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अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी
प्राकृत-विद्या, अंक जनवरी-मार्च १९९७ ( पृ० ९७) में प्रो० भोलाशंकर व्यास के व्याख्यान के समाचारों के सन्दर्भ में सम्पादक डा० सुदीप जैन ने प्रो० व्यासजी को उद्धृत करते हुए लिखा है कि शौरसेनी प्राकृत के प्राचीन रूप सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख में मिलते हैं। किन्तु प्रो० व्यास जी का यह कथन भ्रामक है और इसका कोई भी भाषाशास्त्रीय ठोस आधार नहीं है।
अशोक के अभिलेखों की भाषा और व्याकरण के सन्दर्भ में अधिकृत विद्वान् एवं अध्येता डा० राजबली पाण्डेय ने अपने ग्रन्थ 'अशोक के अभिलेख' में गहन समीक्षा की है। उन्होंने अशोक के अभिलेखों की भाषा को चार विभागों में बाँटा है१. पश्चिमोत्तरी (पैशाच-गान्धार), २. मध्यभारतीय ३. पश्चिमी महाराष्ट्र, ४. दक्षिणावर्त (आन्ध्र-कर्नाटक)। अशोक की भाषा के सन्दर्भ में वह लिखते हैं- महाभारत के बाद का भारतीय इतिहास मगध साम्राज्य का इतिहास है। इसलिए शताब्दियों से उत्तर भारत में एक सार्वदेशिक भाषा का विकास हो रहा था। यह भाषा वैदिक भाषा से उद्भूत लौकिक संस्कृत से मिलती-जुलती थी और उसके समानान्तर प्रचलित हो रही थी। अशोक ने अपने प्रशासन और धर्म प्रसार के लिए इसी भाषा को अपनाया, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इस भाषा का केन्द्र मगध था, जो मध्य- देश (स्थानेसर और कजंगल की पहाड़ियों के बीच का देश) के पूर्व भाग में स्थित था। इसलिये मागधी भाषा की इसमें प्रधानता थी, परन्तु सार्वजनिक भाषा होने कारण दूसरे प्रदेशों की ध्वनियों और कहीं-कहीं शब्दों और मुहावरों को भी यह आत्मसात करती जा रही थी। अशोक के अभिलेख मूलत: मगध साम्राज्य की केन्द्रीय भाषा में लिखे गये थे। फिर भी यह समझा गया कि दूरस्थ प्रदेशों की जनता के लिये यह प्रशासन और प्रचार की भाषा थोड़ी अपरिचित थी। इसलिए अशोक ने इस बात की व्यवस्था की थी कि अभिलेखों के मूल पाठों का विभिन्न प्रान्तों में आवश्यकतानुसार थोड़ा बहुत लिप्यन्तर और भाषान्तर कर दिया जाय। यही कारण है कि अभिलेखों के विभिन्न संस्करणों में पाठ-भेद पाया जाता है। पाठ भेद इस तथ्य का सूचक है कि भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न बोलियाँ थीं, जिनकी अपनी विशेषताएं थीं। अशोक के अभिलेखों में विभिन्न बोलियों के शब्दरूप को देखने से यह ज्ञात होता है कि मध्यभारतीय भाषा ही इस समय की सार्वदेशिक भाषा थी, मूलत:
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इसी में अशोक के अभिलेख प्रस्तुत हुए थे। इसे मागध अथवा मागधी भाषा भी कह सकते हैं। परन्तु यह नाटकों एवं व्याकरण की मागधी से भिन्न है। जहाँ मागधी प्राकृत में केवल तालव्य 'श' का प्रयोग होता है वहाँ अशोक के अभिलेखों में केवल दन्तव्य ‘स' का प्रयोग होता है (अशोक के अभिलेख... डॉ० राजबली पाण्डेय पृ० २२-२३)।
