Book Title: Chand Drushti se Dashashrut Skandha Niryukti Path Nirdharan
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्द-दृष्टि से दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : पाठ-निर्धारण अशोक कुमार सिंह छन्द की दृष्टि से दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति के अध्ययन से पूर्व इसकी गाथा संख्या पर विचार कर लेना आवश्यक है। इस नियुक्ति के प्रकाशित संस्करणों एवं जैन विद्या के विद्वानों द्वारा प्रदत्त इसकी गाथा संख्या में अन्तर है । इसके दो प्रकाशित संस्करण उपलब्ध हैं- मूल और चूर्णि सहित मणिविजयगणि ग्रन्थमाला, भावनगर १९५४ संस्करण और 'नियुक्तिसङ्ग्रह' शीर्षक के अन्तर्गत सभी उपलब्ध नियुक्तियों के साथ विजयजिनेन्द्रसूरि द्वारा सम्पादित लाखाबावल १९८९ संस्करण ।। भावनगर संस्करण में गाथाओं की संख्या १४१ और लाखाबावल संस्करण में १४२ है। जबकि वास्तव में लाखाबावल संस्करण में भी १४१ गाथायें ही हैं । प्रकाशन-त्रुटि के कारण क्रमाङ्क १११ छूट जाने से गाथा क्रमाङ्क ११० के बाद ११२ मुद्रित है। फलतः गाथाओं की संख्या १४१ के बदले १४२ हो गई है, जो गलत है। अधिक सम्भावना यही है कि लाखाबावल संस्करण का पाठ, भावनगर संस्करण से ही लिया गया है। इसलिए भी गाथा संख्या समान होना स्वाभाविक है। 'Government Collections of Manuscripts में एच. आर. कापडिया ने इसकी गाथा संख्या १५४ बताई है । 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग-१ में भी इसकी गाथा सं. १५४ है । 'जिनरत्नकोश में यह संख्या १४४ है । कापडिया द्वारा अपनी पुस्तक 'A History of the Jaina Canonical literature of the Jainas' में इस नियुक्ति की गाथा संख्या के विषय में दिया गया विवरण अत्यन्त भ्रामक है । वहाँ दी गई अलग-अलग अध्ययनों की गाथाओं का योग ९९ ही होता है । वस्तुत: 'Government Collections' में प्राप्त अलग-अलग अध्ययनों की गाथाओं का योग १४४ ही है, १५४ का उल्लेख मुद्रण-दोष के कारण है । इसका विवरण देखने योग्य है - "....this work ends on fol. 5; 154 gāthās in all; Verses of the different sections of this nijjutti corresponding to the ten sections of Daśäśrutaskandha are separately numbered as under: असमाहिट्ठाणनिज्जुत्ति ११ Verses सबलदोसनिज्जुत्ति ३ Verses आसायणनिज्जुत्ति १० Verses गणिसंपयानिज्जुत्ति ७ Verses चित्तसमाहिट्ठाणनिज्जुत्ति 8 Verses उवासगपडिमानिज्जुत्ति ११ Verses भिक्खुपडिमानिज्जुत्ति < Verses पज्जोसवणाकप्पनिज्जुत्ति ६७ Verses मोहणिज्जट्ठाणनिज्जुत्ति Verses आयतिट्ठाणनिज्जुत्ति १५ verses ...आचारदसाणं निज्जुत्ती ॥ छ ॥ गाथा १५४ ॥" (योग १४४) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अशोक कुमार सिंह Nirgrantha जैन साहित्य का बहद् इतिहास, भाग १ का विवरण भी संभवतः इसी स्रोत पर आधारित है। इसलिए १५४ गाथाओं का उल्लेख सही अर्थों में १४४ गाथाओं का ही माना जाना चाहिए । कापडिया का उत्तरवर्ती (Canonical Literature). विवरण निश्चित रूप से अपने पूर्ववर्ती विवरण पर ही आधारित होगा। परन्तु मुद्रण दोष ने विवरण को पूरी तरह असङ्गत बना दिया है। उनके विवरण से प्रथम दृष्टि में इस नियुक्ति में १२ अध्ययन होने का भ्रम हो जाता है - ९, ११, ३, १०, ७, ४, ११, ८, ६, ७, ८ और १५ । साथ ही इन गाथाओं का योग भी ९९ ही होता है जबकि ध्यान से देखने पर पता चल जाता है कि यह विसङ्गति निश्चित रूप से मुद्रण-दोष से उत्पन्न हुई है। इसमें शुरु का ९ और नौवें, दसवें क्रम पर उल्लेखित ६, ७ के मध्य का विराम, अनपेक्षित है । इस ९ को गणना से अलग कर देने और ६, ७ के स्थान पर ६७ पाठ हो जाने पर अध्ययन संख्या १० और गाथा संख्या १४४ हो जाती है और कापडिया के उक्त दोनों विवरण एक समान हो जाते है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस