मादेकस्मिन्नपि प्रदेशेऽनन्तानन्तावस्थानं न विरुध्यते । -- आचार्यं पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि, अ०५, सू० १६. २. प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् । आचार्य उमास्वामी : तत्वार्थसूत्र, अ०५, सू० १६. ३. जावदियं आयासं विभागी पुग्गलावट्ठद्धं, तं तु पदेसं जागे सव्वाण्ट्ठा न दारारिहं । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती : द्रव्यसंग्रह. S S& Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३७५ -0-0-0-0-0-0-0-0-0-0 संयोग का कारण यह संयोग क्यों होता है ? इस प्रश्न के दो उत्तर हैं. जहां तक अनादि संयोग का प्रश्न है उसका कोई उत्तर नहीं. जब से जीव का अस्तित्व है तभी से उसके साथ पुद्गल-परमाणुओं (कार्मणवर्गणाओं) का संयोग भी है. जिस सुवर्ण को अभी खान से निकाला ही न गया हो उसके साथ धातु-मिट्टी आदि का संयोग कब से है, इसका कोई उत्तर नहीं. जब से सोना है तभी से उसके साथ धातु-मिट्टी आदि का संयोग भी है. यह बात दूसरी है कि सोने को उस धातु-मिट्टी आदि से मुक्त किया जा सकता है, उसी तरह जीव द्रव्य भी स्वयं के पुरुषार्थ से अपने को कार्मणवर्गणा से मुक्त कर सकता है. इधर, जहाँ तक सादि संयोग का प्रश्न है, इसका उत्तर दिया जा सकता है. अनादि संयोग के वशीभूत होकर जीव नाना प्रकार का विकृत परिणमन करता है और इस परिणमन को निमित्त के रूप में पाकर पुद्गल परमाणु अपने आप ही कार्मण वर्गणा के रूप में परिवर्तित होकर तत्काल, जीव से संयुक्त हो जाते हैं.' संयोग के बनने-मिटने की यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक जीव द्रव्य स्वयमेव अपने विकृत परिणमन से मुक्त नहीं हो जाता है. संयोग की विशेषता जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य के संयोग की इस प्रक्रिया की यह विशेषता है कि वह संयुक्त होकर भी पृथक्-पृथक् होती है. जीव की प्रक्रिया जीव में और पुद्गल की प्रक्रिया पुद्गल में ही होती है. एक की प्रक्रिया दूसरे में कदापि सम्भव नहीं. इसी प्रकार एक की प्रक्रिया दूसरे के द्वारा भी सम्भव नहीं. जीव की प्रक्रिया जीव के ही द्वारा और पुद्गल की प्रक्रिया पुद्गल के ही द्वारा सम्पन्न होती रहती है. लेकिन इन दोनों प्रक्रियाओं में ऐसी कुछ समता, एकरूपता रहती है कि जीव द्रव्य कभी पुद्गल की प्रक्रिया को अपनी और कभी अपनी प्रक्रिया को पुद्गल की मान बैठता है :२ जीव की यही भ्रान्त मान्यता मिथ्यात्व, मोह या अज्ञान कहलाती है. संयोग से आस्रव आदि तत्त्वों की सष्टि जीव और पुद्गल की इस संयोग-प्रक्रिया के फलस्वरूप ही जीव (Souls) और अजीव (Nonsouls, e.g. matters & Energies etc.) पुद्गल आदि के अतिरिक्त शेष पाँच तत्त्वों की सृष्टि होती है. जैन दर्शन में स्वीकृत सात तत्त्व (principles) ये हैं. (१) जीव Soul, a substence (२) अजीव (३) आस्रव (४) बन्ध (५) संवर (६) निर्जरा (७) और मोक्ष प्रास्रव-जीव से पुद्गल द्रव्य के संयोग का मूल कारण है जीव की मनसा, वाचा और कर्मणा होनेवाली विकृत परिणति और इसी विकृत परिणति का नाम आस्रव तत्त्व है.५ बन्ध-आस्रव तत्त्व के परिणामस्वरूप जीव द्रव्य से पुद्गल द्रव्य का संयोग होता है, लोलीभाव होता है जिसे बन्ध तत्त्व कहते हैं.६ बन्ध तत्त्व के अन्तर्गत यह ध्यान देने की बात है कि पुद्गल-परमाणु (कार्मणवर्गणायें) जीव द्रव्य में प्रविष्ट हो जाते हैं, १. जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्र प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन । -आचार्य अमृतचन्द्र : पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लो० १२. २. एवमयं कर्मकृतर्भावरसमाहितोऽपि युक्त इव । प्रतिभाति बालिशानां, प्रतिभासः स खलु भवबीजम् | -वही, श्लो० १४. ३. जीवाजीवास्रव बन्ध संवर निर्जरा-मोक्षारतत्त्वम् ! -आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अ०१, सत्र ४. ४. कायवाङ्मनःकर्म योगः | -वही, अ०६, स०१. ५. स आस्रवः । -वही, अ०६, सू०४. ६. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः । वही, अ०७, सू० २. DAIND For Private & Personal use only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय अन्तर्लीन हो जाते हैं, जीव द्रव्य के साथ कार्मणवर्गणायें अपना एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं, अर्थात् आकाश के जिस और जितने प्रदेशों में जीव स्थित होता है, अपनी सूक्ष्म-परिणमन शक्ति के बल पर ठीक उन्हीं और उतने ही प्रदेशों में उससे सम्बन्धित कार्मणवर्गणाएँ भी स्थित हो जाया करती हैं. इस स्थिति (एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध) का यह तात्पर्य कदापि नहीं कि वे दोनों एक दूसरे में परिवर्तित हो जाते हैं. इस सम्बन्ध के रहते हुए भी जीव, जीव ही रहता है और पुद्गल पुद्गल ही. दोनों अपने-अपने मौलिक गुणों (Fundamental realities) को एक समय के लिए भी नहीं छोड़ते. संघर-जीव अपने ही पुरुषार्थ से निरन्तर संयुक्त होती रहने वाली कार्मण वर्गणाओं पर रोक लगा सकता है, और यही रोक संवर तत्त्व कहलाती है. निर्जरा-इसी प्रकार, जीव अपनी पूर्व-संयुक्त कार्मणवर्गणाओं को क्रमश: निर्जीर्ण या दूर भी कर सकता है और यही निर्जरा तत्त्व है. मोक्ष-अपनी कार्मणवर्गणाओं से सदा के लिए पूर्णरूपेण मुक्त हो जाना जीव का मोक्ष कहलाता है.' पुद्गल का वर्गीकरण पुद्गल क्या है, यह हम जान चुके हैं. वह एक द्रव्य है. उसके परमाणु-परमाणु में प्रतिसमय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की अखण्ड प्रक्रिया वर्तमान है. इस प्रक्रिया की दृष्टि से, जितने भी पुद्गल हैं चाहे वे परमाणु के रूप में हों, चाहे स्कन्ध के रूप में, सब एक समान हैं. उनमें भेद या वर्गीकरण को अवकाश ही नहीं. अतः हम कह सकते हैं कि द्रव्यदृष्टि से पुद्गल का केवल एक ही भेद है, अथवा यों कहिए कि वह अभेद है. पुद्गल का अधिकतम प्रचलित और सरल वर्गीकरण किया जाता है अणु (परमाणु) और स्कन्ध के रूप में. हम यहाँ इन दोनों वर्गों का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत करेंगे. अणु अणु और उसकी परिभाषा - अणु, पुद्गल का वह सूक्ष्मतम अंश है जिसका पुनः अंश हो ही न सके.