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३४. सम्मेयसेल-सेत्तुञ्ज - उज्जिते अब्बुयंमि चित्तउडे ।
जालउरे रणथंभे गोपालगिरिमि वंदामि ॥ १९ ॥ सिरिपासनाहसहियं रम्मं सिरिनिम्मयं महाबूभं । कालिकाले वि सुयित्थं महुरानयरीउ (ए) वंदामि ॥ २० ॥ रायगिह-चम्प-पावा- अउज्झ - कंपिल्लट्ठणपुरे । भद्दिलपुरि-सोरीयपुरि-अङ्गइया कनउज्जे ॥२१॥ सावत्वि दुग्गामाइसु वाणारसीपमुहपुव्वदेसंमि । कम्मग- सिरोहमाइसु भयाणदेसंमि वंदामि ॥ २२ ॥ राजर कुण्डणीसु य वंदे गज्जठर पंच व सचाई । तलवाड देवराउ रुउत्तदेसंमि वंदामि ||२३|| खंडिल - डिंडूआणय नराण हरसउर खट्टऊदेसे । नागउरमुव्विदंतिसु संभरिदेसंमि वेदेमि ||२४|| पल्ली संडेरय-नाणएसु कोरिंट - भिन्नमाल्लेलेसु । वंदे गुज्जरदेसे आहाडाईसु मेवाडे ।। २५ । उवएस-किराडमए विजयपुराईसु मरुमि वंदामि ।
प्राकृत विद्या, अंक जनवरी-मार्च १९९७ (पृ. ९७) में भोलाशंकर व्यास के व्याख्यान के समाचारों के सन्दर्भ में सम्पादक डा० सुदीप जैन ने उन्हें उद्धृत करते हुए लिखा है कि शौरसेनी प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख में मिलते हैं। किन्तु प्रो-० व्यासजी का यह कथन भ्रामक है और इसका कोई भी ठोस भाषाशास्त्रीय आधार नहीं है।
अशोक के अभिलेखों की भाषा और व्याकरण के सन्दर्भ में अधिकृत विद्वान् एवं अध्येता डा० राजबली पाण्डेय ने अपने ग्रन्थ 'अशोक के अभिलेख' में गहन समीक्षा की है। उन्होंने अशोक के अभिलेखों की भाषा को चार विभागों में बाँटा है- १ पश्चिमोत्तरी (पैशाच गान्धार), २ मध्यभारतीय, ३ पश्चिमी महाराष्ट्र, ४ दक्षिणावर्त (आन्ध्रकर्नाटक)। अशोक की भाषा के सन्दर्भ में वह लिखते हैं- महाभारत के बाद का भारतीय इतिहास मगध साम्राज्य का इतिहास है। इसलिए शताब्दियों से उत्तरभारत में एक सार्वदेशिक भाषा का विकास हो रहा था। यह भाषा वैदिक भाषा से उद्भूत लौकिक संस्कृत से मिलती-जुलती थी और उसके समानान्तर प्रचलित हो रही थी। अशोक ने अपने प्रशासन और धर्म प्रसार के लिए इसी भाषा को अपनाया, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इस भाषा का केन्द्र मगध था, जो मध्य-देश (थानेसर और कजंगल की पहाड़ियों के बीच का देश) के पूर्व भाग में स्थित था। इसलिए मागधी भाषा की इसमें प्रधानता थी, परन्तु सार्वजनिक भाषा होने के कारण दूसरे प्रदेशों की ध्वनियों और कहीं-कहीं शब्दों और मुहावरों को भी यह आत्मसात
सच्चउर-गुङ्कुरायसु पच्छिमदेसंमि वंदामि ||२६|| थारा उद्दय-वायड - जालीहर- नगर - खेड - मोढेरे । अणहिल्लवाडनपरे वङ्गावल्लीयं बंभाणे ||२७॥ निहयकलिकालमहियं सायसतं सयलवाइयंभणए । भणपुरे कयवासं पासं वंदामि भत्तीए ||२८|| कच्छे भरुवच्छंमि व सोरदु-मरहट्ठ-कुंकण-वलीसु । कलिकुण्ड-माणखेडे दक्षि (खि) गदेसंमि वंदामि ॥२९॥ धारा-उज्जेणीसु य मालवदेसंमि वंदामि । वंदामि मणुयविहिए जिणभवणे सव्वदेसेसु ॥ ३० ॥ भरयि (म्मि) मणुयविहिया महिया मोहारिमहियमाहप्पा । सिरिसिद्धसेणसूरीहि संधुया सिवसुहं तु ॥ ३२॥ Discriptive Catalogue of Mss in the Jaina Bhandars at Pattan-G.O.S. 73, Baroda, 1937, p.56