नियुक्ति की गाथासंख्या १४४ और १४१ उल्लिखित है। यह संख्या-भेद पाँचवें अध्ययन में क्रमश: चार (१४४) और एक (१४१) गाथा प्राप्त होने के कारण है। ... द. नि. की गाथा सं. निर्धारित करने के क्रम में नि. भा. चू. का विवरण भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । प्रस्तुत नियुक्ति के आठवें 'पर्युषणाकल्प' अध्ययन की सभी गाथायें नि. भा. के दसवें उद्देशक' में उसी क्रम से 'इमा णिज्जुत्ती' कहकर उद्धृत हैं । नियुक्ति के आठवें अध्ययन में ६७ गाथायें और नि. भा. के दसवें उद्देशक के सम्बद्ध अंश में ७२ गाथायें हैं। इस प्रकार नियुक्ति गाथाओं के रूप में उद्धृत पाँच गाथायें अतिरिक्त हैं। नि. भा. में इनका क्रमाङ्क ३१५५, ३१७०, ३१७५, ३१९२ और ३२०९ है। इन अतिरिक्त गाथाओं का क्रम द. नि. में गाथा सं. क्रमशः ६८, ८२, ८६, १०१ एवं १०९ के बाद आता है। नि. भा. में उल्लिखित अतिरिक्त गाथायें निम्न हैं - पण्णासा पाडिज्जति, चउण्ह मासाण मज्झओ । ततो उ सत्तरी होइ, जहण्णो वासुवग्गहो ॥३१५५॥ विगतीए गहणम्मि वि, गरहितविगतिग्गहो व कज्जम्मि । गरहा लाभपमाणे, पच्चयपावप्पडीघातो ॥३१७०॥ डगलच्छारे लेवे, छडण गहणे तहेव धरणे य । पुंछण-गिलाण-मत्तग, भायण भंगाति हेतू से ॥३१७५॥ चउसु कतासेसु गती, नरय तिरिय माणुसे य देवगती । उवसमह णिच्चकालं, सोग्गइमग्गं वियाणंता ॥३१९२॥ असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । अद्धाण रोहए वा, दोसु वि सुत्तेसु अप्पबहुं ॥३२०९॥ इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि द. चू. (भावनगर) में ऊपर उल्लिखित गाथा सं.६८ एवं ८६ की चूणि के रूप में प्राप्त विवरण में नि. भा. चू. के समान ही गाथा संख्या ३१५५ और ३१७५ की चूर्णि भी प्राप्त होती हैं । गाथा सं. ८२ के अंश नि. भा. की ३१६९ और ३१७० दोनों गाथाओं में प्राप्त होते हैं । ८२ की चूर्णि भी नि. भा. चू. की इन दोनों गाथाओं की समन्वित चूर्णियों के समान है। जबकि गाथा सं. १०१ की चूर्णि के साथ नि. भा. ३१९२ की चूर्णि और ११८ की चूर्णि के साथ ३२०९ की चूर्णि द. चू. में प्राप्त नहीं होती है। तथ्य को स्पष्ट करने के लिए दोनों चूर्णियों के सम्बद्ध अंश Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. III - 1997-2002 छन्द-दृष्टि से दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति... २६९ को यहाँ उद्धत किया जा रहा है - "कहं पुण सत्तरी? चउण्हं मासाणं सवीसं दिवससतं भवति, ततो सवीसतिरातो मासो पण्णासं दिवसा सोधिता सेसा सत्तर दिवसा । जे भद्दवयबहुलस्स दसमीए पञ्जोसवेंति तेसिं असीति दिवसा जेट्ठोग्गहो, जे सावणपुत्रिमाए पञ्जोसर्विति तेसिं णं णउत्ति दिवसा मज्झि जेट्ठोग्गहो, जे सावणबहुलदसमीए ठिता तेसिं दसुत्तरं दिवससतं जेट्ठोग्गहो, एवमादीहिं पगारेहिं वरिसारत्तं एगखेत्ते अच्छित्ता कत्तियचाउम्मासिए णिगंतव्वं । अथ वासो न ओरमति तो मग्गसिरे मासे जद्दिवसं पक्कमट्टियं जातं तद्दिवसं चेव णिग्गंतव्वं, उक्कोसेण तिन्नि दसराया न निग्गच्छेञ्जा । मग्गसिरपुन्निमा एत्तियं भणियं होइ मग्गसिरपुत्रिमाए परेण जइ विप्लवंतेहिं तहवि णिगंतव्वं । अध न निग्गच्छंति ता चउलहुगा । एवं पंचमासिओ जेट्ठोग्गहो । - द. चू.१० कहं सत्तरी ? उच्यते - चउण्हं मासाणं वीसुत्तरं दिवससयं भवति - सवीसतिमासो पण्णासं दिवसा, ते वीसुत्तरसयमज्झाओ सोहिया, सेसा सत्तरी ।। जे भद्दवयबहुलदसमीए पज्जोसवेंति तेसि असीतिदिवसा मज्झिमो वासकालोग्गहो भवति । जे सावणपुण्णिमाए पज्जोसविति तेसिं णउति चेव दिवसा मज्झिमो चेव वासकालोग्गहो भवति । जे सावण बहुलदसमीए पज्जोसवेंति तेसिं दसुत्तरं दिवससयं मज्झिमो चेव वासकालोग्गहो भवति । जे आसाढपुण्णिमाए पज्जोसर्विति तेसिं बीसुत्तरं दिवससयं जेट्ठो वासुग्गहो भवति । सेसंतरेसु दिवसपमाणं वत्तव्यं । एवमादिपगारेहिं वरिसारत्तं एगखेते अच्छिता कत्तियचाउम्मासियपडिवयाए अवस्सं णिग्गंतव्वं । अह मग्गसिरमासे वासति चिक्खल्लजलाउला पंथा तो अववातेण एक्कं उक्कोसेणं तिण्णि वा - दस राया जाव तम्मि खेत्ते अच्छंति, मार्गसिरपौर्णमासीयावदित्यर्थः । मग्गसिरपुण्णिमाए जं परतो जति वि सचिखल्ला पंथा वासं वा गाढं अणुवरयं वासति जति विप्लवतेहिं तहावि अवस्सं णिग्गंतव्वं ! अह ण णिग्गच्छंति तो चउगुरुगा! एवं पंचमासितो जेटोग्गहो जातो ॥