Book Title: Chedsutra Ek Anushilan
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210498/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदसूत्र : एक अनुशीलन आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण अंग एवं पूर्व इन दो भागों में मिलता है। आर्यरक्षित ने आगम साहित्य को चार अनुयोगों में विभक्त किया। वे विभाग ये हैं - १. चरणकरणानुयोग २. धर्मकथानुयोग ३. गणितानुयोग ४. द्रव्यानुयोग ।' आगमसंकलन के समय आगमों को दो वर्गों में विभक्त किया गया - अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य । नंदी में आगमों का विभाग काल की दृष्टि से भी किया गया है। प्रथम एवं अंतिम प्रहर में पढ़े जाने वाले आगम 'कालिक' तथा सभी प्रहरों में पढ़े जाने वाले आगम 'उल्कालिक' कहलाते हैं। सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण में आगम के चार विभाग मिलते हैं - अंग, उपांग, मूल एवं छेद । वर्तमान में आगमों का यही वर्गीकरण अधिक प्रसिद्ध है। छेदसूत्रों का महत्त्व जैन धर्म ने आचारशुद्धि पर बहुत बल दिया। आचारपालन में उन्होंने इतना सूक्ष्म निरूपण किया कि स्वप्न में भी यदि हिंसा या असत्यभाषण हो जाए तो उसका भी प्रायश्चित्त करना चाहिए। आगमों में प्रकीर्ण रूप से साध्वाचार का वर्णन मिलता है। समय के अंतराल में साध्वाचार के विधि - निषेध - परक ग्रन्थों की स्वतंत्र अपेक्षा महसूस की जाने लगी । द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के अनुसार आचार संबंधी नियमों में भी परिवर्तन आने लगा। परिस्थिति के अनुसार कुछ वैकल्पिक नियम भी बनाए गए, जिन्हें अपवादमार्ग कहा गया। छेदसूत्रों में साधु की विविध आचार संहिताएँ तथा प्रसंगवश अपवाद मार्ग आदि का विधान है। ये सूत्र साधु - जीवन का संविधान ही प्रस्तुत नहीं करते, किन्तु प्रमादवश स्खलना होने पर दण्ड का विधान भी करते हैं। इन्हें लौकिक भाषा में दण्ड संहिता तथा अध्यात्म की भाषा में प्रायश्चित्त सूत्र कहा जा सकता है। छेदसूत्रों में प्रयुक्त 'कप्पर' शब्द से मुनि के लिए करणीय आचार तथा 'नो कप्पर' से अकरणीय या निषिद्ध आचार का ज्ञान होता है। बौद्ध-परम्परा में आचार, अनुशासन एवं प्रायश्चि संबंधी विकीर्ण वर्णन विनय पिटक में तथा वैदिक परम्परा में सूत्र एवं स्मृतिग्रन्थों में मिलता है। मुनि दुलहराज...... छेदसूत्रों में निशीथ अधिक प्रतिष्ठित हुआ है। व्यवहारभाष्य के पाँचवे - छठे उद्देशक में निशीथ की महत्ता में अनेक तथ्य प्रतिपादित हैं। व्यवहारभाष्य में आगामों के सूत्र और अर्थ की बलवत्ता विमर्श में सूत्र के अर्थ को बलवान् माना है । उसी प्रसंग में अन्यान्य आगमों के अर्थ के संदर्भ में छेदसूत्रों के अर्थ को बलवत्तर माना है। इसका कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि चारित्र में स्खलना होने पर या दोष लगने पर छेदसूत्रों के आधार पर विशुद्धि होती है, अतः पूर्वगत को छोड़कर अर्थ की दृष्टि से अन्य आगमों की अपेक्षा छेदसूत्र बलवत्तर हैं। निशीथभाष्य में छेद - सूत्रों को उत्तमश्रुत कहा है। निशीथचूर्णिकार कहते हैं