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आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार का मल्यांकन
अनिल कुमार मेहता संसार में आज जितने देश हैं उतनी ही संस्कृतियाँ हैं। प्रत्येक संस्कृति एक ममतामयी माँ है और हर देश या राज्य का प्रत्येक प्राणी उस स्नेही माता की संतान है। केवल मनुष्य ने ही अपनी संस्कृति को वास्तविक रूप में पहचान कर उसकी रक्षा समृद्धि के लिए प्रयत्न किए हैं।
भारतीय संस्कृति के इतिहास के अध्ययन से हमें रोचक बातें ज्ञात होती हैं। जैन धर्म भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है और इसका प्राकृत भाषा के साथ प्रारम्भ से ही घनिष्ठ सम्बन्ध है और उस समय जन-साधारण में प्रचलित भाषा को प्राकृत कहा जाता था। प्राकृत भाषा के अस्तित्व को वैदिक सूत्रों की रचना के समय में भी स्वीकार किया गया है। अतएव भारतीय संस्कृति के विकास में जैनधर्म एवं प्राकृत भाषा के उल्लेखनीय योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता।।
___ जैन साहित्य के अन्तर्गत प्राकृत भाषा में आगम, टीका, कथा, चरित्र, काव्य, पुराण आदि अनेक रचनायें हैं। यह सम्पूर्ण साहित्य लिखित रूप में महावीर के निर्वाण के पश्चात् का ही है। जैन साहित्य में प्राकृत कथा साहित्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। अधिकांश कथा साहित्य धर्म-भावना से प्रेरित होकर ही लिखा गया है। आगम युग से लेकर १६-१७ वीं शताब्दी तक प्राकृत भाषा में अनेक जैन कथाकारों ने सैकड़ों रचनाओं का प्रणयन किया इनमें पादलिप्तसूरि, विमलसूरि, हरिभद्रसूरि, उद्योतनसूरि, कौतूहल कवि, नेमिचन्द्रसूरि, जिनहर्षगणि आदि प्रमुख हैं।
वडगच्छीय आचार्य नेमिचन्द्रसूरि, ग्यारहवीं शताब्दी के प्रमुख कथाकार थे। इन्होंने सन् १०७३ से १०८३ के मध्य आख्यानकमणिकोश नामक कथा ग्रन्थ की रचना की। इनकी अन्य चार कृतियों के नाम इस प्रकार हैं :
(१) उत्तराध्ययनवृत्ति (२) रत्नचूड-कथा (३) महावीर-चरियं और (४) आत्मबोधकुलक अथवा धर्मोपदेश-कुलक ।
आख्यानकमणिकोश में मूलतः ५२ गाथाएँ ही हैं। प्रथम गाथा में मंगलाचरण और द्वितीय गाथा में प्रतिज्ञात वस्तु का निर्देश है। शेष ५० गाथाओं में विभिन्न १४६ आख्यानों का संकेत-मात्र है। २० आख्यानों की पुनरावृत्ति हो जाने के कारण वास्तविक कथाएँ १२६ ही हैं। मूल गाथाओं में प्रतिपादित विषय से सम्बन्धित आख्यान के कथानायक या नायिका का नाम ही बताया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ये कथाएँ पूर्ववर्ती और समकालीन १. डा० कत्रे, -प्राकृत भाषायें और भारतीय संस्कृति में उनका अवदान पृ. ५९ २. जैन, जगदीशचन्द्र-प्राकृत साहित्य का इतिहास पृ० ३६०
