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भारतीय नौसेना ऐतिहासिक सर्वेक्षण
श्री गायत्रीनाथ पंत
समुद्रका आकर्षण अनादिकालसे मनुष्यको आकर्षित करता रहा है- प्रेरित करता रहा है, प्रारम्भमें मनोरंजन एवं उत्सुकतावश पर तत्पश्चात् यातायात, व्यापार, समुद्रमन्थन तथा युद्ध-संचालन हेतु । मानवकी अज्ञातको खोज निकालनेकी स्वाभाविक प्रवृत्तिसे सागर भी अछूता नहीं रहा संभवत: नदियोंके किनारे रहने के कारण मानव के आदि पुरुषने मछली पकड़ने, तैरने एवं नदी पार करनेके लिये किसी लकड़ी के लट्ठेका सहारा लिया होगा । आवश्यकताओं, सुरक्षाकी भावना एवं सांस्कृतिक विकासके कारण इस दिशा में भी सुधार हुए । भारतीय नौकाका भी एक विकासक्रम है— स्वयंमें एक इतिहास है ।
लट्ठेके बाद तरणीका युग आता है । भारतकी प्राचीनतम प्रागऐतिहासिक सैंधव सभ्यतामें हमें नौका दर्शन होते हैं । चूँकि इस सभ्यताका उद्गम स्थल एक महान् एवं व्यापारिक नदी (सिंध) थी इसलिये निश्चय ही जिज्ञासु मानवने इस दिशामें नाना प्रकार के प्रयोग किये और व्यापारिक सुविधाके लिये कतिपय नावोंका आविष्कार किया । यहाँ एक मुहरमें हमें 'मकर' के आकारकी नौकाका अंकन मिलता है। जिसका आधा अंश जलमग्न है । एक नाविक ऊपरी सिरेमें बैठकर दो चप्पुओंके माध्यम से, इसे खे रहा है । सन् १९५९-६०के मध्य किये गये पुरातत्त्व उत्खननसे लोथल ( अहमदाबाद, गुजरात ) में एक 'डाक्यार्ड' का पता चला है जिससे २५०० ई० पू० में होनेवाले जल व्यापारका स्पष्ट उल्लेख मिलता । इस डाक्याईका स्वरूप 'आयताकार' प्रकारका है एवं इसका पूर्वी लगभग ७१० फीट लम्बा है। इसमें पूर्व की ओर एक द्वार था जिसके माध्यमसे नावें आ सकती थीं ।
वैदिक साहित्य के अवलोकनसे प्राचीन भारतीय श्रेष्ठ नौका परंपराके प्रमाण मिले हैं । उस समय सागरीय व्यापार भी प्रचलित था। ऋग्वेद में समुद्रपर चलनेवाले जलयानोंका उल्लेख मिलता है । ऋग्वेद ( १,११७ ) में वर्णित अविश्वनों का उल्लेख, जिन्होंने 'पंखयुक्त जहाजों' द्वारा भुज्यकी रक्षा की थी, होनेसे डॉ० दीक्षिततर तो 'वायु-जल-व्यापार' होनेकी भी घोषणा कर दी है पर यह अधिक भावुकतापूर्ण है 'शतपथ ब्राह्मण' में स्वर्गकी ओर प्रस्थान करनेवाले जहाजका उल्लेख है । उस युगकी अन्य साहित्यिक उपलब्धियों में बंगाल, सिंध एवं दक्षिण भारत में होनेवाले जल व्यापारका विवरण मिलता है । 'युक्त कल्पतरु' जहाज निर्माण विषयक एक ऐतिहासिक ग्रंथ है जिसमें जहाजोंके स्वरूप, प्रकार, उपयोग के साथ-साथ निर्माणविधिका कलात्मक विवेचन है । इसमें जहाजोंको २० श्रेणियों में बाँटा गया है । सबसे लम्बा १७६ बालिस्त लम्बा, २० बालिस्त चौड़ा एवं १७ बालिस्त ऊँचा होता था, जबकि सबसे छोटेकी माप १६-४-४ बालिस्त दी गई है । जहाजोंके तीन प्रमुख प्रकार थे 'सर्वमन्दिर', 'मध्यमन्दिर' एवं 'अग्निमन्दिर' | अग्निमन्दिर एक युद्धक जहाज था जिसे केवल संग्राम में ही उपयोग किया जाता था जबकि प्रथम दोनों प्रकारोंका उपयोग जल-विहार, मछली पकड़ने एवं व्यापार आदिमें होता था । संभवतः ऐसे ही किसी जलयानमें प्रथम भारतीय नाविकने सागरकी हिलोरोंको झंकृतकर प्रथम जल-युद्धका आह्वान किया होगा । ऐसे ही एक ३४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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जहाजमें राजर्षि तुगुने अपने पुत्रको शत्रु पर आक्रमण करने हेतु भेजा था। और इसी प्रकारके पूर्णरूपेण सुसज्जित एवं शस्त्रोंसे युक्त एक जहाज में पाण्डव-बन्धुओंने पलायन किया था।
'सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम् ।
शिवे भागीरथीतीरे नरविश्रम्भिभिः कृताम् ।। ( महाभारत, आदिपर्व) इसी महाकाव्यमें सहदेवकी समुद्री यात्रा एवं उसके द्वारा म्लेच्छोंसे कतिपय प्रायद्वीपोंके जीत लेनेका वर्णन है। एक बार निषाधराज गुहकने हजारों कैवर्त नवयुवकोंसे ५०० युद्धक जहाजोंको तैयार करने एवं भारतसे जलयद्ध करनेका आह्वान किया था। इस तरह वैदिक युगके ये बिखरे उदाहरण इस बातके ज्वलन्त प्रमाण हैं कि वैदिक युगमें मानवने सागरकी अतल गहराइयों पर काफी हद तक नियंत्रण प्राप्त कर लिया था।
३२५ ई० पूर्व में जहाज-निर्माणकला काफी उन्नत अवस्थामें थी और इस समय भारत विदेशी राष्ट्रोंसे जल सम्पर्क स्थापित कर चुका था। स्वयं सिकन्दरको सिंध नदी पार करने के लिये भारतीय कारीगरों द्वारा निर्मित नावोंका सहारा लेना पड़ा था। सिंध नदीको पार करने के लिये सिकन्दर महान्ने नावोंका पुल भी तैयार करवाया था। यदि कहीं भारतीय पोरसने भी इसी प्रणालीको अपनाकर सिकन्दरको मँझधारमें रोक दिया होता तो संभवतः इतिहासकी दिशा ही बदल गई होगी।