३५. तिलोयपण्णत्त, १/२१-२४
अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी वा शौरसेनी
करती जा रही थी। अशोक के अभिलेख मूलतः मगध साम्राज्य की केन्द्रीय भाषा में लिखे गये थे फिर भी यह समझा गया कि दूरस्थ प्रदेशों की जनता के लिए यह प्रशासन और प्रचार की भाषा थोड़ी अपरिचित थी । इसलिए अशोक ने इस बात की व्यवस्था की थी कि अभिलेखों के पाठों का विभिन्न प्रान्तों में आवश्यकतानुसार थोड़ा बहुत लिप्यन्तर और भाषान्तर कर दिया जाय। यही कारण है कि अभिलेखों के विभिन्न संस्करणों में पाठभेद पाया जाता है। पाठभेद इस तथ्य का सूचक है कि भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न बोलियां थीं, जिनकी अपनी विशेषताएं थीं। अशोक के अभिलेखों में विभिन्न बोलियों के शब्द रूप देखने से यह ज्ञात होता है कि मध्यभारतीय भाषा ही इस समय की सार्वदेशिक भाषा थी, मूलतः इसी में अशोक के अभिलेख प्रस्तुत हुए थे। इसे मागध अथवा मागधी भाषा भी कह सकते हैं। परन्तु यह नाटकों एवं व्याकरण की मागधी से भिन्न है जहाँ मागधी प्राकृत में केवल तालव्य 'श' का प्रयोग होता है वहां अशोक के अभिलेखों में केवल दन्त्य 'स' का प्रयोग होता है (देखें- अशोक के अभिलेख डॉ० राजबली पाण्डेय, पृ० २२-२३)
इससे दो तथ्य फलित होते हैं, प्रथम तो यह कि अशोक के अभिलेखों की भाषा नाटकों और व्याकरण की मागधी प्राकृत से भिन्न है और उसमें अन्य बोलियों के शब्द रूप निहित हैं। इसलिए हम इसे अर्धमागधी भी कह सकते है। यद्यपि श्वेताम्बर आगमों में उपलब्ध अर्धमागधी की अपेक्षा यह किंचित् भिन्न है फिर भी इतना निश्चित है कि
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अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी
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यह दिगम्बर आगमों की अथवा नाटकों की शौरसेनी प्राकृत कदापि नहीं यह घोषणा नहीं की है कि अशोक के अभिलेखों की भाषा शौरसेनी प्राकृत है। दिगम्बर आगमों की शौरसेनी के दो प्रमुख लक्षण माने जा सकते हैं- है। वस्तुत: वह मागधी और अन्य प्रादेशिक बोलियों के शब्द-रूपों से मध्यवर्ती त के स्थान पर द का प्रयोग- और दन्त्य 'न' के स्थान पर मूर्धन्य मिश्रित एक ऐसी भाषा है, जिसकी सर्वाधिक निकटता जैन-आगमों की 'ण' का प्रयोग। अशोक के अभिलेखों में मध्यवर्ती त के स्थान पर द अर्धमागधी से है। उसे शौरसेनी कहकर जो भ्रान्ति फैलाई जा रही है वह का प्रयोग कहीं भी नहीं देखा जाता