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अपभ्रंश के खण्ड और मुक्तक काव्यों को विशेषताएँ डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' मंगल-कशल, अलीगढ़
अपभ्रंश का भारतीय वाङ्मय में महत्त्वपूर्ण स्थान है।' प्रसिद्ध भाषाविदों का मत है कि अपभ्रंश प्राकृत की अन्तिम अवस्था है। छठी शतो से लेकर ग्यारहवीं शती तक इसका देश-व्यापी विकास परिलक्षित होता है। अपभ्रंश भाषा का लालित्य, शैलीगत सरसता और भावों के सुन्दर विन्यास की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ है। चरिउ, महाकाव्य, खण्डकाव्य तथा मुक्तक काव्यों से अपभ्रंश वाङ्मय का भण्डार भरा पड़ा है। यहाँ हम अपभ्रंश के खण्ड तथा मुक्तक काव्यों की विशेषताओं का संक्षेप में अध्ययन करेंगे।
अपभ्रंश के महाकाव्यों में नायक के समग्र जीवन का चित्र उपस्थित न करके उसके एक भाग का चित्र अंकित किया जाता है।" काव्योपयुक्त सरस और सुन्दर वर्णन महाकाव्य और खण्डकाव्य दोनों में ही उपलब्ध होते हैं। अपभ्रंश में अनेक चरिउ ग्रन्थ इस प्रकार के हैं जिनमें किसी महापुरुष का चरित्र किसी एक दृष्टि से ही अंकित किया गया है। ऐसे चरित्र-चित्रण में कवि की धार्मिक भावना की अभिव्यक्ति हई है। अपभ्रंश में धार्मिक भावना के अतिरिक्त अनेक खण्डकाव्य ऐसे भी उपलब्ध है जिनमें धार्मिक चर्चा के लिए कोई महत्त्व नहीं दिया गया है । धार्मिक भावना के प्रचार की दृष्टि से लिखे गये काव्यों में साहित्यिक रूप और काव्यत्व अविक प्रस्फुटित नहीं हो सका है। इस प्रकार के काव्य हमें दो रूपों में उपलब्ध होते है। एक तो वे काव्य जो शुद्ध ऐहिलौकिक भावना से प्रेरित किसी लौकिक जीवन से सम्बद्ध घटना को अंकित करते हैं, दूसरे वे काव्य ऐतिहासिक तत्त्वों से परिपूर्ण है जिसमें धार्मिक या पौराणिक नायक के स्थान पर किसी राजा के गुणों और पराक्रम का वर्णन है और उसी की प्रशंसा में कवि ने समूचे काव्य की रचना की है। इस दृष्टि से अपभ्रंश वाङ्मय में तीन प्रकार के खण्डकाव्य प्रस्तुत हैं- यथा
(i) शुद्ध धार्मिक दृष्टि से लिखे गए काव्य, जिनमें किसी धार्मिक या पौराणिक महापुरुषों के चरित्र का वर्णन
किया गया है। (ii) धार्मिक दृष्टिकोण से रहित ऐहिलौकिक भावना से युक्त काव्य, जिनमें किसी लौकिक घटना का वर्णन है । (iii) धार्मिक या साम्प्रदायिक भावना से रहित काव्य, जिसमें किसी राजा के चरित का वर्णन है ।
अपभ्रंश वाङमय में प्रथम प्रकार के खण्डकाव्य प्रचुरता से मिलते हैं। 'णायकुमार चेरिउ' पुष्पदंत द्वारा रचित है जिसमें नौ सन्धियां हैं। सरस्वती बन्दना से कथा प्रारम्भ होती है। कवि मगध देश के राजगृह और वहाँ के राजा श्रेणिक का काव्यमय शैली में वर्णन कर बतलाता है कि एक बार तीर्थंकर महावीर ने गृहराज में बिहार किया और वहाँ के राजा श्रेणिक उनकी अभ्यर्थना में उपस्थित हुए। उन्होंने तीर्थङ्कर महावीर से श्रुत पंचमी व्रत का माहात्म्य पूछा । महावीर के शिष्य गौतम उनके आदेशानुसार व्रत से सम्बद्ध कथा कहते हैं, जिसे कवि ने सरल तथा सुबोध शैली में अभिव्यक्त किया है।