मौर्ययुगमें नौसेनाका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था और यह राज्यका एकाधिकार बन गया था। प्लिनीके अनुसार इस समयका औसतन जहाज लगभग ७५ टन वजन का था। बढ़ते हुए जलव्यापार एवं संभावित नौ-युद्धोंके कारण ही इस समय एक पृथक् नौ-विभागकी स्थापना कर दी गई थी जिसका प्रधान 'नावाध्यक्ष' कहलाता था। मोनाहनके इस विचारका, कि 'नावाध्यक्ष' पूर्णरूपेण एक नागरिक-प्रशासनिक अधिकारी था, डॉ० राय चौधरीने तर्कपूर्ण खंडन किया है और यह मत प्रतिपादित किया है कि 'नावाध्यक्ष' के अनन्य कार्योंमें एक कार्य हिमश्रिकाओं ( समुद्री डाकुओं ) द्वारा राष्ट्रीय जलयानोंकी सुरक्षा भी थी। चाणक्यने अपने अर्थशास्त्रमें इन समुद्री डाकुओं एवं शत्रुओंके जहाजोंको ध्वस्त करने एवं उनके द्वारा अपने बन्दरगाहोंकी रक्षा करनेका जोरदार समर्थन किया है। जब हम अशोक महान्के लंका एवं अन्य प्रायद्वीपोंसे सम्बन्धके बारेमें उसके लेखोंमें पढ़ते हैं तब उसके आधीन एक विशाल नौ-सेना विभाग होने की स्वतः ही पुष्टि हो जाती है।
प्रारंभिक कलात्मक चित्रणमें सातवाहन नरेशोंके तत्त्वावधानमें निर्मित द्वितीय शती ई० पू०के सांचीके हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। सांची स्तपके पर्वी एवं पश्चिम द्वार पर एक छोटी सी तरणीका अंकन है जिसके छोटे चप्पू उस युगमें प्रचलित नौकाके परिचायक है। कन्हेरीकी मूर्तिकलामें भी हमें एक जहाजके दर्शन होते हैं जो बड़ी ही जीर्ण-शीर्ण अवस्थामें चित्रित है।
द्वितीय एवं तृतीय शती ई० के आन्ध्र नरेशोंके सिक्कोंमें हमें मस्तूल युक्त जहाजका उल्लेख मिलता है । यह जहाज अर्धचन्द्राकार है एवं इसमें दो मस्तूल लम्बाकार खड़े हैं। इसके चारों ओर जलराशि है एवं उसमें इसे खेनेवाले एक चप्पका भी आभास मिलता है। इस युगके नरेश यत्र-श्रीने 'जहाज-प्रकार'का एक सिक्का भी प्रचलित किया था जो निश्चय ही उस समयके आर्थिक जीवन में जलयानोंके योगदानकी ऐतिहासिक घोषणा है।
अजन्ताके चित्रकारोंके तत्कालीन भारतकी एक सुन्दरतम एवं हृदयग्राही झांकी प्रस्तुत की है और उनकी तीक्ष्ण दृष्टिसे ये नौकाएँ भी न बच सकीं। अधिकांश रूपका इनका चित्रण गुहा नं० २के भित्ति
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चित्रों (५२२-६५० ई० ) में हुआ है। इसमें एक जहाज काफी वेगयुक्त पानी में बह रहा है पर दूसरे स्थान पर 'मकर आकार के एक भारी भरकम जहाजको दर्शाया गया है जिसमें विजय द्वारा किये गये लंका-अभि यानके संदर्भ में अनम्य सिपाहियों, घुड़सवारों एवं हाथियों को इसी जहाज पर सवार चित्रित किया गया है। पल्लवयुगीन सिक्कों ( ७वीं शती ई० ) में भी दो-मस्तूल युक्त जहाजोंका प्रदर्शन है । उस समय महाबलीपुरम एक प्रमुख केन्द्र था । जहाजोंके मार्गदर्शन हेतु निर्मित एक प्रकाश स्तम्भके विद्यमान है।
अवशेष आज भी
गुप्तकालमें नौसेनाकी महत्ता पूर्णरूपेण सिद्ध हो चुकी थी। समुद्रगुप्तके पास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यने नौ-शक्तिके द्वारा ही शकोंको परास्तकर अरब सागरसे बंगाल की प्रभुत्व स्थापित कर लिया था।
चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीयने पुरीपर नौसैनिक आक्रमण किया था और इसके वैभवको धूल धूसरित कर दिया था। यही नहीं वरन् भारतीय नौकाओंकी धूम विदेशों में भी मची, बौद्धकालीन जातक कथाओं में तो अनेक बार समुद्री जलयानोंका प्रसंग आता ही है और यह भी कि इन्हीं जहाजोंमें बैठकर हमारे पूर्वज वर्मा, दक्षिण पूर्व एशिया, श्री लंका, अफ्रीका तथा चीन तक पहुँचे थे। जावाके प्रसिद्ध बोरोबदरके मन्दिर में भारतीय जहाजोंका बहुत ही सुन्दर अंकन हुआ है । डा० राधाकुमुद मुकर्जीने इन्हें तीन श्रेणियों में विभाजित किया है। प्रथम कोटिमें लम्बे एवं चौड़े दूसरे में एकसे अधिक मस्तूलवाले तथा तीसरी कोटिमें वे जहाज आते है जिसमें केवल एक ही मस्तूल है साथ ही इनका अगला भाग कुछ मुड़ा हुआ होता है। इसी प्रकारका एक जहाज मदुराईके प्रसिद्ध मंदिर में भी प्रदर्शित है। जावामे प्रचलित दन्त-कथाओंके अनुसार एक बार एक गुजरात नरेशने ६ बड़े एवं १०० छोटे जहाजों में सेना भरकर जावापर आक्रमण कर दिया एवं इसे विजित किया तथा एक मंदिरका निर्माण यहाँ करवाया जिसका नाम 'मंदन कुमलांग' रखा गया। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृतिका जावा, सुमात्रा, चम्पा, मलाया एवं कम्बोज आदिमें प्रसार करने की दिशामें भारतीय नौ बेड़ेने एक सराहनीय कार्य किया है।
बंगाल तो जल-पुत्र ही है । अति प्राचीनकालसे ही यहाँके लोग अपनी खाड़ी के रहस्य को समझने लगे थे । कालिदासके 'रघुवंश' में नायक रघु द्वारा बंग प्रदेशपर किये गये सफल आक्रमणका उल्लेख किया है। जिससे पता चलता है कि बंगवासियोंके पास नौसेना भी थी ।
अनन्य जहाज थे। खाड़ी तक अपना
बंगानुत्साय तरसा नेता नौसाधनोद्यतान् ।
निचखान जयस्तम्भान् गत्वा स्रोतोन्तरेषु सः ॥
लेखोंमें ६ठी शती ई० में भी बन्दरगाहोंकी उपस्थितिका आभास मिलता है । ५३१ ई० के ताम्रपत्रीय लेखमें, जो धर्मादित्यका है 'नवकेशनी' अथवा जहाज निर्माण करनेवाले कारखानों तथा बन्दरगाहका उल्लेख है ।
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( रघुवंश ४, ३६ )
पाल नरेशों द्वारा बंगला एवं बिहार में आधिपत्य स्थापित कर लेनेके कारण उस युगमें नौसेनाकी महत्ता बहुत बढ़ गई थी और यह उनकी नियमित सेनाका एक प्रमुख अंग बन गई थी। इस संदर्भम श्री बी० के० मजूमदार द्वारा उद्धृत तीन ताम्रपत्रों का उल्लेख असंगत न होगा । धर्मपालके ताम्रलेख में उल्लि खित है कि उसकी विजयवाहिनी नौसेना पाटलीपुत्रसे भागीरथीके तट तक पहुँची थी। दूसरा लेख वैदयदेवका है जो कमीलीसे प्राप्त हुआ है जिसमें कुमारपालके शासनकाल में उसके प्रिय नौसैनिक द्वारा दक्षिण बंगालपर ३६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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विजयका वर्णन है। तीसरा हरबा लेख ५५४ ई० गौड़ों द्वारा स्थापित उस नौ-परम्पराका वर्णन करता है जिसे बादमें पाल एवं सेन नरेशोंने अपनाया था। सेन कालमें सम्राट विजयसेन ( १०९६-११५८ ई०)ने गंगा नदी तक विस्तृत जल-क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था।
दक्षिण-भारतीय जलयानोंका विश्वसनीय सूत्र तामिल साहित्य है । इनमें चोलकालीन प्रकाश स्तम्भ, उनकी निर्माणकला एवं उनमें से निकलनेवाले मार्ग दर्शक प्रकाशका सुन्दर विवरण है। चोलकालीन जहाज केवल तटों तक सीमित न रहे वरन् उन्होंने बंगालकी खाडीको भी पार किया। १०वीं शतीके अन्त तक तो सारे दक्षिण भारतमें चोल नरेशोंकी धाक जम गई। राजेन्द्र महानने तो अपनी विजय शृंखलाका प्रारम्भ ही ९५० ई० में चेर नौबेड़ेको हराकर किया था। उसके पुत्र राजेन्द्र चोलदेव (९७४-१०१३ ई०)ने अनेकों प्रायद्वीपोंपर अधिकार किया था। श्री लंका भी तब उसके साम्राज्यमें सम्मिलित था । तिरुमलाई लेखके अनुसार राजेन्द्र चोलदेवने कदरम नरेशके जहाजोंको महासागरमें डुबोकर उसपर विजय प्राप्त की थी।
सिंध प्रदेशने मध्यकालीन युगमें अपनी नौसैनिक प्रभुता खो दी थी। यहाँके शासक ब्राह्मण छाचके पास बहुत ही कमजोर बेड़ा था। यही कारण था कि उसके राज्यमें हमेशा समुद्री डाकुओंका भय बना रहता था।
अरबोंने भारत आक्रमणके समय अपना नौबेड़ाका भी प्रयोग किया था। ७१२ ई०में मुहम्मदबिन कासिमने थानाके निकट देवलके बन्दरगाहमें प्रवेश किया और नेरुनको रौंद डाला। तत्पश्चात् उसने नावोंका पुल बनाकर सिंध नदीको पार किया एवं अन्ततोगत्वा सम्पूर्ण सिंध प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया। ग्यारहवीं शतीमें सुल्तान महमूदने अपना १७वां एवं अन्तिम हमला जाटोंके विरुद्ध किया था। यह एक प्रसिद्ध जल-युद्ध था। इस समय सुल्तान महमूद गजनबीने १४०० जंगी नावोंका निर्माण कराया था जिनमें प्रत्येकके आगे लोहेकी भारी कीलें लगी हई थीं। जाटोंने ४,००० नावोंसे सुल्तानका मुकाबला किया पर सुल्तानके नावोंके समक्ष जानेवाली हर जाट नाव लोहेकी कीलोंसे टकराकर नष्ट हो गई। जाटोंकी बड़ी भयंकर पराजय हुई।
तेरहवीं शतीकी महत्त्वपूर्ण -जलघटना गुलाम वंशके सुल्तान बल्बन (१२६६-८६ ई०)का बंगालके तत्कालीन गवर्नर तुगरिल खां पर किया गया आक्रमण है। एक बड़ी भारी फौजके साथ सुल्तानने सरयू नदी पार की। तुगरिलकी हत्या कर दी गई, उसके बेड़ेको नष्ट कर दिया गया एवं उसके सैनिकोंको लखनौतीके बाजारमें सामूहिक रूपसे फांसी दे दी गई। यह घटना 'लखनौती का हत्या कांड' के नामसे प्रसिद्ध है।
चौदहवीं शतीके भारतमें जहाजोंकी मरम्मत, निर्माण, रखरखाव आदिका कार्य जोरोंपर था। मार्कोपोलोने इस कलामें भारतीय कारीगरोंकी कुशलताको भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उसने यहाँ पर उस समय प्रचलित जहाजोंके प्रकारोंका भी उल्लेख किया है । सन् १३५३ एवं १३६०में सुल्तान फिरोजशाहने लखनौती पर आक्रमण किया था। उसका तीसरा जल-युद्ध १३७२में थट्टाके विरुद्ध हुआ। इसी शतीमें मंगोल हमलावर तैमूर लंगने १३८८में सिंध नदीको नावोंके पुल द्वारा ही पार किया था। उसे गंगा नदीपर अनेक बार देशी राजाओंसे युद्ध करना पड़ा था।