है। शौरसेनी प्राकृत में संस्कृत 'भवति' सुनियोजित षड्यंत्र है। वस्तुतः दिगम्बर आगमतुल्य ग्रन्थों की जिस भाषा का भवदि' या 'होदि' रूप मिलता है जबकि अशोक के अभिलेखों में को परिशुद्ध शौरसेनी कहा जा रहा है वह न तो व्याकरण-सम्मत शौरसेनी एक स्थान पर भी 'होदि' रूप नहीं पाया जाता। सर्वत्र ही 'होति' रूप पाया है और न नाटकों की शौरसेनी है, अपितु अर्धमागधी, शौरसेनी और जाता है, जो अर्धमागधी का लक्षण है। इसी प्रकार 'पितृ' शब्द का पिति' महाराष्ट्री की ऐसी खिचड़ी है, जिसमें इनके मिश्रण के अनुपात भी प्रत्येक या 'पितु' रूप मिलता है जो कि अर्धमागधी का लक्षण है, शौरसेनी की ग्रन्थ और उसके प्रत्येक संस्करण में भिन्न-भिन्न हैं। इसकी विस्तृत चर्चा दृष्टि से तो उसका 'पिदु' रूप होना था। इसी प्रकार 'आत्मा' शब्द का मैंने अपने लेख 'जैन आगमों की मूलभाषा मागधी या शौरसेनी' में की शौरसेनी प्राकृत में में 'आदा' रूप बनता है। जबकि अशोक के अभिलेखों है। शौरसेनी का साहित्यिक भाषा के रूप में तब तक जन्म ही नहीं हुआ में कहीं भी 'आदा' रूप नहीं मिला है। सर्वत्र अत्ने, अत्ना यही रूप मिलते था। नाटकों एवं दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य ग्रन्थों की भाषा हैं। इसी प्रकार 'हित' का शौरसेनी रूप 'हिद' न मिलकर सर्वत्र ही 'हित' तो उसके तीन-चार सौ वर्ष बाद अस्तित्व में आई है। वस्तुत: देहली, शब्द का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार जहाँ शौरसेनी दन्त्य 'न' के प्रयोग मथुरा एवं आगरा के समीपवर्ती उस प्रदेश में जिसे शौरसेनी का जन्मस्थल के स्थान पर मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग पाया जाता है वहां अशोक के कहा जाता है, अशोक के जो भी अभिलेख उपलब्ध हैं, उनमें शौरसेनी मध्यभारतीय समस्त अभिलेखों में मूर्धन्य 'ण' का पूर्णत: अभाव है और के लक्षणों यथा 'त' का 'द', 'न' का 'ण' आदि का पूर्ण अभाव है। मात्र सर्वत्र दन्त्य 'न' का प्रयोग हुआ है, पश्चिमी अभिलेखों में भी मूर्धन्य 'ण' यहीं नहीं उसमें 'लाजा' (राजा) जैसा मागधी का शब्द-रूप ही स्पष्टतः का यदा-कदा ही प्रयोग हुआ है, किन्तु सर्वत्र नहीं। पुन: यह मूर्धन्य ‘ण' पाया जाता है। इसी प्रकार गिरनार के अभिलेखों में भी शौरसेनी के का प्रयोग तो महाराष्ट्री प्राकृत में भी पाया जाता है। अशोक के अभिलेखों व्याकरण सम्मत लक्षणों का अभाव है। उनमें अर्धमागधी के वे शब्दकी भाषा के भाषाशास्त्रीय दृष्टि से जो भी अध्ययन हुए हैं उनमें जहाँ तक रूप, जो शौरसेनी में भी पाये जाते हैं देखकर यह कह देना कि अशोक मेरी जानकारी है, किसी एक भी विद्वान् ने उनकी भाषा को शौरसेनी प्राकृत के अभिलेख शौरसेनी में हैं, एक भ्रामक प्रचार है। वस्तुतः अशोक के नहीं कहा है। यदि उसमें