इससे दो तथ्य फलित होते हैं, प्रथम तो यह कि अशोक के अभिलेखों की भाषा नाटकों और व्याकरण की मागधी प्राकृत से भिन्न है और उसमें अन्य बोलियों के शब्द रूप निहित है। इसलिए हम इसे अर्धमागधी भी कह सकते हैं। यद्यपि श्वेताम्बर आगमों में उपलब्ध अर्धमागधी की अपेक्षा यह किञ्चित भिन्न है। फिर भी इतना निश्चित् है कि यह दिगम्बर आगमों की अथवा नाटकों की शौरसेनी प्राकृत कदापि नहीं है। दिगम्बर आगमों की शौरसेनी के दो प्रमुख लक्षण माने जा सकते हैं-- मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द' का प्रयोग और दन्त्य 'न' के स्थन, पर मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग। अशोक के अभिलेखों में मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द' का प्रयोग कहीं भी नहीं देखा जाता है। शौरसेनी प्राकृत में संस्कृत 'भवति' का 'भवदि' या 'होदि' रूप मिलता है जबकि अशोक के अभिलेखों में एक स्थान पर भी 'होदि' रूप नहीं पाया जाता। सर्वत्र होति रूप पाया जाता है, जो अर्धमागधी का लक्षण है। इसी प्रकार 'पितृ' शब्द का ‘पिति' या 'पितु' रूप मिलता है जो कि अर्धमागधी का लक्षण है, शौरसेनी की दृष्टि से तो उसका 'पिद्' रूप होना था। इसी प्रकार 'आत्मा' शब्द का शौरसेनी प्राकृत में 'आदा' रूप बनता है, जबकि अशोक के अभिलेखों में कहीं भी 'आदा' रूप नहीं मिला है। सर्वत्र अत्ने, अत्ना यही रूप मिलते हैं। इसी प्रकार 'हित' का शौरसेनी रूप 'हिंद' न मिलकर सर्वत्र ही हित शब्द का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार जहाँ शौरसेनी दन्त्य 'न' के प्रयोग के स्थान पर मूर्धनय 'ण' का प्रयोग पाया जाता है वहाँ अशोक के मध्यभारतीय समस्त अभिलेखों में मूर्धन्य ण का पूर्णत: अभाव है और सर्वत्र दन्त्य 'न' का प्रयोग हुआ है, पश्चिमी अभिलेखों में भी मूर्थन्य 'ण' का यदा-कदा ही प्रयोग हुआ है, किन्तु सर्वत्र नहीं। पुन: यह मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग तो महाराष्ट्री प्राकृत में भी पाया जाता है। अशोक के अभिलेखों की भाषा के भाषाशास्त्रीय दृष्टि से जो भी अध्ययन हुए हैं उनमें जहाँ तक मेरी जानकारी है, किसी एक भी विद्वान् ने उनकी भाषा को शौरसेनी प्राकृत नहीं कहा है। यदि उसमें एक दो शौरसेनी शब्द रूप जो अन्य प्राकृतों यथा अर्धमागधी या महाराष्ट्री में भी 'कामन' हैं, मिल जाते हैं तो उसकी भाषा को शौरसेनी तो कदापि नहीं कहा जा सकता है। इसीलिए शायद प्रो० भोलाशंकर जी व्यास को भी दबी जुबान से यह कहना पड़ा कि शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख में मिलते हैं। सम्भवत: इसमें इतना संशोधन अपेक्षित है कि शौरसेनी प्राकृत के कुछ प्राचीन शब्दरूप गिरनार के शिलालेख में मिलते हैं। किन्तु यह बात ध्यान
