________________
२७२
अशोक कुमार सिंह
Nirgrantha
चरण के अन्तिम वर्ण के गुरु का हुस्व और हुस्व का गुरु उच्चारण या गणना करने का विधान है८ । ये गाथायें निम्न हैं - गुरु की लघु गणना करने मात्र से छन्द की दृष्टि से शुद्ध होने वाली गाथायें - १३, १५, १९, २२, ३४, ४१, ४९, ११८, १२५, १३९ । लघु की गुरु गणना करने मात्र से छन्द की दृष्टि से शुद्ध हो जाने वाली गाथायें - ५, ११, २३, २७, २९, ३५, ३६, ३८, ५५, ५७, ९०, ९७, ११०, ११६, १३६, १३७ । इस प्रकार द. नि. (१४१) की आधी गाथायें (४४ + १० + १६ =७०) छन्द की दृष्टि से यथास्थिति में ही शुद्ध हैं ।
अब ७१ गाथायें ऐसी शेष रहती हैं जिनका पाठ छन्द की दृष्टि से न्यूनाधिक रूप में अशुद्ध कहा जा सकता है। इनमें १२ गाथायें ऐसी हैं जिनमें प्राकृत व्याकरण के शब्द अथवा धातु रूपों के नियमानुसार गाथा-विशेष के एक या दो शब्दों पर अनुस्वार की वृद्धि कर देने पर गाथा-लक्षण घटित हो जाता है। ऐसी गाथायें निम्न है - प्राकृत शब्द अथवा धातु रूपों के अनुरूप अनुस्वार का हास एवं वृद्धि कर देने मात्र से छन्द की दृष्टि से शुद्ध होने वाली गाथायें - (२४) चरणेसु > चरणेसुं, (३१) दुग्गेसु > दुग्गेसुं, (४०) भिक्खूण > भिक्खूणं, (६५) तेण > तेणं, (७५) मोत्तूण > मोत्तूणं, (७६) इयरेसु > इयरेसुं, (८५) वासासु > वासासुं, (८६) मोत्तु > मोत्तुं, (१०२) वत्थेसु > वत्थेसुं, (१०६) गहण > गहणं, कहण > कहणं (१११) णाउ > गाउं, (१४०) दोसेणु > दोसेणं ।
द. नि. में ग्यारह गाथायें ऐसी हैं जिनमें प्राकृत व्याकरण के भब्द अथवा धातु रूपों के नियमानुरूप शब्द-विशेष में किसी हुस्व मात्रा को दीर्घ कर देने पर और किसी दीर्घ मात्रा को हुस्व कर देने पर छन्द लक्षण घटित हो जाता है । ये गाथायें निम्नलिखित हैं - उपयुक्त प्राकृत शब्द-धातु रूपों के अनुरूप स्वर को ह्रस्व या दीर्घ कर देने और स्वर में वृद्धि या हास करने से छन्द की दृष्टि से शुद्ध होने वाली गाथायें - (७०) अणितस्सा > अणितस्स, आरोवण > आरोवणा, (७१) काईय > काइय, (८१) उ > तो, (९७) उ > तो, (१०३) णो > ण, (११४) णाणट्ठी > णाणट्ठि, (११८) णाणट्ठी > गाणट्ठि, (१२६) तो > तु, (१३०) मणुस्स > मणुस्से, (१३१) असंजयस्सा > असंजयस्स, (१३३) तीत्थंकर > तित्थंकर ।
इस नियुक्ति में १८ गाथायें ऐसी हैं जिनमें छन्द, लक्षण घटित करने के लिए पादपूरक निपातों - तु, तो, खु, हि, व, वा, च, इत्यादि और इन निपातों के विभिन्न प्राकृत रूपों को समाविष्ट करना पड़ता है । इन गाथाओं की सूची इस प्रकार है - पाद पूरक निपातों की वृद्धि करने से छन्द की दृष्टि से शुद्ध गाथायें - २ 'उ', ६ 'हि', ७ 'अ', ८ 'उ', २० 'उ', ४३ 'च', ५३ 'च', ४६ 'च', ५१ 'य', ७३ 'य', ७४ 'उ', ७९ 'य', ८१ 'उ', ८४ 'उ', ८५ 'तु', १२२ 'य', १२९ 'उ', १३८ 'अ' ।
इस प्रकार ४३ (१४ + ११ + १८) गाथाओं में छन्द की दृष्टि से पाठ-शुद्धि के लिए लघु संशोधनों की आवश्यकता है और इस तरह ११३ (७० + ४३) गाथायें छन्द की दृष्टि से शुद्ध हो जाती हैं।
अब शेष २६ गाथाओं में गाथा लक्षण (घटित करने के उद्देश्य से) पाठान्तरों का अध्ययन करने हेतु दशाश्रुतस्कन्ध की समानान्तर गाथाओं का सङ्कलन किया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org