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AMBARSANA
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- डॉ० के० के० शर्मा, हिन्दी विभाग, उदयपुर विश्व विद्यालय
[प्राकृत एवं अपभ्रंश के विशेषज्ञ
अपभ्रंश में वाक्य-संरचना के
hia (Patterns)
जया
वाक्य भाषा की इकाई है। कतिपय विद्वान वाक्य को लघतम इकाई मानते हैं, अन्य रूपिम को लघुतम इकाई प्रतिपादित कर वाक्य को रूपिम, पदबन्ध, उपवाक्यादि का समुच्चय (set) मानते हैं। किसी भी भाषा में वाक्य भाषागत गठन के वैशिष्ट्य पर आधृत होते हैं । योगात्मक प्रवृत्ति वाली भाषा के वाक्यों में पदों के स्थान निश्चित नहीं होते, अर्थाभिव्यक्ति के लिए इसकी अपेक्षा भी नहीं होती। संस्कृत योगात्मक है, इसलिए विश्लेषण आदि पदबन्धों का निश्चित क्रम आवश्यक नहीं है । बाण की कादम्बरी में वाक्य 'अस्ति' अथवा 'आसीत्' से प्रारम्भ होता है और अनेक विशेषण पदबन्धों के उपरान्त विशेष्य आता है । संस्कृत में कर्ता, कर्म आदि अपनी-अपनी विशेष अर्थव्यंजक विभक्तियों से युक्त होते हैं अतः वाक्य कही जाने वाली इकाई में इन्हें कहीं भी रखा जा सकता है, उनका अर्थ अव्यवहित ही रहता है।
कहा जाता है कि अपभ्रंश तक आते-आते संस्कृत की कुछ विभक्तियाँ परसर्गों का रूप ग्रहण कर
थीं. अपभ्रंश में कई विभक्ति रूप समाप्त हो गये। जहाँ संस्कृत में एकवचन, बहवचन में सभी कारकों के संज्ञा रूप परस्पर निश्चित पार्थक्य रखते हैं, वहाँ प्राकृत, अपभ्रंश में अनेक कारकों की विभक्तियाँ एक-सी हो गई हैं। इसके अतिरिक्त सम्बन्धकारक में केरक, केर, केरा; करण में सो, सजो, सह; सम्प्रदान में केहि, अधिकरण में माँझ, उप्परि जैसे परसर्गों का प्रयोग भी अपभ्रश के अध्येताओं ने पाया है।
संस्कृत तिङन्त रूपों के स्थान पर कृदन्त रूपों का प्रचलन अधिकता से होने लगा था। वर्तमान और भविष्य में तिङन्त तद्भव रूप रहे, अन्यत्र कृदन्त रूप ही चले। 'उ' तथा हुँ क्रमश: उ० पु० एक व० और ब० व० की विभक्तियाँ हैं।
प्राकृत, अपभ्रंश किञ्चित् अयोगात्मक होने लगी थीं। किञ्चित मैंने इसलिए कहा कि वाक्यगत प्रयोगों में अधिकता संयोगात्मक रूपों की ही है। पदबन्धों के प्रयोग में, प्राकृत और अपभ्रंश में एक
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अपभ्रंश में वाक्य-संरचना के साँचे
निश्चित व्यवस्था है । अन्त:केन्द्रित (endocentric) और बहिष्केन्द्रित (exocentric) दोनों ही प्रकार की वाक्य-संरचनाएँ प्राकृत, अपभ्रंश में मिलती हैं । मूल वाक्य सरल होते हैं, जटिलता विशेषण पदबन्धों अथवा क्रिया पदबन्धों के समायोजन से उत्पन्न होती है।
डॉ० भोलाशंकर व्यास ने 'संस्कृत का भाषा-शास्त्रीय अध्ययन' ग्रन्थ में संस्कृत भाषा के 'वाक्य' पर भी विचार किया है। उन्होंने प्रासंगिक रूप से अपभ्रंश की वाक्यरचना के विषय में लिखा है"प्राकृत में वाक्य-रचना संस्कृत परिपाटी का पालन करती है । परन्तु अपभ्रंश में कर्ता, कर्म, करण आदि कारकों के लिए एक निश्चित स्थान रह गया ।" डॉ० व्यास का यह कथन व्यापकतः प्रवृत्त नहीं होता, जैसा कि आगे प्रस्तुत उदाहरणों से स्पष्ट हो गया । अपभ्रंश की वाक्यरचना में कर्ता, कर्म, करणादि का एक निश्चित स्थान नहीं है । हाँ, वाक्य-संरचना में कुछ साँचों (Patterns) का आवर्तन अवश्य मिलता है। यह "कुछ साँचों" का आवर्तन तो प्रत्येक भाषा में होता है, किसी भी भाषा में असंख्य साँचे नहीं होते । मानव-मस्तिष्क कतिपय मूल साँचों को स्मरण रखता है, उन्हीं के आधार पर किञ्चित