४ अरणु का विभाजन नहीं किया जा सकता, वह अविभाज्य है.५ अणु को पुद्गल का अविभाग-प्रतिच्छेद भी कहा जाता है. अणु की मुख्यतः पांच विशेषतायें हैं—(क) सभी पुद्गल-स्कन्ध अणुओं से ही निर्मित हैं. (ख) अणु नित्य, अविनाशी और सूक्ष्म है, वह दृष्टि द्वारा लक्षित नहीं हो सकता, इस बात का समर्थन वैज्ञानिकों द्वारा भी होता है, जब हम किसी परमाणु का निरीक्षण करते हैं तो हर हालत में हम कोई-न-कोई बाहरी उपकरण उपयुक्त करते हैं. यह उपकरण किसी-न-किसी रूप में परमाणु को प्रभावित करता है और उसमें परिवर्तन ला देता है. और हम यही परिवर्तित परमाणु देख पाते हैं, वास्तविक परमाणु नहीं.६ १. प्रास्रबनिरोधः संवरः। -प्राचार्य उमास्वामी; तत्त्वार्थ सत्र, अ०६, ०. २, बन्धहेत्वभावनिर्जराज्य कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । -दही अ०१०, सू०२. ३. (१) अगवः स्कन्धाश्च।-वही, अ०५, सू० २५. (२) एगत्तेण पुहुत्तेण खंथा य परमाणु य । -उत्तरज्झयणमुत्त ३६,११. ४. नाणोः। -आचार्य उमास्वामीः तत्वार्थसूब अ०५. ५. अविभाज्यः परमाणुः। -जैनसिद्धान्तदीपिका, प्रकाश १ सत्र १४. ६. सर डब्लू० सी० पियर : विज्ञान का संक्षिप्त इतिहास-(हिन्दी अनु० पृ० २६६) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6-0-0-0--------------- गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३७७ (ग) अणु में कोई एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और दो स्पर्श (स्निग्ध अथवा रूक्ष और शीत अथवा उष्ण) होते हैं.' (घ) अणु के अस्तित्व का ज्ञान (अनुमान) उससे निर्मित पुद्गल-स्कन्धरूप कार्य से होता है. (ङ) अणु इतना सूक्ष्म होता है कि उसके आदि, मध्य और अन्त का प्रश्न ही नहीं उठता.२ अणु और विज्ञान का तथाकथित 'एटम'—इन सभी विशेषताओं के बावजूद यह ध्यान देने की बात है कि आधुनिक रसायन-शास्त्र (Chemistry) में जो 'एटम' (Atoms) माने गये हैं, उन्हें प्रस्तुत अणु का ही दूसरा रूप नहीं कहा जा सकता. यद्यपि 'एटम' का मतलब पहले यही लिया गया था कि उसे विभाजित नहीं किया जा सकता लेकिन अब यह प्रमाणित हो चुका है कि 'एटम' (Atom) उद्युत्कण (Proton), निद्युत्कण (Neutrons) और विद्युत्कण (Electron) का एक पिण्ड है जबकि परमाणु वह मूल कण है जो दूसरों से मेल के बिना स्वयं कायम रहता है. अणु और 'एटम' की इस विषमता को देखकर वैशेषिक दर्शन की यह मान्यता और भी हास्यास्पद लगने लगती है कि सूर्य के प्रकाश में चलते-फिरते दिखने वाले धूलिकण परमारणु हैं. अणु का वर्गीकरण अणु को चार वर्गों में रखा जा सकता है :(१) द्रव्य अणु अर्थात् पुद्गल-परमाणु, (२) क्षेत्र अणु अर्थात् आकाश-प्रदेश, (३) काल अणु अर्थात् 'समय' (४) भाव अणु अर्थात् 'गुण'. भाव अणु के भी चार मूल भेद और सोलह उपभेद होते हैं. स्कन्ध स्कन्ध की परिभाषा-दो या दो से अधिक परमाणुओं को पिण्ड स्कन्ध कहलाता है. स्कन्ध का घनत्व-यह आवश्यक नहीं कि सभी स्कन्ध नेत्र द्वारा लक्षित हो सकें. एक स्कन्ध में भी, जिसे हम सूक्ष्मदर्शक यंत्र से ही देख पाते हों—अनन्त परमाणु रहते हैं. जैनदर्शन का यह स्कन्धों के घनत्व का सिद्धान्त विज्ञान द्वारा खूब पुष्ट हुआ है. एक औंस पानी में इतने स्कन्ध हैं कि यदि उन्हें संसार के तमाम स्त्री-पुरुष और बच्चे प्रति सेकण्ड पाँच की रफ्तार से गिनना शुरू कर दें तो पूरा गिनने में चालीस अरब वर्ष का समय लग जावेगा.६ अभी-अभी सौरमण्डल में एक ऐसे नक्षत्र का पता चला है जिसके एक घन इंच का अंश ६२० टन (१७३६० मन) के वजन का होता है." स्कन्ध का वर्गीकरण स्कन्धों को तीन वर्गों में रखा जाता है.5 'स्कन्ध' अनेक परमाणु जब एक समुदाय में आकर १. एक-रस-गन्ध-वणों द्विस्पर्शः कार्यलिंगश्च. कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यो भवेत् परमाणुः । आचार्य अकलंकदेवः तत्त्वार्थराजवार्तिक, अ० २, सू० २५. २. सीचम्याद् य आत्मादि-रात्ममध्य-आत्मान्तश्च । -वही, अ०५, सू० २५, वा०१. ३. चउब्धिहे परमारः पराणत्ते, तं जहा, दवपरमार, खेत्तपरमारा, कालपरमाणू , भावपरमाए। -भगवतीसूत्र, २० | ५ | १२. ४. वही, २० ।५ । १६. ५. वही, २०। ५ । १. &. E. N. D. Sc.&. Andrade D. Sc. Ph. D. The Machanism of Nature Page 37. ७. Raby fa Bois F. R. A. 'Arm Chair Science' London, July 1937. ८. जे रूबी ते चउचिहा पराणत्ता, खंधा, खंधदेसा, खंधपएसा, परमागुपोग्गला -भगवती सुत्र, २।१०। ६६. स उपwwwwww wwwwww 10101010101010 Isiolo i otoll ololololololol प्पा Jain Education internam For Private & Personal use only wawwajanenorary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --------------------- ३७८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय परस्पर सम्बद्ध हो जाते हैं तब वे स्कन्ध कहलाने लगते हैं. स्कन्ध का खण्ड भी स्कन्ध कहलाता है.' स्कन्धदेश-स्कन्ध का कोई भी अंश या खण्ड (part) जो अपने अंगी से पृथग्भूत न हो, स्कन्धदेश कहा जाता है.२ स्कन्धप्रदेश-स्कन्ध या स्कन्धदेश का एक परमाणु जो अपने अंगी से पृथग्भूत न हो, स्कन्धप्रदेश कहलाता है. अथवा पुद्गल के परमाणु और स्कन्ध के रूप में दो भेद होते हैं लेकिन ग्राह्य और अग्राह्य के रूप में भी दो भेद सम्भव हैं. ग्राह्य पुद्गल-पुद्गल के जो परमाणु जीव द्रव्य से संयुक्त होते हैं उन्हें ग्राह्य कहा जाता है. इन्हें हम कार्मण आदि वर्गणा भी कह सकते हैं. अग्राह्य पुद्गल-ग्राह्य पुद्गलों के अतिरिक्त शेष सभी अग्राह्य हैं, उन्हें जीव ग्रहण नहीं करता, जीव से उनका संयोग नहीं होता. तीन भेद-पुद्गल द्रव्य परिणमनशील है. उसमें परिणमन स्वयमेव तो होता ही है, जीव के संयोग से भी होता है, इसी दृष्टि को लेकर उसके तीन भेद सम्भव हैं.