कवि पुष्पदन्त द्वारा रचित चार सन्धियों/सर्ग का 'जसहरचरिउ' नामक खण्डकाव्य है जिसमें जैन जगत् की सुविख्यात कथा यशोधरचरित को काव्यायित किया गया है । कवि से पूर्व अनेक जैन कवियों ने संस्कृत काव्य में इस चरित को अभिव्यञ्जित किया है ; वादिराज कृत यशोधर चरित इस दृष्टि से उल्लेखनीय काव्यकृति है।
कविवर मयनन्दी कृत 'सुदंसणचरिउ' द्वादश संधियों में रचित खण्डकाव्य है । प्रत्येक संधि को पुष्पिका में कवि ने अपने गुरु का नाम लिया है। 'वीतरागाय नमः' से मंगलाचरण प्रारम्भ हुआ है। तदनन्तर एक दिन कवि मन में सोचता है कि सुकवित्व, त्याग और पौरुष से संसार में यश फैलता हैं । सुकवि में मैं अकुशल हूँ, धनहीन होने से त्याग करने की स्थिति में नहीं हूँ और रहा वीरता प्रदर्शन का सो एक तपस्वी के लिए उपयुक्त नहीं । ऐसी परिस्थिति में भी
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४२८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
मुझमें यश-ऐषणा विद्यमान है अस्तु मैं जिन शक्ति के अनुसार ऐसा काव्य रचता हूँ जो पद्धडिया छन्द में निबद्ध है । काव्य में जिन स्तवन करने से सारी बाधायें विसजित हो जाती है।
इसके अतिरिक्त मुनि कनकामर विरचित दस सन्धियों में 'करकण्ड चरिउ', पदकीति विरचित अठारह सन्धियों का 'पास चरिउ', श्रीधर रचित बारह सन्धियों का 'पासणाहचरिउ', षट् सन्धियों में 'सुकूमालचरिउ', धनपाल' प्रणीत 'भविसयत्तकहा' जिसमें श्रुतपंचमी व्रत और उसके माहात्म्य का विवेचन उल्लिखित है। देवसेन गणि विरचित अठाइस सन्धियों का 'सुलोचनाचरिउ', हरिभद्र विरचित 'सनत्कुमारचरिउ'; कवि लक्खण कृत ग्यारह सन्धियों में 'जिनदत्तचरिउ'; लखमदेव कृन चार सन्धियों का 'नेमिणाहचरिउ'; धनपत रचित अठारह सन्धियों का 'बाहुबलिचरिउ'; यशकीर्ति कृत ग्यारह सन्धियों का 'चन्दप्पह चरिउ'; रइधू कृत 'सुकोसलचरिउ', पापणाहचरिउ, ‘धण्णकुमारचरिउ' तथा भगवती दास विरचित 'मिगांक लेखााचरिउ' आदि चरिउ ग्रन्थ अपभ्रंश वाङ्मय में विख्यात हैं ।
उपङ्कित चरिउ-खण्डकाव्यों के कथानकों में धार्मिक तत्त्वों की प्रधानता है। यदि कोई प्रेमकथा है तो वह भी धार्मिक आवरण से आवृत्त है। यदि किसी कथा में साहस तथा शौर्य वृत्ति व्यञ्जित है तो वह भी उसी आवरण से आवृत्त है। इस प्रकार इन विवेच्य खण्डकाव्यों में धार्मिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन करना इन कवियों को इष्ट रहा है। धर्मसापेक्ष खण्डकाव्यों के अतिरिक्त कतिपय धर्म-निरपेक्ष लौकिक प्रेम भावना से ओतप्रोत खण्डकाव्यों की रचना अपभ्रंश वाङ्मय में उपलब्ध हैं। ये काव्य-जन समाज के सच्चे लेखे हैं । इनमें विभिन्न रूपों में वणित सामाजिक स्वरूप तथा मानव की लोकमूलक क्रियाओं और विभिन्न दृश्यों के सुन्दर चित्र प्राप्त होते हैं। इस दृष्टि से श्री अद्दहमाण का 'सन्देशरासक' एक सफल खण्डकाव्य है। समग्र अपभ्रंश वाङ्मय में यही एक ऐसा काव्य है जिसकी रचना एक मुसलमान कवि द्वारा हुई है । कवि का भारतीय रीत्यानुभव, साहित्यिक तथा काव्यशास्त्रीय निकष नैपुण्य प्रस्तुत खण्डकाव्य में प्रमाणित होता है ।