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देने योग्य है कि यह शब्द रूप प्राचीन अर्धमागधी और महाराष्ट्री में भी मिलते हैं, अत: मात्र दो-चार शब्द रूप मिल जाने से अशोक के अभिलेख शौरसेनी प्राकृत के नहीं माने जा सकते हैं। क्योंकि उनमें शौरसेनी के विशिष्ट लक्षणों वाले शब्द रूप नहीं मिलते हैं। उसके आगे समादरणीय भोलाशंकर जी व्यास को उद्धृत करते हुए डा० सुदीप जैन ने लिखा है कि इसके बाद परिशुद्ध शौरसेनी भाषा कपायपाहुड़सुत्त, षटखण्डागमसुत्त, कुन्दकुन्द साहित्य एवं धवला, जयधवला आदि में प्रयुक्त मिलती है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि अशोक के अभिलेखों की मागधी अर्थात् अर्धमागधी से ही दिगम्बर जैन साहित्य की परिशुद्ध शौरसेनी विकसित हुई है। मैं यहाँ स्पष्ट रूप से यह जानना चाहूँगा कि क्या अशोक के अभिलेखों की भाषा में दिगम्बर जैन साहित्य की तथाकथित परिशुद्ध शौरसेनी अथवा नाटकों की शौरसेनी अथवा व्याकरण सम्मत शौरसेनी का कोई भी विशिष्ट लक्षण उपलब्ध होता है? जहाँ तक मेरी जानकारी है कि अशोक के अभिलेखों की भाषा अन्य प्रदेशों के शब्द रूपों से प्रभावित मागधी प्राकृत है। वह मागधी और अन्य प्रादेशिक बोलियों के शब्दों रूपों से मिश्रित एक ऐसी भाषा है, जिसकी सर्वाधिक निकटता जैन आगमों की अर्धमागधी से है। उसे शौरसेनी कहकर जो भ्रान्ति फैलाई जा रही है वह सुनियोजित षड्यंत्र है। वस्तुत: दिगम्बर आगम तुल्य ग्रन्थों की जिस भाषा को परिशुद्ध शौरसेनी कहा जा रहा है वह वस्तुत: न तो व्याकरण सम्मत शौरसेनी है और न नाटकों की शौरसेनी– अपितु अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री की ऐसी खिचड़ी है, जिसमें इनके मिश्रण के अनुपात भी प्रत्येक ग्रन्थ और उसके प्रत्येक संस्करण में भिन्न-भिन्न हैं।
इसकी चर्चा मैंने अपने लेख जैन आगमों की मूलभाषा मागधी या शौरसेनी में की है। शौरसेनी का साहित्यिक भाषा के रूप में तब तक जन्म ही नहीं हुआ था। नाटकों एवं दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य ग्रन्थों की भाषा तो उसके तीन-चार सौ वर्ष बाद अस्तित्व में आई है। वस्तुत: दिल्ली, मथुरा एवं आगरा के समीपवर्ती उस प्रदेश में जिसे शौरसेनी का जन्मस्थल कहा जाता है, अशोक के जो भी अभिलेख उपलब्ध हैं, उनमें शौरसेनी के लक्षणों यथा 'त' का 'द', 'न' का 'ण' आदि का पूर्ण अभाव है। मात्र यही नहीं उसमें 'लाजा' (राजा) जैसा मागधी का शब्द रूप स्पष्टतः पाया जाता है। इसी प्रकार गिरनार के अभिलेखों में भी शौरसेनी के व्याकरणसम्मत लक्षणों का अभाव है। उनमें अर्धमागधी के वे शब्द रूप, जो शौरसेनी में भी पाये जाते हैं देखकर यह कह देना कि अशोक के अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय प्रभावों से युक्त शौरसेनी में है, यह उचित नहीं है। उसे अर्धमागधी तो माना जा सकता है, किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं माना जा सकता है। पाठकों को स्वयं निर्णय करने के लिए यहाँ दिल्ली टोपरा के अशोक के अभिलेखों का मूलपाठ प्रस्तुत है
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दिल्ली टोपारा स्तम्भ प्रथम अभिलेख (धर्म पालन से इहलोक तथा परलोक की प्राप्ति)
