Book Title: Ashtachap ki Kavita Yani Bhakti Kavya evam Sangit ki Triveni
Author(s): Premshankar Tripathi
Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ० प्रेमशंकर त्रिपाठी लीला में अंतरंग सखा के रूप में साथ रहने के कारण इन्हें 'अष्टसखा' भी कहा जाता है। सं० १६०२ में गोस्वामी विट्ठलनाथ ने 'अष्टछाप' की स्थापना की थी। कुछ विद्वानों की दृष्टि में 'अष्टछाप' की स्थापना सं० १६२२ (१५६५ ई०) में हुई थी। अष्टछाप के कवियों का रचनाकाल सं० १५५५ से सं० १६४२ तक स्वीकार किया जाता है। अष्टछाप के संस्थापक गोसाई विट्ठलनाथ महाप्रभु वल्लभाचार्य के द्वितीय पुत्र थे, उनका जन्म पौष कृष्ण ९ सं० १५७२ शुक्रवार को काशी के निकट हुआ था। वल्लभाचार्य जी के देहावसान के उपरान्त उनके ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथजी आचार्य पद पर आसीन हुए परन्तु ८ वर्षों बाद उनके देहावसान के उपरान्त श्री विट्ठलनाथजी आचार्य पद पर सं० १५९५ प्रतिष्ठित हुए। उनके नेतृत्व में पुष्टिमार्गीय वैष्णव सम्प्रदाय को पर्याप्त यश की प्राप्ति हुई। सं० १६४२ वि० में विट्ठलनाथजी का गोलोकवास हुआ। गो० विट्ठलनाथजी ने अपने पिता के सिद्धांतों के प्रचारप्रसार हेतु उनके ग्रन्थों का अध्ययनकर भाव पूर्ण टीकाएँ लिखीं तथा कुछ स्वतंत्र ग्रन्थों की भी रचना की। उनके द्वारा रचित लगभग बारह ग्रंथ हैं। विट्ठलनाथजी के भक्तों की संख्या बहुत अष्टछाप की कविता यानी भक्ति, बड़ी थी। इन भक्तों में २५२ वैष्णव भक्तों को प्रसिद्धि प्राप्त काव्य एवं संगीत की त्रिवेणी तुझा हुई। सभी भक्त पुष्टिमार्ग के अनुयायी, कुशल गायक और प्रभावी रचनाकार थे। गोसाई विट्ठलनाथ ने इन भक्तों में सर्वश्रेष्ठ पुष्टिमार्ग के प्रतिष्ठाता महाप्रभु वल्लभाचार्य की भक्ति चार तथा अपने पिता के शिष्यों में चार रचनाकारों को मिलाकर पद्धति को भक्तिकाल के जिन प्रमुख आठ कवियों ने अपनी ही 'अष्टछाप' की प्रतिष्ठा की थी। इन आठों कवियों की अनन्य काव्य प्रतिभा से परिपुष्ट किया था, उन्हें 'अष्टछाप' या भक्ति, संगीत साधना तथा काव्य निष्ठा केवल कृष्ण भक्ति 'अष्टसखा' के नाम से जाना जाता है। ये आठ कवि हैं : सूरदास, शाखा की ही नहीं हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य धरोहर है। परमानंददास, कुंभनदस, कृष्णदास, नन्ददास, चतुर्भुजदास गोविन्द सूरदास : (१४७८ ई०-१५८२ ई०) भक्तिकाल की स्वामी और छीत स्वामी। इनमें से प्रथम चार श्रीमद् वल्लभाचार्य कृष्णभक्ति शाखा को अपने पदों से सर्वाधिक समृद्धि प्रदान के तथा परवर्ती चार कवि गोस्वामी विट्ठलनाथजी के शिष्य थे। करने वाले सूरदास का जन्म दिल्ली के निकट सीही ग्राम में एक कृष्णभक्ति शाखा के ये आठों कवि परमभक्त होने के निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सूर के जन्म-मृत्यु साथ-साथ काव्य-मर्मज्ञ और सुमधुर गायक थे। ये सभी ब्रज क्षेत्र संबंधी वर्ष को लेकर विद्वानों में मतभेद है। अधिकांश अध्येता के गोवर्द्धन