एक दो शौरसेनी शब्द रूप जो अन्य प्राकृतों अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय प्रभावों से युक्त मागधी है। उसे अर्धमागधी यथा अर्धमागधी या महाराष्ट्री में भी कामन' मिल जाते हैं तो उसकी भाषा तो माना जा सकता है, किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं माना जा सकता है। को शौरसेनी तो कदापि नहीं कहा जा सकता है। इसीलिए शायद प्रो० पाठकों को स्वयं निर्णय करने के लिए हम परिशिष्ट के रूप में देहलीभोलाशंकर जी व्यास को भी दबी जबान से यह कहना पड़ा कि शौरसेनी टोपरा के अशोक के अभिलेखों के मूलपाठ दे रहे हैं। प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख में मिलते
देहली-टोपरा स्तम्भ हैं। सम्भवत: इसमें इतना संशोधन अपेक्षित है कि शौरसेनी प्राकृत के
प्रथम अभिलेख (उत्तराभिमुख) कुछ प्राचीन शब्द-रूप गिरनार के शिलालेख में मिलते है। किन्तु यह
(धर्म पालन से इहलोक तथा परलोककी प्राप्ति) बात ध्यान देने योग्य है कि यह शब्द रूप प्राचीन अर्धमागधी और महाराष्ट्री में भी मिलते हैं, अत: मात्र दो-चार शब्द-रूप मिल जाने से अशोक के
देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा (१) सडुवीसतिअभिलेख शौरसेनी प्राकृत के नहीं माने जा सकते हैं। क्योंकि उनमें
वस अभिसितेन मे इयं धंमलिपि लिखापिता (२) शौरसेनी के विशिष्ट लक्षणों वाले शब्द रूप नहीं मिलते हैं। उसके आगे
हिदतपालते दुसंपटिपादये अंनत अगाया धमकामताया समादरणीय भोलाशंकर जी व्यास को उद्धृत करते हुए डा० सुदीप जैन
अगाय पलीखाया अगाय सुसूयाया अगेन भयेन ने लिखा है कि इसके बाद परिशुद्ध शौरसेनी भाषा कषायपाहुडसुत्त,
अगन उसाहेना (३) एस चु खो मम अनुसथिया धंमा-' षट्खण्डागमसुत्त, कुन्दकुन्द साहित्य एवं धवला, जयधवला आदि में ,
पेखा धमकामता चा सुवे सुवे वडिता वडीसति चेवा (४) प्रयुक्त मिलती है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि अशोक के अभिलेखों
पुलिसा पि च मे उकसा चा गेवया चा मझिमा चा अनुविधीयंती की मागधी अर्थात् अर्धमागधी से ही दिगम्बर जैन साहित्य की परिशुद्ध
संपटिपादयंति चा अलं चपलं समादपयितवे (५) हेमेमा अंतशौरसेनी विकसित हुई है। मैं यहाँ स्पष्ट रूप से यह जानना चाहूँगा कि
महामाता पि(६) एस हि विधि या इयं धमेन पालना धमेन विधाने क्या अशोक के अभिलेखों की भाषा में दिगम्बर जैन साहित्य को १०. धंमेन सखियना धमेन गोती ति (७) तथाकथित परिशुद्ध शौरसेनी अथवा नाटकों की शौरसेनी अथवा ।
द्वितीय अभिलेख (उत्तराभिमुख) व्याकरण-सम्मत शौरसेनी का कोई भी विशिष्ट लक्षण उपलब्ध होता है,
(धर्म की कल्पना) जहां तक मेरी जानकारी है। आजतक किसी भी भाषाशास्त्र के विद्वान् ने
देवानंपिये पियटमि लाज
my ci
