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डिसेम्बर-२००९
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श्री विवेकचन्द्रगणि कृतम् भक्तामरस्तोत्र- पादपूर्ति आदिनाथ - स्तोत्रम्
सं. म. विनयसागर
यह कृति तपगच्छनायक श्री विजयदानसूरि के शिष्य उपाध्याय सकलचन्द्रगणि के शिष्य सूरचन्द्र के शिष्य श्री भानुचन्द्रगणि के शिष्य श्री विवेकचन्द्रगणि कृत है । इन्होंने विजयदानसूरि, विजयहीरसूरि और विजयसेनसूरि-इन तीन पीढ़ियों को देखा है और सेवा की है । जगद्गुरु आचार्य हीरविजयसूरिजी का अकबर पर अप्रतिम प्रभाव था और वह प्रभाव निरन्तर चलता रहे, इस दृष्टि से उन्होंने शान्तिचन्द्रगणि, भानुचन्द्रगणि इत्यादि को अकबर के पास रखा । स्वयं गुजरात की ओर विहार कर गये । भानुचन्द्रगणि का भी सम्राट पर बड़ा प्रभाव रहा । आचार्यश्री ने लाहोर में वासक्षेप भेजकर उनको उपाध्याय पद दिया था और अन्त में ये महोपाध्याय पदधारियों की गणना में आते थे । भानुचन्द्र के मुख से सम्राट अकबर प्रत्येक रविवार को सूर्यसहस्रनाम का श्रवण करता था । आइने - अकबरी में भी भानुचन्द्र का उल्लेख प्राप्त होता है । अकबर के मरण समय तक भानुचन्द्र उनके दरबार में रहे अर्थात् संवत् १६३९ से १६६० का समय अकबर के सम्पर्क का रहा ।
भानुचन्द्रगणि व्युत्पन्न विद्वान् थे । भानुचन्द्रगणि का विशेष परिचय देखना हो तो उनके शिष्य सिद्धिचन्द्र कृत 'भानुचन्द्र चरित्र' अवलोकनीय है। महोपाध्याय भानुचन्द्र के अनेकों शिष्य थे जिनमें सिद्धिचन्द्र और विवेकचन्द्र प्रसिद्ध थे । विवेकचन्द्र भी प्रतिभाशाली विद्वान् थे किन्तु इस कृति के अतिरिक्त उनकी अन्य कोई कृति प्राप्त नहीं है । अतएव इनके जीवन कलाप का वर्णन करना सम्भव नहीं है ।
स्वतन्त्र काव्यरचना से भी अधिक कठिन कार्य है पादपूर्ति रूप में रचना करना । पादपूर्ति में पूर्व कवि वर्णित श्लोकांश को लेकर किसी अन्य विषय पर रचना करते हुए उस पूर्व कवि के भावों को सुरक्षित रखना
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वस्तुतः कठिन कार्य है ।
भक्तामर स्तोत्र श्री मानतुङ्गसूरिजी रचित है । भक्तामर और कल्याण मन्दिर ये ऐसे विश्व प्रसिद्ध स्तोत्र हैं जो कि आज भी श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में मान्य है । श्वेताम्बर परम्परा ४४ पद्यों का स्तोत्र मानती है जबकि दिगम्बर परम्परा ४८ पद्यों का ।
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पादपूर्ति दो प्रकार से होती है । एक तो सम्पूर्ण पद्यों के प्रत्येक चरण का आधार मानते हुए रचना करना और दूसरा पद्य के अन्तिम चरण को ग्रहण कर और भाव को सुरक्षित रखते हुए रचना करना । इस स्तोत्र के अनुकरण पर अनेक दिग्गज कवियों ने प्रचुर परिमाण में पादपूर्ति स्तोत्र और छाया स्तवन भी लिखें हैं जो निम्न हैं :
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नेमि भक्तामर स्तोत्र
ऋषभ भक्तामर स्तोत्र
शान्ति भक्तामर स्तोत्र
पार्श्व भक्तामर स्तोत्र
वीर भक्तामर स्तोत्र
सरस्वती भक्तामर स्तोत्र
भक्तामर प्राणप्रिय काव्य
भक्तामर पाद पूर्ति भक्तामर पादपूर्ति स्तोत्र
अनुसन्धान- ५०
(इसके प्रत्येक चरण की पादपूर्ति की
१०. भक्तामर स्तोत्र छाया स्तवन
११.