३१५५॥ - नि. भा. चू.१२ ताहे जाओ असंचईआउ रवीरदहीतोगाहिमगाणिय ताओ असंचइयातो घेप्पंति संचइयातो ण घेप्पंति घततिलगुलणवणीतादीणि । पच्छा तेसिं खते जाते जता कझं भवति तदा ण लब्भंति तेण ताओ ण घेप्पंति । अह सडा णिबंधेण निमंतेति ताहे भण्णति । जदा कज्जं भविस्सति, तदा गेण्हीहामो । बालादि-बालगिलाणवुड्सेहाण य बहूणि कञ्जाणि उप्पति, महंतो य कालो अच्छति, ताहे सड्ढा तं भणंति-जाव तुब्भे समुद्दिसध ताव, अस्थि चत्तारि वि मासा । ताहे नाऊण गेण्हंति जतणाए, संचइयंपि ताहे घेप्पत्ति, जधा तेसिं सड्डाणं सड्ढा वडंति अवोच्छिने भावे चेव भणंति होतु अलाहिं पञ्जतंति ! सा य गहिया थेरबालदुब्बलाणं दिञ्जति, बलियतरुणाणं न दिञ्जति, तेर्सि पि कारणे दिञ्जति, एवं पसत्थविगतिग्गहणं । अप्पसत्था ण घेत्तव्वा । सावि गरहिता विगती कञ्जेणं घिप्पति । इमेणं 'वासावासं पञ्जोसविताणं अत्थेगतियाणं एवं वुत्तपुव्वं भवति, अत्थो भंते गिलाणस्स, तस्स य गिलाणस्स वियडेणं पोग्गलेण वा कझं से य पुच्छितव्वे, केवतिएणं मे अट्ठो जं से पमाणं वदति एवतिएणं मम कञ्ज तप्पमाणतो घेत्तव्वं । एतंमि कञ्जे वेञ्जसंदिसेण वा, अणत्थ वा कारणे आगाढे जस्स सा अस्थि सोवि न विञ्जति तं च से कारणं दीविञ्जति । एवं जाइति स माणे लभेजा जाधे य तं पमाणं पत्तं भवति जं तेण गिलाणेण भणितं ताहे भण्णति-होउ अलाहित्ति वत्तव्वं सिया, ताहे तस्यापि प्रत्ययो भवति, सुव्वंतं एते गिलाणट्टयाए मगंति, न एते अप्पणो अट्ठाए मग्गंति । जति पुण अप्पणो अट्ठाते मग्गंता तो दिञ्जतं पडिच्छंता जावतियं दिञ्जति, जेवि य पावा तेसि पडिघातो कतो भवति । तेवि जाणंति, जधा तिन्नि दत्तीउ गेहंति सुव्वंतं गिलाणट्ठाए सेणं एवं वदंतं अण्णाहि पडिग्गहेहि भंते तुमंपि भोक्खसि वा पाहिसे वा, एवं से कप्पति पडिग्गाहित्तए नो से कप्पति गिलाण णीस्साए पडिग्गाहित्तए, एवं विगतिट्ठवणा गता ।। - द. चू.१०१२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक कुमार सिंह Nirgrantha पसत्थविगतीतो खीरं दहि णवणीयं घयं गुलो तेल्ल ओगाहिरा च, अप्पसत्थाओ महु-मज्ज-मंसा । आयरिय-बाल-वुड्डाइयाणं कज्जेसु पसत्था असंचइयाओ खीराइया घेप्पंति, संचतियाओ घयाइया ण घेप्पंति, तासु खीणासु जया कज्जं तया ण लब्भति, तेण तातो ण घेप्पंति । अह सड्डा णिब्बंधेण भणेज्ज ताहे ते वत्तव्वा - "जया गिलाणाति कज्जं भविस्सति तया घेच्छामो, बालवुड्ड-सेहाण य बहूणि कज्जाणि उप्पज्जंति, महत्तो य कालो अच्छियव्वो, तम्मि उप्पण्णे कज्जे घेच्छामो" त्ति। महु-मज्ज-मंसा गरहियविगतीणं गहणं आगाढे गिलाणकजं "गरहालाभपमाणे" ति गरहंतो गेण्हत्ति, अहो! अकज्जमिणं किं कुणिमो, अण्णहा गिलाणो ण पण्णप्पइ, गरहियविगतिलाभे य पमाणपत्तं गेण्हंति, णो अपरिमितमित्यर्थः, जावतिता गिलाणस्स उवउव इति तंमत्ताए घेप्पमाणीए दातारस्स पच्चयो भवति, पावं गट्ठा गेण्हंति ण जीहलोलयाए त्ति ॥३१७०।। - नि. भा. चू.१३ इदाणि अच्चित्ताणं गहणं-छारडगलयमल्लयादीणं उदुबद्ध गहिताणं वासासु वोसिरणं, वासासु धरणं छारादीणां, जति ण गिण्हति मासलहुं, जो य तेहि विणा विराधणा गिलाणादीण भविस्सति । भायणविराधणा लेपेण विणा तम्हा घेत्तव्वाणि, छारो एक्केकोणे पुंजो घणो कीरति । तलियावि किं विज्जति जदा णविकिचि ताओ तदा छारपुंजे णिहम्मति मा पणइज्जिस्संति, उभतो काले पडिलेहिज्जंति, ताओ छारो य जताअवगासो भूमीए नत्थि, छारस्स तदा कुंडगा भरिअंति, लेवो समाणेऊण भाणस्स हेट्ठा कीरति, छारेण उग्गुंडिञ्जति, स च भायणेण समं पडिलेहिञ्जति । अथ अच्छंतयं भायणं णत्थि ताहे मल्लयं लेवेउणं भरिञ्जति पडिहत्थं पडिलेहिज्जति य । - द. चू.