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________________ वहुकयाने एताये मे 710 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 2. हेवं आहा (1) धंमे साधू कियं चु धमे ति (2) अपासिनवे मे आवुति 16. बंधनबधानं मुनिसानं तीलितदंडानं पतवधानं तिनि दिवसानि मे दया दाने सोचये (3) चखुदाने पि मे बहुविधे दिने (4) दुपद- 17. योते दिने (12) नातिका व कानि निझपयिसंति जीविताये तानं चतुपदेस पखिवालिचलेस विविधे मे अनुगहे कटे आ पान- 18. नासंतं वा निझपयिता वा नं दाहंति पालतिकं उपवासं व दाखिनाये (5) अंनानि पि च मे बहूनि कयानानि कटानि (6) कछंति (13) 19. इछा हि मे हेवं निलुधसि पि कालसि पालतं आलाधयेवू ति अठाये इयं धमलिपि लिखापिता हेवं अनुपटिपजंतु चिलं (14) जनस च थितिका च होतू तीति (7) ये च हेवं संपटिपजीसति से सुकटं 20. वढ़ति विविधे धंमचलने संयमे दानसविभागे ति (15) कछती ति। पंचम अभिलेख (दक्षिणाभिमुख) तृतीय अभिलेख (उत्तराभिमुख) (जीवों को अभयदान) (आत्मनिरीक्षण) 1. देवानंपिये पियदसि लाज हेवं अहा (1) सडुवीसतिवसदेवानंपिये पियदसि लाज हेवं अहा (1) कयानं मेव देखति 2. अभिसितेन मे इमानि जातानि अवधियानि कटानि सेयथा इयं मे सुके सालिका अलुने चकवाके हंसे नंदीमुखे गेलाटे कयाने कटे ति (2) नो मिन पापं देखति इयं मे पापे कटे ति जतूका अंबाकपीलिका दली अनठिकमछे वेदवेयके इयं वा आसिनवे गंगा पुपुटके संकुजमछे कफटसयके पंनससे सिमले 3. नामाति (3) दुपटिवेखे चु खो एसा (4) हेवं चु खो एस देखिये 6. संडके ओकपिंडे पलसते सेतकपोते गामकपोते (5) इमानि सवे चतुपदे ये पटिभागं नो एति न च खादियती (2) आसिनवगामीनि नाम अथ चंडिये निठलिये कोधे माने इस्या 8. एलका चा सकूली चा गभिनी वा पायमीना व अवधिय प तके कालनेन व हकं मा पलिभसयिसं (6) एस बाढ देखिये (7) 9. पि च कानि आसंमासिके (3) वधिककटे नो कटविये (4) इयं मे तुसे सजीवे हिदतिकाये इयमन मे पालतिकाये 10. नो झापेतविये (5) दावे अनठाये वा विहिसाये वा नो चतुर्थ अभिलेख (पश्चिमाभिमुख) झापेतविये (6) (राजुकों के अधिकार और कर्तव्य) 11. जीवेन जीवे नो पुसितविये (7) तीसु चातुंमासीसु तिसायं देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा (1) सडुवीसतिवस पुनमासियं 2. अभिसितेन मे इयं धमलिपि लिखापिता (2) लजूका मे 12. तिंनि दिवसानि चावुदसं पंनडसं पटिपदाये धुवाये चा बहूसु पानसतसहसेसु जनसि आयता (3) तेसं ये अभिहाले वा 13. अनुपोसथं मछे अवधिये नो पि विकेतविये (8) एतानि येवा दंडे वा अतपतिये मे कटे किंति लजूका अस्वथ अभीता दिवसानि 5. कंमानि पवेयेवू जनस जानपदसा हितसुखं उपदहेवू 14. नागवनसि केवटभोगसि यानि अंनानि पि जीवनिकायानि 6. अनुगहिनेवु च (4) सुखीयनं दुखीयनं जानिसंति धंमयुतेन च 15. न हंतवियानि (9) अठमीपखाये चावुदसाये पंनडसाये तिसाये वियोवदिसंति जनं जानपदं