भक्तामर स्तोत्र छाया स्तवन
भावप्रभसूर
समयसुन्दरोपाध्याय
लक्ष्मीविमल
विनयलाभ
धर्मवर्धनोपाध्याय
धर्मसिंहसूर
रत्नसिंह
पं. हीरालाल
महा० म० पं० गिरधर शर्मा गई है)
मल्लिषेण
रत्नमुनि
इस कृति के कर्त्ता विवेकचन्द्र ने श्री मानतुङ्गसूरिजी के भावों को सुरक्षित रखते हुए और उसको प्रगति देते हुए यह पादपूर्ति की है । इस पादपूर्ति स्तोत्र को देखते हुए कहा जा सकता है कि ये संस्कृत साहित्य के धुरन्धर विद्वान् थे और समस्यापूर्ति में भी भाग लेते थे । यह कृति रमणीय और पठनीय होने से यहाँ प्रकट की जा रही है । इसकी एकमात्र प्रति ही प्राप्त है, वह किसी भण्डार में है, इसका ध्यान नहीं । अतएव इस सम्बन्ध
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डिसेम्बर-२००९ में क्षमा चाहता हूँ।
भक्तामरस्तोत्र-पादपूर्ति आदिनाथ-स्तोत्रम् ।
नमेन्द्रचन्द्र ! कृतभद्र ! जिनेन्द्र ! चन्द्र ! ज्ञानात्मदर्शपरिदृष्टविशिष्टविश्व । त्वन्मूर्त्तिरर्तिहरणी तरणी मनोज्ञे वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥१॥ गृह्णाति यज्जगति गारुडिको हि रत्नं, तन्मन्त्र-तन्त्रमहिमैव बुधो न शक्तः । स्तोतुं हि यं यदबुधस्तदसीय शक्तिः, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥ त्वां संस्मरंतहमरंकरभीप्सितस्य, दूरं चिरं परिहरामि हरादिदेवान् । हित्वा मणिं करगतामुपलं हि विज्ञ-मन्य क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥ ध्यानानुकूलपवनं गुणराशिपात्रं, त्वामद्भुतं भुवि विना जिन ! यानपात्रम् । मिथ्यात्वमत्स्यभवनं भवरूपमेनं, को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥ क्षुत्क्षाम-कुक्षि-तृषिता-तप-शीत-वात-दुःखीकृताद्भुततनोर्मरुदेविमाता। अद्याप्युवाच भरतादिभवाञ्जनस्य, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥ मुक्तिप्रदा भवति देव ! तवैव भक्तिर्नान्यस्य देवनिकरस्य कदाचनापि । युक्तं यतः सुरभिरेव न रौद्रमारास्तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः ॥६॥ गाङ्गेयगात्रनृतमस्तृणसत्रदात्रं त्वन्नाममात्र वसतो ? गुणरत्नपात्रम् । मिथ्यात्व याति विलयं मम हृद्विलीनं, सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ।।७।। नेत्रामृते भवति भाग्यबलेन दृष्टे, हर्षप्रकर्षवशतस्तव भक्तिभाजाम् । वक्षःस्थलस्थित उतेक्षणतश्च्युतोसौ मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ॥८॥ श्रीनाभिनन्दन ! तवाननलोकनेन, नित्यं भवन्ति नयनानि विकस्वराणि । भव्यात्मनामिव दिवाकरदर्शनेन, पद्माकरेषु जलजानि विकाशभाञ्जि ।।९।। त्वत्पादपद्मशरणानुगतान्नरांस्त्वं, संसारसिन्धुपतिपारगतान् करोषि । निःपाप ! पारगत ! यच्च स एव धन्यो, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥ युक्तं त्वदुक्तवचनानि निशम्य सम्यक्, नो रोचते किमपि देव ! कुदेववाक्यम् । पीयूषपानमसमानमहो विधाय, क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥ शम्भुः स्वकीयललनाललिताङ्गभागो, विष्णुर्गदासहितपाणिरितीव देव ! । प्रद्वेषरागरहितोऽसि जिन ! त्वमेव, यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥ तेजस्विनं जिन ! सदेह भवन्तमेव, मन्येस्तमेति सवितापि दिवावसानम् ।