कि इनमें प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन है, इनसे चारित्र की विशोधि होती है इसलिए छेदसूत्र उत्तमश्रुत है। छेदसूत्रों के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं।" उनको आलोचना करने का अधिकार है। छेदसूत्रों के व्याख्याग्रन्थों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जो बृहत्कल्प एवं व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी है। छेदसूत्र रहस्य- सूत्र है । योनिप्राभृत आदि ग्रंथों की भाँति इनकी गोपनीयता का निर्देश है। इनकी वाचना हर एक को नहीं दी जाती थी । निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। कि जहाँ मृग (बाल, अज्ञानी एवं अगीतार्थ) साधु बैठे हों, वहाँ इनकी वाचना नहीं देनी चाहिए।" लेकिन सूत्र का विच्छेद न हो इस दृष्टि से द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के आधार पर अपात्र को भी वाचना दी जा सकती है, ऐसा उल्लेख भी मिलता है। " पंचकल्पभाष्य के अनुसार छेदसूत्रों की वाचना केवल परिणामक शिष्य को दी जाती थी, अतिपरिणामक एवं अपरिणामक को नहीं । " अपरिणामक आदि शिष्यों को छेदसूत्रों की वाचना देने से वे उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं, जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े या अम्लरसयुक्त घड़े में दूध नष्ट हो जाता है । १० गीतार्थ - बहुल संघ में छेदसूत्र की वाचना एकान्त में अभिशय्या - ८८ ট For Private Personal Use Only পী Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य या नैषेधिकी में दी जाती थी, क्योंकि अगीतार्थ साधु उसे सुनकर कहीं विपरिणत होकर गच्छ से निकल न जाएँ। ११ छेदसूत्रों का कर्तृत्व छेदसूत्र पूर्वो से निर्यूढ हुए अतः इनका आगम-साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है । दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ - इन चारों छेदसूत्रों का निर्यूहण प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय आचारवस्तु से हुआ, ऐसा उल्लेख नियुक्ति एवं भाष्यसाहित्य में मिलता है । १२ दशाश्रुत, कल्प एवं व्यवहार का निर्यूहण भद्रबाहु ने किया, यह भी अनेक स्थानों पर निर्दिष्ट है । १३ किन्तु निशीथ के कर्तृत्व के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान् निशीथ को भी भद्रबाहु द्वारा निर्यूढ मानते हैं, लेकिन यह बात तर्क-संगत नहीं लगती। निशीथ चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु द्वारा निर्यूढ कृति नहीं है, इस मत की पुष्टि में कुछ हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति एवं पंचकल्प भाष्य में भद्रबाहु की दशा, कल्प एवं व्यवहार इन तीनों सूत्रों के कर्त्ता के रूप में वंदना की है, वहाँ आचारप्रकल्प निशीथ का उल्लेख नहीं है । १४ व्यवहार - सूत्र में जहाँ आगम-अध्ययन की काल - सीमा के निर्धारण का प्रसंग है, वहाँ भी दशाश्रुत, व्यवहार एवं कल्प का नाम एक साथ आता है। १५ आवश्यकसूत्र में भी इन तीन ग्रन्थों के उद्देशकों का ही एक साथ उल्लेख मिलता है। १६ निशीथ को इनके साथ न जोड़कर पृथक् उल्लेख किया गया है। १७ श्रुतव्यवहारी के प्रसंग में भाष्यकार ने कल्प और व्यवहार इन दो ग्रन्थों तथा इनकी नियुक्तियों के ज्ञाता को श्रुतव्यवहारी के रूप में स्वीकृत किया है। वहाँ निशीथ / आचारप्रकल्प का उल्लेख नहीं है।" निशीथ की महत्तासूचक अनेक गाथाएँ व्यभा. में हैं, पर वे आचार्यों ने बाद में जोड़ी हैं, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि उत्तरकाल में निशीथ बहुत प्रतिष्ठित हुआ है । अन्यथा कल्प और व्यवहार के साथ भाष्यकार अवश्य निशीथ का नाम जोड़ते । निशीथ का निर्यूहण भद्रबाहु ने किया, यह उल्लेख केवल पंचकल्पचूर्णि में मिलता है।" इसका कारण संभवतः यह रहा होगा कि अन्य छेदग्रन्थों की भांति निशीथ का [ ८९ निर्यूहण भी प्रत्याख्यान पूर्व से हुआ । इसीलिए कालान्तर निर्यूहणकर्ता के रूप में भद्रबाहु का नाम निशीथ के साथ भी जुड़ गया। विंटरनिट्स ने निशीथ को अर्वाचीन माना है तथा इसे संकलित रचना के रूप में स्वीकृत किया है। २० विद्वानों के द्वारा कल्पना की गई है कि निशीथ का निर्यूहण विशाखगणि द्वारा किया गया, जो भद्रबाहु के समकालीन थे। दशाश्रुतस्कंध के निर्यूहण के बारे में भी एक प्रश्नचिन्ह उपस्थित होता है कि इसमें महावीर का जीवन एवं स्थविरावलि है, अतः यह पूर्वो से उद्धृत कैसे माना जा सकता है ? इस प्रश्न के समाधान में संभावना की जा सकती है कि इसमें कुछ अंश बाद में जोड़ दिया गया हो। सूत्रों का निर्यूह क्यों किया गया, इस विषय में भाष्य - साहित्य में विस्तृत चर्चा मिलती है। भाष्यकार के अनुसार नौवाँ पूर्व सागर की भाँति विशाल है। उसकी सतत् स्मृति में बार-बार परावर्तन की अपेक्षा रहती है, अन्यथा वह विस्मृत हो जाता है। २१ जब भद्रबाहु ने धृति, संहनन, वीर्य, शारीरिक बल, सत्त्व, श्रद्धा, उत्साह एवं पराक्रम की क्षीणता देखी तब चारित्र की विशुद्धि एवं रक्षा के लिए दशाश्रुतस्कंध, कल्प एवं व्यवहार का निर्यूहण किया गया । २२ इसका दूसरा हेतु बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि चरणकरणानुयोग के व्यवच्छेद होने से चारित्र का अभाव हो जाएगा, अतः चरणकरणानुयोग की अव्यवच्छित्ति एवं चारित्र की रक्षा के लिए भद्रबाहु ने इन ग्रन्थों का निर्यूहण किया । २३ चूर्णिकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि भद्रबाहु ने आयुबल, धारणाबल आदि की क्षीणता देखकर दशा, कल्प एवं व्यवहार का निर्यूहण किया, किन्तु आहार, उपाधि, कीर्ति या प्रशंसा आदि के लिए नहीं । २४ निर्यूहण को प्रसंग को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए भाष्यकार कहते हैं- जैसे सुगंधित फूलों से युक्त कल्पवृक्ष पर चढ़कर फूल इकट्ठे करने में कुछ व्यक्ति असमर्थ होते हैं। उन व्यक्तियों पर अनुकम्पा करके कोई शक्तिशाली व्यक्ति उस पर चढ़ता है। और फूलों को चुनकर अक्षम लोगों को दे देता है । उसी प्रकार चतुर्दशपूर्व रूप कल्पवृक्ष पर भद्रबाहु ने आरोहण किया और अनुकम्पावश छेदग्रन्थों का संग्रथन किया । २५ इस प्रसंग में भाष्यकार For Private Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य