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अनिल कुमार मेहता अन्य जैन ग्रन्थों में भी उपलब्ध थीं। लेखक ने उन आख्यानों को सरलता से याद रखने वे उद्देश्य से गाथाओं में संक्षिप्त किया है। उदाहरण के लिए २४ वें अधिकार की एक गाथा प्रस्तुत है--
रागम्मि वणियपत्ती दोसे नायं ति नाविओ नंदो।
कोहम्मि य चंडहडो मयकरणे चित्तसंभूया ॥' इस गाथा में कहा गया है कि राग के विषय में वणिक्-पत्नी का, द्वेष के विषय में नाविक नंद का, क्रोध के विषय में चंडभट का और अहंकार के विषय में चित्र-सम्भूति का आख्यान है।
इन मूल गाथाओं के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए सन् ११३४ में आम्रदेवसूरि ने एक बहदवत्ति की रचना की । यह वृत्ति आचार्य नेमिचन्द्रसूरि के आदेश से सिर्फ नौ माह में जयसिंह देव के शासन काल में धोलका-गुजरात में पूर्ण की गयी। वृत्ति का अधिकांश भाग महाराष्ट्री प्राकृत में है किन्तु १० आख्यान संस्कृत और २ आख्यान प्राकृत भाषा में भी हैं। कहीं-कहीं पर संस्कृत एवं प्राकृत गद्यों का भी प्रयोग हुआ है। वृत्ति के अन्तर्गत १२६ आख्यान ४१ अधिकारों में विभक्त हैं । यहाँ २४ वें रागाद्यनर्थपरम्परावर्णन नामक अधिकार का मूल्यांकन प्रस्तुत है।
इस अधिकार का मुख्य केन्द्रबिन्दु यह है कि राग-द्वष, क्रोध आदि कषाय तप, संयम, त्याग आदि पवित्र अनुष्ठानों को नष्ट करते हैं। अतः इन्हें प्रयत्नपूर्वक जीतना चाहिये। इन कषायों के दुष्परिणामों को बताने के लिए वणिक्-पत्नी, नाविकनंद, कृषक चंडभट, चित्रसम्भूति नामक चांडालपुत्रों, मायादित्य, लोभनंदी एवं नकुलवणिक् भ्राताओं की कथाएँ वर्णित हैं।
आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार की उक्त कथाओं के बिषय पूर्ववर्ती ग्रन्थों से ग्रहण किये गये हैं। कुछ कथाओं को लौकिक आधार भी प्रदान किया गया है। चंडभट एवं नकूल वणिक् की कथाएँ मौलिक प्रतीत होती हैं । सम्भवत; वृत्तिकार ने स्वयं इन कथाओं की रचना की है क्योंकि इनके मूल स्रोत प्राकृत साहित्य में अन्यत्र अनुपलब्ध हैं, तथापि इन कथाओं के अभिप्रायों से समानता रखने वाली कथाएँ जैन साहित्य में प्राप्त हो जाती हैं। प्रस्तुत अधिकार की वणिक्-पत्नी-कथा के सूत्र जैनागमों की व्याख्याओं से ग्रहण किये गये हैं। इस कथा का उल्लेख हरिभद्र द्वारा रचित आवश्यकवृत्ति, जिनदासगणि महत्तर की आवश्यकचणि और वानरमुनि की गच्छाचारप्रकीर्णकवृत्ति में भी हुआ है। १. आख्यानकमणिकोशवृत्ति, (सम्पादक : मुनि पुण्यविजय जी) पृ० २१८ २. (क) शास्त्री, देवेन्द्र मुनि, महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं, पृ० ७९,
(ख) कुवलयमालाकहा (चंडसोम एवं लोभदेव की कथा)-सम्पादक-उपाध्ये ए० एन० ३. (क) आवश्यकवृत्ति पृ० ३८८, आगमोदय समिति, बम्बई, १९१६-१७.
(ख) आवश्यकणि भाग-१, पृ० ५१४, रिषभदेव केसरीमल, रतलाम-१९२८. (ग) गच्छाचारप्रकीर्णकवृत्ति, पृ० २६, आगमोदय समिति, बम्बई, १९२३.