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अनुसन्धान-५०
दीपोऽपि वर्त्तिविरहे विधुमण्डलं च यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ॥१३॥ ये व्याप्नुवन्ति जगदीश्वर ! विश्व ! विश्वमत्राञ्जनानपि सृजन्तितरां विलोक्यम् । त्वां भास्करं जिन ! विना तमसः समूहान् कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम्
॥१४॥
सिंहासनं विमलहेममये विरेजे, मध्यस्थित - त्रिजदीशश्वरमूर्तिरम्यम् । नोद्योतनार्थमुपरिस्थितसूर्यबिम्बं किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥१५॥ दोषाकरो न सकरो न कलङ्कयुक्तो, नास्तं गतो न सतमानसविग्रहो न ( ? ) । स्वामिन्विधुर्जगति नाभिनरेन्द्रवंश - दीपोपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ॥१६॥ नित्योदयस्त्रिजगतीस्थतमोपहारी, भव्यात्मनां वदनकैरवबोधकारी । मिथ्यात्वमेघपटलैर्न[स] मावृतो यत्सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र ! लोके ॥ १७॥ लावण्य-पुण्य-सुवरेण्य - सुधानिधानं, प्रह्लादकं जनविलोचनकैरवाणाम् । वक्त्रं विभो तव विभाति विभातिरेकं विद्योतयज्जगदपूर्वशशाङ्कबिम्बम् ॥१८॥ ध्यातस्त्वमेव यदि देव ! मनोभिलाष - पूर्णीकरः किमपरैर्विविधैरुपायैः । निःपद्यते यदि च भौमजलेन धान्यं, कार्य्यं कियज्जलधरैर्जलभारनमैः ॥१९॥ माहात्म्यमस्ति यदनन्तगुणाभिरामं सर्व्वज्ञ ! ते हरिहरादिषु तल्लवो न । चिन्तामणौ हि भवतीह यथा प्रभावो, नैव तु काचकशले किरणाकुलेपि ॥२०॥ तद्देव ! देहि मम दर्शनमात्मनस्त्वमत्यद्भुतं नृनयनामृतमत्र दृष्टे । स्वामिन्निहापि परमेश्वर ! मेऽन्यदेव ! कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेपि ॥२१॥ ज्ञानस्य शिष्टतरदृष्टसमस्त लोका - लोकस्य शीघ्र हतसंतमसस्य शश्वत् । दाता त्वमेव भुवि देव ! हि तं (?) प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥२२॥ सिंहासनस्थभवदुक्तचतुर्विधात्म-धर्मादृते त्रिजगदीश ! युगादिदेव ! । सद्दानशीलतपनिर्मलभावनाख्यान् नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्थाः ॥२३॥ स्वामिन्ननन्तगुणयुक्त कषायमुक्त साक्षात्कृतत्रिजगदेव ! भवत्सदृक्षाः । नान्ये विभङ्गमतयो रुचिरं च पञ्च ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ २४॥ चिन्तामणिर्मणिषु धेनुषु कामधेनु- र्गङ्गा नदीषु नलिनेषु च पुण्डरीकम् । कल्पद्रुमस्तरुषु देव यथा तथात्र व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥ भास्वगुणाय करणाय मुदो रणाय, विद्याचणाय कमलप्रतिमेक्षणाय । पुंसां छलेन पतितं पुरतो हि रत्र दृष्येत किं नियतमंतर तत्त्वदृष्ट्या । मोहावृतेन मयका त्वयि संस्थितेग्रे, स्वप्नान्तरेपि न कदाचिदपीक्षितोषि ॥२७॥(?)