(उत्तराभिमुख) १. देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा (१) सडुवीसति२. वस अभिसितेन मे इयं धंमलिपि लिखापिता (२)
हिदतपालते दुसंपटिपादये अंनत अगाया धमकामताया ४. अगाय पलीखाया अगाय सुसूयाया अगेन भयेन
अगन उसाहेना (३) एस चु खो मम अनुसथिया धंमा६. पेखा धमकामता चा सुवे सुवे वडिता वडीसति चेवा (४) ७. पुलिसा पि च मे उकसा चा गेवया चा मझिमा चा अनुविधीयंती
संपटिपादयंति चा अलं चपलं समादपयितवे (५) हेमेमा अंत९. महामाता पि (६) एस हि विधि या इयं धमेन पालना धमेन विधाने १०. धंमेन सुखियना धंमेन गोती ति (७)
द्वितीय अभिलेख
(उत्तराभिमुख)
(धर्म की कल्पना) १. देवानंपिये पियदसि लाज २. हेवं आहा (१) धमे साधू कियं धमे ति (२) अपासिनवे वहुकयाने ३. दया दाने सोचये (३) चखुदाने पि मे बहुविधे दिने (४) दुपद४. चतुपदेसु पखिवालिचलेसु विविधे मे अनुगहे कटे आ पान५. दाखिनाये (५) अंनानि पि च मे बहूनि कयानानि कटानि (६) एताये मे ६. अठाये इयं धमलिपि लिखापिता हेवं अनुपटिपजंतु चिलं७. थितिका च होतू तीति (७) ये च हेवं संपटिपजीसति से सुकटं कछती ति।
तृतीय अभिलेख (उत्तराभिमुख)
(आत्मनिरीक्षण) १. देवानंपिये पियदसि लाज हेवं अहा (१) कयानं मेव देखति इयं मे
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२. कयाने कटे ति (२) नो मिन पापं देखति इयं मे पापे कटे ति इयं वा आसिनवे ३. नामाति (३) दुपटिवेखे चु खो एसा (४) हेवं चु खो एस देखिये (५) इमानि
आसिनवगामीनि नाम अथ चंडिये निठलिये कोधे माने इस्या ५. कालनेन व हकं मा पलिभसयिसं (६ एस बाढ देखिये (७) इयं मे ६. हिदतिकाये इयंमन मे पालतिकाये
चतुर्थ अभिलेख
(पश्चिमाभिमुख)
(रज्जुकों के अधिकार और कर्तव्य) १. देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा (१) सडुवीसतिवस२. अभिसितेन मे इयं धमलिपि लिखापिता (२) लजूका मे ३. बहूसु पानसतसहसेसु जनसि आयता (३) तेसं ये अभिहाले वा पवतयेवू जनस
जानपदसा हितसुखं उपदहेवू पवत ४. दंडे वा अतपतिये मे कटे किंति लजूका अस्वथ अभीता ५. कंमानि पवतयेवू जनस जानपदसा हितसुखं उपदहेवू
अनुगहिनेवु च (४) सुखीयनं दुखीयनं जानिसंति धंमयुतेन च ७. वियोवदिसंति जनं जानपद किंति हिदतं च पालतं च ८. आलाधयेवू ति (५) लजूका पि लघति पटिचलितवे मं (६) पुलिसानि पि मे
छंदनानि पटिचलिसंति (७) ते पि च कानि वियोवदिसंति येन मं लजूका . १०. चघंति आलाधयितवे (८) अथा हि पजं वियताये धातिये निसिजितु ११. अस्वथे होति वियत धाति चघति में पजं सुखं पलिहटवे १२. हेवं ममा लजूका कटा जानपदस हितसुखाये (९) येन एते अभीता १३. अस्वथ संतं अविमना कंमानि पवतयेवू ति एतेन मे लजूकानं १४. अभिहाले व दंडे वा अतपतिये कटे (१०) इछितविये हि एसा किंति १५. वियोहालसमता च सिय दंडसमता चा (११) अव इते पि च मे आवुति १६. बंधनबधानं मुनिसानं तीलितदंडानं पतवधानं तिनि दिवसानि मे १७. योते दिने (१२) नातिका व कानि निझपयिसंति जीविताये तानं