किंति हिदतं च पालतं च 16. पुनावसुने तीसु चातुंमासीसु सुदिवसाये गोने नो नीलखितविये आलाधयेवू ति (5) लजूका पि लघंति पटिचलितवे 17. अजके एडके सूकले ए वा पि अंने नीलखियति नो (6) पुलिसानि पि मे नीलखितविये (10) छंदनानि पटिचलिसंति (7) ते पि च कानि वियोवदिसंति 18. तिसाये पुनावसुने चातुंमासिये चातुंमासि पखाये अस्वसा गोनसा येन मं लजूका 19. लखने नो कटविये (11) यावसडुवीसतिवस अभिसितेन मे चघंति आलाधयितवे (8) अथा हि पज वियताये धातिये निसिजितु 20. अंतलिकाये पंनवीसति बंधनमोखानि कटानि (12) अस्वथे होति वियत धाति चघति मे पजं सुखं पलिहटवे षष्ठ अभिलेख (अपूर्वाभिमुख) 12. हेवं ममा लजूका कटा जानपदस हितसुखाये (9) येन एते अभीता (धर्मवृद्धि : धर्म के प्रति अनुराग) 13. अस्वथ संतं अविमना कंमानि पवतयेवू ति एतेन मे लजूकानं देवानंपये पियदसि लाज हेवं अहा (1) दुवाडस 14. अभिहाले व दंडे वा अतपतिये कटे (10) इछितविये हि 2. वस अभिसितेन मे धमलिटि लिखापिता लोकसा एसा किंति हितसुखाये से तं अपहटा तं तं धंमवढि पापो वा (?) 15. वियोहालसमता च सिय दंडसमता चा (11) अव इते पि च 4. हेवं लोकसा हितसुखेति पटिवेखामि अथ इयं CM G एताये सात 11.
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________________ अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी 711 ory i 5. नातिसु हेवं पतियासनेसु हेवं अपकटेसु 15. एस कटे (22) देवानंपिये पियदसि हेवं आहा (23) किम कानि सुखं अवहामी ति तथ च विदहामि (3) हे मे वा धंममहामाता पि मे ते बहुविधेसु अठेसु आनुगहिकेसु वियापटासे 7. सवनिकायेसु पटिवेखामि (4) सव पासंडा पि मे पूजिता पवजीतानं चेव गिहिथानं च स...डेसु" पि च वियापटासे (24) विविधाय पूजाया (5) ए चु इयं अतना पचूपगमने संघठसि पि मे कटे इमे वियापटा होहंति ति हेमेव बाभनेसु से मे मोख्यमते (6) सडुविसति वस अभिसितेन मे आजीविकेसु पि मे कटे 10. इयं धमलिपि लिखापिता (7) 16. इमे वियापटा होहंति ति निगंठेस पि मे कटे इमे वियापटा होहंति सप्तम अभिलेख (अ) पूर्वाभिमुख नानापासंडेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहंति ति पटिविसिठं तेसु (धर्मप्रचार सिंहावलोकन) तेसु ते ....माता (25) धंममहामाता चु मे एतेसु चेव वियापटा देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (1) ये अतिकंतं सबेसु च पासंडेसु (26) देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा अंतलं लाजाने हुसु हेवं इछिसु कथं जने (27) धंमवडिया वढेया नो चु जने अनुलुपाया धंमवडिया 17. एते च अंने च बहुका मुखा दान-विसगसि वियापटासे मम चे वडिथ (2) एतं देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (3) एस व देविनं च। सवसि च मे ओलोधनसि ते बहुविधेन आ (का) लेन तानि तानि तुठायतनानि