हेर-फेर कर असंख्य साँचे बना लेता है। अतः प्राकृत-अपभ्रंश में भी कुछ साँचे हैं, संस्कृत में भी हैं। प्रत्येक कवि अथवा लेखक के कुछ विशेष साँचे होते हैं जो उस कवि विशेष के सन्दर्भ में शैलीचिन्हक (style marker) कहलाते हैं । संस्कृत में काल और लंकार का विशेष प्रयोग निश्चित था। संज्ञा की भाँति सर्वनाम और विशेषण प्रयुक्त होते थे । कर्मवाच्य में कर्ता के लिए तृतीया का प्रयोग होता है, कर्तृवाच्य में कर्ता के लिए प्रथमा का । "जहाँ सत्तार्थक क्रिया का वर्तमाने प्रयोग होता है यह क्रिया प्रयुक्त नहीं होती। किन्तु ऐसी दशा में उद्देश्य को विधेय के पूर्व रखते हैं। जैसे 'स: पुरुषः शूरः' में 'अस्ति' की अपेक्षा है, 'शूरः : पुरुषः' में अस्ति की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार के प्रयोगों में विशेषक सर्वनाम का प्रयोग सदैव होता है।" प्राकृत-अपभ्रंश में भी यह प्रवृत्ति है। प्रस्तुत प्रसंग में, अपभ्रंश में उपलब्ध कतिपय वाक्य-संरचनाओं को परीक्षणार्थ उपस्थित किया जा रहा है। इनसे अपभ्रंश की वाक्यविन्यास-व्यवस्था का स्वरूप प्रकट होता है। आधुनिक आर्यभाषाओं में अयोगात्मकता के कारण वाक्य । में पदों का स्थान निश्चित है। हिन्दी में नियमत: पहले कर्ता, फिर कर्म, अन्त में क्रिया आती है। काव्यभाषा में क्रम का व्यत्यय होता है, पर सामान्य कथन में स्थान निश्चित ही है। अपभ्रंश को कर्तृवाच्य संरचनाएँ
अपभ्रंश में सामान्य वाक्य कर्ता+कर्म+क्रिया अथवा कर्ता+क्रिया ही होता है। परन्तु संयोगात्मक होने के कारण अन्य क्रम भी दिखलाई पड़ते हैं। स्वयंभूदेव रचित 'पउमचरिउ' में ऐसे प्रयोग शतशः हैं।
'पभणइ सायरबुद्धि भडारउ'--(१)[पउमचरिउ २१ वीं सन्धि] उपर्युक्त वाक्य में एक क्रिया है 'पभणइ' और 'सायरबुद्धि भडारउ' कर्ता है। यह कर्ता और क्रिया से युक्त लघुतम वाक्य है । 'भट्टारक' (भडारउ) भी हटाया नहीं जा सकता। क्योंकि प्रस्तुत प्रसंग में यह 'सायरबुद्धि' के विशेष अर्थ का वाचक है। इसलिए पूरे 'सायरबुद्धि भडारउ' को कर्ता मानना होगा । तब इस सामान्य वाक्य की संरचना होगी
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पापा श्रीआनन्द
अभिशापार्यप्रवर अभः
-श्रीआनन्दैन्थ
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आचार्य प्रव श्री आनन्द
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ग्रन्थ अमन्द आयन व अभिमन
प्राकृत भाषा और साहित्य
इसी वाक्य का विस्तार है—
पभणइ
V
पण सायरबुद्धि भडारउ, कुसुमाउह-सर-पसर णिवारउ - ( २ ) L -१--- २
रेखांकित अंश (१) विशेष्य पदबन्ध है तथा रेखांकित अंश (२) विशेषण पदबन्ध । सामान्यतः विशेषण पदबन्ध पहले और विशेष्य पदबन्ध बाद में रखा जाता है । संस्कृत में ऐसा कोई बन्धन नहीं है । विशेष अर्थ की व्यंजना के लिए विशेषण पदबन्ध को बाद में भी रखा जाता है । उपर्युक्त संरचना में छन्द की अपेक्षा से ( क्योंकि दोनों में मात्राएँ १६-१६ ही हैं ।) विशेषण पदबन्ध बाद में नहीं रखा गया है । इसका कारण सायरबुद्धि की विशेषता पर बल देने की इच्छा ही है । वाक्य ( २ ) की संचरना VSA है, यह VS का ही विस्तार है |
सायरबुद्धि भडारउ=v s
-S
परन्तु सामान्य वाक्य S. V. वाला रूप भी बहु प्रयुक्त हैअज्जु विहीसणु उपरि एसइ
हैं । तब संरचना होगी
-At - S— AL-Vयहाँ AT =Adjunct of time ( कालवाचक विशेषण )
AL = Adjunct of bocation ( स्थानवाचक विशेषण ) S = Subject
( कर्ता )
V = Verb
( क्रिया ) (करणकारकीय)
Ins = Instrumental
At. S. AL V.