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१८. नासंतं वा निझपयिता वा नं दाहंति पालतिकं उपवासं व कछंति (१३) १९. इछा हि मे हेवं निलुधसि पि कालसि पालतं आलाधयेवू ति (१४) जनस च २०. बढ़ति विविध धंमचलने संयमे दानसविभागे ति (१५)
पञ्चम अभिलेख (दक्षिणाभिमुख)
(जीवों का अभयदान) १. देवानंप्रिये पियदसि लाज हेवं अहा (१) सडुवौसतिवस२. अभिसितेन मे इमानि जातानि अवधियानि कटानि सेयथा ३. सुके सालिका अलुने चकवाके हंसे नंदीमुखे गेलाटे ४. जतूका अंबाकपीलिका दळी अनठिकमछे वेदवेयके ५. गंगा पुपुटके संकुजमछे कफटसयके पंनससे सिमले
संकडे ओकपिंडे पलसते सेतकपोते गामकपोते ७. सवे चतुपदे ये पटिभागं नो एति न च खादियती (२) ............. रि ८. एळका चा सकूली चा गभिनी वा पायमीना व अवधिय प तके ९. पि च कानि आसंमासिके (३) वधिकुकुटे नो कटविये (४) तुसे सजीवे १०. नो झापेतविये (५) दावे अनठाये वा विहिसाये वा नो झापेतविये (६) ११. जीवेन जीवे नो पुसितविये (७) तीसु चातुंमासीसु तिसायं पुनमासियं १२. तिनि दिवसानि चावुदसं पंनडसं पटिपदाये धुवाये चा १३. अनुपोसथं मछे अवधिये नो पि विकेतविये (८) एतानि येवा दिवसानि १४. नागवनसि केवटभोगसि यानि अंनानि पि जीवनिकायानि १५. न हंतवियानि (९) अठमीपखाये चावुदसाये पंनडसाये तिसाये १६. पुनावसुने तीसु चातुंमासीसु सुदिवसाये गोने नो नीलखित विये १७. अजके एडके सूकले ए वा पि अंने नीलखियति नो वौलखितविये (१०) १८. तिसाये पुनावसुने चातुंमासिये चातुंमासि पखाये अस्वसा गोनसा १९. लखने नो कटविये (११) यावसडुवीसतिवस अभिसितेन मे एताये २०. अंतलिकाये पंनवीसाते बंधनमोखानि कटानि (१२)
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षष्ठ अभिलेख
(अ-पूर्वाभिमुख)
(धर्मवृद्धिः धर्म के प्रतिअनुराग) १. देवानांपिये पियदसि लाज हेवं अहा (१) दुवाडस २. वस अभिसितेन मे धंमलिटि लिखापिता लोकसा
हितसुखाये से तं अपहटा तं तं धंमवडि पापो वा (?) ४. हेवं लोकसा हितसुखेति पटिवेखामि अथ इयं
नातिसु हेवं पतियासनेसु हेवं अपकटेसु
किम कानि सुखं अवहामी ति तथ च विदहामि (३) हे मे वा ७. सवनिकायेसु पटिवेखामि (४) सव पासंडा पि मे पूजिता ८. विविधाय पूजाया (५) ए चु इयं अतना पचूपगमने ९. से मे मोख्यमते ६) सडुविसति वस अधिसितेन मे १०. इयं धमलिपि लिखापिता (७)
सप्तम अभिलेख
(अ) पूर्वाभिमुख
(धर्मप्रचार का सिंहावलोकन) १. देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (१) ये अतिकंतं
अंतलं लाजाने हुसु हेवं इछिसु कथं जने धंमवडिया वढेया नो चु जने अनुलुषाया धंमवडिया वडिथा (२) एतं देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (३) एस मे हुथा (४) अतिकंतं च अंतलं हेवं इछिसु लाजाने कथं जने
अनुलुपाया धमवडिया वढेया ति नो च जने अनुलुपाया ७. धंमवडिया वडिथा (५) से किनसु जने अनुपटिपजेया (६) ८. किनसु जने अनुलुपाया धंमवडिया वढेया ति (७) किनसु कानि ९. अभ्युनामयेहं धंमवडिया ति (८) देवानंपिये पिददसि लाजा हेवं १०. आहा (९) एस मे हुथा (१०) धमसावनानि सावापयामि धंमानुसथिनि
२.