पर्वत पर स्थित श्रीनाथजी के मन्दिर में कीर्तन सेवा उनका जन्म सं० १५३५ (१४७८ ई०) तथा मृत्यु सं० करते हुए पद रचना किया करते थे। वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित १६४० (१५८३ ई०) मानते है। वे जन्मांध थे या बाद में कवियों की रचनाओं में भक्ति की जो धारा प्रवाहित हुई है, वह नेत्रहीन हुए, इस बात पर भी मतैक्य नहीं है- लेकिन इस बात अपने अन्त:करण में वात्सल्य, सख्य, माधुर्य, दास्य आदि भावों पर सभी एकमत हैं कि अष्टछाप के कवियों में भक्ति और को समेटे हुए हैं। उत्तर भारत में सगुण भक्ति को प्रतिष्ठित करने काव्य दोनों दृष्टियों से सूर का साहित्य सर्वोत्कृष्ट है। में इन कवियों का अवदान अविस्मरणीय है। लौकिक एवं वल्लभ सम्प्रदाय से सम्बद्ध होने के पूर्व सूरदास के पदों अलौकिक दोनों दृष्टियों से इनकी रचनाएँ विशिष्ट हैं। में दैन्य एवं विनयभाव की प्रधानता रही है- 'हौं सब पतितन को वल्लभाचार्यजी के शिष्य तथा कला-साहित्य, एवं संगीत नायक' । 'हौं हरि सब पतितन को टीकौ' । वल्लभाचार्यजी की मर्मज्ञ विट्ठलनाथजी ने इन ८ कवियों को अपनी प्रशंसा से सत्प्रेरणा से वे दास्य, सख्य एवं माधुर्य भाव के पद लिखने लगे। विभूषित कर आशीर्वाद की छाप लगायी थी, यही कारण है कि वल्लभाचार्यजी ने श्री मद्भागवत की स्वरचित सुबोधिनी टीका ये रचनाकार 'अष्टछाप' के नाम से सुख्यात हुए। श्रीनाथजी की की व्याख्या कर उन्हें कृष्ण-लीला से सुपरिचत कराया। ० अष्टदशी / 1930 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरदासजी ने इसे स्वीकार भी किया है- 'श्री वल्लभ गुरुत्व जन्मे कुम्भनदास भगवद भक्त थे तथा गरीब होने के बावजूद . सुनायो लीलाभेद बतायो,' वल्लभाचार्य ने सूर से कहा- 'सूर अत्यंत स्वाभिमानी थे। १४९२ ई० में महाप्रभु वल्लभ ने लैकै धिधियात काहे को हौ, कछु भगवद् लीला वरनन करू'। सर्वप्रथम इन्हें दीक्षा दी थी। अष्टछाप के प्रथम चार कवियों में सूर विरचित कृतियों की संख्या पच्चीस मानी जाती है वल्लभाचार्यजी के ये प्रथम शिष्य थे। इनकी गायन कला से जिनमें कुछ की प्रामाणिकता को लेकर सन्देह है। सूर-सागर, प्रसन्न होकर ही आचार्यजी ने इन्हें मन्दिर में कीर्तन की सेवा सूर-सारावली, साहित्य-लहरी आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। प्रदान की थी। इनके पद आम जनता में प्रेमपूर्वक गाए जाते थे। उन्होंने लगभग सवा लाख पदों की रचना की थी, जिनमें केवल कहा जाता है कि इनके द्वारा रचित पद को किसी गायक के कंठ ५००० पद उपलब्ध हैं जो 'सूर सागर' में संकलित हैं, इन पदों। से सुनकर सम्राट अकबर इतने मुग्ध हुए कि उन्होंने इसके की भाषा भंगिमा तथा भावाकलता अनठी है। भाव-पक्ष तथा रचयिता को फतेहपुर सीकरी आने का निमंत्रण देकर उन्हीं से कला-पक्ष दोनों दृष्टियों से उनकी रचनाएँ बेजोड हैं। सर के पदों पद सुनने की इच्छा प्रगट की। सम्राट के बुलावे पर कुम्भनदास में भक्ति, वात्सल्य तथा वियोग श्रृंगार का सजीव मार्मिक एवं सीकरी तो गए परन्तु अनिच्छापूर्वक। उनका यह भाव तब प्रगट स्वाभाविक वर्णन हर किसी को मोह लेता है। इन्होंने वात्सल्य हुआ जब सम्राट ने उनसे गायन का अनुरोध किया। कुंभनदास के पदों की रचना के कारण सर्वाधिक कीर्ति अर्जित की है। सर ने अधोलिखित पद सुनायाके पद जन-जन के कंठ में विराजते हैं। 