यदि AT और AL को हटा दें तो वाक्य -
'विहीणु एसइ '
रह जाता है और सरलीकृत संरचना का स्वरूप S. V. ही प्रकट होता है। ध्यातव्य है कि (१)
और (२) वाक्य में Ar. S. V. और AL का स्थान भाषा की अयोगात्मकता से निर्धारित नहीं है ।
उपर्युक्त दोनों ही वाक्यों में योगात्मक रूप ही प्रयुक्त हैं ।
दसरह —– जणय विणीसरउ लेप्पमउ थवेप्पिणु अध्पणउ
-S
—V—
·0
- ( ४ ) [ प० च० २१ वी० सं०]
इस वाक्य की सामान्य संरचना भी S. V. O ही है । परन्तु यह मिश्रित वाक्य है । कर्म - पदबन्ध स्वयं में पूर्वकालिक क्रिया वाला उपवाक्य है ।
लेप्पमउ थवेप्पिण
'अप्पणउ', लेप्पमउ का विशेषण है ।
अप्पणउ
O-V-M
- (३)
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दो उपवाक्यों वाली संयुक्त वाक्य संरचना इस प्रकार है
अज्जु विहीसणु उपरि
AT
AL
S
एसइ | तुम्हइँ विहि मि सिरहूँ तोडेसइ
-V
V
तो सहसत्ति
-Am
पूर्ण वाक्य में 1 और 2 उपवाक्य हैं, परन्तु इन्हें संयुक्त करने वाला योजक नहीं है। संरचना है
AT. S. AL V +0. V.
उपर्युक्त वाक्य में से ३, ४ और ५ में S. V क्रम ही है । Am. V. S का उदाहरण है
पलित्तु
खग्गेहिं
-Ins वाणेहि
संरचना V. S. Am. है ।
सोहइ
-V
पेखन्तह णरवर
संघाय हुँ- - (७)
इसका तात्पर्य यह हुआ कि स्वयंभूदेव ने कर्तृवाच्य में दो प्रकार की ही संरचनाएँ प्रयुक्त की हैं, SV और V. S., इनमें विस्तार हुए हैं। V. S वाली संरचना संस्कृत वाक्य रचना के प्रभावस्वरूप भी हो सकती है ।
परीक्षणार्थ आचार्य पुष्पदन्त की रचनाओं से भी कतिपय उदाहरण लिए जा सकते हैं । पुष्पदन्त का समय नवीं सदी है । नागकुमार और दुर्वचन के युद्ध-प्रसंग में पुष्पदन्त ने अत्यन्त सरल वाक्यों का प्रयोग किया है
माणुस सरीर --S
अपभ्रंश में वाक्य संरचना के साँचे
छिदंति
—V—
विधंति
जलहरु
S
O
सहपोल
विहीसणु – – (६)
-S
–0+v
हरं वरु वंभणु णवि
मैं ( हूँ) ब्राह्मण नहीं
सिल्ले हिं —Ins—
"फर एहि
सुरधणु
भिदति
-V
रुधंति
-Am
छायए
-(=)
८१
- ( 2 )
- (५)
-- (१०)
संरचना S. V है ।
यदि उपर्युक्त संरचनाओं में पदक्रम में परिवर्तन भी कर दिया जाये तो अर्थ में अन्तर नहीं होगा । मुनि रामसिंह की रचनाओं में भी वाक्य संरचना यही है
- ( ११ )
इस वाक्य में क्रिया सार्वनामिक प्रत्यय 'उं' से ही व्यक्त हो रही है। सार्वनामिक प्रत्ययों के योग
से क्रिया द्वारा पुरुष और लिंग की सूचना की प्रवृत्ति संस्कृत में भी है और आधुनिक आर्य भाषाओं में भी ।
श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द
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आयायप्रवर अभिनंदन
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आचार्यप्रवर
आचार्यप्रकार श्रीआनन्ग्र न्थश्राआनन्दाग्रन्थ
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mommymamimmoramirmwarma
23
८२
प्राकृत भाषा और साहित्य
कासु समाहि करउं को अंचउं
--(१२) किसकी समाधि करू किसे पूजू इन प्रयोगों में भी पदक्रम में अन्तर करने से अर्थ-भेद नहीं होता । मुनि कनकामर के प्रयोग देखें। कनकामर का समय ११वीं सदी का मध्य माना गया है।
सा सोहइ सिय जल कुडिलवन्ति -(१३)
-S - -Vसंरचना S. V. Am.