४ छार-डगल-मल्लमातीणं गहणं, वासा उडुबद्धगहियाण वोसिरणं, वत्थातियाण धरणं, छाराइयाण वा धरणं, जति ण गेण्हंति तो मासलहं, जा य तेहिं विणा गिलाणातियाण विराहणा. भायणे वि विराधिते लेवे तम्हा घेत्तव्वाणि । छारो गहितो एककोणे घणो कज्जति । जति ण कज्जं तलियाहिं तो विगिचिजंति ! अह कज्जं ताहि तो छारपुंजस्स मज्झे ठविज्जति । पणयमादि-संसज्जणभया उभयं कालं तलियाडगलादियं च सव्वं पडिलेहंति । लेवं संजोएत्ता अप्पडिभुज्जमाणभायणहेट्ठा पुष्फगे कीरति, छारेण य उग्गुठिज्जति, सह भायणेण पडिलेहिज्जति, अह अपडिभुज्जमाणं भायणं णत्थि ताहे भल्लगं लिंपिऊण पडिहत्थं भरिज्जति । एवं काणइ गहणं काणइ वोसिरणं काणइ गहणघरणं ॥३१७५।। - नि. भा. चू.१५ नि. भा. चू. में उपलब्ध किन्तु द. नि. में अनुपलब्ध इन गाथाओं का विषयप्रतिपादन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। नि. भा. सं. ३१५४ व द. नि. गाथा ६८ में श्रमणों के सामान्य चातुर्मास (१२० दिन) के अतिरिक्त न्यूनाधिक्य चातुर्मास की अवधि का वर्णन है । उसमें ७० दिन के जघन्य वर्षावास का उल्लेख है । ३१५५वीं गाथा में ७० दिन का वर्षावास किन स्थितियों में होता है यह बताया गया है जो कि विषय प्रतिपादन की दृष्टि से बिल्कुल प्रासङ्गिक और आवश्यक है। गाथा सं. ३१६९ और ३१७० में श्रमणों द्वारा आहार ग्रहण के प्रसङ्ग में विकृति ग्रहण का नियम वर्णित है। उल्लेखनीय है कि द. नि. की ८२वीं गाथा के चारों चरण उक्त दोनों गाथाओं के क्रमश: प्रथम (३१६९) और द्वितीय चरण, तृतीय एवं चतुर्थ चरण (३१७०) के समान हैं। इन दोनों गाथाओं का अंश नियुक्ति में एक ही गाथा में कैसे मिलता है ? यह विचारणीय है। विकृति के ही प्रसङ्ग में अचित्त विकृति का प्ररूपण करने वाली ३१७५वी गाथा भी प्रासङ्गिक है क्योंकि द. नि. में सचित्त विकृति का प्रतिपादन है परन्तु अचित्त विकृति के प्रतिपादन का अभाव है जो Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. III-1997-2002 छन्द-दृष्टि से दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति... २७१ असङ्गत है। अतः यह गाथा भी द. नि. का अङ्ग रही होगी। यही स्थिति शेष दोनों गाथाओं ३१९२ और ३२०९ की भी है। इस प्रकार चूर्णि में इन गाथाओं का विवेचन और विषय-प्रतिपादन में साकाङ्क्षता द. नि. से इन गाथाओं के सम्बन्ध पर महत्त्वपूर्ण समस्या उपस्थित करती हैं। द. नि. की गाथा संख्या पर विचार करने के पश्चात् गाथाओं में प्रयुक्त छन्दों का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है - द. नि., प्राकृत के मात्रिक छन्द 'गाथा' में निबद्ध है । 'गाथा सामान्य' के रूप में जानी जाने वाली यह संस्कृत छन्द आर्या के समान है। 'छन्दोऽनुशासन'१६ की वृत्ति में उल्लेखित भी है - 'आयैव संस्कृतेतर भाषासु गाथा संज्ञेति गाथा लक्षणानि' अर्थात् संस्कृत का आर्या छन्द ही दूसरी भाषाओं में गाथा के रूप में जाना जाता है। दोनों - गाथा सामान्य और आर्या में कुल मिलाकर ५७ मात्रायें होती हैं । गाथा के चरणों में मात्रायें क्रमशः इस प्रकार हैं - १२, १८, १२ और १५ । अर्थात् पूर्वार्द्ध के दोनों चरणों में मात्राओं का योग ३० और उत्तरार्द्ध के दोनों चरणों का योग २७ है। 