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४२८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
मुझमें यश-ऐषणा विद्यमान है अस्तु मैं जिन शक्ति के अनुसार ऐसा काव्य रचता हूँ जो पद्धडिया छन्द में निबद्ध है । काव्य में जिन स्तवन करने से सारी बाधायें विसजित हो जाती है।
इसके अतिरिक्त मुनि कनकामर विरचित दस सन्धियों में 'करकण्ड चरिउ', पदकीति विरचित अठारह सन्धियों का 'पास चरिउ', श्रीधर रचित बारह सन्धियों का 'पासणाहचरिउ', षट् सन्धियों में 'सुकूमालचरिउ', धनपाल' प्रणीत 'भविसयत्तकहा' जिसमें श्रुतपंचमी व्रत और उसके माहात्म्य का विवेचन उल्लिखित है। देवसेन गणि विरचित अठाइस सन्धियों का 'सुलोचनाचरिउ', हरिभद्र विरचित 'सनत्कुमारचरिउ'; कवि लक्खण कृत ग्यारह सन्धियों में 'जिनदत्तचरिउ'; लखमदेव कृन चार सन्धियों का 'नेमिणाहचरिउ'; धनपत रचित अठारह सन्धियों का 'बाहुबलिचरिउ'; यशकीर्ति कृत ग्यारह सन्धियों का 'चन्दप्पह चरिउ'; रइधू कृत 'सुकोसलचरिउ', पापणाहचरिउ, ‘धण्णकुमारचरिउ' तथा भगवती दास विरचित 'मिगांक लेखााचरिउ' आदि चरिउ ग्रन्थ अपभ्रंश वाङ्मय में विख्यात हैं ।
उपङ्कित चरिउ-खण्डकाव्यों के कथानकों में धार्मिक तत्त्वों की प्रधानता है। यदि कोई प्रेमकथा है तो वह भी धार्मिक आवरण से आवृत्त है। यदि किसी कथा में साहस तथा शौर्य वृत्ति व्यञ्जित है तो वह भी उसी आवरण से आवृत्त है। इस प्रकार इन विवेच्य खण्डकाव्यों में धार्मिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन करना इन कवियों को इष्ट रहा है। धर्मसापेक्ष खण्डकाव्यों के अतिरिक्त कतिपय धर्म-निरपेक्ष लौकिक प्रेम भावना से ओतप्रोत खण्डकाव्यों की रचना अपभ्रंश वाङ्मय में उपलब्ध हैं। ये काव्य-जन समाज के सच्चे लेखे हैं । इनमें विभिन्न रूपों में वणित सामाजिक स्वरूप तथा मानव की लोकमूलक क्रियाओं और विभिन्न दृश्यों के सुन्दर चित्र प्राप्त होते हैं। इस दृष्टि से श्री अद्दहमाण का 'सन्देशरासक' एक सफल खण्डकाव्य है। समग्र अपभ्रंश वाङ्मय में यही एक ऐसा काव्य है जिसकी रचना एक मुसलमान कवि द्वारा हुई है । कवि का भारतीय रीत्यानुभव, साहित्यिक तथा काव्यशास्त्रीय निकष नैपुण्य प्रस्तुत खण्डकाव्य में प्रमाणित होता है ।
'सन्देशरासक' एक सन्देशकाव्य है। अन्य खण्डकाव्यों की भांति इसका कथानक सन्धियों में विभक्त नहीं है। इसकी कथा तीन भागों में विभाजित है जिसे 'प्रक्रम' की संज्ञा दी गई है। इसमें दो सौ तेइस पद हैं। प्रथम प्रक्रम प्रस्तावना रूप में है । द्वितीय प्रक्रम से वास्तविक कथा प्रारम्भ होती है और तृतीय प्रक्रम में षडऋतु वर्णन है ।
विद्यापति रचित 'कोतिलता' एक ऐतिहासिक चरित काव्य है जिसमें कवि ने अपने प्रथम आश्रयदाता कीतिसिंह का यशोगान किया है। अपभ्रंश वाङ्मय में इस प्रकार का एक मात्र यही काव्य उपलब्ध है।
चरित काव्यों के साथ ही अपभ्रंश में अनेक ऐसे मुक्तक काव्यों' की रचना भी हुई है जिनमें किसी व्यक्ति विशेष के जीवन का उल्लेख हुआ है । ऐसो कृतियों में धर्मोपदेश का प्राधान्य है । ये रचनायें मुख्यतया जैनधर्म, बौद्धधर्म तया सिद्धों के सिद्धान्तों से अनुप्राणित हैं । अपभ्रंश में रचित मुक्तक कृतियों को निम्नफलक में व्यक्त किया जा सकता है-यथा
अपभ्रंश मुक्तक काव्य
धार्मिक
साहित्यिक (प्रेम, शृङ्गार, वीर रसादि सम्बन्धी
जैनधर्म सम्बन्धी
बौद्धधर्म सम्बन्धी
आध्यात्मिक
___आधिभौतिक
आधिभौतिक
सिद्धान्त प्रतिपादक
सिद्धान्त प्रतिपादक
खण्डन-मण्डनात्मक
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