आचार्य हेमचन्द्र का समय बारहवीं सदी है। हेमचन्द्र की रचनाओं में संयोगात्मक रूप ही प्रयुक्त हुए हैं
विणुमणसुद्धिए लहइ न सिवु जणु -(१४)
उपर्युक्त वाक्य के सभी पद संश्लिष्ट हैं। इसे यों भी लिखा जा सकता है अथवा अन्य क्रम से भी
लहइ न सिवु जणु विणुमणसुद्धिए
अथवा-जणु सिवु लहइ न विणुमणसुद्धिए इससे अपभ्रंश की संयोगात्मक स्थिति ज्ञात होती है। अयोगात्मक संरचनाएँ बहुत कम हैं। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि स्वतन्त्र कारक चिन्हों के विकसित होने पर भी अपभ्रंश की वाक्यसंरचना में संयोगात्मक स्थितिजन्य प्रवृत्ति की ही प्रधानता रही। कर्तृवाच्य संरचनाओं में-v.s अथवा S. V. ही अधिकतर प्रयुक्त हुईं। कर्मवाच्य संरचनाएँ
कर्मवाच्य संरचनाओं में कर्ता तृतीया में होता है और क्रिया के वचन, लिंग और पुरुष का निर्धारण कर्म के अनुसार होता है, अर्थात् कर्मवाच्य की क्रिया को
_On-p-g
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___V
सूत्र से व्यक्त किया जा सकता है। इस सूत्र में V क्रिया पद है, 0-कर्म है तथा n=number, p=person तथा g=gender के सूचक हैं । अर्थात् क्रिया, कर्म के वचन, पुरुष तथा लिंग से निर्धारित होगी। कर्ता करणकारक में होगा, इसका लिंग, वचन और पुरुष स्वतन्त्र होगा। एक उदाहरण देखें
णियइँ सिरई विज्जाहरेंहिं
-~--V...- -0- - -- 'विज्जाहरेंहिं' बहु० व० तृतीया का रूप है, इसमें 'विज्जाहर' (विद्याधर) के अन्त्य 'अ' को विकल्प से 'ए' होकर तृतीया ब० व० की विभक्ति हि लगने से रूप बना विज्जाहरोहिं । णियई' क्रिया पद, कर्म सिरई के अनुरूप है । तब वाक्यसंख्या १५ की संरचना होगी
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V
इसी प्रकार का अन्य प्रयोग है
वाक्य में भी यही संरचना है
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दुट्टु कलत्तु व भुत्तु
-0- _V
भरहु चवन्तु
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इस वाक्य के पूर्व कर्म आ चुका है, यहाँ कर्ता का स्थानी 'दुट्टु कलत्तु' है अत: क्रिया ' भुत्तु' भी 'दुट्ट कलत्तु' की अनुवर्तनी है। इस वाक्य की संरचना है
On-P-G
V
S
O S
दिट्ठी - V---
S
अपभ्रंश में वाक्य - संरचना के साँचे
Ins-G-N-p
Inst
गंगाणइ
1o. v.
पुण्णेण होइ विहओ
V.
O.
S
णिवारिउं ___V----
v.