'सन्देशरासक' एक सन्देशकाव्य है। अन्य खण्डकाव्यों की भांति इसका कथानक सन्धियों में विभक्त नहीं है। इसकी कथा तीन भागों में विभाजित है जिसे 'प्रक्रम' की संज्ञा दी गई है। इसमें दो सौ तेइस पद हैं। प्रथम प्रक्रम प्रस्तावना रूप में है । द्वितीय प्रक्रम से वास्तविक कथा प्रारम्भ होती है और तृतीय प्रक्रम में षडऋतु वर्णन है ।
विद्यापति रचित 'कोतिलता' एक ऐतिहासिक चरित काव्य है जिसमें कवि ने अपने प्रथम आश्रयदाता कीतिसिंह का यशोगान किया है। अपभ्रंश वाङ्मय में इस प्रकार का एक मात्र यही काव्य उपलब्ध है।
चरित काव्यों के साथ ही अपभ्रंश में अनेक ऐसे मुक्तक काव्यों' की रचना भी हुई है जिनमें किसी व्यक्ति विशेष के जीवन का उल्लेख हुआ है । ऐसो कृतियों में धर्मोपदेश का प्राधान्य है । ये रचनायें मुख्यतया जैनधर्म, बौद्धधर्म तया सिद्धों के सिद्धान्तों से अनुप्राणित हैं । अपभ्रंश में रचित मुक्तक कृतियों को निम्नफलक में व्यक्त किया जा सकता है-यथा
अपभ्रंश मुक्तक काव्य
धार्मिक
साहित्यिक (प्रेम, शृङ्गार, वीर रसादि सम्बन्धी
जैनधर्म सम्बन्धी
बौद्धधर्म सम्बन्धी
आध्यात्मिक
___आधिभौतिक
आधिभौतिक
सिद्धान्त प्रतिपादक
सिद्धान्त प्रतिपादक
खण्डन-मण्डनात्मक
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अपभ्रंश के खण्ड और मुक्तक काव्यों की विशेषताएँ ४२९ जैनधर्म पर आधारित मुक्तक काव्यों जा जहाँ तक प्रश्न है पहिले यहाँ आध्यात्मिक काव्यों की चर्चा करेंगे। आध्यात्मिक रचना करने वाले कवि प्रायः जैन धर्मावलम्बी ही हैं। इस प्रकार के काव्यों में जैनधर्म की जो अभिव्यञ्जना हुई है, उसमें धार्मिक संकीर्णता, कट्टरता और अन्य धर्मों के प्रति विद्वेष भावना के अभिदर्शन नहीं होते। इन कवियों का लक्ष्य मनुष्य को सदाचारी बनाकर उसके जीवन स्तर को ऊंचा ऊठाकर श्रेयस्कर बनाना था। इनमें बाह्य आचार, कम-कलाप, तीर्थयात्रा व्रत आदि की उपेक्षा जीवन में सदाचार एवं आन्तरिक शुद्धि के किए प्रेरित किया है। इन्होंने बताया कि परमतत्व इसी शरीर-मंदिर में सम्भव है और उसी की उपासना से मानव शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकता है। अपभ्रंश के इन कवियों का जीवन धार्मिक था। ये पहले सन्त थे पीछे कवि । इनके काव्य में भावों की प्रधानता रही है और कलापक्ष वस्तुतः गौण है।
कविवर योगीन्द्र कृत 'परमात्म-प्रकाश' तथा 'योगसार' नामक काव्य विख्यात हैं। इन काव्यों में कवि ने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप का विवेचन किया है साथ ही परमात्मा के ध्यान पर बल दिया है। सांसारिक बन्धनों तथा पाप-तुण्यों को त्याग कर आत्मध्यान लीन ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। मुनि रामसिंह रचित 'दोहापाहुड' जिसमें अध्ययन चिन्तन है, अपभ्रंश का आध्यात्मिक काव्य है । कवि ने इस विख्यात रचना में आत्मानुभूति