४ प्रयोग-परिणत (Organic matter)—ऐसे पुद्गलों को प्रयोग-परिणत कहते हैं जिन्होंने जीव के संयोग से अपना परिणमन किया है. विस्रसा-परिणत (Inorganic matter)-विस्रसा-परिणत ऐसे पुद्गलों को कहते हैं जो अपना परिणमन स्वतः किया करते हों, जीव का संयोग ही जिनसे कभी न हुआ हो. मिश्र-परिणतये वे पुद्गल हैं जिनका परिणमन जीव के संयोग से और स्वयमेव, दोनों प्रकार से एक-ही-साथ रहा होता है. मिश्र-परिणत पुद्गल उन्हें भी कहा जा सकता है जिनका परिणमन कभी जीव के संयोग से हुआ हो लेकिन अब किन्हीं कारणों से जो स्वयमेव अपना परिणमन कर रहे हैं. चार भेद पुद्गल के चार भेद किसी विशिष्ट दृष्टि से नहीं होते, स्कन्ध के तीन भेद जिनका अध्ययन हमने अभी-अभी किया है. और परमाणु का एक भेद मिलकर पुद्गल के चार भेद कहलाने लगते हैं. ५ छह भेद परमाणु और स्कन्ध के रूप में हमने पुद्गल का अध्ययन किया, और हम देखेंगे कि उसका अध्ययन छह भेदों के रूप में भी हो सकता है. ये छहों भेद स्कन्ध को दृष्टि में रखते हुए किये गये हैं. १. भेदसवातेभ्य उत्पद्यन्ते । -आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अ०५, सू० २६. २. वस्तुनो पृथग्भूतो बुद्धिकल्पितोऽशो देश उच्यते । -जैनसिद्धान्तदीपिका, प्र०१, सु० २२. ३. निरंशो देशः प्रदेशः कथ्यते । -वही, प्र०१, नु० २३. ४. तिबिहा पोग्गला पण्णत्ता, पोगपरिणया, वोससापरिणया, मोसापरिणया। -भगवतीसूत्र, ८।११. ५. जे रूवी ते चउबिहा परणत्ता, खंधा, खंधदेसा, खंधपदेसा, परमाणुपोग्गला । ---वही, २२१०६६. ६. (१) बादरबादर-बादर-बादरसुहुमं च सुहुमथूलं च । सुदुभं च सुहुमं सुहुमं धरादियं होदि छम्मेयं । -नेभिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती : गोम्मटसार, जोवकाण्ड गा० ६०२. (२) अश्थूलथूल-थूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च। सुहुमं अइमुहुमं इदि धरादियं होदि छब्भेयं । भूपब्बदमादोया भणिदा अइथूलथूलमिदि खंधा । थूला इदि विएणेया सप्पोजलतेलमादीया । YADAV YY क हर SSED-SLI 30 Aprodreused GM.jainsforary.org Educati) Jain Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३७६ पुद्गल का यह वर्गीकरण, विश्व के अनन्त पुद्गल-परमाणुओं का यह पृथक्-पृथक् विभाजन, इतना वैज्ञानिक बन पड़ा है कि वह आधुनिक विज्ञान-वेत्ताओं के लिए आश्चर्य का विषय है. इस वर्गीकरण में हम कुछ उन तत्त्वों का भी अन्त र्भाव करते चलेंगे जिनका आविर्भाव या आविष्कार इसी युग में हुआ है. स्थूल-स्थूल [Solids]. लकड़ी पत्थर आदि जैसे ठोस पदार्थ इस वर्ग में आते हैं. स्थूल [Liquids]. इस वर्ग में जल, तेल आदि द्रव पदार्थ आते हैं. स्थूल-सूचम [Visible Energies]. प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि जैसे दृश्य पदार्थ इस वर्ग में लिए गये हैं, प्रकाश ऊर्जा [Energy] भी इसी वर्ग में रखी जा सकती है. सूक्ष्म-स्थूल [Ulteravisible but intrasensual matters]. ऐसे पदार्थ इस वर्ग में आते हैं जिन्हें हम नेत्र इन्द्रिय से तो नहीं जान पाते लेकिन शेष चारों में से किसी-न-किसी इन्द्रिय द्वारा अवश्य जान सकते हैं. इसके उहाहरण हैं उद्जन [Hydrogen], जारक [Oxygen] आदि वातियें [Gases] और ध्वनि ऊर्जा [Sound energies] आदि जैसी ऊर्जाये. सूचम [Ultravisible matter]. शास्त्रीय भाषा में जिन्हें कार्मणवर्गणा कहते हैं, उन पुद्गलों को इस वर्ग में रखा गया है. ये वे सूक्ष्म स्कन्ध हैं जो हमारी विचार-क्रिया जैसी क्रियाओं के लिए अनिवार्य हैं. हमारे विचारों और भावों का प्रभाव इन पर पड़ता है तथा इनका प्रभाव जीव-द्रव्य एवं अन्य पुद्गलों पर पड़ता है. सूक्ष्म-सूचम- इस वर्ग में सूक्ष्मतम स्कन्ध आते हैं. ये नग्न नेत्र [Naked cyc] से नहीं ही देखे जा सकते. इसके उदाहरणों में विद्युदणु [Electrons] उद्यदणु [positrons], उद्युत्कण [protons] और विद्युत्कण [Neutrons] आदि आते हैं. तेईस भेद एक अन्य दृष्टि से पुद्गल के २३ भेद भी किये जाते हैं.' इन भेदों को शास्त्रीय शब्दों में वर्गणाएँ कहते हैं. उनमें से कुछ वर्गणाएँ हैं—पाहार वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा कार्माण वर्गणा और तेजस् वर्गणा आदि. इन वर्गणाओं के अनेक उपभेद भी होते हैं.२ छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि । सुहुमथूले दि भणिया खन्धा चउरक्खविस्या य । सुहमा हवन्ति खंधा पाओग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो । तन्निवरीया खंधा अइसहुमा इदि परूवेंदि। -आचार्य कुन्दकुन्द : नियमसार, गा० २१-२४. १. अणुसंखासंखेज्जाता य अगेजनगेहि अंतरिया । आहारतेजभासायणकम्मश्या धुवक्खन्य। सांतर निरन्तरेण य सुराणा पत्तेयदेवधुवसुराणा। बादरणिगोदसुगरण। सुहुम गिगोदा एभो महक्खन्धा। -आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती : गो० जी०, गा०५६३-६४. २. परमाणुबग्गण म्मि य, अवरुक्कररां च सेसगे अस्थि । गेझमहक्खन्धाणं वरमहिय सेसगं गुणियं । ---वही; गा०५६५. Jain Education Interational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय अनन्त भेद-पुद्गल द्रव्य की संख्या, क्या परमाणु और क्या स्कन्ध, सभी के रूप में अनन्त है. एक पुद्गल दूसरे पुद्गल से, स्पर्श, रस आदि किसी-न-किसी कारण से भिन्न या असमान भी हो सकता है अतः हम कह सकते हैं कि पुद्गल भी अनन्त हैं.' वैज्ञानिक वर्गीकरण-विज्ञान ने सम्पूर्ण पुद्गल द्रव्य [Matters of Energies] को तीन वर्गों में रखा है. ठोस [Solids], द्रव [Liquids] और गैस [Gases]. विज्ञान की यह भी मान्यता है कि ये तीनों वर्गों के पुद्गल सदा अपने-अपने वर्ग में ही नहीं रहे आते, वे अपना वर्ग छोड़कर, रूप बदलकर दूसरे वर्गों में भी जा मिलते हैं. विज्ञान के इस सिद्धान्त से जैन दर्शन को कोई बाधा तो नहीं ही पहुँचती, बल्कि उसकी पुष्टि ही होती है. जैन दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि जल जो द्रव [Liquid] पुद्गल है, पौधे आदि के रूप में ठोस पुद्गल बन जाता है, उद्जन [Hydrogen] आदि दो गैसें [Gases] जल के रूप में तरल [Liquid] बन जाती हैं. पुद्गल का कार्य-प्रत्येक द्रव्य का अपना कार्य होता है. शास्त्रीय भाषा में इस कार्य को उपग्रह या उपकार करते हैं. यह उपग्रह, पुद्गल द्रव्य अपने स्वयं या अन्य पुद्गल द्रव्यों के प्रति तो करता ही है, जीव द्रव्य के प्रति भी करता है. पुद्गल द्रव्य द्वारा किसी अन्य पुद्गल द्रव्य का उपग्रह होता है, इसका उदाहरण साबुन और कपड़ा है. साबुन कपड़े