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डिसेम्बर-२००९
मन्मानसांतरगतं भवदीय नाम पापं प्रणाशयति पारगत ! प्रभूतम् । श्रीमद्युगादिजिनराज हिमं समन्ताद्, बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्त्ति ॥२८॥ जन्माभिषेकसमये गिरिराजशृङ्गे, प्रस्थापितं तव वपुर्विधिना सुरेन्द्रैः । प्रोद्योतते प्रबलकान्तियुतं च बिम्बं तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः ॥२९॥ केशच्छटां स्फुटतरां दधदंशदेशे, श्रीतीर्थराज ! विबुधावलिसंश्रितस्त्वम् । मूर्धस्थकृष्णलतिकासहितं च शृङ्ग-मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥ स श्रीयुगादिजिन ! मेभिमतं प्रदेहि धर्मोपदेशसमये दिवि गच्छदूर्ध्वम् । ज्योतिर्दतां(?) जयति यस्य शिवस्य मार्गं, प्रस्थापयत्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥ सोपानपंक्तिमरजांसि भवद्वचांसि स्वर्गाधिरोहणकृते यदि नो कथं तत् । तत्राश्रिता त्रिजगदीश्वर ! यान्ति जीवा, पद्मानि तत्र विबुधा परिकल्पयन्ति ॥३२॥ भाति त्वया भुवि यथा न तथा विना त्वां श्रीसंघनायकगुणैः सहितोपि संघ: । शोभा हि यादृगमृतद्युतिना विना तं, तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥३३॥ त्वत्स्कन्धसंस्थचिकुरावलिकृष्णवल्लिं वक्त्रस्फुरद्विषनिजाक्षिविनिर्यदग्निः । सर्पोपि न प्रभवति प्रबलप्रकोपे, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३४॥ संप्राप्तसंयमदरीवसनं प्रलब्धं, पुण्यौषधं परमशर्म्मफलोपपेतम् । मर्त्यं महोदयपते भववैरिवृन्दं, नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३५॥ धर्मे धनानि विविधानि न नादहन्तं, मानुष्यमानसवने नियतं वसन्तम् । दीप्यत्तरं स्मरसमीरसखं वृषाङ्कः त्वन्नामकीर्त्तनजलं समयत्यशेषम् ॥३६॥ यत्रोद्गता शितिलताहिगिरेर्गुहायां किं तन्न तिष्ठति फणी गुणगेह! तस्मात् । मिथ्यात्वमेतदगमन्नितरामुवष्ट । त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥ ३७॥ पीडां करोति न कदापि सतां जनानां, सूर्योदयादमृतसूः सरसीरुहाणाम् । दुःखीकृतं त्रिभुवनो विपदां च यस्य, त्वकीर्त्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ॥३८॥ त्वद्वाणिमञ्जुलमरन्दरसं पिबन्तस्तापोप्सिता परमनिर्वृतिमादिदेव ! । पुण्याढ्य पञ्च जनचञ्चुरचञ्चरीक-स्त्वत्पादपङ्कजवनाश्रयिणो लभन्ते ॥३९॥ कन्दर्पदेवरिपुसैन्यमपि प्रजीत्य त्वल्लोहकारकृतमार्गसुवम्मिताङ्गाः । देव ! प्रभो ! जय जयारवभङ्गभीरास्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥४०॥ त्वत्पादपद्मनखदीधितिकुंकुमेन चित्रीकृतः प्रणमतां स्वललाटपट्टः । येषां त एव सुतरां शिवसौख्यभाजो, मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४१॥ भग्नेव कर्मनिगडं जिन लोहरकारवाड्मुद्गरेण भवगुप्तिगृहाप्तवासाः ।
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अनुसन्धान-५०