और सदाचरण के विना कर्मकाण्ड की निस्सारता का प्रतिपादन किया है। सच्चासुख, इन्द्रियनिग्रह आत्मध्यान में विद्यमान है । इसके अतिरिक्त सुप्रभाचार्य कृत "वैराग्यसार" आदि उल्लेखनीय मुक्तक काव्य उपलब्ध है।
द्वितोय कोटि में आधिभौतिक रचनाएँ परिगणित की जा सकती है, जिनमें सर्वसाधारण के लिए नीति, सदाचार सम्बन्धी धर्मोपदेशों का प्रतिपादन किया गया है। इस दृष्टि से देवसेन कृत 'सावयधम्मदोहा' जिसमें आध्यात्म विवेचन के साथ श्रावकों, गृहस्थों के लिए आचार संहिता का प्रतिपादन हुआ है । ग्रंथारम्भ में मंगलाचरण है साथ ही खलवंदना भी है । इसका अपरनाम 'श्रावकाचार दोहक' भी है। जिनदत्तसूरि कृत 'उपदेस रसायनरास' महत्त्वपूर्ण कृति है जिनमें कवि ने आत्मोद्धार से मनुष्य जन्म सफल होने की बात कही है। सोमप्रभाचार्य कृत 'द्वादशभावना' नामक काव्य ग्रंथ में सांसारिक अनित्यता और क्षणभंगुरता का सम्यक् विवेचन हुआ है । 'संयममंजरी' महेश्वर सूरि विरचित ३५ दोहों की छोटो कृति उल्लेखनीय है । इसके अतिरिक्त ३१ पद्यों की लघु रचना 'चूनडी' भट्टारक विनयचन्द्र मुनि रचित है। इसमें कवि ने धार्मिक भावनाओं और सदाचारों से रंगी हुई चूनड़ी ओढ़ने का संकेत दिया है।
___ जैन कवियों की भाँति बुद्ध, सिद्धों द्वारा भी अपभ्रंश में मुक्तक काव्यों की रचना हुई है । सिद्धों के अनेक दोहों और गीतों का संग्रह राहुल जी द्वारा सम्पादित 'हिन्दी काव्यधारा' में प्राप्त है । विषय की दृष्टि से उसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-यथा
(i) सिद्धान्त प्रतिपादनवाली रचनाएं। (ii) कर्मकाण्ड का खण्डन करने वाली रचनाएँ।
काव्यकला की दृष्टि से सिद्ध कवियों की रचनाएँ चाहे अधिक महत्त्व की न हो तथापि उनक कथ्य अपना स्थाई महत्त्व रखता है ऐसी रचनाओं के द्वारा चाहे प्राणी में आनन्दोद्रेक न होता हो तथापि जागतिक उन्मार्ग से सन्मार्ग की ओर सम्यक् प्रेरणा होती । सरहपा, लुईया, काण्हपा तथा सान्तिपा नामक सिद्ध कवियों द्वारा अनेक मुक्तक काव्यों की रचना हुई है।
अपभ्रंश वाङ्मय में विविध साहित्यिक मुक्तक काव्यों की रचना भी द्रष्टव्य है। ऐसे मुक्तक काव्यों का कथ्य साधारण जीवन की घटनाओं और चर्याओं पर आधारित है। ये मुक्तक प्रबन्ध काव्यों में चारण, गौप आदि पात्रों द्वारा सुभाषितों और सूक्तियों के रूप में व्यवहृत है । जहाँ तक सुभाषित रूप में प्राप्त मुक्तक पद्यों का प्रश्न है उनके अघिदानि निम्न रचनाओं में सहज हो जाते हैं-यथा