को साफ कर देता है, दोनों पुद्गल हैं. एक पुद्गल ने दूसरे पुद्गल का उपग्रह किया, यह स्पष्ट ही है. पुद्गल-जीव द्रव्य का उपग्रह भी अनेक रूपों में करता है. वह जीव के परिणमन के अनुसार कभी शरीर तो कभी मन और कभी वचन तो कभी श्वासोच्छ्वास के रूप में अपना स्वयं का परिणमन करता हुआ, उस परिणमन के माध्यम से जीव द्रव्य का उपग्रह करता रहता है. सुख, दुःख, जीवन और मरण के रूप में भी पुद्गल द्रव्य, जीवद्रव्य का उपग्रह करता है. पुद्गल द्रव्य के द्वारा जीव द्रव्य के उपग्रह का यह अर्थ कदापि नहीं कि पुद्गल-द्रव्य द्वारा जीव-द्रव्य में कोई प्रक्रिया या परिणमन किया-कराया जाता है. इसका अर्थ, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, केवल यही है कि जीवद्रव्य का परिणमन जीवद्रव्य में और पुद्गल-द्रव्य का परिणमन पुद्गल-द्रव्य में होता है लेकिन संयोगवश दोनों के परिणमनों में स्वभावतः, ऐसी कुछ समानता या एकरूपता बन पड़ती है कि हमें--जीवद्रव्यको लगता है कि यह परिणमन हममेंजीव द्रव्य में-हो रहा है. दोनों द्रव्यों के स्वतन्त्र परिणमन के सिद्धान्त का ही फल है कि एक ही वस्तु के उपभोग से अनेक लोगों-जीवों--में अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएँ होती हैं. एक उदाहरण लीजिए. किसी अत्यन्त रूपवती वेश्या का मृत शरीर पड़ा है. एक साधु उसे देखकर सोचता है कि यदि इस वेश्या ने अपने शरीर के अनुरूप सुन्दर कार्य भी किये होते तो कितना कल्याण होता? इसका एक व्यभिचारी उसे देखकर सोचता है—यदि जीवित होती तो इसे जीवन भर न छोड़ता ! कोई व्यक्ति उसे देखकर सोचता है कि अच्छी मरी पापिन, अपना शील बेचा है इसने ! एक उस वेश्या का रिश्तेदार है जो स्नेहवश फूट-फूटकर रो रहा है. एक अजनवी उसे देखकर भी उसकी स्थिति पर कुछ विचार नहीं करता. यहां जो वस्तुत: जीवद्रव्य के अपने परिणमन की तारीफ है कि वह होता तो अपने आप है और लगता है कि पर-पुद्गल द्रव्य अथवा किसी अन्य जीव-द्रव्य के द्वारा कराया जा रहा है. वेश्या के मृत शरीर को देखकर होने वाला साधु का वैराग्य, व्यभिचारी की लम्पटता, असहिष्णु की घृणा, रिस्तेदार का विलाप और अजनवी की मध्यस्थता, यही सिद्ध करते हैं कि जीवद्रव्य का परिणमन उसके अपने उपादान या अन्तरंग कारण [material cause] पर ही निर्भर है, पुद्गल द्रव्य तो केवल निमित्त या बाह्य कारण [outer cause] है. १. आचार्य अकलंक देव : तत्त्वार्थराजवार्तिक, १० ५, सू० २५, वा० ३. २. शरीरबाड-मनः-प्राणापानाः पुद्गलानाम् । --आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अ०५, मू०१६. ३. सुख-दुःख जीवित-मरणोपग्रहाश्च | -वही, अ०५, सू० २० । _JainEducalyan.blemstion P hase On wwersielibrary.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३८१ पुद्गल के पर्याय—किसी भी द्रव्य का स्वरूप ही यह है कि उसमें गुण और पर्याय हों. पुद्गलों के गुणों का विश्लेषण हो चुका है. पर्यायों की चर्चा यहाँ की जा रही है. यों तो पुद्गल द्रव्य के अन्य द्रव्यों की भांति, अनन्त पर्याय हैं तथापि कुछ प्रमुख एवं हमारे दैनिक व्यवहार में आने वाले पर्यायों की चर्चा यहां की जाती है. शब्द, बन्धन, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान [आकार], भेद [खण्ड], अंधकार, छाया, आतप [धूप और उद्योत [चांदनी पुद्गल के पर्याय हैं.' संगीत, प्रदर्शन, आवागमन आदि भी इसी कोटि में रखे जा सकते हैं. इन सबके अतिरिक्त, पुद्गल के कुछ पर्याय ऐसे भी हैं जो मानव-शरीर और विज्ञान से सम्बन्ध रखते हैं. इनका विश्लेषण यहाँ हम विशेष रूप से करेंगे. -------0---0----0-0-0-0 शब्द शब्द का स्वरूप—एक स्कन्ध के साथ दूसरे स्कन्ध के टकराने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है वह शब्द है.२ शब्द कर्ण या श्रोत्र इन्द्रिय का विषय है. शब्द और वैशेषिक दर्शन--वैशेषिक दर्शन में शब्द को पुद्गल का पर्याय न मानकर आकाश द्रव्य का गुण माना है. इस मान्यता के खण्डन में अनेक तर्क दिये जा सकते हैं. प्रथम और स्पष्ट तर्क तो यही है कि आकाश द्रव्य अमूर्तिक है, उसमें स्पर्श आदि कुछ भी नहीं होते, जबकि शब्द मूर्तिक है, उसमें स्पर्श आदि हैं, उसे छुआ-पकड़ा भी जाता है. अमूर्तिक द्रव्य का गुण भी अमूर्तिक ही होना चाहिए, मूर्तिक नहीं. द्वितीय, आकाश का गुण मानने के मोह में यदि शब्द को अमूर्तिक ही माना जाय तो मूर्तिक इन्द्रिय उसे ग्रहण नहीं कर सकेगी. अमूर्तिक विषय को मूर्तिक इन्द्रिय भला कैसे जानेगी? तृतीय तर्क यह है कि शब्द टकराता है, उसकी प्रतिध्वनि होती है यदि वह अमूर्तिक आकाश का गुण होता तो जैसे आकाश नहीं टकराता वैसे ही शब्द भी न टकराता. चौथे-शब्द को रोका-बांधा भी जा सकता है, जबकि आकाश को, जिसका वह गुण कहा जाता है, रोकने-बांधने की चर्चा ही हास्यास्पद है. पांचवां तर्क है शब्द गतिमान है जबकि आकाश गति-हीन है, निष्क्रिय है. और अन्तिम तर्क है विज्ञान की ओर से, शब्द ऐसे आकाश में गमन नहीं कर सकता जहां किसी भी प्रकार का पुद्गल [matter] न हो. यदि शब्द आकाश का गुण होता तो उसे आकाश के प्रत्येक कोने में जा सकना चाहिए था. क्योंकि गुण अपने गुणी के प्रत्येक अंश में रहता है. वहां पुद्गल के होने और न होने का प्रश्न ही न उठना चाहिए था. शब्द और विज्ञान-शब्द-सम्बन्धी जिन सिद्धान्तों की स्थापना जैनाचार्यों ने सदियों पहले की थी उन्हीं का पुनः स्थापन और विस्तार आज के वैज्ञानिकों ने किया है. उदाहरणार्थ-शब्द का वर्गीकरण ही ले लें. जैनाचार्यों ने शब्द को भाषात्मक और अभाषात्मक, दो वर्गों में रखा. आज के वैज्ञानिकों ने उन्हीं को क्रमश: संगीत ध्वनि [Musical sounds] और कोलाहल [Noises] नाम दे दिये. इसी तरह जैनाचार्यों के भाषात्मक शब्दों के प्रभेदों को भी वैज्ञानिकों ने ज्यों-का-त्यों वर्गीकृत कर दिया है. शब्द की प्रकृति और गति के विषय में भी जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान में अद्भुत समानता है. शब्दों का वर्गीकरण-संक्षेप में शब्दों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है, भाषात्मक, अभाषात्मक और मिश्र ! पा. १. (१) शब्दबन्ध-सौक्ष्म्य-स्थौल्य संस्थान-भेद-तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च । -आचार्य उमास्वामी : तत्वार्थसूत्र, अ०५, सू० २४. (२) सदो बंधो सुहुमो थूलो संठाण-मेद-तम-छाया। उज्जोदादवसहिया पुग्गलदब्बस्स पज्जाया ।-आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती : द्रव्यसंग्रह, गा० १६. २. सद्दो खंधप्पभावो खंधो परमाणुसंगसंघादो । पुढेसु तेसु जायदि सद्दो उत्पादगो णियदो-पञ्चास्तिकाय, गा० ७१. Jain Education Internal Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय विस्तार से, शब्द के मूलत: दो भेद होते हैं और दोनों के दो-दो प्रभेद तथा द्वितीय भेद के प्रथम प्रभेद के भी चार प्रभेद होते हैं. हम यहां प्रत्येक का परिचय देंगे. भाषात्मक-इस वर्ग में मानव और पशु-पक्षियों आदि की ध्वनियाँ आती हैं, इसके दो भेद हैं. अक्षरात्मक-ऐसी ध्वनियाँ इस वर्ग में आती हैं जो अक्षरबद्ध की जा सके-लिखी जा सकें. अनक्षारात्मक--इस वर्ग में रोने-चिल्लाने, खांसने-फुसफुसाने आदि की तथा पशु-पक्षियों आदि की ध्वनियाँ आती हैं, इन्हें अक्षरबद्ध नहीं किया जा सकता. अभाषात्मक-शब्द के इस वर्ग में प्रकृतिजन्य और वाद्ययंत्रों से उत्पन्न होने वाली ध्वनियाँ सम्मिलित हैं. इसके भी दो वर्ग हैं—प्रायोगिक और वस्त्रसिक. वाद्ययंत्रों से उत्पन्न होने वाली ध्वनियाँ प्रायोगिक शब्द हैं और इन्हें चार वर्गों में रखा जाता है. तत वर्ग में वे ध्वनियाँ आती हैं जो चर्म-तनन आदि झिल्लियों के कम्पन से उत्पन्न होती हों. तबला, ढोलक, भेरी आदि से ऐसे ही शब्द उत्पन्न होते हैं. वितत शब्द वीणा आदि तंत्र-यत्रों में, तंत्री के कम्पन से उत्पन्न होते हैं. घन शब्द वे हैं जो ताल, घण्टा आदि धन वस्तुओं के अभिघात से उत्पन्न हों. इसी वर्ग में हारमोनियम आदि जिह्वालयंत्रों से उत्पन्न ध्वनियाँ भी आती हैं। सौषिर वर्ग में वे शब्द आते हैं जो बांस, शंख आदि में वायु प्रतर के कम्पन से उत्पन्न हों.२ वैस्रसिक-मेघगर्जन आदि प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न होनेवाले शब्द वैससिक कहलाते हैं. बन्ध बन्ध की परिभाषा-बन्ध शब्द का अर्थ है बंधना, जुड़ना, मिलना, संयुक्त होना. दो या दो से अधिक परमाणुओं का भी बन्ध हो सकता है. और दो या दो से अधिक स्कन्धों का भी इसी तरह एक या एक से अधिक परमारणुओं का एक या एक से अधिक स्कन्धों के साथ भी बन्ध होता है. पुद्गल परमाणुओं (कार्मण वर्गणाओं) का जीवद्रव्य के साथ भी बन्ध होता है. बन्ध की विशेषता:-- बन्ध की एक विशेषता यह है कि उसका विघटन या खण्डन या अन्त अवश्यम्भावी है, क्योंकि जिसका प्रारम्भ होता है उसका अंत भी अवश्यमेव होता है. एक नियम यह भी है कि जिन परमाणुओं या स्कन्धों या स्कन्ध परमाणुओं या द्रव्यों का परस्पर बन्ध होता है वे परस्पर सम्बद्ध रहकर भी अपना-अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखते हैं. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के साथ दूध और पानी की भांति अथवा रासायनिक प्रतिक्रिया से सम्बद्ध होकर भी अपनी पृथक् सत्ता नहीं खो सकता, उसके परमाणु कितने ही रूपान्तरिक हो जावें, फिर भी उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रहता है. १. शब्दो देवा, भाषालक्षण-विपरीतत्वात् । भाषात्मक उभयथा, अक्षरादिकृतेतरविकल्पत्वात् । अभाषात्मको देधा, प्रयोगवित्रसानिमित्तत्वात्, तत्र वैससिको बलाइकादिप्रभवः, प्रयोगजश्चतुर्धा, तत-वितत-धन सौघिरभेदात् । -आचार्य अकलंकदेवः तत्त्वार्थराजवात्तिक, अ०५, सू० २४. २. चर्मतनननिमित्तः पुष्कर भेरी-दरादिभवस्ततः । तंत्रीकृतवाणा-सुघोष दिसमुदभवो विततः । तालघण्टालालनाधभिधातजी धनः । वंशशंखा दिनिमित्तः सौषिरः -प्राचार्य पूज्यपादः सर्वार्थसिद्धि, अ० ५, सू० २४. ३. संयुक्तानां वियोगश्च भविता हि नियोगतः। -श्राचार्यवादीभसिंह सूरि, क्षत्रचूड़ामणि. HAHATANJAL AUTAvaindi Jain Allole SLR GUL UND SINGLE NirukundialityinancinatinneroJANATA.1111hi..101 .mmmunic. nic.ithuni.. Munic.inmuli..37 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३८३ ।। बन्ध का कारण:-पुद्गल का बन्ध जीव के साथ भी होता है और इसके कई कारण हैं. यह तो स्पष्ट है कि पुद्गल द्रव्य सक्रिय है और जो सक्रिय होता है उसका टूटते-फुटते रहना, जुड़ते-मिलते रहनास्वभाविक ही है. हाँ, उसमें कोई न कोई कारण निमित्त के रूप में अवश्य होता है. उदाह रणार्थ मिट्टी के अनेक कणों का बन्ध होने पर घड़ा बनता है, इसमें कुम्हार निमित्त कारण है. द्रव्य की अपनी रासायनिक प्रक्रिया भी बन्ध का कारण बन जाती है, कपूर आदि के सम्मिलिन से बनी अमृतधारा और उद्जन (Hydrogen) आदि वातियों (Gases) के मिलने से बना हुआ जल ऐसी ही प्रक्रियाओं के प्रतिफल हैं. जीव-द्रव्य और पुद्गल द्रव्य के बन्ध में मुख्य कारण है जीव का अपना भावनात्मक परिणमन और दूसरा कारण है पुद्गल की प्रक्रिया. बन्ध की प्रक्रियाः-जैनाचार्यों ने बन्ध की प्रक्रिया का अत्यन्त सूक्ष्म विश्लेषण किया है. यद्यपि विज्ञान इस विश्लेषण को अपने प्रयोगों द्वारा पूर्णत: सिद्ध नहीं कर सका है तथापि विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि इसकी वैज्ञानिकता में संदेह नहीं . परमाणु से स्कन्ध, स्कन्ध से परमाणु और स्कन्ध से स्कन्ध किस प्रकार बनते हैं, इस विषय में हम मुख्यतः सात तथ्य पाते हैं. (१) स्कन्धों की उत्पत्ति कभी भेद से, कभी संघात से और कभी भेद-संघात से होती है. स्कन्धों का विघटन अर्थात् कुछ परमाणुओं का एक स्कन्ध से विच्छिन्न होकर दूसरे स्कन्ध में मिल जाना भेद कहलाता है. दो स्कन्धों का संघटन या संयोग हो जाना संघात है और इन दोनों प्रक्रियाओं का एक साथ हो जाना भेद-संघात है.' (२) अरणु की उत्पत्ति केवल भेदप्रक्रिया से ही सम्भव है.