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११. अनुसासामि (११) एतं जने सुतु अनुपटीपजीसति अभ्युनमिसति १२. धंमवडिया च वाडं वडिसति (१२) एताये मे अठाये धंमसावनानि सावापितानि
धंमानुसथिनि विविधानि आन पितानि य........... सा पि बहुने जनसि आयता ए ते पलियो वदिसंति पिपविलिसति पि (१३) लजूका पि बहुकेसु पानसहसेसु
आयता ते पि मे अनपिता हेवं च हेवं च पलियोवदाथ १३. जनं धंमयुतं (१४) देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (१५) एतमेव मे
अनुवेखमाने धंमथंभानि कटानि धंममहामाता कटा धंम......कटे (१६) देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (१७) मगेसु पि मे निगोहानि लोपापितानि छायोपगानि होसंति पसुमुनिसानं अंबावडिक्या लोपापिता (१७) अढकासिक्यानि
पि मे उदुपानानि १४. खानापापितानि निसिढया च कालापिता (१८) आपानानि मे बहुकानि तत तत
कालपितानि पटीभोगाये पसुमुनिसानं (१९) ल.....एस पटीभोगे नाम (२०) विविधाया हि सुखापनाया पुलिमेहि पि लाजीहि ममया च सुखयिते लोके (२१)
इमं चु धंमानु पटीपती अनुपटीपजंतु ति एतदथा मे १५. एस कटे (२२) देवानंपिये पियदसि हेवं आहा (२३) धंममहामाता पि मे ते
बहुविधेसु अठेसु आनुगहिकेसु वियापटासे पवजीतानं चेव गिहिथानं च सव.........डेसु पि च वियापटासे (२४) संघठसि पि मे कटे इमे वियापटा होहंति
ति हेमेव बाभनेसु आजीविकेसु पि मे कटे १६. इमे वियापटा होंहति ति निर्गठेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहंति नानापासंडेसु
पि मे कटे इमे वियापटा होहंति ति पटिविसिठं पटीविसिठं तेसु तेसु ते......माता (२५) धंममहामाता चु मे एतेसु चेव वियापटा सवेसु च पासंडेसु (२६)
देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (२७) १७. एते च अंने च बहका मुखा दान-विसगसि वियापटासे मम चे व देविनं च। सवसि
च मे ओलोधनसि ते बहुविधेन आ (का) लेन तानि तानि तुठायतनानि पटी (पादयंति) हिद एव दिसासु च। दालकानां पि च मे कटे। अंनानं च
देवि-कुमालानं इमे दानविसगेसु वियापटा होहंति ति १८. धंमापदानठाये धंमानुपटिपतिये (२८) ए हि धंमापदाने धंमपटीपति च या इयं
दया दाने सचे सोचवे च मदवे साधवे च लोकस हेवं वडिसति ति (२९) देवानंपिये प......स लाजा हेवं आहा (३०) यानि हि कानिचि ममिया साधवानि
कटानि तं लोके अनुपटोपने तं च अनुविधियति (३१) तेन वडिता च १९. वडिसंति च मातापितुसु सुसुसाया गुलुसु सुसुसाया वयोमहालकानं अनुपटीपतिया
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________________ 65 बाभनसमनेसु कपनवलाकेसु आव दासभटकेसु संपटीपतिया (32) देवानंपिय........यदसि लाजा हेवं आहा (33) मुनिसानं चु या इयं धंमवडि वडिता दुवेहि येव आकालेहि धमनियमेन च निझतिया च (34) 20. तत चु लहु से धमनियमे निझतिया व भुये (35) धमनियमे चु खो एस ये मे इयं कटे इमानि च इमानि जातानि अवधियानि (36) अनानि पि चु बहुकं.........धमनियमानि यानि मे कटानि (37) निझतिया व चु भुये भुनिसानं धंमवडि वडिता अविहिंसाये भुतानं 21. अनालंभाये पानानं (38) से एताये अथाये इयं कटे पुतापपोतिके चंदमसुलिपिके होतु ति तथा च अनुपटीपजंतु ति (39) हेवं हि अनुपटीपजंतं हिदत पालते आलधे होति (40) सतविसतिवसाभिसितेन मे इयं धमलिवि लिखापापिता ति (41) एतं देवानंपिये आहा (42) इयं 22. धंमलिबि अत अथि सिलार्थभानि वा सिला फलकानि वा तत कटविया एन एस चिलठितिके सिया (43)