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भुवनहिताचार्यकृत
चतुर्विंशतिजिनस्तवनम् ॥
श्री भुवनहिताचार्य के सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है । " खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास" के अनुसार वि.सं. १३७४ फाल्गुन वदि ६ के दिन उच्चापुरी में श्रीजिनचन्द्रसूरि ने इन्हें दीक्षा प्रदान की थी और नाम रखा था भुवनहित । इनके शिक्षागुरु जिनकुशलसूरिजी और जिनलब्धिसूरिजी थे । जिनलब्धिसूरि ने वि.सं. १३८६ में देरावर नगर में इनको पढ़ाया था । सम्वत् १४०४ के पूर्व ही जिनलब्धिसूरि ने इनको उपाध्याय पद प्रदान किया था और शायद आचार्य पद भी प्रदान किया हो अथवा आचार्य पद जिनलब्धिसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने सम्वत् १४०६ के पश्चात् प्रदान किया हो ।
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सं. म. विनयसागर
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि ये प्रौढ़ विद्वान् थे । इनके द्वारा सर्जित दो ही लघुकृतियाँ प्राप्त होती हैं
१. दण्डक छन्दगर्भित जिनस्तुतिः । इस स्तुति में केवल चार पद्य हैं और इसका प्रारम्भ नतसूरपतिकोटिकोटीरकोटी यह ५७ अक्षरों का संग्राम नामक दण्डक छन्द है । इस छन्द के प्रारम्भ में २ नगण और बाद में १७ रगण होते हैं। इस स्तुति पर श्रीजिनहंससूरि के प्रशिष्य, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के टीकाकार महोपाध्याय पुण्यसागर के शिष्य वाचनाचार्य पद्मराजगणि ने वि.सं. १६४३ में टीका की रचना की थी । टीका के साथ यह कृति मेरे द्वारा सम्पादित श्रीभावारिवारणपादपूर्त्यादिस्तोत्रसंग्रहः में सन् १६४८ में प्रकाशित हुई थी । २. चतुर्विंशतिजिनस्तवनं इसमें २५ पद्य है । प्रत्येक पद्य में एक-एक अक्षर की वृद्धि हुई है । भगवान् ऋषभदेव की स्तुति ८ अक्षर के युग्मविपुला छन्द से प्रारम्भ होकर चरमतीर्थंकर भगवान् महावीर की ३१ अक्षर के छन्द उत्कलिका दण्डक में पूर्ण हुई है । अर्थात् ८ अक्षर
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अनुसंधान-२५ से लेकर ३१ अक्षर तक २४ छन्दों का प्रयोग हुआ है। प्रत्येक पद्य में प्रत्येक तीर्थंकर का नाम भी अंकित है और छन्द का नाम भी अंकित है, यह कृति की प्रमुख विशेषता है । २५वां प्रशस्ति पद्य स्रग्धरा छन्द में निर्मित है । भक्तिपूर्ण रचना होते हुए भी सालंकारिक है । बीकानेर के बड़े ज्ञानभण्डार में संग्रहित १५वीं की शताब्दी की लिखित प्राचीन प्रतिसे इसकी प्रतिलिपि की गई है।
(१)
श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तवनम् । (प्रवर्द्धमानाक्षरविभिन्नजातिव्यक्तिछन्दोविशेषरचितम्) युगादौ जगदुद्धर्तु, यो युग्मविपुलावनौ । दिदेश धर्ममोक्षौ तं, स्तौमि श्रीनाभिनन्दनम् ॥१॥ युग्मविपुला ।। इन्द्रियगणैरविजितं, योऽर्हति जिनेन्द्रमजितम् । सङ्गतनितान्तमुदयं, सोवन्ति महान्तमुदयम् ॥२॥ उदयम् ।। चन्दनकर्पूरागुरुशाला, केतकजाती चम्पकमाला । नन्दतिवर्या तेऽङ्गसपर्या, सम्भवनेतः कस्य न चेतः ॥३॥ चम्पकमाला ॥ उपेन्द्रवज्रायुधवामदेवादयोजिता येन नृदेवदेवाः ।। स्मृतेऽपि यन्नामनि सोपि कामो, मृयेत नन्द्यादभिनन्दनोऽयम् ॥४॥ उपेन्द्रवज्रा ॥ द्रुतविलम्बितगीतिरसो लसच्चरणसञ्चरणातिमनोहरम् ।
(३)
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(६)
(८)
सुरगिरौ सुतेज्जिनि (न) मज्जने
विदधिरे विवुधा नवनर्त्तनम् ॥५॥ द्रुतविलम्बित !!