नौ-सेनाके इतिहासमें गुजरातका भी प्रमुख योग रहा। अति प्राचीन कालसे यह सामुद्रिक व्यापारके लिये अच्छे बन्दरगाह प्रदान करता आया है। सन् १५२१ ई०में गुजरात नरेशके एडमिरलने पुर्तगाली जहाजोंपर आक्रमण किया था और उसके एक जहाजको जल-समाधि दिला दी थी। पर इस दिशामें सबसे अधिक सामर्थ्यवान नरेश महमद बर्धारा (१४५९-१५११) था। उसका नौ बेड़ा पूर्ण रूपेण अस्त्र शस्त्रोंसे सज्जित था।
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सन् १५०७ में उसने तुर्की सेनाकी मददसे पुर्तगालियोंपर आक्रमण किया था । इसमें मुस्लिम सेनाने विजयश्री प्राप्त की और उन्होंने बम्बई के दक्षिणमें छम्बके निकट पुर्तगालियोंके कतिपय बहुमूल्य वस्तुओंसे लदे जहाजों को डुबो दिया था । पर यह विजय स्थायी न हो सकी। दो वर्षके पश्चात् ही सन् १५०९ में काठियावाड़ के ड्यू स्थान पर पुनः जल-युद्ध हुआ और पुर्तगालियोंने न केवल अपनी हारका बदला लिया वरन् मुस्लिम जल सेनाकी कमर ही तोड़ दी ।
मुगल काल में सभी दिशाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। जल सेनाके महत्त्वको भी पहचाना गया । मुगल संस्थापक बाबर स्वयं एक प्रसिद्ध तैराक था और भारतकी कई नदियां उसने तैरकर पार की थीं । सन् १५२८में बाबरको कन्नौज के निकट गंगा तट पर युद्ध करना पड़ा था जिसमें उसने अपने शत्रुके ४० जलयानोंको पकड़ लिया था । 'बाबर नामा' एक सुन्दर चित्रमें बाबर द्वारा एक घड़ियाल के शिकार- दृश्य में मुगलकालीन नावोंका कलात्मक अंकन है । बाबरकी कुछ प्रसिद्ध नावोंके नाम ' असायश', 'आरायश', 'श्रुश्रं गुंजायश' एवं 'फरमायश' थे ।
अकबर के समय तो मीर बेलेरीके आधीन पूरा जल सेना विभाग ही था । इस समय कई प्रकारके जहाज थे एवं जहाज निर्माणके प्रमुख केन्द्र थे बंगाल, काश्मीर, इलाहाबाद एवं लाहौर । प्रत्येक जहाजमें १२ कर्मचारी होते थे जिनके प्रधानको 'नारवोदा' कहा जाता था । ३ जून, १५७४को किये गये पटना पर, दाऊन खांके विरुद्ध, आक्रमणमें अकबरने जिन जहाजोंका प्रयोग किया था उनमें हाथी, घोड़े एवं अन्य कार्यालयों तथा कर्मचारियोंके रख-रखावकी पूरी व्यवस्था थी । सन् १५८० में राजा टोडरमलको गुजरात के विरुद्ध अभियानके लिये १,००० जहाजों-नावोंका लश्कर लेकर भेजा गया था । सन् १५९० में खाने सामानने थट्टा के जानी बेगको एक करारी हार दी थी। इसी वर्ग में सन् १६०४में मानसिंहके नेतृत्वमें श्रीपुरके नरेश केदारराय के विरुद्ध किया गया जल-युद्ध भी आता था जिसमें मानसिंहने १०० जंगी जहाजोंका प्रयोग किया था ।
अफगानों एवं मगोंके निरन्तर आक्रमणोंके भयसे जहाँगीरको अपना 'नौवारा' ( नौविभाग ) पुनः संगठित करना पड़ा। उसने १६२३में इस्लाम खांके नेतृत्वमें आसामके उन विद्रोहियोंके विरुद्ध एक जहाजी बेड़ा भेजा जिन्होंने बंगाल तक अधिकार कर लिया था । इसमें लगभग ४,००० आसामियोंका वध कर दिया गया एवं उनकी १५ नावें मुगलों द्वारा छीन ली गईं। जल सेनाकी सबसे अधिक आवश्यकता शाहजहाँने अनुभव की । पुर्तगालियोंके निरन्तर हमले मुगल सम्राटके लिये एक भारी सिर दर्द बन गया था । उनकी धृष्टता इतनी बढ़ गई कि वे मुगल सेनानियोंको बन्दी बनाकर उन्हें दासों की भाँति बेचने लगे । एक बार उन्होंने बेगम मुमताज महलकी दो अंगरक्षिकाओं को भी बन्दी बना लिया । शाहजहाँ इसे अधिक सहन नहीं कर सका । उसने कासिम खां को पुर्तगालियोंके समूल नाश करनेका भार सौंपा । २४ जून, १६३२को हुगली पर घेरा डाल दिया गया । यह तीन महीनेसे अधिक समय तक चलता रहा । १० हजारसे अधिक पुर्तगाली मारे गये एवं ४,००० से अधिक बन्दी बना लिये गये ।
जलयुद्धों की कहानी औरंगजेब के कालमें भी दुहराई गई । सन् १६६२ में मुस्लिम फौजोंने मीरजुमला के नेतृत्वमें कूच-विहारके नरेशके ३२३ जलयानोंका सफलतापूर्वक सामना किया था और सन् १६६४ में तो शाइस्ता खांने मुगल नौ सेनाको कई जंगी जहाजोंसे लैस कर दिया था । औरंगजेबकी सबसे प्रसिद्ध टक्कर तत्कालीन विश्वकी सबसे महती जलशक्ति अंग्रेजी नौ सेनासे हुई । शाहजहाँने यद्यपि पुर्तगालियोंके विरुद्ध कार्यवाही की पर वह अंग्रेजोंके प्रति कृपालु था और उसने उन्हें १६५०-५१ में हुगली और कासिम - बाजार में कारखाने बनानेकी आज्ञा दे दी थी। इसी समय ईस्टइंडिया कम्पनीने चार्ल्स द्वितीयसे बम्बईका द्वीप