'आर्या' और 'गाथा सामान्य' में अन्तर यह है कि आर्या में अनिवार्य रूप से ५७ मात्रायें ही होती हैं, इसमें कोई अपवाद नहीं होता, जबकि गाथा में ५७ से अधिक-कम मात्रा भी हो सकती है, जैसे ५४ की गाह, ६० मात्राओं की उद्गाथा और ६२ मात्राओं की गाहिनी भी पायी जाती है। मात्रावृत्तों की प्रमुख विशेषता यह है कि इसके चरणों में लघु या गुरु वर्ण का क्रम और उनकी संख्या नियत नहीं है। प्रत्येक गाथा में गुरु और लघु की संख्या न्यूनाधिक होने के कारण 'गाथा सामान्य' के बहुत से उपभेद हो जाते हैं। द. नि. में 'गाथा सामान्य' के प्रयोग का बाहुल्य है। कुछ गाथायें गाहू, उद्गाथा और गाहिनी में भी निबद्ध हैं । सामान्य लक्षण वाली गाथाओं (५७ मात्रा) में बुद्धि, लज्जा, विद्या, क्षमा, देही, गौरी, धात्री, चूर्णा, छाया, कान्ति और महामाया का प्रयोग हुआ है। गाथा सामान्य के उपभेदों की दृष्टि से अलग-अलग गाथावृत्तों में निबद्ध श्लोकों की संख्या इस प्रकार है - बुद्धि-१. लज्जा-४, विद्या-११, क्षमा-९, देही-२८, गौरी-२२, धात्री-२३, चूर्णा-१५, छाया-८, कान्ति३, महामाया-३, उद्गाथा-९ और अन्य-४ । यह बताना आवश्यक है कि सभी गाथाओं में छन्द लक्षण घटित नहीं होते हैं । दूसरे शब्दों में, सभी गाथायें छन्द की दृष्टि से शुद्ध हैं या निर्दोष हैं, ऐसी बात नहीं है कुछ गाथायें अशुद्ध भी हैं । नियुक्ति गाथाओं में गाथा-लक्षण घटित करने के क्रम में जो तथ्य सम्मुख प्रकट होते हैं वे इस प्रकार हैं - इस नियुक्ति में १४१ में से ४४ गाथायें गाथा लक्षण की दृष्टि से निर्दोष हैं अर्थात् इन ४४ गाथाओं में गाथा लक्षण यथावत् घटित हो जाते हैं । इनका क्रम इस प्रकार है - १, ३, ४, ९, १४, १६, १८, २१, २५, २६, २८, ३०, ३७, ३९, ४२, ४४, ४७, ४८, ५२, ५३, ५६, ६१, ६२, ७२, ७७, ८७, ८८, ९१, ९३, ९४, ९५, ९९, १००, १०५, १०७, १०९, ११२, ११५, ११९, १२०, १२१, १२३, १२४, १३४ । दस गाथाओं में चरण-विशेष के अन्तिमपद के गुरुवर्ण की हुस्व के रूप में गणना करने से गाथाक्षण घटित हो जाते हैं तो सोलह गाथाओं में चरण-विशेष के अन्तिमपद के लघु वर्ण को गुरु के रूप में गणना करने से छन्द लक्षण घटित हो जाता है। कवि परम्परा के अनुसार छन्द-पूर्ति के लिए प्रयोजनानुरूप Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अशोक कुमार सिंह Nirgrantha चरण के अन्तिम वर्ण के गुरु का हुस्व और हुस्व का गुरु उच्चारण या गणना करने का विधान है८ । ये गाथायें निम्न हैं - गुरु की लघु गणना करने मात्र से छन्द की दृष्टि से शुद्ध होने वाली गाथायें - १३, १५, १९, २२, ३४, ४१, ४९, ११८, १२५, १३९ । लघु की गुरु गणना करने मात्र से छन्द की दृष्टि से शुद्ध हो जाने वाली गाथायें - ५, ११, २३, २७, २९, ३५, ३६, ३८, ५५, ५७, ९०, ९७, ११०, ११६, १३६, १३७ । इस प्रकार द. नि. (१४१) की आधी गाथायें (४४ + १० + १६ =७०) छन्द की दृष्टि से यथास्थिति में ही शुद्ध हैं । अब ७१ गाथायें ऐसी शेष रहती हैं जिनका पाठ छन्द की दृष्टि से न्यूनाधिक रूप में अशुद्ध कहा जा सकता है। इनमें १२ गाथायें ऐसी हैं जिनमें प्राकृत व्याकरण के शब्द अथवा धातु रूपों के नियमानुसार गाथा-विशेष के एक या दो शब्दों पर अनुस्वार की वृद्धि कर देने पर गाथा-लक्षण घटित हो जाता है। ऐसी गाथायें निम्न है - प्राकृत शब्द अथवा धातु रूपों के अनुरूप अनुस्वार का हास एवं वृद्धि कर देने मात्र से छन्द की दृष्टि से शुद्ध होने वाली गाथायें - (२४) चरणेसु > चरणेसुं, (३१) दुग्गेसु > दुग्गेसुं, (४०) भिक्खूण > भिक्खूणं, (६५) तेण > तेणं, (७५) मोत्तूण > मोत्तूणं, (७६) इयरेसु > इयरेसुं, (८५) वासासु > वासासुं, (८६) मोत्तु > मोत्तुं, (१०२) वत्थेसु > वत्थेसुं, (१०६) गहण > गहणं, कहण > कहणं (१११) णाउ > गाउं, (१४०) दोसेणु > दोसेणं । द. नि. में ग्यारह गाथायें ऐसी हैं जिनमें प्राकृत व्याकरण के भब्द अथवा धातु रूपों के नियमानुरूप शब्द-विशेष में किसी हुस्व मात्रा को दीर्घ कर देने पर और किसी दीर्घ मात्रा को हुस्व कर देने पर छन्द लक्षण घटित हो जाता है । ये गाथायें निम्नलिखित हैं - उपयुक्त प्राकृत शब्द-धातु रूपों के अनुरूप स्वर को ह्रस्व या दीर्घ कर देने और स्वर में वृद्धि या हास करने से छन्द की दृष्टि से शुद्ध होने वाली गाथायें - (७०) अणितस्सा > अणितस्स, आरोवण > आरोवणा, (७१) काईय > काइय, (८१) उ > तो, (९७) उ > तो, (१०३) णो > ण, (११४) णाणट्ठी > णाणट्ठि, (११८) णाणट्ठी > गाणट्ठि, (१२६) तो > तु, (१३०) मणुस्स > मणुस्से, (१३१) असंजयस्सा > असंजयस्स, (१३३) तीत्थंकर > तित्थंकर । इस नियुक्ति में १८ गाथायें ऐसी हैं जिनमें छन्द, लक्षण घटित करने के लिए पादपूरक निपातों - तु, तो, खु, हि, व, वा, च, इत्यादि और इन निपातों के विभिन्न प्राकृत रूपों को समाविष्ट करना पड़ता है । इन गाथाओं की सूची इस प्रकार है - पाद पूरक निपातों की वृद्धि करने से छन्द की दृष्टि से शुद्ध गाथायें - २ 'उ', ६ 'हि', ७ 'अ', ८ 'उ', २० 'उ', ४३ 'च', ५३ 'च', ४६ 'च', ५१ 'य', ७३ 'य', ७४ 'उ', ७९ 'य', ८१ 'उ', ८४ 'उ', ८५ 'तु', १२२ 'य', १२९ 'उ', १३८ 'अ' । इस प्रकार ४३ (१४ + ११ + १८) गाथाओं में छन्द की दृष्टि से पाठ-शुद्धि के लिए लघु संशोधनों की आवश्यकता है और इस तरह ११३ (७० + ४३) गाथायें छन्द की दृष्टि से शुद्ध हो जाती हैं। अब शेष २६ गाथाओं में गाथा लक्षण (घटित करने के उद्देश्य से) पाठान्तरों का अध्ययन करने हेतु दशाश्रुतस्कन्ध की समानान्तर गाथाओं का सङ्कलन किया गया है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. III 1997-2002 क्र.सं. १. २. ३-४ ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १९. गाथा १० १२ ३२-३३ ४१ ५४ ५८ ५९ ६० ६३ ६४ ६६ ६८ ६९ ७० ७८ ८० ८३ ८९ चरण पू. 3. उ. 3. उ. उ. पू. 3. उ पू. यू. पू उ. पू. उ 3. उ पू. उ. पू. पू. छन्द से दशाशुतस्कन्धनि... संशोधन ओवरई > ओवरइ ण का ग्रहण वक्रमवइक्कमे चार्थक अ की वृद्धि दव्वदव्वे उयणाईसु > ओयणाईसुं तव तवम्मि 'काले' की वृद्धि ऊणातिरित्त चिक्खल्ल उणाइरित चिक्खल अपडिक्कमिउं > अप्पडिक्कमितुं गतव्वं वायव्वं बाहि ठित्तति > बाहिट्ठिया 'ण' छूट गया है प्रकाशनदोष मिग्गसिरे मग्गसिरे ठिपाणतीरमग्गसीरे > ठियाणऽतीतमग्गसिरे होति भणितो गतव्वं > णिग्गमणं अणितस्सा आरोवण अणिताणं आरोवण जंधद्धे कोविजंघद्धेक्कोवि पुव्वाहारोसवण पुव्वाहारोसवणं सत्तिउग्गहणं सत्तिओ गहणं संचय संचइए पसत्था उपसत्थाओ कारणओ> कारणे संपाइमवहो > संपातिवहो नेहछेओ > णेहछेदु आधारग्रन्थ द. चू. द.यू. द.यू. द.नि. नि.भा. द. चू. नि.भा. नि.भा. नि.भा. नि.मा. नि.भा. नि.भा. नि.भा. नि.भा. नि.भा. नि.भा. व.क.भा. नि.भा. नि.भा. नि.भा. नि.भा. नि.भा. गाथा चूर्णा धात्री देही लज्जा लज्जा विद्या विद्या देही देही क्षमा गौरी चूर्णा २७३ देही विद्या धात्री धात्री देही धात्री Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ क्र. नं. ञ २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. गाथा ९२ ९८ १०१ १०४ १०८ ११३ १३० चरण पू. उ. उ. उ. उ पू. उ. उक्त विवरण से स्पष्ट है परिप्रेक्ष्य में व्याकरण की दृष्टि से ९८, १०४ और १३० । अशोक कुमार सिंह संशोधन दुरुत्तग्ग > दुरुतग्गो खिसणा च खिसपाहिं अवलेहणीया किमिराग कद्दम कुसुंभय हलिया > अवलेहणि किमि कद्दम कुसुंभरागे हलिद्दा य अणुवतीह> अणुवत्तीहि पुच्छति य पडिक्रमणे पुव्वभासा चउत्थम्मि पुच्छा तिपडिक्कमणे, पुष्यमासा चउत्थेपि मंगलं > तु मंगलं मणुस्स मणुस्से आधारग्रन्थ नि.भा. नि.भा. नि.भा. नि. भा. Nirgrantha गाथा देही चूर्णा नि.भा. नि.भा. द. चू. कि कुछ गाथाओं को, उनमें प्राप्त शब्द विशेष को समानान्तर गाथाओं के संशोधित कर शुद्ध कर सकते हैं जैसे गाथा सं. १२, ४७, ६३, ८३, ९२, धात्री धात्री गौरी गाथा सं. ५९, ६९, ७८, ८०, ८९, ११३ और १४१ समानान्तर गाथाओं के पाठों के आलोक में और साथ ही साथ प्राकृत भाषा के व्याकरणानुसार वर्तनी संशोधित कर देने पर छन्द की दृष्टि से शुद्ध हो जाती है। छाया देही गाथा सं. ६३ और ६९ समानान्तर गाथाओं के अनुरूप एक या दो शब्दों का स्थानापन्न समाविष्ट कर देने से छन्द की दृष्टि से निर्दोष हो जाती हैं । गाथा सं. ५४ और ५८ में क्रमशः 'काले' और 'मासे' को छन्द-शुद्धि की दृष्टि से जोड़ना