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आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार का मूल्यांकन
१६७ प्रस्तुत अधिकार की नाविक नन्द की कथा विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यकचूणि, आवश्यकवृत्ति और धर्मोपदेशमालाविवरण से ली गयी है।' चित्र-सम्भूति का आख्यान मूल रूप में उत्तराध्ययनसूत्र के तेरहवें अध्याय में आया है। बौद्ध कथाओं में चित्र-सम्भूत नामक जातक में भी यह कथा वर्णित है। इन दोनों कथाओं में अत्यधिक समानता है । शान्टियर ने अपनी पुस्तक "द उत्तराध्ययनसूत्र' में इन दोनों कथाओं की गाथाओं में भी समानता बताई है। इन दोनों में से उत्तराध्ययन की कथा को प्राचीन माना गया है। आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने इसे अपनी अन्यतम कृति सुखबोधावृत्ति में सम्पूर्ण रूप से प्रस्तुत किया है। उत्तराध्ययनसूत्र की व्याख्याओं तथा सूत्रकृतांगचूणि एवं आवश्यक चूर्णि में भी इस कथा के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसकी कथावस्तु से साम्य रखती हुई और भी कथाएँ प्राप्त होती हैं, जिनमें से हरिकेशीय की कथा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । यह कथा आख्यानकमणिकोशवृत्ति के ३२वें अधिकार तथा जातक के चौथे खण्ड के मातंग जातक में और उत्तराध्ययन के १२वें अध्ययन में विस्तार से वर्णित है। अतः यह तथ्य सुस्पष्ट है कि २४वें अधिकार की इस कथा को अन्य ग्रंथों से ग्रहण कर संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
मायादित्य कथा आगम और उसके व्याख्यात्मक साहित्य में अनुपलब्ध है । आठवीं सदी में उद्योतनसुरि द्वारा रचित प्राकृत-चम्पूकाव्य "कुवलयमालाकहा" में इस कथा का विस्तार से वर्णन हआ है।" यह कथा कुवलयमाला में तो गद्य-पद्यात्मक शैली में लिखित है, परन्तु कमणिकोश-वृत्ति में केवल पद्यात्मक शैली में ही लिखी गयी । यद्यपि दोनों कथाओं की कथावस्तु में विशेष अन्तर नहीं है तथापि भाषा एवं काव्य-गुणों की दृष्टि से अनेक विभिन्नताएँ दृष्टिगत होती हैं। फिर भी यह सुनिश्चित है कि वृत्तिकार में कुवलयमाला की मायादित्य-कथा के आधार पर ही नवीन मौलिकता के साथ इस कथा की रचना की है। १. (क) विशेषावश्यक भाष्य गाथा ३५७५ रिषभदेव केसरीमल, रतलाम, १९३६,
(ख) आवश्यकचूणि भाग -१, पृ० ५१६-५१७ रिषभदेव केसरीमल, रतलाम, १९२८. (ग) आवश्यकवृत्ति, पृ० ३८९-३९०.
(घ) धर्मोपदेशमालाविवरण, पृ० २११, सिंघीजैनग्रन्थमाला, ग्रन्थांक २८. २. जातक, चतुर्थ खण्ड, संख्या ४९८, पृ० ६००. ३. घाटगे, ए० एम०-एनल्स ऑफ द भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, भाग-१७,
पृ० ३४२. ४. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० १३, २१३-२१४, (ख) उत्तराध
१० ३७४-७५, देवीचन्द लालभाई सीरीज, बम्बई, १९१६. (ग) उत्तराध्ययनवृत्ति, (नेमिचन्द्र), (कमलसंयम) पृ० २५४, लक्ष्मीचन्द जैन पुस्तकालय, आगरा,
१९२३. पृ० १८५-८७, पुष्पचन्द्र खेमचन्द्र, बलाड़, १९३७. (ध) सूत्रकृतांगचूणि, पृ० १०९. रिषभदेव केसरीमल, रतलाम, १९४१.