'जसोदा हरि पालने भक्तन को कहा सीकरी सों काम। झलावे' और 'शोभित कर नवनीत लिए' जैसे पदों में शिशु आवत जात पन्हैया टूटी, बिसरी गयो हरि नाम।। कृष्ण का भावपूर्ण वर्णन हो या 'मैया मैं नहिं माखन खायो' और जाकें मुख देखे दुख लागे, ताको करन परी परनाम। 'मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ' का प्रभावी बाल वर्णन सूरदास कुम्भनदास लाल गिरधर बिन यह सब झूठो धाम।। का स्पर्श पाकर अद्वितीय बन गए हैं। भ्रमर गीत संबधी पद सूर अपने आराध्य के प्रति अगाध भक्ति के साथ-साथ यह पद की नवीन उद्भावना, भावुकता तथा दार्शनिक गांभीर्य के द्योतक रचनाकार की निस्पृहता, निर्भीकता का भी परिचायक है। यह हैं। उनकी काव्यमर्मज्ञता तथा भक्ति निष्ठा की प्रशंसा में कई पद साहित्यकार की तेजस्विता तथा स्वाभिमान के लिए आज भी उक्तियाँ प्रचलित हैं। 'सूर सूर तुलसी शशि', 'सूर शशि तुलसी गौरव के साथ दुहराया जाता है। कुंभनदास जी का निधन संवत रवि', 'सूर कबित सुनि कौन कवि, जो नहिं सिर चालन करै' १६३९ वि० (१५८२ ई.) के आसपास हुआ था। अष्टछाप के अतिरिक्त निम्नलिखित दोहा जनमानस और विद्वन्मंडली में के कवियों में सबसे लंबी आयु (११३ वर्ष) कुंभनदासजी ने उनकी लोकप्रियता प्रमाणित करता है। ही प्राप्त की थी। किधौं सूर को सर लाग्यो, किधौं सूर की पीर। कुंभनदासजी द्वारा रचित पद : किंधौ सूर को पद सुन्यो, तन-मन धुनत शरीर। जो पै चोप मिलन की होय। सूरदास के देहावसान को आसन्न जानकर गोस्वामी तो क्यों रहे ताहि बिनु देखे लाख करौ जिन कोय।। विट्ठलनाथ ने भावाकुल होकर कहा था- 'पुष्टि मारग को जहाज जो यह बिरह परस्पर व्यापै तौ कछु जीवन बनें। जात है, सो जाकों कछू लेनो होय सो लेउ' लो लाज कुल की मरजादा एकौ चित न गर्ने।। सूर विरचित एक पद : 'कुंभनदास' प्रभु जा तन लागी, और न कछू सुहाय। मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै। गिरिधर लाल तोहि बिनु देखे, छिन-छिन कलप बिहाय। जैसे उडि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवे।। परमानन्ददास (१४९३ ई०- १५८३ ई०) अष्टपद के कमल नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावे। कवियों में विशिष्ट स्थान के अधिकारी परमानन्ददास कन्नौज परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै।। निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। एक निर्धन परिवार में सं० जिहिं मधुकर अम्बुज रस चाख्यौ क्यों करील फल खावै। १५५०वि० (१४९३ ई०) को जन्मे परमानन्ददास का मन 'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै।। बचपन से ही भगवद्भक्ति मे रमता था। जनश्रुति है कि जन्म के कुम्भनदास (१४६८ ई० - १५८२ ई०) गोवर्द्धन । दिन किसी सेठ ने इनके पिता को प्रचुर धन प्रदान किया था पर्वत के निकट 'जमनावती' ग्राम निवासी कुंभनदास मूलतः । जिससे परिवार को परम आनन्द की प्राप्ति हुई थी, इसी कारण किसान थे। परासौली चंद्रसरोवर के निकट इनके खेत थे। वहीं इनका नाम परमानन्ददास रखा गया। से होकर ये श्रीनाथजी के मन्दिर में कीर्तन सेवा हेतु जाया करते परमानन्ददास कला एवं साहित्य के प्रेमी थी। वल्लभदासचार्य थे। गोखा क्षत्रिय कुल में सं० १५२५ (१४६८ ई०) को जी के सम्पर्क में आकर वे आजीवन श्रीनाथजी के मन्दिर में ० अष्टदशी / 1940 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवारत रहे। उन्होंने न विवाह किया और न ही वे धन उपार्जन हेतु सक्रिय हुए। इनकी भक्ति विषयक रचनाओं की प्रभविष्णुता से प्रभावित होकर कई विद्वान इन्हें अष्टछाप के कवियों में सूरदास एवं नन्ददास के उपरान्त परिगणित करते हैं। इनके पदों का संग्रह 'परमानन्द सागर' के नाम से प्रकाशित है जिसमें लगभग दो हजार पद संग्रहीत है । अन्य प्रमुख कृतियां हैं- 'दानलीला', 'ध्रुव चरित्र' 'परमानन्ददासजी के पद'। बाल लीला, माधुरी लीला, वियोग श्रृंगार, मान, नखशिख वर्णन आदि का वर्णन करने में इन्हें विशेष सफलता प्राप्त हुई है भाषा, भाव तथा अलंकार की दृष्टि से इनकी रचनाएँ विमुग्धकारी हैं। रचनाओं की गेयता पदों के सौन्दर्य को बढ़ा देती हैं। सं० १६४० वि० (१५८३ ई०) के लगभग इनका गोलोकवास हुआ था। कहा जाता है कि जन्माष्टमी के दिन आनन्दातिरेक में नृत्य करते हुए ही इनकी मृत्यु हुई थी। परमानन्ददासजी का एक पद : प्रीति तो नन्द नन्दन सों कीजै । सम्पति विपति परे प्रतिपालै कृपा करे तो जीजै ।। परम उदार चतुर चिन्तामणि सेवा सुमिरन मार्ने। चरन कमल की छाया राखे अंतरगति की जानै ।। बेद पुरान भागवत भाषै, कियो भक्त को भायो । 'परमानन्द' इन्द्र को वैभव विप्र सुदामा पायो । । कृष्णदास (१४९५ ई० १५८१ ई० ) महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्यों में कृष्णदास की प्रसिद्धि कवि गायक की अपेक्षा व्यवस्थापक एवं दक्ष प्रबंधक की है। १३ वर्ष की उम्र मे अपने जन्म स्थान गुजरात से ब्रज में आए कृष्णदास जी का जीवन वल्लभाचार्यजी से दीक्षा लेने के उपरान्त कृष्णभक्ति की ओर उन्मुख हो गया था। गुजरात के राजनगर ( अहमदाबाद ) के चिलोतरा ग्राम में एक शूद्र परिवार में सं० १५२२ वि० (१४९५ ई०) में कृष्णदास का जन्म हुआ था। इनके पिता अनैतिक ढंग से धनोपार्जन करते थे। जिससे क्षुब्ध होकर कृष्णदास ने घर छोड़ दिया और वल्लभाचार्य की शरण में आ गए। - अपनी व्यावहारिक बुद्धि तथा प्रबंध कौशल से इन्होंने वल्लभाचार्य को प्रभावित किया फलतः आचार्यजी ने इन्हें श्रीनाथ मन्दिर का अधिकारी नियुक्त कर दिया। संभवत: इसी कारण इनका नाम कृष्णदास अधिकारी प्रचलित हो गया । श्रीनाथजी के मन्दिर को नवीन रूप प्रदान करने तथा उसे वैभव सम्पन्न करने में इनका विशिष्ट अवदान था । मन्दिर से बंगाली पुजारियों