O.
O.
Ins-G-N-P
Ins
V
G-N-P
कर्मवाच्य संरचना में O. S. V साँचा भी हो सकता है, जैसे निम्नलिखित वाक्य मेंसायरबुद्धि विहीसणेण परिपुच्छिउ - ( १८ )
—0—— -S
-V
जंत एण —S—
अहि
-S
कर्मवाच्य संरचनाओं में S. O और V के क्रम की यह स्वतन्त्रता योगात्मक भाषाओं में
ही सम्भव है ।
- [ मुनि कनकामर ] ( १९ )
O.
V.
S.
v.
O.
भाववाच्य में क्रिया सदैव एक व० पुल्लिंग में रहती है ।
रज्जें गम्मई णिच्च –V¢- –AT -
राए
-S
V.
- [ मुनि रामसिंह ] ( २० )
इस प्रकार देखा जा सकता है कि कर्मवाच्य की वाक्य संरचना के तीन प्रमुख अवयव हैं -SO. और V । संयोगात्मक भाषाओं में इनके निम्नलिखित क्रम सम्भव हैं
1.
S.
2.
S.
3.
4.
- (१६)
- ( १७ )
गोयहों
—AL—
८३
- ( २१ /
alo
राष्
Bu
उपाय अगदी सामान आमद
श्री आनन्द
HYYYY.
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________________ आचार्यप्रaas साधार्यप्रवर आभनन्दन श्रीआनन्दसन्यश्रीआनन्दन 84 प्राकृत भाषा और साहित्य VvvimavIVINYiwimmy.viraimermanor TV - -3 - - V यह सूचित करता है कि क्रिया कर्ता अथवा कर्म आदि से मुक्त है। कभी-कभी विशेषण और विशेष्य के बीच अन्य पदबन्ध आ जाता है, पर अर्थ-अभिव्यक्ति में बाधा नहीं पड़ती, क्योंकि विशेषण और विशेष्य सम-विभक्तिक होते हैं जयसिरि माणणहो कहें केत्तडउ कालु अचलु जउ जीविउ रज्जु दसा दसाणणहों -- - - --- 2 - -- उपयुक्त उदाहरण में अंश 1, अंश 4 का विशेषण है, दोनों के बीच कर्म पदबन्ध है। परन्तु माणणहों की 'हो' षष्ठी एक० व० की विभक्ति और दसाणणहों में भी उसी विभक्ति 'हों के कारण विशेषण-विशेष्य भाव स्पष्ट हो जाता है। अन्यत्र भी विशेषण-विशेष्य की समवैभक्तिकता के प्रमाण मिलते हैं __ दुग्गइ-गामिउ रज्जु ण भुमि --(22) ----Mo-- - - -v'रज्जु' (राज्य) कर्म है / दुग्गइ-गामिउ (दुर्गतिगामी) कर्म का विशेषण (Modifier) है / दोनों में समान विभक्ति चिन्ह 'उ' है / आचार्य हेमचन्द्र के निम्नलिखित सूत्र से कर्म. एक व० में 'उ' की इस स्थिति की सूचना मिलती है 'स्यमोरस्यात' परन्तु यह सूत्र अन्त्य 'अ' को ही 'उ' का आदेश करता है / प्राकृत में भी वाक्य-विन्यास में कर्ता+क्रिया वि०+क्रिया साँचा प्रयुक्त होता रहा है'से ण किणे न किणाकिणंतं न समणुजाणइ' --(23) [आचारांग सूत्र, पृ० 262, सं०-मुनि समदर्शी] 'आवंती केयावंती लोयंसि अपरिग्गहावंती' --(24) [वही, पृ० 428] S अतः कर्तृवाच्य और कर्मवाच्य के ये सांचे प्राकृत-अपभ्रंश में चलते रहे हैं। वस्तुतः जैसा विद्वानों ने कहा है 'अपभ्रंश में अयोगात्मकता हो गई थी', वैसा है नहीं / अपभ्रंश के वाक्य साँचे, जैसा कि उपर्युक्त उदाहरणों से सिद्ध होता है, उसे योगात्मक कोटि की जनभाषा ही सिद्ध करते हैं। तब भी अपभ्रंश के अपने साँचे हैं, अपनी व्यवस्था है। इनमें से कतिपय का दिग्दर्शन उपर्यक्त विवेचन में प्रस्तुत किया गया है।