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६० पौंड वार्षिक किराये पर ले लिया था । पर उनकी बढ़ती हुई उच्छृंखलताओंको देखकर सन् १६८५ में तत्कालीन बंगालके राज्यपाल शाइस्ताखांने अंग्रेजों पर स्थानीय रूपसे टैक्स लगाकर उनकी गतिविधियोंको नियंत्रित करना चाहा । कम्पनीने खुले रूपसे औरंगजेबकी सत्ताकी उपेक्षा की फलस्वरूप मुगल सम्राट् एवं अंग्रेजों के बीच अर्द्ध-सरकारी रूपसे संघर्ष छिड़ गया । कम्पनीकी मददके लिये इंग्लैंड के सम्राट जेम्स द्वितीय अनेकों जंगी जहाज भेज दिये। इन जहाजोंने चटगाँव पर अधिकार कर लिया । औरंगजेबने कूटनीति से काम लिया और उसने सूरत, मसौलीपट्टम एवं हुगलीकी अंग्रेजी फैक्ट्रियों पर कब्जा कर लिया । अंग्रेजों के होश ठिकाने आ गये । १६८८ में दोनोंमें संधि हो गई अधिकांश तट मुगलोंके आधीन हो गये । अंग्रेजों को बंगाल में एक बस्ती बनानेकी आज्ञा दे दी गई। यह छोटी सी बस्ती बादमें आधुनिक कलकत्ता नगर बन गई ।
मराठोंके समय भी जल-सेना उपेक्षित न थी । सन् १६४० में शाहजी भोंसलेने पुर्तगालियोंके विरुद्ध सफल जल-युद्ध किया था। शिवाजीके सामुद्रिक अभियानोंने अंग्रेजों एवं पुर्तगालियोंकी नींद हराम कर दी थी। उन्होंने इन विदेशियोंके अनेकों जहाजोंको लूटा एवं ध्वस्त कर दिया था । बड़े समुद्री बेड़ेका निर्माण कराया जो कोलाबामें रहा करता था । इसीसे उन्होंने सीनिया के समुद्री लुटेरों को रोका एवं धनसे भरे मुगलोंके जहाज भी लूटे थें ।
शिवाजीने एक अच्छे एवं जंजीराके निवासी अबी
आंग्रेकी कहानी वस्तुतः जल अभियानोंकी कहानी है । १६९४ से १७५० तक आंग्रेने मालाबारसे त्रावनकोर तक अपना एकछत्र जल साम्राज्य स्थापित कर लिया था । सन् १६९८ में कान्होजी आंग्रेने 'दरियासारंग' की उपाधि धारण की एवं उसे मरहठा जल सेनापति बनाया गया । सन् १७०७ एवं १७१२में दो बार बम्बईपर आक्रमण किया एवं १७१० में खंडगिरिपर अधिकार कर लिया । १७९० में अंग्रेजी जल-सेनाने कान्होजी के जहाजोंपर भारी बमबारी की एवं उसके जहाज़ी बेड़ेको काफी नुकसान पहुँचाया पर उसने शीघ्र ही क्षतिपूर्ति कर ली । सन् १७२० में अंग्रेजों एवं पुर्तगालियोंने एक साथ मिलकर आंग्रेपर आक्रमण किया एवं विजय दुर्ग नदीपर स्थित १६ मरहठा जहाजोंको आग लगा दी गई । कान्होजीने फिर भी साहस नहीं छोड़ा । १७२२में पुनः सम्मिलित प्रयास किया गया और कोलाबा के प्रसिद्ध मरहठा अड्डेपर आक्रमण किया । विरोधमें १७२६में कान्होजीने बहुमूल्य वस्तुओंसे लदे हुए प्रसिद्ध अंग्रेजी जहाज 'डर्बी' को अपने कब्जे में ले लिया और साथ ही अनेकों पुर्तगाली एवं डच जहाज भी । उस समय केवल ईस्ट इंडिया कम्पनीको अपने तटीय व्यापार की, आंग्रेसे, रक्षा करनेमें ५० हजार पौण्ड प्रति वर्ष व्यय करने पड़ते थे । कान्हौजी की मृत्युके पश्चात् एक बार फिर १७५४में उसके उत्तराधिकारी तुलाजी आंग्रेके हाथों डच जहाजी बेड़ेको करारी हार खानी पड़ी।
पुर्तगाली हमेशा ही भारतकी समृद्धिको ललचाई आँखोंसे देखते रहे हैं । राजकुमार हेनरीने, जो एक प्रसिद्ध नाविक था, अपना सारा जीवन पुर्तगालसे भारतको होनेवाले सीधे जलमार्गके खोजने में ही व्यतीत कर दिया । उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके साहसी नाविकोंने यह प्रयास जारी रखा और २० मई सन् १४९८को वास्कोडिगामा सफल हो ही गया और कालीकट पहुँच गया । सन् १५०० में पुर्तगालियोंने पेड्रो अलवारिस कैबालके नेतृत्वमें एक बड़ा जहाजी बेड़ा भेजा जिसने भारतके एक अंशमें पुर्तगालियोंका आधिपत्य किया एवं उनके लिये बस्ती बनाई | अलमेड़ा एवं अलबुकर्कके समय भारतमें पुर्तगाली जहाजी बेड़ा काफी सक्रिय रहा पर १६१२ ई० में अंग्रेजोंने पुर्तगालियोंको एक भयंकर जल-पराजय दी एवं सूरतपर अधिकार कर लिया । १६१५ में अंग्रेजोंने पुनः पुर्तगालियोंको हराया एवं आरमिजपर अधिकार किया । १६२२ ई० में अंग्रेजों की
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पुर्तगालियोंपर निर्णायक विजय हुई। इसके पश्चात् औरंगजेबकी मृत्युके आधी शताब्दी बाद ही जब बंगालपर भी अंग्रेजोंका अधिकार हो गया तब जहाजरानीके अधिष्ठाता अंग्रेजोंकी सामरिक शक्तिके आगे समस्त भारतने घुटने टेक दिये और धीरे-धीरे सारा भारत लाल हो गया।