को अपदस्थ करने में भी इनकी युक्ति सफल रही थी । कहा जाता है कि इनका गुप्त संबंध गंगाबाई नामक स्त्री से जिसके कारण विलाथजी से इनका मनमुटाव हुआ था। कृष्णदास जी ने लगभग २५० पदों की रचना की है। गुजराती होने के बावजूद ब्रजभाषा में रचित पदों में राधाकृष्ण प्रेम वर्णन, श्रृंगार तथा रूप सौन्दर्य का सुन्दर अंकन है। इनकी रचनाओं में काव्य कौशल अपेक्षाकृत कम है। सं० १६३८ के आसपास (१५८१ ई०) इनकी मृत्यु कुएं में गिरने से हुई थी। कृष्णदास विरचित पद : मेरौ तौ गिरिधर ही गुनगान । यह मूरत खेलत नैनन में, यही हृदय में ध्यान ।। चरण रेनु चाहत मन मेरी, यही दीजिए दान । 'कृष्णदास' को जीवन गिरिधर, मंगल रूप निधान ।। नन्ददास (१५३३ ई०- १५८३ ई०) : अष्टछाप आठ कवियों में वय की दृष्टि से नन्ददास सबसे छोटे हैं, परन्तु काव्यसाधना, भाषिक छटा और बहुमुखी प्रतिमा के कारण इनका स्थान सूरदास को छोड़कर सर्वोच्च है। नन्ददास का जन्म सं० १५९० वि० (१५३३ई०) में सोरों के निकट रामपुर ग्राम में हुआ था कुछ लोग इन्हें गोस्वामी तुलसीदास का भाई स्वीकार करते हैं। कहा जाता है कि गो० विठ्ठलनाथ से शिष्य के रूप में दीक्षित होने के पूर्व नन्ददास घोर संसारी, लौकिक व्यक्ति थे। गुरु कृपा से वे भगवद्भक्त बने । अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न नंददासजी ने लगभग १५ ग्रंथों की रचना की है। इन ग्रन्थों में प्रमुख हैं- अनेकार्थ मंजरी, मान मंजरी, रस मंजरी, रूप मंजरी, विरह मंजरी, प्रेम बारह खड़ी, श्याम सगाई, सुदामा चरित, भँवरगीत, रास पंचाध्यायी, सिद्धांत पंचाध्यायी, गोवर्द्धन लीला, नंददास पदावली। 'अनेकार्थ मंजरी' पर्याय कोश है 'विरह मंजरी' में विरह का अत्यंत भावपूर्ण वर्णन किया गया है 'रस मंजरी' में नायिका भेद विवेचन के साथ नारी चेष्टाओं का चित्रण है। यह रचना शृंगार की कोटि में आती है। 'भँवरगीत' में नंददास की गोपिकाओं की तार्किकता तथा विवेक दृष्टि पाठकों को विमुग्ध करती है। इस कृति के कारण नंददास को विशेष ख्यातिप्राप्त है । 'रास पंचाध्यायी' में कृष्ण की रासलीला से संबद्ध रचनाएँ है। नंददास का रचना वैविध्य यह प्रमाणित करता है कि उन्होंने गंभीर शास्त्रानुशीलन किया था । भावपक्ष तथा कलापक्ष का उत्कर्ष उनकी काव्य-सामर्थ्य को प्रमाणित करता है। संभवतः इसीलिए नंददास के बारे में यह उक्ति प्रचलित है। 'और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया' परिमार्जित भाषा, संगीत मर्मज्ञता तथा काव्य सौष्ठव उन्हें उच्च कोटि का रचनाकार सिद्ध करती है। सं० १६४० (१५८३ ई०) को मानसी गंगा के तट पर इनका देहावसान हुआ था। © अष्टदशी / 1950 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंददास द्वारा रचित पद : (भँवर गीत) लिए खोटा सिक्का, थोथा नारियल उन्हें भेट किया परन्तु कहन स्याम संदेस एक हौं तुम पै आयौ। गोस्वामीजी ने अपनी दिव्य शक्ति से उन्हें चमत्कृत कर दिया। कहन समय एकांत कहूँ औसर नहिं पायौ।। छीतू चौबे को बड़ी ग्लानि