ने केशवभेरी एवं वैद्य के दृष्टान्त का भी उल्लेख किया है। २६ छेदसूत्रों का नामकरण नंदी में व्यवहार, बृहत्कल्प आदि ग्रंथों को कालिकश्रुत के अन्तर्गत रखा है। गोम्मटसार " धवला " एवं तत्त्वार्थसूत्र ९ में व्यवहार आदि ग्रन्थों को अंगबाह्य में समाविष्ट किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब भद्रबाहु ने निर्यूहण किया तब तक संभवत: छेदग्रन्थों जैसा विभाग इन ग्रन्थों के लिए नहीं हुआ था । बाद में इन ग्रन्थों को विशेष महत्त्व देने हेतु इनको एक नवीन वर्गीकरण के अन्तर्गत समाविष्ट कर दिया गया। फिर भी 'छेदसूत्र' नाम कैसे प्रचलित हुआ, इसका कोई पुष्ट प्रमाण प्राचीन साहित्य में नहीं मिलता। छेदसूत्र का सबसे प्राचीन उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में मिलता है । ३० विद्वानों ने अनुमान के आधार पर इसके नामकरण की यौक्तिकता पर अनेक हेतु प्रस्तुत किए हैं। छेदसूत्रों के नामकरण के बारे में निम्न विकल्पों को प्रस्तुत किया जा सकता है - ब्रिंग के अनुसार प्रायश्चित्त के दस भेदों में 'छेद' और 'मूल' के आधार पर आगमों का वर्गीकरण 'छेद' और 'मूल' के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इस अनुमान की कसौटी पर छेदसूत्र तो विषय-वस्तु की दृष्टि से खरे उतरते हैं। लेकिन वर्तमान में उपलब्ध मूलसूत्रों की 'मूल' प्रायश्चित्त से कोई संगति नहीं बैठती। सामयिक चारित्र स्वल्पकालिक है, अतः प्रायश्चित्त का संबंध छेदोपस्थापनीय चारित्र से अधिक है । छेदसूत्र तत्चारित्र संबंधी प्रायश्चित्त का विधान करते हैं, संभवतः इसीलिए इनका नाम 'छेदसूत्र' पड़ा होगा। दिगम्बर ग्रन्थ 'छेदपिंड' में प्रायश्चित्त के आठ पर्यायवाची नाम हैं। उनमें एक नाम 'छेद' है। श्वेताम्बर - परम्परा में प्रायश्चित्त के दस भेदों में सातवाँ प्रायश्चित्त 'छेद' है। अंतिम तीन प्रायश्चित्त साधुवेश से मुक्त होकर वहन किये जाते हैं। लेकिन श्रमण पर्याय में होने वाला अंतिम प्रायश्चित्त 'छेद' है । स्खलना होने पर जो चारित्र के छेद-काटने का विधान करते हैं, वे ग्रन्थ छेदसूत्र हैं। आवश्यक की मलयगिरि टीका में समाचारी के प्रकरण में छेदसूत्रों के लिए पदविभाग सामाचारी शब्द का प्रयोग ধ ট For Private मिलता है।३२ पदविभाग और छेद ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं। छेदसूत्र में सभी सूत्र स्वतंत्र है। एक सूत्र का दूसरे सूत्र के साथ विशेष संबंध नहीं है तथा व्याख्या भी छेद या विभाग दृष्टि से की गई है। इसलिए भी इनको छेदसूत्र कहा जा सकता है। -- नामकरण के बारे में आचार्य तुलसी (वर्तमान गणाधिपति तुलसी) ने एक नई कल्पना प्रस्तुत की है - "छेदसूत्र को उत्तमश्रुत माना है । 