अंग्रेजोंके आधीन जहाजरानीमें विशेष प्रगति हई। भारतमें अंग्रेजी जलसेनाकी कहानीका प्रारम्भ सन १६१३ ई०से होता है। जबकि कम्पनीकी व्यापारिक रक्षा एवं पुर्तगाली तथा समुद्री डाक ओंके भयसे एक 'स्क्वाइन'की स्थापना की गई थी । सन् १६१५में इसे स्थायी कर दिया गया और कुछ ही समय बाद 'बम्बई मेरीन' के नामसे बम्बईमें जहाज निर्माण कारखाना भी स्थापित कर दिया गया और उसका निदेशक श्री डब्ल्य पेटको बनाया गया। इसी समय सूरत के डाक्यार्डमें फेमजी तथा जमशेदजीके नेतृत्वमें १०० टन वजनके दो जहाज निर्मित हुए। १९वीं शतीके आरम्भ तक इन पारसी परिवारोंने अंग्रेजी सरकारके लिये केवल सूरतमें ही ९ व्यापारिक, ७ फ्रिगेट एवं ६ अन्य छोटे जहाज बनाये थे। १७८०में मैसूर नरेश हैदर अलीके आक्रमणोंसे बंगालके तटकी सुरक्षा खतरेमें पड़ गई अतः सिलहट, चिटगांव एवं ढाकामें जहाज निर्माणके कारखाने खोले गये। पर इस क्षेत्र में सबसे अधिक ख्याति अजित की कलकत्ताने । १७८१से १८००के बीच कलकत्तामें ३५ जहाजोंका निर्माण हुआ और इसके पश्चात प्रति वर्ष लगभग २० जहाज निर्मित होते रहे।
ईस्ट इंडिया कम्पनीके इस जहाजी बेड़ेने प्रथम एवं द्वितीय वर्मा युद्ध तथा प्रथम चीनी युद्ध में सक्रिय भाग लिया और लाल सागर, पर्शियाकी खाड़ी एवं पूर्वी अफ्रीकाके किनारों तक टोह लगाई। १८४०के पश्चात् कम्पनीकी जहाजरानीका पतन प्रारम्भ हो गया और अप्रैल १८६३में यह पूर्णरूपेण बन्द कर दिया गया जब भारतीय शासन ब्रिटिश सम्राट् द्वारा संचालित होने लगा । इस युगके प्रमुख जहाज प्रकारोंमें 'ग्रेव' ( तीन पतवारवाले नोकीले जहाज ) 'पिनासी' या 'यच' ( एक मस्तूलवाला पर कई कमरोंमें विभाजित ) 'पत्तोआ' ( एक मस्तूलवाला पर कई तख्तियोंपर निर्मित ) आदि थे। इनके अतिरिक्त 'बौंगिल्स, 'डोनी', ब्रिक' आदि छोटे जहाज भी थे।
प्रारम्भमें नौ बेड़ा समुद्रके ऊपरी तल तक लड़ने में ही सीमित था। प्रथम विश्वयुद्धने अस्त्र-शस्त्रकी दिशामें व्यापक प्रेरणा दी। फलस्वरूप प्रत्येक क्षेत्रमें शोध किये गये एवं भयानक अस्त्रोंकी रचना की गई। इसी समय पनडुब्बियोंकी खोज हुई जिसने नौ बेड़ेके इतिहास में क्रान्ति ला दी। आक्रमण एवं रक्षात्मक दोनों दृष्टिकोणोंसे इसका महत्त्व बहुत था। पनडुब्बीकी कल्पना अठारहवीं शतीके आरम्भमें डा० एडमन्ड हेलीने की थी जो अपने साथ ५ आदमियोंको ७० फीट पानीके नीचे ले गये थे और जहाँ वे १० मिनट तक रहे थे। इस कार्य में प्रयक्त पहली मशीन 'कार्नोलियस डेबेल'ने ईजाद को जिसने जेम्स प्रथमको १५ फीट पानीके नीचे विहार करवाया था। पानीके अन्दर आक्रमणको संभावनाको सबसे पहले 'डेविड बुशनल'ने खोजा जिसने 'टर्टिल' नामक मशीन तैयार की पर आधुनिक पनडुब्बियोंके स्वरूपकी रचनाका समस्त श्रेय 'राबर्ट' फुल्टन' को है।
साधारणतया ये पनडुब्बियां डीजल या बैटरीसे चलती है पर अब अणुचालित पनडुब्बियोंका भी व्यापक रूपसे प्रयोग होने लगा है। यह पानीके ऊपर एवं काफी नीचे तैर सकती है, एक स्थानपर स्थिर रह सकती हैं एवं पुनः सतहपर वापस आ सकती हैं। इनमें ऐसे आधुनिकतम यन्त्र लगे हैं कि रातमें भी ये बेरोकटोक चल सकती हैं, पानीके अन्दरसे ही सतहपर चलनेवाले जहाजोंको नष्ट कर सकती हैं, दूरसे ही शत्रुके बन्दरगाहोंको ध्वस्त कर सकती हैं एवं ऊपर उड़नेवाले गगनविहारी वायुयानोंको हमेशाके लिये जलसमाधि दिला सकती हैं। यद्यपि अब इन्हें नष्ट करनेके लिये 'टारपीडो' एवं 'ऐन्टी सबमेरिन'का भी प्रयोग
है पर विश्वके लगभग तीस लाख वर्गमीलमें विस्तृत जल क्षेत्रकी अतल गहराईसे एक पनडुब्बीको
४० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-प्रन्थ
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ढूंढ़ निकालना उतना ही दुष्कर है कितना अनाजके ढेरसे खोई हुई एक सुई। अब सतहके ऊपर चलनेवाले भारी भरकम एवं पूर्णरूपेण युद्धास्त्रोंसे सज्जित जलयानोंके लिए निरन्तर खतरा बना हआ है। कोई भी पनडुब्बी, किसी भी समय एवं किसी भी दिशासे इनपर आक्रमण कर सकती है और जलमग्न होनेपर विवश कर सकती है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व नोबेड़ेका मुख्य साधन 'युद्धपोत' था। इसकी रचना इतनी सुदृढ़ थी कि यह एक किलेकी भांति था। इसमें प्रहारके लिये शक्तिशाली तो एवं 'तारपीडो' लगे थे। पनडुब्बी एवं विमानके आक्रमणोंसे सुरक्षाके लिये इसके साथ 'फ्रिगेट' 'डेस्ट्रायर' (ध्वंसक) एवं क्रूसर होते थे जो छोटे होनेके कारण अधिक गतिशील थे। ब्रिटेनके दो विशालकाय तोप "प्रिंस : आफ वेल्स' एवं 'रिपल्स' जिन्हें विगत युद्धमें सिंगापुर भेजा गया था इन्हीं उपकरणोंके अभावमें जापानी विमानोंका शिकार बन गये। इसमें प्रयुक्त तोपें एवं हथियार निष्क्रिय रहे ।