हुई और वे विट्ठलनाथजी के शिष्य सोचत ही मन में रह्यौ, कब पाऊँ इक ठाऊँ। बन गए। गोस्वामीजी ने इन्हें दीक्षा दी और अष्टछाप में शामिल कहि संदेस नंदलाल कौ, बहुरि मधुपूरि जाऊँ।। कर लिया। सुनो ब्रज नागरी।। इनके मन में ब्रज-भूमि के प्रति बड़ा आदर भाव था। इनकी सुनत स्याम कौ नाम, ग्राम घर की सुधि भूली। रचनाएँ उत्कृष्ट काव्य का प्रमाण भले ही न हो, परन्तु वर्णन की भरि आनंद-रस हृदय प्रेम-बेली द्रुम फूली। सहजता एवं सरसता प्रभावित करती है। अपने आराध्य कृष्ण पुलिक रोम सब अंग भए, भरि आए जल नैन। के प्रति इनकी अनन्य भक्ति हृदयस्पर्शी है। इनके द्वारा कीर्तन कंठ घुटे, गद्गद गिरा, बोले जात न बैन।। गायन हेतु रचे पदों की संख्या लगभग 200 है जो पदावली में विवस्था प्रेम की।। संकलित हैं। गोवर्द्धन के निकट पूंछरी ग्राम में इनका देहांत सं० गोविन्द स्वामी (1505 ई०-१५८५ ई०) : भरतपुर 1642 वि० को हुआ था। (राजस्थान) के आँतरी गाँव में सं० 1585 वि० को एक छीतस्वामी रचित आसक्ति का पद : सनाढ्य ब्राह्मण परिवार में जन्मे गोविन्द स्वामी आरम्भ से ही अरी हौं स्याम रूपी लुभानी। कीर्तन-भजन के अनुरागी थे। उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्री को मारग जाति मिले नंदनन्दन, तन की दसा भुलानी।। त्यागकर ब्रज मंडल में बसना स्वीकार किया। वे सुकवि तो थे मोर मुकुट सीस पर बाँकौ, बाँकी चितवनि सोहै। ही प्रसिद्ध संगीतशास्त्री भी थे। कहा जाता है कि संगीत सम्राट अंग अंग भूषन बने सजनी, जो देखै सो मोहै।। तानसेन ने भी इनसे संगीत शिक्षा प्राप्त की थी। किसी भक्त द्वारा मो तन मुरिकै जब मुसिकानै, तब हौ छाकि रही। गोविन्द स्वामी रचित पद सुनकर विट्ठलनाथजी बहुत प्रभावित हुए 'छीत स्वमी' गिरिधर की चितवनि, जाति न कछू कही।। और इन्हें दीक्षा देकर श्रीनाथजी की कीर्तन सेवा में लगा दिया। चतुर्भुजदास (1530 ई०-१५८५ ई०) : अष्टछाप इनके पदों की संख्या लगभग 600 है। 252 पद के प्रतिष्ठित कवि कुंभनदास के सबसे छोटे पुत्र चतुर्भुजदास का 'गोविन्दस्वामी के पद' कृति में संकलित हैं। इन्होंने बाल लीला जन्म सं० 1587 (1530 ई०) को जमुनावती ग्राम में हुआ तथा राधाकृष्ण शृंगार के पद रचे हैं। सहज एवं मार्मिक था। भजन-कीर्तन और भक्ति का संस्कार इन्हें पिता से विरासत अभिव्यक्ति तथा भाव गाम्भीर्य इनके पदों की खासियत है। में मिला था अतः इनका मन परिवार एवं गृहस्थी से विरत रहता इनका देहावसान गोवर्द्धन में सं० 1642 वि० (1585 ई०) था। कुंभनदासजी ने इन्हें संगीत की शिक्षा प्रदान कर पुष्टि को हुआ था। काव्य की अपेक्षा गेयता की दृष्टि से इनके पद सम्प्रदाय में दीक्षित कराया था। संगीत एवं कविता में इनकी अधिक प्रभावशाली हैं। विशेष रुचि थी। ये आजीवन श्रीनाथजी के मन्दिर में सेवारत थे। गोविन्द स्वामी रचित बाल लीला का एक पद : इनका देहावसान सं० 1642 वि० (1585 ई०) को हुआ झूलो पालने बलि जाऊँ। था। इनकी उपलब्ध कृतियाँ है- 'चतुर्भुज कीर्तन संग्रह', कीर्तनावली