'उत्तम श्रुत' शब्द पर विचार करते समय एक कल्पना होती है कि जिसे हम 'छेयसुत्त' मानते हैं वह कहीं 'छेकश्रुत' तो नहीं है? छेकश्रुत अर्थात् कल्याणश्रुत या उत्तम श्रुत। दशाश्रुतस्कन्ध को छेदसूत्र का मुख्य ग्रन्थ माना गया है। ३ इससे 'छेयसुत्त' का 'छेकसूत्र' होना अस्वाभाविक नहीं लगता । दशवैकालिक (४/११) में 'जं छेयं तं समायरे' पद प्राप्त हैं। इससे 'छेय' शब्द के 'छेक' होने की पुष्टि होती है । ३४ { ९० ম जिससे नियमों में बाधा न आती हो तथा निर्मलता की वृद्धि होती हो, उसे छेद कहते हैं। ५ पंचवस्तु की टीका में हरिभद्र द्वारा किए गए इस अर्थ के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि जो ग्रन्थ निर्मलता एवं पवित्रता के वाहक हैं, वे छेदसूत्र हैं। अतः इन ग्रन्थों का छेद नामकरण सार्थक लगता वर्तमान में उपलब्ध चार छेदसूत्रों का नामकरण भी सार्थक हुआ है। आयारदशा में साधुजीवन के आचार की विविध अवस्थाओं का वर्णन है। यह दस अध्ययनों में निबद्ध है, अतः इसका नाम 'दशाश्रुतस्कंध' भी है। कल्प का अर्थ है - आचार। जिसमें विस्तृत रूप में साधु के विधि-निषेध सूचक आचार का वर्णन है, वह 'बृहत्कल्प' है। बृहत्कल्प नाम की सार्थकता का विस्तृत विवेचन मलयगिरि ने बृहत्कल्प भाष्य की पीठिका में किया है। ३६ व्यवहार प्रायश्चित्त सूत्र है। इसमें पाँच व्यवहारों का मुख्य वर्णन होने के कारण इसका नाम 'व्यवहार' रखा गया । आचारप्रकल्प में आचार के विविध प्रकल्पों का वर्णन है। इसका दूसरा नाम निशीथ भी है । निशीथ का अर्थ है - अर्धरात्रि या अंधकार । निशीथ भाष्य के अनुसार 'निशीथ' की वाचना अर्धरात्रि या अप्रकाश में दी जाती थी इसलिए इसका नाम निशीथ प्रसिद्ध हो गया । ३७ इसका संक्षिप्त नाम 'प्रकल्प' भी है। Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य छेदसूत्रों की संख्या किया गया है। जीतकल्प, पंचकल्प और महानिशीथ का उल्लेख छेदसूत्रों की संख्या के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। जीतकल्प. दिगम्बर-साहित्य में नहीं मिलता। चूर्णि में छेदसूत्रों के रूप में निम्न ग्रंथों का उल्लेख हुआ है - समवाओ में दशाश्रत को छेदसूत्र में प्रथम स्थान दिया कल्प, व्यवहार, कल्पिकाकल्पिक, क्षुल्लकल्प, महाकल्प, गया है।६ चूर्णिकार ने छेदसूत्रों में दशाश्रुतस्कन्ध को प्रमुख निशीथ आदि।३८ आदि शब्द से यहाँ संभवतः दशाश्रतस्कंध रूप से स्वीकार किया है। इसको प्रमुखता देने का संभवत: यही ग्रन्थ का संकेत होना चाहिए। कल्पिकाकल्पिक, महाकल्प एवं कारण रहा होगा कि इसमें मुनि के लिए आचरणीय एवं अनाचरणीय क्षुल्लकल्प आदि ग्रन्थ आज अनपलब्ध हैं। पर इतना नि:संदेह तथ्यों का क्रमबद्ध वर्णन है। शेष तीन छेदसत्र इसी के उपजीवी हैं। कहा जा सकता है कि ये प्रायश्चित्त-सूत्र थे और इनकी गणना विंटरनिट्स के अनुसार व्यवहार बृहत्कल्प का पूरक है। छेदसूत्रों में होती थी। बृहत्कल्प में प्रायश्चित्त-योग्य कार्यों का निर्देश है तथा व्यवहार आवश्यकनियुक्ति में छेदसूत्रों के साथ महाकाव्य का उसकी प्रयोग-भूमि है। अर्थात् उसमें प्रायश्चित्त निर्दिष्ट हैं। उनके उल्लेख मिलता है।३९ संभव है तब तक इस ग्रन्थ का अस्तित्व अनुसार निशीथ की रचना अर्वाचीन है। निशीथ में बहुत बड़ा भाग था। सामाचारी शतक में छेदसूत्रों के रूप में छह ग्रन्थों के नामों व्यवहार से तथा कुछ भाग प्रथम और द्वितीय चूला से लिया गया है। का उल्लेख मिलता है। दशाश्रुत, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, कुछ आचार्य दशाश्रुत, बृहत्कल्प एवं व्यवहार, इन तीनों जीतकल्प, महानिशीथ। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने जीतकल्प को एक श्रृतस्कंध ही मानते हैं तथा कुछ आचार्य दशाश्रत को के स्थान पर पंचकल्प को छेदसूत्रों के अन्तर्गत माना है। एक तथा कल्प और व्यवहार को दूसरे श्रुतस्कंध के रूप में हीरालाल कापडिया के अनुसार पंचकल्प का लोप होने स्वीकार करते हैं।४८ के बाद जीतकल्प की परिगणना छेदसूत्रों में होने लगा। कुछ टपर किस शनयोग में ? मुनियों का कहना है कि पंचकल्प कभी बृहत्कल्पभाष्य का ही एक अंश था पर बाद में इसको अलग कर दिया गया जैसे अनुयोग विशिष्ट व्याख्या पद्धति है। उसके मुख्य चार भेद ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति को।४३ ।। हैं- १. चरणकरण, २. धर्मकथा, ३. गणित, ४. द्रव्य। आर्यरक्षित से पूर्व अपृथक्त्वानुयोग प्रचलित था। उसमें प्रत्येक आगम के वर्तमान में पंचकल्प अनुपलब्ध है। जैन -ग्रंथावली के सूत्रों की व्याख्या चरणकरण, धर्म, गणित तथा द्रव्य की दृष्टि से अनुसार १७वीं शती के पूर्वार्द्ध तक इसका अस्तित्व था। की जाती थी। वह प्रत्येक के लिए सुगम नहीं होती थी। आर्यरक्षित किन्तु निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि इसका लोप ने इस जटिलता और स्मृतिबल की क्षीणता को देखकर कब हुआ? पंचकल्प भाष्य की विषयवस्तु देखकर ऐसा लगता पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन कर दिया। उन्होंने विषयगत वर्गीकरण है कि किसी समय में पंचकल्प की गणना छेदसत्रों में रही होगी। के आधार पर आगमों को चार अनुयोगों में बाँटा - १. विंटरनिट्स के अनुसार छेदसूत्रों के प्रणयन का क्रम इस चरणकरणानयोग, २. धर्मकथानयोग, ३. गणितानयोग, ४. द्रव्यानयोग। प्रकार है - कल्प, व्यवहार, निशीथ, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति आचारप्रधान होने के कारण छेदसूत्रों का समावेश महानिशीथ।५ विंटरनिट्स ने छेदसूत्रों में जीतकल्प का समावेश चरणकरणानुयोग में किया गया। इस सन्दर्भ में निशीथचूर्णि में नहीं किया। जीतकल्प की रचना नंदी के बाद हुई अत: उसमें शिष्य आचार्य से प्रश्न पूछता है कि निशीथ आचारांग की पंचमचूला जीतकल्प का उल्लेख नहीं मिलता। पिंडनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति होने के कारण उसका समावेश अंग में है तथा वह चरणकरणानुयोग साधु के नियमों का वर्णन करती हैं इसीलिए संभवत: विंटरनिट्स के अन्तर्गत है, लेकिन छेद सूत्र अंगबाह्य हैं वे किस अनुयोग के ने इन दोनों का छेदसूत्रों के अन्तर्गत समावेश किया है। अन्तर्गत होंगे? निशीथ-भाष्यकार ने छेदसूत्रों का समावेश दिगम्बर-साहित्य में कल्प, व्यवहार और निशीथ-इन तीन चरणकरणानयोग के अन्तर्गत किया है। ग्रन्थों का ही उल्लेख मिलता है, जिनका समावेश अंगबाह्य में pootomorrorderdrobardwardroborderindiadrid-९१kidniridiroonbroideodworkedwidwobooranorambanda Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - कहा जा सकता है कि आगम-साहित्य में छेदसूत्रों का 16. आवश्यकसूत्र, 8 छन्वीसाए दसाकप्पणवहाराणं महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार में स्खलना होने पर ये ग्रन्थ नियमों- उद्देसणकालेहि। उपनियमों का निर्धारण करते हैं, अतः नीतिशास्त्र की दृष्टि से भी 17. व्यवहारसूत्र 10/25 : तिवासपरियायस्स समणस्स इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। निग्गंथस्स कप्पइ आयारकप्पं नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए। 