कर्मावलीनिगडिता अपि भक्तसत्त्वा, सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ॥४२॥ रोषो दिवेति सहगामपहाय माम-सौ सम्पदाभिरमते सह मत्सपत्न्या । द्राक्चक्रवालमगमद्विदेव(?) तस्य यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४३॥ तस्याङ्गणे सुरतरुस्सुरधेनुरंद्री(?), चिन्तामणिः करतलं निजमन्दिरञ्च । यः श्रीयुगादिजिनदेवमलं स्तवीति, तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४४॥ श्रीमन्मुनीन्द्रवरवाचक-भानुचन्द्र ! पादाब्जसेवक-विवेकनिशाकरेण । भक्तामरस्तवनतुर्यपदैः समस्याकाव्यैः स्तुतः प्रथमतीर्थपतिर्गृहीत्वा ॥४५॥
॥ इति भक्तामर-समस्या-स्तवन श्रीमदादीश्वरो वर्णितः ॥
C/0. प्राकृत भारती 13-A मेन मालवीय नगर,
जयपुर ३०२०१७
१. अशुद्धप्रायः यह सम्पादन है । मूल प्रति हमारे सामने नहीं है । अतः जितना हो
सका उतना सुधार दिया । बाकी सम्पादनकर्ताने भेजा वैसा ही पाठ प्रकाशित हो रहा है। पद्य २६ का उत्तरार्ध नहीं है।
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________________ डिसेम्बर-२००९ 43 भवनभूषण-भूषणभवन काव्य - सं. उपा. भुवनचन्द्र अमारा संग्रहमांनी एक अपूर्ण प्रतिमांथी मळेलुं आ चमत्कृतिसभर काव्य अपूर्ण छ– त्रुटित छे. 11 पत्रनी प्रतना प्रारम्भना पांच पत्र नथी. रचना अष्टक प्रकारनी छे पण आठ-आठ श्लोकोनुं बन्धन कविए स्वीकार्यु नथी. चोथा अष्टकनो अन्तिम श्लोक मळे छे जे नवमो छे. अष्टक 5, 6, ७मां नवनव श्लोक छे. आठमा अष्टकमां आठ श्लोक पूरा थया पछी फरी एकथी नव श्लोक आप्या छे, ते पछी आठमुं अष्टक पूरुं थाय छे. त्यार बाद बे श्लोक छे जेमां कविनी गर्वोक्ति छे. प्रत शुद्ध करेली छे. अक्षरो मरोडदार अने विशाल छे. लाल अने काळी - एम बे शाहीनो उपयोग थयो छे. ज्यां ज्यां लहियानी भूल थई छे तेवा स्थाने संमार्जन थयेलुं छे. पदच्छेद, संशोधन तथा टिप्पण सूचववा माटे सम्पूर्ण प्रतमां लिपिचिह्नो छूटथी वपरायां छे. प्राचीन लेखनपद्धतिमां लिपि चिह्नोनो प्रयोग कई रीते थतो हतो ते समजवा आ प्रति एक नमूनानुं काम आपे एवी छे. कोईक विद्वान मुनि अथवा पण्डिते काव्यना कठिन शब्दो, कूटस्थानो वगेरेनुं स्पष्टीकरण करतां टिप्पणो लख्यां छे. शाही उखड़ी जवाथी क्यांक क्यांक शब्दो पूरा वंचाता नथी अथवा अस्पष्ट वंचाय छे. प्रति सोळमा शतकनी जणाय छे. कृतिना रचयिता वाचक साधुहर्ष छे. अन्तिम श्लोकमां कर्ता कहे छे के विद्वान लक्ष्मणना अनुरोधथी, सुमतिलाभ माटे साधुहर्षे आ रचना करी, कर्ताना गुरु, गच्छ के समयनो निर्देश प्रतमां के कृतिमां नथी. कर्ता तथा कृतिना रचनाकाल विशे विशेष तपास थई शकी नथी. कृतिना अन्ते 'भुवनवर्णने भवनभूषणे भूषणभवने' एवो उल्लेख छ तेथी 'भवनवर्णन' एवं नाम मानी शकाय परंतु प्रत्येक अष्टकना अन्ते 'भवनभूषणे भूषणभवने' ए ज लखेलुं छे, तेथी ए नाम वधु योग्य लागे छे. काव्यनो