आवश्यक है। उक्त दोनों शब्द इन गाथाओं को सभी समानान्तर पाठों में उपलब्ध है। गाथा सं. १० और ६६ में 'ण' की वृद्धि आवश्यक है। इन शब्दों को समाविष्ट करना विषय प्रतिपादन को युक्तिसङ्गत बनाने की दृष्टि से भी आवश्यक है। सम्भव है उक्त गाथाओं में 'काले', 'मासे' और 'ण' का अभाव मुद्रण या पाण्डुलिपि लेखक की भूल हो सकती है गाथा नं. १०१ और १०८ समानान्तर गाथाओं के आलोक में सम्पूर्ण उत्तरार्द्ध को बदलने पर छन्द की दृष्टि से शुद्ध होती हैं । इस नियुक्ति की गाथाओं से, गाथाओं के समानान्तर पाठालोचन के क्रम में कुछ अन्य उल्लेखनीय तथ्य भी हमारे समक्ष आते है। जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है गाथा सं. ८२ के चारों चरण, नि. भा. की दो गाथाओं ३१६९ और ३१७० में प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार गाथा सं. ८६ में प्राप्त 'संविग्ग' और 'निद्दओ भविस्सर' के स्थान पर नि. भा. की गाथा ३१७४ में क्रमश: 'सचित्त' और 'होहिंतिणिधम्मो' प्राप्त होता है। इन दोनों गाथाओं में शब्दों का अन्तर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. III - 1997-2002 छन्द-दृष्टि से दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति... २७५ होने पर भी मात्राओं का समायोजन इस प्रकार है कि छन्द-रचना की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं पड़ता है। द. नि. में दृष्टान्तकथाओं को, एक या दो गाथाओं में उनके प्रमुख पात्रों तथा घटनाओं को सूचित करने वाले शब्दों के माध्यम से वर्णित किया गया है। इङ्गित नामादि भी समानान्तर गाथाओं में भिन्न-भिन्न रूप में प्राप्त होते हैं। पर इनमें भी मात्राओं का समायोजन इस प्रकार है कि छन्द-योजना अप्रभावित रहती है। चम्पाकमारनन्दी (गाथा ९३) के स्थान पर नि. भा. ३१८२ में चंपा अणंगसेनो और वणिधूयाऽच्चकारिय (१०४) के स्थान पर धणधूयाऽच्चंकारिय (नि. भा. ३१९४) प्राप्त होता है । जो गाथायें छन्द की दृष्टि से शुद्ध भी हैं उनकी समानान्तर गाथाओं में भी छन्द-भेद और पाठ-भेद । होते हैं। निर्यक्ति की गाथा सं. ३ 'बाला मंदा' स्थानाङ, दशवैकालिकनियुक्ति, तन्दलवैचारिक, नि. भा. और स्थानाङ्ग-अभयदेववृत्ति में पायी जाती है। इन ग्रन्थों में यह गाथा चार भिन्न-भिन्न गाथा छन्दों में निबद्ध है और सभी छन्द की दृष्टि से शुद्ध है । द. नि. में यह गाथा ६० मात्रा वाली उद्गाथा, स्थानाङ्ग, द. नि. और स्थानावृत्ति में यह गाथा ५७ मात्रा वाली गौरी गाथा में व प्रकीर्णक तन्दुलवैचारिक में क्षमा गाथा में तो नि. भा. में ५२ मात्रावाली गाहू गाथा में निबद्ध है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पाठान्तर केवल त्रुटियों का ही सूचक नहीं है अपितु ग्रन्थकार या रचनाकार की योजना के कारण भी गाथाओं में पाठ-भेद हो सकता है । बाला मंदा किडा बला य पण्णा य हायणिपवंचा । पब्भारमुम्मुही सयणी नामेहि य लक्खणेहिं दसा ॥३॥ द. नि. बाला किड्डा य मंदा य बला य पण्णा य हायणी । पंवचा पब्भारा य मुम्मुही सायणी तथा ॥१०॥ १५४, स्था. बाला किड्डा मंदा बला य पन्ना य हायणि पवंचा । पब्भार मम्मुही सायणी य दसमा य कालदसा ॥१०॥ त. वै. बाला किडा मंदा बला य पत्रा य हायणि पवंचा 1 पबभारा मुम्मुही सायणी य दसमा य कालदसा ॥४५॥ त. वै. बाला मंदा किड्डा बला पण्णा य हायणी । पवंचा पब्भारा य मुम्मुही सायणी तहा ॥