२ (३) पुद्गल में पाये जाने वाले स्निग्ध और रूक्ष नामक दो गुणों के कारण ही यह प्रक्रिया सम्भव है. (४) जिन प्रमाणुओं का स्निग्ध अथवा रूक्ष गुण जघन्य अर्थात् न्यूनतम शक्तिस्तर पर हो उनका परस्पर बन्ध नहीं होता. (५) जिन पमाणुओं या स्कन्धों में स्निग्ध या रूक्ष गुण समान मात्रा में अर्थात् सम शक्तिस्तर पर हो उनका भी परस्पर बन्ध नहीं होता. (६) लेकिन उन परमाणुओं का बन्ध अवश्य होता है जिनसे स्निग्ध और रूक्ष गुणों की संख्या में दो एकांकों का अन्तर होता है. जैसे चार स्निग्ध गुणयुक्त स्कन्ध का छह स्निग्ध गुण युक्त स्कन्ध के साथ बन्ध सम्भव है अथवा छह रूक्ष गुणयुक्त स्कन्ध से बन्ध सम्भव है.६ (७)बन्ध की प्रक्रिया में संघात से उत्पन्न स्निग्धता अथवा रूक्षता में से जो भी गुण अधिक परिमाण में होता है, नवीन स्कन्ध उसी गुण रूप में परिणत होता है. उदाहरण के लिए एक स्कन्ध, पन्द्रह स्निग्धगुणयुक्त स्कन्ध और तेरह रूक्ष गुण स्कन्ध से बने तो वह नवीन स्कन्ध स्निग्धगुणरूप होगा. आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भी हम देखते हैं कि यदि किसी अणु (Atom) में से विद्युदणु (Electron ऋणाणु) निकाल लिया जाय तो वह विद्युत्प्रभृत (Positively charged )और यदि एक विद्युदणु जोड़ लिया जाय तो वह निा त्प्रभृत (Negatively charged) हो जाता है. १. भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते –उमास्वामी तत्त्वार्थ सूत्र. अ० ५, सू० २६. २. मेदादणु । -वही अ०५, सू०२७. ३. स्निग्धरूक्षतत्वाद् बन्धः । --~-वही, अ० ५, सू०३३. ४. न ज धन्यगुणानाम् । —वही अ०५, सू० ३४. ५. गुणसाम्ये सदृश्यानाम् । -वही, अ०५, सू० ३ छ. ६. यधिकादिगुणानां तु । -वही, अ०५, सू० ३६. ७. बन्धाऽधिको पारिणामिकौ च । -वही, अ०५, सू० ३७. CG wwwajalcalary.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0-0--0--0--0--0--0-0--0-0 ३८४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय जीव और पुद्गल का बन्ध-जीव और पुद्गल के पारम्परिक बन्ध की एक विशिष्ट परिभाषा है, जिसका विश्लेषण बहुत कुछ पहले किया जा चुका है. कषाय सहित होने अर्थात् रागद्वेषरूप भावनात्मक परिणमन करने के कारण जीव कार्मणवर्गणा के पुद्गल को ग्रहण करता है, और इसी ग्रहण का नाम है वन्ध.' कर्मबन्ध का सिद्धान्त--जीव जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है, यही तथ्य कर्म-सिद्धान्त की भूमिका है. इस सिद्धान्त को जैन, सांख्य, योग, नैयायिक, वैशेषिक और मीमांसक आदि आत्मवादी दर्शन तो मानते ही हैं, अनात्मवादी बौद्ध दर्शन भी मानता है. इसी तरह ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी भी इस सिद्धान्त में प्रायः एकमत हैं. कर्मबन्ध का स्वरूप-जैन दर्शन में कर्म केवल संस्कारमात्र ही नहीं हैं किन्तु एक वस्तुभुत पुद्गल पदार्थ हैं जो रागीद्वेषी जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ आ मिलता है. अथवा यों कहिए कि राग-द्वेष से युक्त जीव की प्रत्येक मानसिक, वाचनिक और शारीरिक क्रिया के साथ एक द्रव्य पुद्गलपरमाणु या कार्मणवर्गणा-जीव में आती है जो उसके राग-द्वेष रूप भावों का निमित पाकर जीव से बंध जाता है और आगे चलकर अच्छा या बुरा फल देने लगता हैं.२ कर्म के दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म. जीव से संयुक्त कार्मणवर्गणा द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म के निमित्त से होने वाले जीव के राग-द्वेष रूपभाव, भावकर्म कहलाते हैं. कर्मबन्ध और वैदिक दर्शन-ईश्वर को जगत् का नियन्ता मानने वाले दर्शन जीव को कार्य करने में स्वतन्त्र, किन्तु उसका फल भोगने में परतन्त्र मानते हैं. उनके मत से कर्म का फल ईश्वर देता है किन्तु जैन-दर्शन के अनुसार कर्म अपना फल स्वयं देते हैं. उनके लिए किसी न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं होती. शराब पीने से नशा होता है और दूध पीने से पुष्टि. शराब या दूध पीने के बाद उसका फल देने के लिए किसी दूसरे शक्तिशाली नियामक की आवश्यकता नहीं होती. इसी प्रकार जीव की प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति के साथ जो कर्मपरमाणु जीव द्रव्य की ओर आकृष्ट होते हैं और राग-द्वेष का निमित्त पाकर उस जीव से बंध जाते हैं, उन कर्मपरमाणुओं (कार्मणवर्गणाओं) में भी शराब और दूध की तरह अच्छा और बुरा प्रभाव डालने की शक्ति रहती है. जो चैतन्य के सम्बन्ध से व्यक्त होकर जीव पर अपना प्रभाव डालती है और उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम करता है जो सुखदायक या दुःखदायक होते हैं. कर्मबन्ध का वर्गीकरण--बन्ध या संयोग को प्राप्त होने वाली कार्मण वर्गणाओं में अनेक प्रकार का स्वभाव पड़ना प्रकृतिबन्ध है. यह आठ प्रकार का होता है.४ (१) ज्ञानावरण कर्म (२) दर्शनावरण कर्म (३) वेदनीय कर्म (४) मोहनीय कर्म (५) आयु कर्म (६) नाम कर्म (७) गोत्र कर्म (८) अन्तराय कर्म. १. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बंध: -वही, अ०८, सू० २. २. परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ।-आचार्य कुन्दकुन्दः प्रवचनसार, गाथा ६५. ३. (१) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । -श्रीमदभगवद्गीता; अ०४, श्लो० २७ । (२) अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा । —महर्षि वेदव्यास : महाभारत,वनपर्व, अ० ३०, श्लो० २८. ४. आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनी यायुर्नामगोत्रान्तरायाः।--आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अ०८, सू० ४. Jain L atin Hainalibrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0-0-0--0-0-0-0-0-0-0 गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३८५ स्थितिबन्ध-कार्मण वर्गणाओं में आत्मा के साथ बद्ध रहने की काल-मर्यादा पड़ना, स्थिति बन्ध है. अनुभागबन्ध-कार्मणवर्गणाओं में फल देने की न्यूनाधिक शक्ति उत्पन्न होना, अनुभाग बन्ध है. प्रदेशबन्ध-कार्मणवर्गणा के दलिकों की संख्या का नियत होना, प्रदेशबन्ध है. सूक्ष्मता—सूक्ष्मता का अर्थ है छोटापन, यह दो प्रकार का है---अन्त्य सूक्ष्मता और आपेक्षिक सूक्ष्मता. अन्त्यसूक्ष्मता परमाणुओं में ही पाई जाती है और आपेक्षिक सूक्ष्मता दो छोटी-बड़ी वस्तुओं में तुलनात्मक दृष्टि से पाई जाती है. स्थूलता- स्थूलता का अर्थ बड़ापन है. वह भी दो प्रकार का है-अन्त्य स्थूलता जो महास्कन्ध में पाई जाती