और दानलीला। रचनाओं में 'भक्ति और श्रृंगार की श्याम सुन्दर कमल लोचन, देखत अति सुख पाऊँ।। अति उदार बिलोकि, आनन पीवत नाहिं अघाऊँ। छटा यत्र-तत्र परिलक्षित होती है। चुटकी दै दै नचाऊँ, हरि को मुख चूमि-चूमि उर लाऊँ।। चतुर्भुजदास रचित पद : रुचिर बाल-विनोद तिहारे निकट बैठि कै गाऊँ। जसोदा कहा कहो हौं बात। विविध भाँति खिलौना लै-लै 'गोविन्द' प्रभु को खिलाऊँ।। तुम्हारे सुत के करतब मापै, कहत कहे नहिं जात।। छीत स्वामी (1515 ई०-१५८५ ई०) छीतस्वामी मथुरा के भाजन फोरि, ढोरि सब गोरस, लै माखन दधि खात। चतुर्वेदी ब्राह्मण थे और आरंभ में बड़ी उदंड प्रकृति के थे। इनके जो बरजौं तो आँखी दिखावै, रंचहु नाहिं सकात।। घर में पंडागिरी और जजमानी होती थी। कहा जाता है कि ये और अटपटी कहाँ लौ बरनौं, छुवत पानि सों गात. बीरबल के पुरोहित थे। इनका प्रचलित नाम छीतू चौबे था और 'चतुर्भुज' प्रभु गिरिधर के गुन हौ, कहति कहति सकुचात।। ये मथुरा में लड़ाई-झगड़े तथा चिढ़ाने आदि के लिए कुख्यात थे। अंतत: कह सकते हैं कि अष्टछाप के इन साधकों की अपनी यौवनावस्था में इन्होंने विट्ठलनाथजी की परीक्षा लेने के रचनाएँ कृष्णलीला पर केन्द्रित होने के कारण विषय की दृष्टि 0 अष्टदशी / 1960 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेचन्द मालू से भले ही सीमित प्रतीत होती हों, परन्तु संगीत की विविध राग- रागिनियों तथा कृष्ण भक्ति के विविध आयामों के स्पर्श के कारण इनकी महिमा असंदिग्ध है, कहने की आवश्यकता नहीं कि अष्टछाप के इन भक्त कवियों की संगीत सरिता में प्रवाहित भाव-धारा ने अपनी स्वतंत्र उद्भावना से जो राह बनाई, वह अप्रतिम है। यह सरिता वस्तुत: भक्ति भागीरथी और काव्यकालिन्दी का ऐसा संगम है जिसमें स्नान कर काव्य रसिकों और भावुक भक्तों को युगों तक आनंद की प्राप्ति होती रहेगी। विशद अर्थ में अष्टछाप की कविता भक्ति काव्य एवं संगीत की पावन त्रिवेणी है। बागुईआटी, कोलकाता आदमी नहीं था किसी बेचारे का एक्सीडेंट हो गया। कार तो भाग गई पर लोगों को भी नहीं आई दया। खून से लथपथ पड़ा था सड़क पर। कोई पास के अस्तपाल नहीं ले जा रहा था। क्योंकि पुलिस का था डर। सवालों का जवाब देना होगा। कैसे हुआ, किसने देखा, कहना होगा। बाद में थाना भी जाना होगा, कोर्ट में देनी होगी गवाही। इस तरह घसीटा जाना पड़ेगा, क्यों लें ऐसी वाहवाही। समय बीत गया, बेचारा ढेर हो गया। किसी नवयुवती का सिंदूर, नन्हें बच्चों की आशा, चिर निद्रा में सो गया। घर में कोहराम मच गया, मातम छा गया। हंसी-खुशी भरे जीवन को काल-चक्र खा गया। आने जाने वाले सान्त्वना दे रहे थे। पूछ-पूछ कर घटना का जायजा ले रहे थे। एक औरत अफसोस जता रही थी, कह रही थी व्यस्त सड़क थी भीड़ तो बहुत थी। फिर पड़ा क्यों रहा, अस्पताल भी पास में वहीं था। मैंने कहा भीड़ तो बहुत थी अस्पताल भी पास में वहीं था, पर भीड़ में कोई आदमी नहीं था। ५-बी, श्री निकेत, 11 अशोका रोड, अलीपुर, कलकत्ता - 700 0.27 0 अष्टदशी / 1970