(७) सिंहोद्धता अपि जगज्जनताजयेन, मोहकुधा मदनलोभमदादयोऽमी । गर्जन्ति तावदतिरंगभरेण याव -
(९)
जगतीहितार्थरचनाभिनदितः,
ससुरासुरेन्द्रमनुजेन्द्रवन्दितः । नमतां मतां जनमनोभिनन्दिनीं
वितनोतु ऋद्धिमरुणप्रभुप्रभुः ||६|| नन्दिनी ||
दन्तः सुपार्श्वसरभस्य न ते स्मरन्ति ||६|| सिंहोद्धता ॥
हिमकरहिमनीरक्षीरडिण्डीरपिण्डप्रवरकिरणमालामालिनी यस्य मूर्तिः
सुकृतदलकसारैनिर्मितेवा च भाति,
प्रथयतु स सुखानि स्वामिचन्द्रप्रभो ! मे ||८|| मालिनी ॥
सुविधिजिनस्तनोतु मम मङ्गलानि नित्यं, मदन करीन्द्रकुम्भतटणटनो ससिंहः । तरलन्तरैरपीक्षणसरैर्यदीयचेतः,
सरसिरूहमनागुन बिभिदे वाणिनीभिः ॥ ९ ॥ वाणिनी ॥
(१०) श्रेयोलक्ष्मीं वितरतु स वः शीतलस्तीर्थनाथो, यस्मिन्नगर्भे स्थितवति करस्पर्शमात्रेण मातुः 1 दाहोत्साहा जनकवपुषोऽगुः क्रियं (कियद् ? ) वा मृगेन्द्रैमन्दाक्रान्ता अपि किमु मृगा न म्रियन्ते क्षणेन ||१०|| मन्दाक्रान्ता ॥
(११) श्री श्रेयांसो दिशतु मम महानन्दमन्दोदर्यार्द्धि,
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वाणीं यस्यानुपममधुरिमोद्वार श्रृङ्गारसाराम् । पायं पायं मदनदहनसंहारिणः सच्चकोराः, सञ्जायन्तेऽमृतरसभरितां तां यथा चन्द्रलेखाम् ॥ ११ ॥ चन्द्रलेखा ||
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अनुसंधान-२५
(१२) आस्थानं फणिनां फणेषु ललितं बभ्रोरुरभ्रस्य च,
ध्राणं व्याघ्रविशालवस्त्रविवरे जृम्भासरं बिभ्रति । यत्रानन्दकरं करेणुकरिणां शार्दूलविक्रीडितं तां श्रीधर्मसभां श्रयामि सततं श्रीवासुपूज्यप्रभुः(भोः) ॥१२॥
शार्दूलविक्रीडित ॥ विमलाधीश्वरनन्दनंदजगदानन्देन्दिरासुन्दरं, त्वयि भूमीवलयं विहारविधिभिः पूतान्तरं कुर्व्वति । सकलोपद्रवडम्बरा अपि खराः प्रापुः प्रणाशं क्षणा
दथवा श्वैरविहारिणी क्व नु हरौ मत्तेभविक्रीडितम् ॥१३||मत्तेभविक्रीडितं ।। (१४) जन्मस्नात्रं पवित्रं सुरगिरिशिखरे यस्य कर्तुं महद्धा,
त्रैलोक्याधीशलोके कृतमहसि परालङ्कृतीः सर्वनारी: । दृष्ट्वा नक्षत्रदम्भादपि गगनरमामौक्तिकस्नग्धरा तं पञ्चानन्तकेन्द्रं भजत भवभृतो भावतोऽनन्तदेवम् ॥१४॥ स्नग्धरा । जनको जज्ञेऽवनीशस्तिमिरितजगती पावना लोकभानुः, समधर्माचारचञ्चुर्गुणसुमणिमहास्त्रग्धरासुव्रताम्बा । उपदेशो यस्य पापोपशमशमचणो जन्तुरक्षादिरूपै, रमणीयस्तं नमामि प्रमुदितमनसा सान्वयं धर्मनाथम् ॥१५||महास्नग्धरा ।। क्षमाधरशिरः स्फुरन्महमविश्वसेनाङ्गभूधर्मचक्रोत्तरः, पदाब्जतलसंवरन्नवसुवर्णपद्मागुरुकसन्निभश्रीभरः । प्रभासवरदामयुग् रुचिररत्नवृन्दारकः श्रेणिसेव्यक्रमः, सुखानि मम षोडशो दिशतु शान्तिरर्हन्सदा पंचमश्चक्रभृत् ॥१॥
वृन्दारकः।। (१७) यदपि भवति चक्रिपद्मापि पादाब्जलग्नाचिरं सादरं देहिनां,
तदपि चरणमोचनं नैव कुर्बन्ति सन्तो जनास्तेन मन्ये ध्रुवम् । शरदिजन च मेघमाला बलां तां पराकृत्य य: स्वीचकार प्रभुश्चरणमचलकेवलानन्दमन्दायतं कुन्थुनाथं स्तुवे भावत: ॥१७।।