है और आपेक्षिक स्थूलता जो छोटी-बड़ी वस्तुओं में तुलनात्मक दृष्टि से पाई जाती है. संस्थान (आकार)–संस्थान का अर्थ है-आकार, रचनाविशेष. संस्थान का वर्गीकरण दो प्रकार से देखने में आता है. प्रथम प्रकार से उसके दो भेद हैं—इत्थं संस्थान, जिसे हम त्रिकोण, चतुष्कोण, गोल आदि नाम देते हैं और अनित्थंसंस्थान, जिसे हम अनगढ़ भी कह सकते हैं, उसको कोई खास नाम नहीं दिया जा सकता तथापि उसे छह खण्डों में विभक्त किया गया है—उत्कर, चूर्ण, खण्ड, चूणिका, प्रतर और अणुचटन. संस्थान का द्वितीय प्रकार से वर्गीकरण मानव-शरीर को दृष्टिगत रखकर किया जाता है-समचतुरस्र, न्यग्रोध, परिमण्डल, स्वाति, कुब्जक, वामन और हुण्डक. भेद (खण्ड)-स्कन्धों का विघटन अर्थात् कुछ परमाणुओं का एक स्कन्ध से विच्छिन्न होकर दूसरे स्कन्ध में मिल जाना भेद कहलाता है. तम (अन्धकार)-जो देखने में बाधक हो और प्रकाश का विरोधी हो वह अन्धकार है: कुछ अजैन दार्शनिकों ने अंधकार को कोई वस्तु न मानकर केवल प्रकाश का अभाव माना है पर यह उचित नहीं. यदि ऐसा मान लिया जाय तो यह भी कहा जा सकेगा कि प्रकाश भी कोई वस्तु नहीं है, वह तो केवल तम का अभाव है. विज्ञान भी अंधकार को प्रकाश का अभावरूप न मानकर पृथक् वस्तु मानता है. विज्ञान के अनुसार अंधकार में भी उपस्तु किरणों (Infre-red heat rays) का सद्भाव है जिनसे उल्लू और बिल्ली की आँखें तथा कुछ विशिष्ट आचित्रीय पट (Photographic plates) प्रभावित होते हैं. इससे सिद्ध होता है कि अंधकार का अस्तित्व दृश्य प्रकाश (visible light) से पृथक् है. छाया-प्रकाश पर आवरण पड़ने पर छाया उत्पन्न होती है:२ प्रकाश-पथ में अपारदर्शक कायों (opequc bodies) का आ जाना आवरण कहलाता है. छाया को अंधकार के अंतर्गत रखा जा सकता है और इस प्रकार वह भी प्रकाश का अभावरूप नहीं अपितु पुद्गल की पर्याय सिद्ध होती है. विज्ञान की दृष्टि में अणुवीक्षों (Lenses) और दर्पणों के द्वारा निर्मित प्रतिबिम्ब दो प्रकार के होते हैं, वास्तविक और अवास्तविक. इनके निर्माण की प्रक्रिया से स्पष्ट है कि ये ऊर्जा प्रकाश के ही रूपान्तर हैं. ऊर्जा ही छाया (shadows) और वास्तविक (Real) एवं अवास्तविक (virtual ) प्रतिबिम्बों (images) के रूप में लक्षित होती है. व्यतिकरण पट्टियों (interference bands) पर यदि एक गणनायंत्र (Counting machine) चलाया जाय तो काली पट्टी (Dark Band) में से भी प्रकाश वैद्युत रीति से (photo electrically) विद्यु दणुओं [Electrons] का निःसरित होना सिद्ध होता है. तात्पर्य यह कि काली पट्टी केवल प्रकाश के अभावरूप नहीं, उसमें भी ऊर्जा होती है और इसी कारण उससे विद्युदणु निकलते हैं. काली पट्टियों के रूप में जो छाया [shadows] होती है वह भी ऊर्जा का ही रूपान्तर है. १. तमो दृष्टिप्रतिबन्धकारणं प्रकाशविरोधि-प्राचार्य पूज्यपादः सर्वार्थसिद्धि, अ०५, सू० २४. २. छाया प्रकाशावरणनिमित्ता।--वही, अ०५, सू० २४. MAM Va CRICA Jain Education Temational PHA 2% NO COM For Private & Personal use only 66 www.jammelibrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय वर्गीकरण-प्रकाश-पथ में दर्पणों [Mirrors] और अणुवीक्षों [Lenses] का आ जाना भी एक प्रकार का आवरण ही है. इस प्रकार के आवरण से वास्तविक और अवास्तविक प्रतिविम्ब बनते हैं. ऐसे प्रतिबिम्ब दो प्रकार के होते हैं, वर्णादिविकारपरिणत और प्रतिबिम्बमात्रात्मक.' वर्णादिविकारपरिणत छाया में विज्ञान के वास्तविक प्रतिबिम्ब लिये जा सकते हैं जो विपर्यस्त [inverted] हो जाते हैं और जिनका प्रमाण [size] बदल जाता है. ये प्रतिबिम्ब प्रकाश-रश्मियों के वस्तुतः [Actually] मिलन से बनते हैं और प्रकाश की ही पर्याय होने से स्पष्टत: पौद्गलिक हैं. प्रतिविम्बमात्रात्मिका छाया के अंतर्गत विज्ञाने के अवास्तविक प्रतिबिम्ब [virtual images] रखे जा सकते हैं जिनमें केवल प्रतिबिम्ब ही रहता है, प्रकाश-रश्मियों के मिलने से ये प्रतिबिम्ब नहीं बनते. प्रकाश-जैन सूत्रकारों ने प्रकाश के आतप और उद्योत के रूप में दो विभाग किए हैं और उन्हीं के रूप में उसका विवेचन किया है. उनका यह विभाजन बड़ा ही वैज्ञानिक बन पड़ा है. जैन सूत्रकारों की यह सुक्ष्मदृष्टि और भेदशक्ति [Discriminative Power] निस्संदेह आश्चर्यजनक है. प्रकाश का वैज्ञानिक विवेचन भी सम्भव है. वह चाहे सूर्य का हो, चाहे दीपक का, निरन्तर गतिशील है. वैज्ञानिकों ने लोक [ब्रह्माण्ड] में घूमने वाले आकाशीय पिण्डों की गति, दूरी आदि को मापने के लिये प्रकाश-किरण को ही अपना माप-दण्ड मान रखा है क्योंकि उसकी गति सदा समान है. प्रकाश में पहले भार नहीं माना गया था लेकिन अब यह सिद्ध हो चुका है कि वह एक शक्ति का भेद होते हुए भी भारवान् है. वैज्ञानिकों ने यह भी पता लगाया कि प्रकाश विद्युत-चुम्बकीय तत्त्व है. वह एक वर्गमील क्षेत्र पर प्रतिमिनिट आधी छटांक मात्रा में सूर्य से गिरता है. आतप (धूप)-सूर्य आदि के निमित्त से होने वाले उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं.२ इसमें ऊर्जा का अधिकांश तापकिरणों [Heat Rays] के रूप में प्रकट होता है. उद्योत (चांदनी)-चन्द्रमा, जुगनू आदि के शीत प्रकाश को उद्योत कहते हैं. उद्योत में अधिकांश ऊर्जा प्रकाश-किरणों [Light-energy] के रूप में प्रकट होती है. ताप-ताप को हम उष्णता कह कर समझ सकते हैं. इसे पुद्गल के उष्ण स्पर्श गुण की पर्याय कहा जाना चाहिए. तभी ताप का विवेचन पूर्णतः वैज्ञानिक दृष्टि से होगा. परमाणु में घनाणु और ऋणारगु निरन्तर गतिशील रहते हैं और इसी तरह अणु में स्वयं परमाणु और अणु-गुच्छकों में अणू निरन्तर गतिशील रहते हैं. यही आन्तरिक गति जब बहुत बढ़ जाती है और सूक्ष्मकण परस्पर टकराते हुए इधर-उधर दौड़ने लगते हैं तो वे ताप के रूप में दिखने लगते हैं. विद्य त (बिजली)—विद्युत् को हम साधारणतः घन-विद्युत् और जल-विद्युत् के दो रूपों में देखते हैं. ये दोनों ही पुद्गल-पर्याय हैं और दोनों का वैज्ञानिक मूलाधार एक ही है. वैज्ञानिक दृष्टि से विद्युत् के दो रूप हैं, घन और ऋण. घन का आधार उद्यत्कण [Proton] और ऋण का आधार विद्युत्कण [Electron] है. सिद्धान्त के अनुसार विश्व का प्रत्येक पदार्थ विद्युन्मय है. रेडियो--क्रियातरख [Radio-activity]-जब किसी परमाणु [Atom] से किसी कारणवश उसके मूलभूत कण, विद्युत्कण [Electron] और उद्युत्कण [proton] पृथक् होते हैं तो बम फटने की तरह धड़ाके की आवाज होती है, साथ ही उससे एक प्रकार की लौ निकलती है जो प्रकाश की तरह आगे-आगे बढ़ती चली जाती है. इसी लौ के प्रसरण को रेडियो-क्रियातत्त्व [Radio activity] या किरण-प्रसरण [Radiation] कहते हैं. आधुनिक विज्ञान के १०३ तरव-वैज्ञानिकों ने पुद्गल के कुछ ऐसे पर्यायों का पता लगाया है जो अपनी एक स्वतन्त्र १. सा देधा वर्णादिविकारपरिणता प्रतिबिम्बमात्रात्मिका चेति ।