पटी (पादयंति) हिद एव दिसासु हुथा (4) अतिकंतं च अंतलं हेवं इछिस लाजाने कथं जने च। दालकानां पि च मे कटे। अंनानं च देवि- कुमालानं इमे दान अनुलुपाया धमवडिया वढेया ति नो च जने अनुलुपाय विसगेसु वियापटा होहंति ति 7. धंमवडिया वडिथा (5) से किनसु जने अनुपटिपजेया (6) 18. धंमापदानठाये धंमानुपटिपतिये (28) एस हि धमापदाने किनसु जने अनुलुपाया धंमवडिया वढेया ति (7) किनसु कानि धंमपटीपति च या इयं दया दाने सचे सोचवे च मदवे साधवे अभ्यूनामयेहं धंमवडिया ति (4) एतं देवानंपिये पिददसि लाजा च लोकस हेवं वडिसति ति (29) देवानंपिये प....सालाजा हेवं हेवं आहा (30) यानि हि कानिचि ममिया साधवानि कटानि तं आहा (9) एस मे हुथा (10) धंमसावनानि सावापयामि लोके अनूपटोपंने तं च अनुविधियंति (31) तेन वडिता च धंमानुसथिनि 19. वडिसंति च मातापितुसु सुसुसाया गुलुसु सुसुसाया वयोमहालकानं अनुसासामि (11) एतं जने सुतु अनुपटीपजीसति अभ्युनमिसति अनुपटीपतिया बाभनसमनेसु कपनवलाकेसु आव दासभटकेसु धमवडिया च वाडं वडिसति (12) एताये मे अठाये संपटीपतिया (32) देवानंपिय ....यदसि लाजा हेवं आहा (33) धंमसावनानि सावापितानि धंमानुसथिनि विविधानि आनापितानि मुनिसानं चु या इयं धंमवडि वडिता दुवेहि येव आकालेहि य ......सा पि बहुने जनसि आयता ए ते पलियो वदिसंति धंमनियमेन च निझतिया च (34) पिप विथलिसंति पि (13) लजूका पि बहुकेसु पानसहसेसु 20. तत चु लहु से धमनियमे निझतिया व भुये (35) धमनियमे चु आयता ते पि मे आनपिता हेवं च हेवं च पलियोवदाथ खो एस ये मे इयं कटे इमानि च इमानि जातानि अवधियानि जनं धंमयुतं (14) देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (15) (36) अनानि पि चु बहुकं .....धमनियमानि यानि मे कटानि एतमेव मे अनुवेखमाने धंमर्थभानि कटानि धंममहामाता कटा धंम (37) निझतिया व चु भुवे मुनिसानं धंमवडि वडिता अविहिंसाये .....कटे (16) देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (17) भुतानं मगेसु पि मे निगोहानि लोपापितानि छायोपगानि होसंति 21. अनालंभाये पानानं (38), से एताये अथाये इयं कटे पसुमुनिसानं अंपावडिक्या लोपापिता (17) अडकासिक्यानि पि पुतापपोतिके चंदमसुलिपिके होतु ति तथा च अनुपटीपजंतु ति मे उदुपानानि (39) हेवं हि अनुपटीपजंतं हिदत पालते आलधे होति (40) 14. खानापापितानि निसिडया च कालापिता (18) आपानानि मे सतविसतिवसाभिसितेन मे इयं धंमलिबि लिखापापिता ति (41) बहुकानि तत तत कालापितानि पटीभोगाये पसुमुनिसानं (19) एतं देवानंपिये आहा (42) इयं ल ..... एस पटीभोगे नाम (20) विविधाया हि सुखापनाया 22. धंमलिबि अत अथि सिलार्थभानि वा सिला फलकानि वा तत पुलिमेहि पिलाजीहि ममया च सुखयितेलोके (21) इमं चु धमानु कटविया एन एस चिलठितिके सिया (43) पटीपती अनुपटीपजंतु ति एतदथा मे