18. व्यभा 4432-4436 सन्दर्भ 19. पंचकल्पचूर्णि (अप्रकाशित) दशवकालिक अगस्त्यसिंह, चूर्णि पृ. 2 20. A History of ...p.446. नंदी सू. 77, 78 21. व्यभा.१७३७ व्यवहारभाष्य 1829 : जम्हा तु होति सोधी, छेदसुयत्थेण 22. पंकभा. 26-29 खलितचरणस्स। 23. पंकभा.४२ तम्हा छेदसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं / / 24. दशाश्रुतस्कंधचूर्णि,पृ. 3 निशीथभाष्य 6184, चू.पृ. 253 25. पंकभा.४३-४६ निशीथभाष्य 6395, व्यभा. 320 26. पंकभा.४७, 48 व्यभा. 4432-35 27. गोम्मटसार,जीवकाण्ड 367, 368 7. निभा 5947 चू.पृ. 190, व्यभा.६४६। टी.प. 58 28. धवला पु. १,पृ. 96 8. निभा.६२२७ चू.पृ. 261 29. तत्त्वार्थसूत्र 2/20 पंचकल्पभाष्य 1223 : णाऊणं छेदसतं, परिणामगे होतिं 30. आवश्यकनियुक्ति 777 दायव्वं। 31. कल्पसूत्र,भू.पृ. 8 10. व्यभा-४१००, 4101 32. आवनि.६६५ मटी पृ. 341: पदविभागसामाचारी - 11. व्यभा 1739 छेदसूत्राणि। 12 (क) व्यभा.४१७३; 33. दश्रुचू. पृ. 2 / इमं पुण छेयसुत्तपमुहभूतं। सव्वं पि य पच्छित्तं, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थुम्मि। 34. निसीहज्झयणं,भूमिका पृ. 3, 4 तत्तो च्चिय निज्जूढं, पकप्पकप्पो य ववहारो।। 35. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भा. 2, पृ. 306, बज्झाणुट्ठाणेणं, (ख) पंकभा. 23 : आयारदसा कप्पो, वनहारो जेण ण बहिज्जए तयं णियमा। नवमपुव्वणीसंदो। संभवइ य परिसुद्धं। सो पुण धम्मम्मि छेउ ति।। (ग) आचारांगनियुक्ति 291 : 36. बृहत्कल्पभाष्य-पीठिका,पृ. 4 आयारकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ। 37. निभा.६९ आयारनामधेज्जा, वीसइमा पाहुडच्छेदा। जीतकल्पचूर्णि पृ. 1. कप्प-ववहार कप्पियाकप्पिय - (क) दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति चुल्लकप्प - महाकप्पसुयं वंदामि भद्दबाहुँ, पाईणं चरिमसगलसुयनाणीं। निसीहाइएसु छेदसुत्तेसु अइवित्थेरेण पच्छित्तं भणियं। सुत्तस्स कारगमिसिं, दसांसु कप्पे य ववहारे।। 39. आवनि.७७७, विभा. 2295 (ख) पंकभा. 12 : तो सुत्तकारओ खलु, स भवति 40. जैनधर्म पृ. 259 दसकप्पववहारे। 41. A History of the canonical Literature of the Jains, Page, 37 14. दश्रुनि.१, पंकभा-११ 42. A Hisotry of the canonical Literature of the Jains, Page 36 15. व्यवहारसूत्र 10/27 पंचवासपरियायस्स समणस्स 43. A History of the canonical Literature of the Jains, Page 36 44. A History ...........Page 464 निग्गंथस्स कप्पइ दसाकप्पववहारे उद्दिसित्तए। 38. 13. ( aniramidrohdnirankaridrioridrodutdoorridord-92drridridrodustandiraduadridroidroidrior