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आचार्य प्रव श्री आनन्द
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ग्रन्थ अमन्द आयन व अभिमन
प्राकृत भाषा और साहित्य
इसी वाक्य का विस्तार है—
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पभणइ
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पण सायरबुद्धि भडारउ, कुसुमाउह-सर-पसर णिवारउ - ( २ ) L -१--- २
रेखांकित अंश (१) विशेष्य पदबन्ध है तथा रेखांकित अंश (२) विशेषण पदबन्ध । सामान्यतः विशेषण पदबन्ध पहले और विशेष्य पदबन्ध बाद में रखा जाता है । संस्कृत में ऐसा कोई बन्धन नहीं है । विशेष अर्थ की व्यंजना के लिए विशेषण पदबन्ध को बाद में भी रखा जाता है । उपर्युक्त संरचना में छन्द की अपेक्षा से ( क्योंकि दोनों में मात्राएँ १६-१६ ही हैं ।) विशेषण पदबन्ध बाद में नहीं रखा गया है । इसका कारण सायरबुद्धि की विशेषता पर बल देने की इच्छा ही है । वाक्य ( २ ) की संचरना VSA है, यह VS का ही विस्तार है |
सायरबुद्धि भडारउ=v s
-S
परन्तु सामान्य वाक्य S. V. वाला रूप भी बहु प्रयुक्त हैअज्जु विहीसणु उपरि एसइ
हैं । तब संरचना होगी
-At - S— AL-Vयहाँ AT =Adjunct of time ( कालवाचक विशेषण )
AL = Adjunct of bocation ( स्थानवाचक विशेषण ) S = Subject
( कर्ता )
V = Verb
( क्रिया ) (करणकारकीय)
Ins = Instrumental
At. S. AL V.
यदि AT और AL को हटा दें तो वाक्य -
'विहीणु एसइ '
रह जाता है और सरलीकृत संरचना का स्वरूप S. V. ही प्रकट होता है। ध्यातव्य है कि (१)
और (२) वाक्य में Ar. S. V. और AL का स्थान भाषा की अयोगात्मकता से निर्धारित नहीं है ।
उपर्युक्त दोनों ही वाक्यों में योगात्मक रूप ही प्रयुक्त हैं ।
दसरह —– जणय विणीसरउ लेप्पमउ थवेप्पिणु अध्पणउ
-S
—V—
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- ( ४ ) [ प० च० २१ वी० सं०]
इस वाक्य की सामान्य संरचना भी S. V. O ही है । परन्तु यह मिश्रित वाक्य है । कर्म - पदबन्ध स्वयं में पूर्वकालिक क्रिया वाला उपवाक्य है ।
लेप्पमउ थवेप्पिण
'अप्पणउ', लेप्पमउ का विशेषण है ।
अप्पणउ
O-V-M
- (३)
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