३५४५|| नि. भा., ४ उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि यद्यपि किसी प्राचीन ग्रन्थ का पाठ-निर्धारण एक कठिन और बहुआयामी समस्या है फिर भी गाथाओं का छन्द की दृष्टि से अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है । छन्द-दृष्टि से अध्ययन करने पर समानान्तर गाथाओं के आलोक में गाथा-संशोधन के अलावा विषयप्रतिपादन को भी सङ्गत बनाने में सहायता प्राप्त होती है । L. Alsdorfi के इस अभिमत को, कि प्राचीन जैनाचार्यों ने गाथाओं की रचना में छन्दों और प्राकृत भाषा के नियमों की उपेक्षा की, पूर्णतया स्वीकार नहीं किया जा सकता है । इस दृष्टि से अध्ययन करने पर यह धारणा बनती है कि उक्त अशुद्धियाँ पाण्डुलिपियों के लेखक, सम्पादक और किञ्चित् अंशों में मुद्रणदोष के कारण भी नियुक्तियों में आ गई हैं । हाँ, कुछ अंशों में नियुक्तिकार का छन्द और व्याकरण के प्रति उपेक्षात्मक दृष्टिकोण भी उत्तरादायी हो सकता है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक कुमार सिंह Nirgrantha सन्दर्भ : १. दशाश्रुतस्कन्ध-मूल-नियुक्ति-चूर्णि, मणिविजयगणि ग्रन्थमाला, सं. १४, भावनगर १९५४ ! २. "दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति", "नियुक्तिसङ्ग्रह" सं. जिनेन्द्रसूरि, हर्षपुष्पामृत जैन ग्र. मा., १८९, लाखाबावल १९८९, पृ. ४७६-४९६ । ३. H. R. Kapadia, Government Collection of Manuscripts', भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, खण्ड १७, भाग-२, पूना १९३६, पृ. ६७ ! ४. जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-१, पा. वि. ग्र. मा. सं. ६, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, द्वि. सं. १९८९, पृ. ३४ । ५. संग्रा. ह. दा. वेलणकर, जिनरत्रकोश, खण्ड एक, गवर्नमेण्ट ओरिएण्टल सिरीज, भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पूना १९४४, पृ. १७२ । ६. H. R. Kapadia, 'A History of the canonical Literature of Jainas' लेखक, सूरत १९४१, पृ. १८२ । ७. कापडिया, 'Government Collection', ओरिएण्टल, पूना १९३६, पृ. ६७ । ८. कापडिया, 'Canonical', सूरत १९४४, पृ. १८२ । ९. निशीथसूत्रम् (भाष्य एवं चूर्णि सहित), सं. आचार्य अमरमुनि, ग्र. मा. सं. ५, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली और सन्मति ज्ञानपीठ, राजगृह, उद्देशक १०, गाथा ३१३८-३२०९, (भाग ३) । १०. द. चू., मणिविजय, भावनगर १९५४, पृ० ५५ । ११. नि. भा. चू., ३, अमरमुनि, दिल्ली, राजगृह, पृ. १३२ । १२. द. चू., भावनगर १९५४, पृ. ५७ । १३. नि. भा. चू., दिल्ली, राजगृह, पृ. १३५-१३६ 1 १४. द. चू., भावनगर १९५४, पृ. ५८ । १५. नि.भा.चू., दिल्ली, राजगृह, पृ. १३७ । १६. सं. प्रो. ह. दा. वेलणकर, छन्दोऽनुशासन (हेमचन्द्र), भारतीय विद्या भवन, बम्बई १९६१, पृ. १२८ । १७. १. बुद्धि (१) गाथा सं. १६ । २. लज्जा (४) गाथा सं. ८, ५४, ११९, १२७ । ३. विद्या (११) ६, १४, १९, २९, ५८, ५९, ६१, ७१, ७७, १२२, १३७ । ४. क्षमा (९) ९, १५, २३, ३५, ६४, ७२, ९७, ११२, ११६ । ५. देही (२८) ४, ११, १६, १८, २४, २६, २७, ३२, ४७, ४८, ५५, ५६, ६०, ६२, ६३, ६९, ७९, ८३, ८४, ८५, ८६, ८८, ९२, १०३, १२०, १२४, १३०, १३५ । ६. गौरी (२२) ५, २०, ३४, ३६, ३८, ४०, ४१, ४४, ५७, ६६, ७५, ९१, १०२, १०८, ११४, १२१, १२५, १३१, १३४, १३६, १३९, १४१ । ७. धात्री (२२) १, १२, १३, २१, २२, ३७, ३९, ४३, ६५, ६७, ७८, ८०, ८९, १०१, १०४, १०९, ११०, ११५, ११७, ११८, १२८, १४० । ८. चूर्णा (१५) १०, २५, २८, ४९, ५१, ५३, ६८, ७०, ८२, ९०, ९८, १०५, १०७, १२६, १३८ । ९. छाया (८) ७, ५०, ७६, ८१, ८७, १११, ११३, १३२ । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. III - 1997-2002 छन्द-दृष्टि से दशाश्रुतस्कन्थनियुक्ति... 277 10. कान्ति (3) 93, 94, 106 / 11. महामाया (3) 31, 95, 100 / 12. उद्गाथा (8) 2, 3, 17, 23, 46, 52, 73, 128 / 13. अन्य (3) 18. हूस्वानामपि गुरुत्वम् इति अभिप्रायो वा; छन्दोमञ्जरी-कर्ना गङ्गादास, व्याख्याकार डॉ. ब्रह्मानन्द त्रिपाठी, चौखम्बा सुरभारती, ग्रन्थमाला 36, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी 1978, पृ. 9 / 19. W. B. Bolee, 'The Nijjuttis on the seniors of the Svetambara siddhanta' फँज स्टेनर वाग, स्टुअर्ट 1995, प्रस्ता., पृ. 6 /