-वही, अ० ५, सू० २४. २. आतप आदित्यादिनिमित्त उष्णप्रकाशलक्षणः । वही, अ०५, सू० २४. ALA wwwww W 01010101oloto /otdtoloroton ololololololol Jain Educator memorary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३८७ जाति के होते हैं और जिनमें किसी अन्य जाति का मिश्रण स्वभावतः नहीं होता. ऐसी अमिश्रित जाति के पुद्गल-पर्यायों को ही विज्ञान में तत्त्व कहा जाता है. मौलिक दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि इन तत्त्वों के अन्वेषण की प्रेरणा वैदिक दर्शन के पञ्च महाभूतों वाले सिद्धान्त से मिली है. तत्त्वों का अन्वेषण दिनोंदिन होता ही चला गया और उनकी संख्या ९२ तक पहुँच गई. अब तो सुनते हैं कि यह संख्या १०३ तक पहुँच गई है. भविष्य में और भी अनेक तत्त्वों के अन्वेषण की सम्भावना है. जैन दर्शनकारों ने ७ तत्त्व और ६ द्रव्य ही माने हैं लेकिन उन्हें इस १०३ की संख्या से भी कोई आपत्ति नहीं. उनका वर्गीकरण स्वयं इतना युक्तिपूर्ण और वैज्ञानिक है कि आये दिन होते रहने वाले वैज्ञानिक अन्वेषणों से उनकी पुष्टि ही होती जाती है. ये १०३ तत्त्व केवल पुद्गल द्रव्य के ही पर्याय हैं और उनका अन्तर्भाव इसी द्रव्य के स्थूल स्थूल आदि ६ भेदों में यथासम्भव किया जा सकता है. जैनदर्शन में परमाणुओं की जातियाँ भी मानी गई हैं और यह भी माना गया है कि एक जाति दूसरी जाति से अमिश्रित रह सकती है. अणु बम - पहले वैज्ञानिकों की मान्यता थी कि उनका तथाकथित परमाणु टूटता नहीं, विच्छिन्न नहीं होता लेकिन धीरे-धीरे उनकी यह मान्यता खण्डित होती गई. धीरे-धीरे यह भी अन्वेषण हुआ कि परमाणुओं के बीजाणुओं की इकाई में अपार शक्ति भरी पड़ी है. उन्होंने यह अन्वेषण भी किया कि यूरेनियम नामक तत्व के परमाणुओंका विकीरण हो सकता है, इन्हीं सब अन्वेषणों के आधार पर अणु बम को जन्म मिला. कहना न होगा कि यूरेनियम तत्व, जिसके परमाणुओं के विकीरण से विस्फोट होता है. पुद्गल द्रव्य की पर्याय है, अतः यह सब पुद्गल द्रव्य का ही चमत्कार है. उद्जन बम - उद्जन बम का सिद्धान्त अणु बम के सिद्धान्त से ठीक विपरीत है. अरणु बम अणुओं के विभाजन का परिणाम है जबकि उद्जन बम उनके संयोग का यह भी स्पष्टतः पुद्गल का ही पर्याय है. रेडियो और टेलीग्राम आदि रेडियो, ट्रांजिस्टर, टेलीग्राम, टेलीफोन, टेलीप्रिंटर, बेतार का तार, ग्रामोफोन और टेपरिकार्डर आदि अनेक यन्त्र आज विज्ञान के चमत्कार माने जाते हैं. पर इन सबके मूलभूत सिद्धान्त पर दृष्टिपात करने से हम इसी निष्कर्ष पर आते हैं—यह सब शब्द की अद्भूत शक्ति और तीव्र गति का ही परिणाम है. और शब्द पुद्गल का ही पर्याय है. सचमुच, पुद्गल के खेल अद्भुत और अनन्त हैं. - टेलीविजन- -जैसे रेडियो यन्त्र-गृहीत शब्दों को विद्युत्प्रवाह से आगे बढ़ाकर सहस्त्रों मील दूर ज्यों-का-त्यों प्रकट करता है वैसे ही टेलीविजन भी प्रसरणशील प्रतिच्छाया को सहस्त्रों मील दूर ज्यों-का-त्यों व्यक्त करता है. जैन शास्त्रों में बताया गया है कि विश्व के प्रत्येक मूर्त पदार्थ से प्रतिक्षण तदाकार प्रतिच्छाया निकलती रहती है और पदार्थ के चारों ओर आगे बढ़कर विश्वभर में फैल जाती है. जहाँ उसे प्रभावित करने वाले पदार्थों-दर्पण, जल आदि का योग होता है वहाँ वह प्रभावित भी होती है. टेलीविजन का आविष्कार इसी सिद्धान्त का उदाहरण है. अतः टेलीविजन का अन्तर्भाव पुद्गल की छाया नामक पर्याय में किया जाना चाहिए. एक्स-रेश एक्स-रेज भी विज्ञान जगत् का एक महत्त्वपूर्ण एवं चमत्कारमय आविष्कार है. प्रकाश-किरणों की अबाध गति एवं अत्यन्त सूक्ष्मता ही इस आविष्कार का मूल है. अतः एक्स-रेज़ को पुद्गल की प्रकाश नामक पर्याय के अन्तर्गत रखना ही उचित है. अन्य – विश्व में जो कुछ भी छूने, चखने, सूंघने, देखने और सुनने में आता है वह सब पुद्गल की पर्याय है. प्राणिमात्र के शरीर, इन्द्रिय और मन आदि पुद्गल से ही निर्मित हैं विश्व का ऐसा कोई भी प्रदेश कोना नहीं है जहाँ पुद्गल द्रव्य किसी-न-किसी पर्याय में विद्यमान न हो. - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय -0-0--0--0--0-0-0-0-0-0 उपसंहार यह विज्ञान का युग है. प्रत्येक व्यक्ति की जिज्ञासा आज तीव्र हो उठी है. उसे कोरे शास्त्रीय तर्कों से ही सन्तोष नहीं. विज्ञान की तुला पर तोले बिना वह किसी भी सिद्धान्त से सहमत नहीं होता. फलतः सर्वोपरि सिद्धान्त-दर्शन आज वही माना जाने लगा है जो शास्त्र-सम्मत तो हो ही, विज्ञान-सम्मत भी हो. आज की इसी प्रवृत्ति को लक्ष्य में रखकर मैंने पुद्गल द्रव्य का यह विश्लेषण प्रस्तुत किया है. विश्लेषण दर्शन और विज्ञान, दोनों दृहियों से किया गया है. पुद्गल द्रव्य के विषय में स्थान-स्थान पर दर्शन और विज्ञान की समता तो दिखाई ही गई है, विषमता भी दिखाई गई है. इस निबन्ध में पुद्गल द्रव्य के लगभग सभी पहलुओं का विश्लेषण किया गया है-तुलनात्मक दृष्टि से भी और विवेचनात्मक दृष्टि से भी. विश्लेषण में शास्त्रीय भाषा का प्रयोग प्रायः नहीं किया है ताकि जन-साधारण उसे सहज ही समझ सके. इसी दृष्टि से यथास्थान अंग्रेजी पर्याय भी देता गया हूँ. कथित विषय की पुष्टि के लिये सन्दर्भ-ग्रन्थों का हवाला भी दिया गया है. ऐसे ही विश्लेषण जीव द्रव्य, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य और काल द्रव्य के विषय में आज अनिवार्यरूप से अपेक्षित हैं. Jain Education Intemational