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________________ 430 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड १-विक्रमोर्वशीय नाट्य चतुर्थ अंक ( कालिदास)। २-प्राकृतव्याकरण ( हेमचन्द्र कृत)। ३-कुमारपालप्रतिबोध ( सोमप्रभाचार्य)। ४-प्रबन्धचिन्तामणि ( मेरुतुंगाचार्य)। ५-प्रबन्धकोश ( राजशेखर ) / ६-प्राकृत पैंगलम् / इनके अतिरिक्त ध्वन्यालोक (आनन्दवर्द्धनकृत), काव्यालंकार (रुद्रट्कृत), सरस्वती काण्ठाभरण (भोजकृत), दशलपक (धनंजय कृत) अलंकार ग्रंथों में भी कतिपय अपभ्रंश के पद्य उपलब्ध होते हैं / इन पदों शृंगार, वीर, वैराग्य, नीति-सुभाषित, प्रकृतिचित्रण, अन्योक्ति, राजा या किसी ऐतिहासिक पात्र का उल्लेख आदि विषय अंकित हुए हैं। इन पद्यों में काव्यत्व है, रस है, चमत्कार है और हृदय को स्पर्श करने की अपूर्व क्षमता है। उपर्यङ्कित विवेचन के आधार पर यह सहज में कहा जा सकता है कि चरित तथा प्रबन्ध-काव्यों के अतिरिक्त अपभ्रंश का खण्ड तथा मुक्तक-काव्य भाव तथा कला की दृष्टि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। साहित्य के उन्नयन के लिए अपभ्रंश वाङ्मय के स्वाध्याय की आज परम आवश्यकता है / सन्दर्भ-संकेत १-नाट्यशास्त्र 18182 2-(i) भारत का भाषा सर्वेक्षण, डॉ. ग्रियर्सन, 243 / पुरानी हिन्दी का जन्मकाल, श्री काशीप्रसाद जायसवाल, ना०प्र० स०, भाग 8, अंक 2 / (iii) अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ 23-25 / / 3-(i) हिन्दी साहित्य का आदिकाल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पृष्ठ 20-21 / (ii) तीर्थङ्कर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग 4, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ 93 / ४-अपभ्रंश के खण्ड और मुक्तक काव्यों की विशेषताएं, आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', अहिंसावाणी, मार्च-अप्रैल 1977 ई०, पृष्ठ 65-67 / ५-हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग 2. नेमिचन्द्र जैन. पष्ठ 24 / ६-भविसयत्तकहा का साहित्यिक महत्त्व, डॉ० आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', जैनविद्या, धनपाल अंक, पृष्ठ 29 / ७-अपभ्रंशसाहित्य, हरिवंशकोछड़, पष्ठ 129 / ८-धनपाल नाम के तीन कवि, जनसाहित्य और इतिहास, पं० नाथूराम प्रेमी, पृष्ठ 467 / ९-अपभ्रंश काव्य परम्परा और विद्यापति, डॉ० अम्बादत्त पन्त, पृष्ठ 249 / १०-साहित्य सन्देश, वर्ष 16, अंक 3, पृष्ठ 90-93 / 11-(1) ध्वन्यालोक 37 / (ii) काव्यमीमांसा, पृष्ठ 114 / १२-जैन शोध और समीक्षा, डॉ. प्रेमसागर जैन, पृष्ठ 58-59 / १३-हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ० रामकुमार वर्मा, पृष्ठ 83 / १४-संस्कृत टीका के साथ जैनसिद्धान्त भास्कर, भाग 16, किरण दिसम्बर 1949 ई० छपा है। १५-जैन शोध और समीक्षा, डॉ. प्रेमसागर जैन, पृष्ठ 60 / १६-कुमारपाल प्रतिबोध, पृष्ठ 311 / १७-अपभ्रंश साहित्य, हरिवंश कोछड़, पृष्ठ 295 / १८-जैन हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, श्री कामता प्रसाद जैन पृष्ठ 7. /