युद्धके लिये प्रयोग किये जानेवाले नौपोतोंके निर्माणके बीच सन्तुलन रखना आवश्यक है। उदाहरणार्थ तीन-चार हजार टन वजनके एक जहाजकी यदि सुरक्षामें ही ध्यान दिया जाय तो वह क्षतिग्रस्त होनेसे तो बच जायेगा पर शत्रुके जहाजोंको क्षति पहुंचाने में असमर्थ रहेगा इसके विपरीत यदि रक्षार्थ उपकरण नहीं है तो संहार शक्ति प्रबल होने पर भी संभव है शत्रुका पहला गोला ही उसे नष्ट कर दे अतः सन्तुलन नितान्त आवश्यक है।
जल युद्ध प्रायः समान वर्गवाले नोपोतोंके मध्य होता है । युद्धपोत युद्धपोतसे, क्रूसर-क्रूसरसे एवं अन्य वर्गोके नौपोत अपने समकक्ष नौपोतोंसे टकराते हैं। जहाँ ऐसे सादृश्यका अभाव होता है वहाँ 'क्रूसर' जैसे दो और तीन जहाज मिलकर एक युद्धपोतका मुकाबला करते हैं। इसका कारण स्पष्ट है एक युद्धपोत एक टनसे अधिक वजनका विस्फोटक गोला प्रायः ७० मीलकी दूरी तक फेंक सकता है और क्रूसर उससे कम दूरी तक फेंक सकता है और 'ड्रेस्ट्रायर' एवं 'फ्रिगेट' तो केवल ५० पौंडका गोला ७ मील तक ही फेंक सकते हैं। यदि कोई 'डेस्टायर' किसी 'यद्धपोत'से भिड जाये तो 'डेस्टायर' की मारसे पर्व ही वह युद्धपोत द्वारा विनष्ट कर दिया जायेगा। यही कारण है कि नौसैनिक युद्धमें जहाज अपने वर्गके पोतोंसे ही भिड़ते हैं।
वर्तमान युगमें नौसैनिक युद्धका स्वरूप पूर्णरूपेण बदल गया है। अब सुदृढ़ता एवं आत्मरक्षाकी क्षमता घटाये बगैर तेज पनडुब्बियों द्वारा आक्रमणको सहन करनेकी क्षमताको बढ़ाना अनिवार्य हो गया है। नौ बेड़ेकी छोटी 'यूनिटोंने अपने ऊपर 'पनडुब्बी ध्वंसक' तथा 'विभान ध्वंसक'का काम भी ले लिया है । यह काम 'फ्रिगेट' करते हैं जो शत्रुकी पनडुब्बियोंसे अपनी रक्षा करते हैं। समुद्री बन्दरगाहों एवं शत्रुकी तटवर्ती सेनाके बीच संकट उत्पन्न करनेके लिये 'क्रूसर' नामक जलयानोंका प्रयोग होता है । पर नौबेडेकी कहानीका अन्तिम चरण 'विमान वाहक' है।
अब स्वतंत्र भारतीय सरकार भी नौसेनाके महत्त्वको समझने लगी है । २६ जनवरी, सन् १९५० में गणतन्त्रकी घोषणाके साथ ही हमारी 'नौसेना'का भारतीयकरण कर दिया गया एवं उसमेंसे 'रायल' शब्द हटाकर इसे 'भारतीय नौसेनाके नामसे सम्बोधित किया गया। २७ मई, १९५१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसादने सशस्त्र सेनाके कमाण्डरके रूपमें नौसेनाको राष्ट्रपतिकी ध्वजा प्रदान की। सबसे पहले सन १९४८ में ब्रिटेनसे ७१३० टन वजनका एक यद्धपोत 'एच० एम० एस० एचलिस' मँगाया गया जिसका नाम बदल कर 'आइ० एन० एस० देहली' रखा गया। इस जहाजने पिछले युद्ध में 'लिट' नदी पर काफी
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सराही काम किया था। इसके पश्चात् भारतीय सरकारने तीन विध्वंसक जहाज प्राप्त किये इनके नाम 'संदरहम', 'रिडाउट' और 'ऐडरबाट' को बदलकर क्रमशः 'राजपूत', रणजीत 'और राणा' रखे गये। इसके साथ ही हन्ट श्रेणीके अन्य तीन विध्वंसक जहाज रायल नेवीसे खरीदे गये जिनके नाम' गोदावरी', 'गोमती' और 'गंगा' नामक नदियोंके नाम पर रखे गये ।
भारतीय नौबेड़ेकी आधुनिकीकरणकी दिशा में विविध प्रकारके नवीन जहाज भी मँगवाये गये । इसमें कैयन, फ्रिगेट और सुरंग सफा करनेवाले जहाज थे । १९५७ के अन्तिम दिनोंमें 'कालोनी श्रेणीका युद्धपोत ' आई० एन० एस० मैसूर शामिल हुआ । ८७०० टन वजनके इस जहाजका पूर्ववर्ती नाम एच० एम० एस० नाइजीरिया था । हमारे पास भारी सामानों, ट्रैक्टरों, बुल्डोजरों तथा अन्य बृहदाकार मशीनों को एक स्थान से दूसरी जगह ले जानेकी समस्याका समाधान 'आई० एन० एस० मगर' के द्वारा हुआ। इस जहाजने द्वितीय विश्वयुद्ध में भी सफलतापूर्वक प्रदर्शन किया था । यह अपने तरहका भारत में अकेला 'लीण्डग शिप टैंक' नामक जहाज है ।
सबसे अन्तमें भारतीय बेड़े में सम्मिलित होनेवाली विख्यात जहाज आई० एन० एस० विक्रान्त है । यह २०,००० टन वजनका 'विमानवाहक' जहाज है और इसका पूर्ववर्ती नाम 'एच० एम० एस० हरकुलिस' था । मार्च, १९६१ में इसे भारतीय नौसेनाने इंग्लंडमें बुक कराया था जो ३ नवम्बर, १९६१ को बम्बई पहुँचा । यह 'मैजिस्टिक' श्रेणीका 'विमानवाहक' है और इसे पूर्णरूपेण आधुनिकतम शस्त्रास्त्रोंसे लेस किया गया है । इस विमानमें सी० हाक 'जेट लड़ाकू विमान', ब्रेक्वेट एलिजे' नामक टोह लगानेवाला विमान और सुरंग भेदी विमान है । यह भारतीय नौसेनाका 'फ्लेगशिप' है ।
