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सेवारत रहे। उन्होंने न विवाह किया और न ही वे धन उपार्जन हेतु सक्रिय हुए। इनकी भक्ति विषयक रचनाओं की प्रभविष्णुता से प्रभावित होकर कई विद्वान इन्हें अष्टछाप के कवियों में सूरदास एवं नन्ददास के उपरान्त परिगणित करते हैं। इनके पदों का संग्रह 'परमानन्द सागर' के नाम से प्रकाशित है जिसमें लगभग दो हजार पद संग्रहीत है । अन्य प्रमुख कृतियां हैं- 'दानलीला', 'ध्रुव चरित्र' 'परमानन्ददासजी के पद'।
बाल लीला, माधुरी लीला, वियोग श्रृंगार, मान, नखशिख वर्णन आदि का वर्णन करने में इन्हें विशेष सफलता प्राप्त हुई है भाषा, भाव तथा अलंकार की दृष्टि से इनकी रचनाएँ विमुग्धकारी हैं। रचनाओं की गेयता पदों के सौन्दर्य को बढ़ा देती हैं। सं० १६४० वि० (१५८३ ई०) के लगभग इनका गोलोकवास हुआ था। कहा जाता है कि जन्माष्टमी के दिन आनन्दातिरेक में नृत्य करते हुए ही इनकी मृत्यु हुई थी। परमानन्ददासजी का एक पद :
प्रीति तो नन्द नन्दन सों कीजै ।
सम्पति विपति परे प्रतिपालै कृपा करे तो जीजै ।। परम उदार चतुर चिन्तामणि सेवा सुमिरन मार्ने। चरन कमल की छाया राखे अंतरगति की जानै ।। बेद पुरान भागवत भाषै, कियो भक्त को भायो । 'परमानन्द' इन्द्र को वैभव विप्र सुदामा पायो । । कृष्णदास (१४९५ ई०
१५८१ ई० )
महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्यों में कृष्णदास की प्रसिद्धि कवि गायक की अपेक्षा व्यवस्थापक एवं दक्ष प्रबंधक की है। १३ वर्ष की उम्र मे अपने जन्म स्थान गुजरात से ब्रज में आए कृष्णदास जी का जीवन वल्लभाचार्यजी से दीक्षा लेने के उपरान्त कृष्णभक्ति की ओर उन्मुख हो गया था। गुजरात के राजनगर ( अहमदाबाद ) के चिलोतरा ग्राम में एक शूद्र परिवार में सं० १५२२ वि० (१४९५ ई०) में कृष्णदास का जन्म हुआ था। इनके पिता अनैतिक ढंग से धनोपार्जन करते थे। जिससे क्षुब्ध होकर कृष्णदास ने घर छोड़ दिया और वल्लभाचार्य की शरण में आ गए।
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अपनी व्यावहारिक बुद्धि तथा प्रबंध कौशल से इन्होंने वल्लभाचार्य को प्रभावित किया फलतः आचार्यजी ने इन्हें श्रीनाथ मन्दिर का अधिकारी नियुक्त कर दिया। संभवत: इसी कारण इनका नाम कृष्णदास अधिकारी प्रचलित हो गया । श्रीनाथजी के मन्दिर को नवीन रूप प्रदान करने तथा उसे वैभव सम्पन्न करने में इनका विशिष्ट अवदान था । मन्दिर से बंगाली पुजारियों को अपदस्थ करने में भी इनकी युक्ति सफल रही थी । कहा जाता है कि इनका गुप्त संबंध गंगाबाई नामक स्त्री से जिसके कारण विलाथजी से इनका मनमुटाव हुआ था।
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कृष्णदास जी ने लगभग २५० पदों की रचना की है। गुजराती होने के बावजूद ब्रजभाषा में रचित पदों में राधाकृष्ण प्रेम वर्णन, श्रृंगार तथा रूप सौन्दर्य का सुन्दर अंकन है। इनकी रचनाओं में काव्य कौशल अपेक्षाकृत कम है। सं० १६३८ के आसपास (१५८१ ई०) इनकी मृत्यु कुएं में गिरने से हुई थी। कृष्णदास विरचित पद :
मेरौ तौ गिरिधर ही गुनगान ।
यह मूरत खेलत नैनन में, यही हृदय में ध्यान ।। चरण रेनु चाहत मन मेरी, यही दीजिए दान । 'कृष्णदास' को जीवन गिरिधर, मंगल रूप निधान ।।
नन्ददास (१५३३ ई०- १५८३ ई०) : अष्टछाप आठ कवियों में वय की दृष्टि से नन्ददास सबसे छोटे हैं, परन्तु काव्यसाधना, भाषिक छटा और बहुमुखी प्रतिमा के कारण इनका स्थान सूरदास को छोड़कर सर्वोच्च है। नन्ददास का जन्म सं० १५९० वि० (१५३३ई०) में सोरों के निकट रामपुर ग्राम में हुआ था कुछ लोग इन्हें गोस्वामी तुलसीदास का भाई स्वीकार करते हैं। कहा जाता है कि गो० विठ्ठलनाथ से शिष्य के रूप में दीक्षित होने के पूर्व नन्ददास घोर संसारी, लौकिक व्यक्ति थे। गुरु कृपा से वे भगवद्भक्त बने ।
अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न नंददासजी ने लगभग १५ ग्रंथों की रचना की है। इन ग्रन्थों में प्रमुख हैं- अनेकार्थ मंजरी, मान मंजरी, रस मंजरी, रूप मंजरी, विरह मंजरी, प्रेम बारह खड़ी, श्याम सगाई, सुदामा चरित, भँवरगीत, रास पंचाध्यायी, सिद्धांत पंचाध्यायी, गोवर्द्धन लीला, नंददास पदावली। 'अनेकार्थ मंजरी' पर्याय कोश है 'विरह मंजरी' में विरह का अत्यंत भावपूर्ण वर्णन किया गया है 'रस मंजरी' में नायिका भेद विवेचन के साथ नारी चेष्टाओं का चित्रण है। यह रचना शृंगार की कोटि में आती है। 'भँवरगीत' में नंददास की गोपिकाओं की तार्किकता तथा विवेक दृष्टि पाठकों को विमुग्ध करती है। इस कृति के कारण नंददास को विशेष ख्यातिप्राप्त है । 'रास पंचाध्यायी' में कृष्ण की रासलीला से संबद्ध रचनाएँ है।
नंददास का रचना वैविध्य यह प्रमाणित करता है कि उन्होंने गंभीर शास्त्रानुशीलन किया था । भावपक्ष तथा कलापक्ष का उत्कर्ष उनकी काव्य-सामर्थ्य को प्रमाणित करता है। संभवतः इसीलिए नंददास के बारे में यह उक्ति प्रचलित है।
'और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया'
परिमार्जित भाषा, संगीत मर्मज्ञता तथा काव्य सौष्ठव उन्हें उच्च कोटि का रचनाकार सिद्ध करती है। सं० १६४० (१५८३ ई०) को मानसी गंगा के तट पर इनका देहावसान हुआ
था।
© अष्टदशी / 1950
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