मेघमाला ।।
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(१८) मदपदसम्पदमन्दसुनन्दज्जनपदकुरुगजपुरनगर, नवनिधिरत्त्रचतुर्दशलक्ष्मीहरिकरिरथनरबलकलितम् । पदलुलिताखिलभूपतिराज्यं करतलगतमपि चपलमिदं, सपदि विहाय ललौ व्रतमुग्रं य इह तमरमभिसर शरणम् ॥१८॥ चपलं ॥
(१९) मनसिजहव्यवाहमुरुदाहकरं जगदङ्गिनां समवलोक्य विभुदधदुपकारसारमवतारविधिकृपयांचितोकमिषतः प्रदधौ । पदपुरतोयकस्तदुपशान्तिकृते घनसम्भृतं शमसुधाकलशं, प्रदिशतु मोक्षसौख्यकमलाममलामिह मल्लितीर्थपतिरेष मम ||१९|| सुधाकलश ॥ (२०) स्व:सन्मालाचित्रमासूत्रयती जनमनसि निरुपमं केवलोत्पत्तिकाले, त्रिप्राकारी यस्य चक्रेऽतिभक्त्या रजतकनकसुमणिश्रेणिभि: सुप्रभाभिः । देवी पद्माश्रीसुमित्राङ्गजन्मा यदुकुलकमलरविर्ध्वस्तमोहान्धकारः, पुण्यांकुराम्भोधरासारसारः स दिशतु शिवकमलां सुव्रताधीश्वरो मे ॥२०॥ मालाचित्र ॥
(२१) तनोतु मे मनोमतं ततं युतं सुमङ्गलैः कलैर्जिनाधिनायको नमिः सदा, यदीयधर्म्मदेशना सभासु भान्तिसौरभातिलोभलीनलोलषट्पदांगनाः । सुरावली विकीर्णपञ्चवर्णजानुदघ्नपुष्पसञ्चयाः स्वनाशशंकया रयात्, पलाद्यनङ्गशेखरान् महीतलं विसंस्थलं गताश्च्युता इव ध्रुवं पुरः प्रभो ! ||२१|| अनंगशेखर ॥
(२२) श्रीनेमिनाथ नमन्नाकिनाथं स्तुवे तं सनाथं सदा केवलक्षीमहानन्दमन्दैः,
सौभाग्यभाग्याधिके यत्र सम्मोहनै राजराजीमतीवाक्यनेत्रभ्रमैस्तीक्ष्णतीक्ष्णैः ।
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सार्द्धं जगज्जन्तुजीवातुमर्माविधाविद्धविश्वंभरेशाने वेद्योमुखानेकवेधो,
विधं विधातुं न शक्ता विमुक्ता अपि स्वेच्छया
कामबाणा यथा पद्मपत्राणि वजे ॥२२॥ कामबाणा ||
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________________ 58 अनुसंधान-२५ (23) श्रीअशोकपुष्पमञ्जरी मरन्दबिन्दशान्त सर्वतो रजोरये सुरप्रमुक्तचंगगन्धबन्धस्तनरंगणे सभाङ्गणे वरात पत्रसत्पवित्रचामरेन्दिरातिरङ्ग / श्रीमृगाधिनायका स नोपविष्टपुष्टवाणि धर्ममर्मदेशनेन बोधिताङ्गशिष्टपृष्टदेशभासमानभावितानदेवदुन्दुभी द्धनादपूज्यपादपार्श्वदेवनन्द // 23 / / अशोकपुष्पमञ्जरी // (24) नरपतिततिनिषेवितपादपीठाग्रसि द्धार्थभूपालवंशाब्दिराकानिशानायकः, प्रणितभविकमहोदयमेदुरानन्दसं-- भोगभङ्गीभुजङ्गीभवद्भाविभूनायकः / मदनदहनघनोत्कलिकाकुलं मामकीनं मनः शुद्धसम्वेगरङ्गामृतासारतो, रचयतु शमरमारससुन्दरं वर्द्धमानो जिनो जायमानासमानोल्लसन्मङ्गलः // 24 // उत्कलिका // कर्तुः प्रशस्तिः / इत्येवं सर्वदेवा सुरनरबलिराजाधिराजैः सुजातिव्यक्तिच्छन्दोविशेषैरहमहमिकया नव्यनव्यैः सुकाव्यैः / नित्यं संस्तूयमाना दलितकलिमला नाभिराजाङ्गजाद्याः, श्रीवीरान्ता जिनेन्द्रा भुवनहितकृते माङ्गलक्याय सन्तु / / 2 / / स्रग्धरा / / इति प्रवर्द्धमानाक्षरविभिन्नजातिव्यक्ति छन्दादिशेषरचितं चतुर्विंशति जिनस्तवनम् // (25)