अब जहाज निर्माणकी दिशामें भी भारत आत्मनिर्भर होनेके लिये सचेष्ट है | पूनासे कुछ दूर स्थित खड़गवासलामें स्थित राष्ट्रीय प्रतिरक्षा एकेडमीका १९४९ में पुनर्गठन किया गया जहाँ सेनाके तीनों अंगों भावी अफसरों को प्रशिक्षण दिया जाता है । इसके साथ ही आई० एन० एस० शिवाजी लोनावाला ( पूनाके निकट ) में मेकेनिक प्रशिक्षण संस्थान तथा आई० एन० एस बलसुरा ( इलेक्ट्रिक स्कूल, जामनगर ) आदि में भी देशकी आवश्यकता पूरी करने में संलग्न है । इस समय कोचीनका केन्द्र सबसे बड़ा है जहाँ सभी तरहकी ट्रेनिंग की जाती है । यह केन्द्र आधुनिकतम साज सामानोंसे सुसज्जित है । अब यहाँ कामनवेल्थ तथा अन्य विदेशी राष्ट्रोंके छात्र भी ट्रेनिंग लेने आते हैं ।
अब बन्दरगाहों एवं डाकयार्डों पर भी सुधार किया जा रहा है । बम्बई डाकयार्डको काफी आधुनिकतम बनाया गया है। अब यहाँ 'क्रूसर एवं फ्रिगेट' के जानेकी भी व्यवस्था है। मई, १९५३ में कोचीनमें 'शोर बेस्ड फ्लीट रिक्वायरमेन्ट यूनिट' स्थापित की गई थी जिसका भारतीय नाम 'आई० एन० एस० गरुड़ ' रखा गया है। यह यूनिट बन्दरगाहोंकी समस्याओं का अध्ययन करता है। प्रारंभ में उसके पास 'सी लैन्ड' एवं 'फ्रीफ्लाई' नामक एयरक्राफ्ट ही थे पर अब इसमें वैम्पायर जेट भी शामिल कर लिये गये हैं ताकि नौसेना संबंधित हवाई ट्रेनिंग भी दी जा सके । कोचीन में कतिपय अन्य एयर ट्रेनिंग स्कूल भी खोले गये हैं साथ ही जल - नभकी बढ़ती हुई आवश्यकताओंको पूरा करनेके लिये दक्षिण भारतके कोयम्बटूर नामक स्थान में 'आई० एन० एस० हंस' नामक एक एयर स्टेशन स्थापित किया गया था जिसे अब गोवामें स्थानान्तरित कर दिया गया है।
इस योजनाको, नौसेनिक जहाज भारतमें ही बने, प्रारंभ तो तभी कर दिया गया था जब यहाँ एक 'सर्वे - शिप' ( टोह लेनेवाले जहाज ), एक मूरिंग जहाज एवं कतिपय 'आक्सलरी नवल क्राफ्ट' बने थे । ये सभी विशाखापट्टम कलकत्ता में निर्मित हुए थे । अब डिस्ट्रॉयर एवं फ्रिगेट जैसे सामरिक महत्व के जहाजोंको ४२ : अभिनन्दन ग्रन्थ नाहटा अगरचन्द
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________________ भी पूर्णरूपेण भारतमें ही बनानेकी योजना विचाराधीन है। यह कार्य ब्रिटिश जहाज निर्माण करनेवाली कम्पनियोंके साथ भारतीय 'मज़गांव शिपयार्ड लिमिटेड' को सौंपा गया है। कलकत्ताकी ‘गार्डन रीच वर्कशाप' ने भी नेवीके लिये कई 'आक्सीलरी क्राफ्ट' बनाये हैं। इस दिशामें सबसे सराहनीय कार्य किया है 'दि हिन्दुस्तान शिपयार्ड', विशाखापट्टम ने जिसने भारतीय नवोका सर्वप्रथम 'हाइड्रोग्रेफिक' जहाज आई० एन० एस० दर्शकका निर्माण किया है / 21 फरवरी, 1965 को इस जहाजका विधिवत् उद्घाटन तत्कालीन नौसेनाध्यक्ष पी० एस० सोमनने किया। भारतीय सागर एवं खाड़ियोंका सर्वेक्षण नौसेनाका उत्तरदायित्व है जिस कारण 'दर्शक' की प्राप्ति एक प्रसिद्ध उपलब्धि है क्योंकि इससे सर्वेक्षणके लिये आधुनिकतम उपकरणोंका उपयोग करने में नौसेनाको काफी सुविधा हो जायेगी। इसमें टोह लगानेके लिये एक हेलीकाप्टरकी भी व्यवस्था है जिसके लिये जहाजमें विशेष उड़ान डेक एवं हैंगर बनाये गये हैं। 27,000 टनवाला यह जहाज भारतीय नौसेनाका प्रथम वातानुकूलित जहाज है। इसमें 22 अफसरों एवं 270 जवानोंके रहनेकी व्यवस्था है / प्रत्येक जवानका एक अलग बंक ( सामान रखने एवं सोनेका कक्ष ) है। इस जहाज के कर्मचारियोंका काम सागरी रास्तोंके नक्शे बनाना है ताकि नौसैनिक एवं व्यापारिक जहाज अपने-अपने मार्गों पर बिना किसी हिचकिचाहट एवं भयके आ जा सकें। लम्बा समुद्र तट होने के कारण भारत जैसे देशके लिये निरन्तर चौकसी की आवश्यकता है क्योंकि समुद्री तूफानों, बालूके टीलों, मँगेकी चट्टानों एवं ज्वालामुखी पहाड़ोंके निरन्तर परिवर्तनोंसे मार्ग अवरुद्ध होता रहता है। इस शाखाका प्रधान कार्यालय देहरादून में है पर ग्रीष्मकालमें नक्शे निर्माणका कार्य दक्षिण भारतकी नीलगिरि पहाड़ियोंमें स्थित 'कोनार' नामक प्रदेशका आफिस करता है / हाइड्रोग्रेफिक शाखाके तीन अन्य जहाज 'यमुना', 'सतलज' एवं 'इनवेस्टीगेटर' हैं जिन्हें विशेष तौरसे भारतीय तटों एवं इसके निकटवर्ती प्रदेशोंके निरीक्षणार्थ नियुक्त किया गया है एवं ये अपना कार्य बड़ी मुस्तैदीसे कर रहे हैं। इस तरह भारतीय नौसेनाकी कहानी एक गौरवमयी गाथा है। ये प्रेरणाके वे पावन प्रसून है जिनके अन्तरालमें विश्व-शक्ति, व्यापारिक उत्थान, अन्तर्राष्ट्रीय सौहार्द्र एवं आर्थिक प्रगति सन्निहित है साथ ही है एक उद्घोष कि भारत अपनी आत्मरक्षामें पूर्ण सजग है और आक्रान्ताओंको अनन्त जलसमाधि दिलानेकी पूर्ण क्षमता रखता है। इतिहास और पुरातत्त्व : 43