(ङ) आवश्यचूर्णि भाग-१, पृ० २३१, रिषभदेव केसरामल, रतलाम, १९२८-२९. ५. उपाध्ये, ए० एन०-कुवलयमालाकहा-द्वितीय प्रस्ताव, पृ० १८.
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अमित कुमार मेहता
लोभनंदी की कथा का वर्णन आवश्यकचूर्णि में हुआ है । इसमें भी जिनदास को एक निःस्वार्थी श्रावक बतलाया गया है साथ ही जितशत्रु राजा का उल्लेख भी आया है ।' लोभकषाय को लेकर प्राकृत कथा साहित्य में कई कथाओं की रचना हुई है ।
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काव्यात्मक मूल्यांकन इन कथाओं में अनेक काव्यात्मक तत्त्वों का प्रयोग हुआ है । विभिन्न वस्तु व्यापारों के अन्तर्गत विशेषक, शालिग्राम, बलिचन्द आदि ग्रामों तथा हस्तिनापुर, वाराणसी, क्षितिप्रतिष्ठित, साकेत, उज्जयिनी और वसन्तपुर नामक नगरों के उल्लेख हैं मायादित्य कथा में काशी जनपद का बहुत सुन्दर आलंकारिक शैली में वर्णन हुआ है । प्राकृतिक दृश्यों, ऋतुओं, पर्वतों, नदियों आदि के संक्षिप्त विवरण भी देखने को मिलते हैं । यात्रा के वर्णन भी संक्षेप में ही प्रस्तुत किये गये हैं ।
पात्रों के चरित्र-चित्रण में मनुष्य वर्ग में अच्छे-बुरे व्यक्तित्व वाले एवं निम्न, मध्यम और उच्च तीनों स्तर के पात्रों को प्रस्तुत किया गया है । पुरुष पात्रों में अरिहमित्र, नंद, चंडभट, चन्द्रावतंसक, चित्र, सम्भूति, नमुचि, गंगादित्य, स्थाणु, जितशत्रु, शिव, शिवभद्र, लोभनंदी, जिनदास एवं धर्मरुचि के चरित्रों पर प्रकाश डाला गया है । नारीपात्रों में अरिहन्न की पत्नी, शिव - शिवभद्र की बहिन और उनकी माँ को उपस्थित किया गया है किन्तु इनके नाम नहीं बताएं गये हैं ।
इन कथाओं में आर्याछंद का ही प्रयोग हुआ है । अलंकारों की दृष्टि से उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, लाटानुप्रास आदि अलंकारों के उदाहरण प्राप्त होते हैं । इन कथाओं के संक्षिप्त होने के कारण इनमें रस के विभिन्न प्रयोगों को अवसर नहीं मिला है । कुछ छोटेछोटे संवाद भी प्राप्त होते हैं, इनमें से स्थाण्- मायादित्य, शिव- शिवभद्र, जिनदास - जितशत्रु आदि के संवाद महत्त्वपूर्ण हैं । इसी प्रकार सदाचार, अर्थ, लक्ष्मी, काम, गुप्त बातों की रक्षा और रागादि कषायों को जीतने के विषय से संबंधित संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के सुभाषित पद्यों का प्रयोग हुआ है। अर्थ के विषय में प्रयुक्त हुआ एक सुभाषित पद्य द्रष्टव्य है— जाई रूवं विज्जा तिन्नि वि निवडंतु गिरिगुहाविवरे । अत्थो च्चिय परिवड्ढउ जेण गुणा पायडा हुंति ॥
अर्थात् जाति, रूप और विद्या तीनों ही पर्वत की गुफा के छिद्र में भले ही गिर जायें, केवल अर्थ को ही बढ़ाने का प्रयत्न किया जाय क्योंकि उसीसे गुण प्रकट होते हैं ।
भाषात्मक विश्लेषण प्रस्तुत अधिकार की कथाओं की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है अतः इनमें महाराष्ट्री प्राकृत की लगभग सभी विशेषताएं मिलती हैं और इसीलिये स्वर एवं व्यंजन के परिवर्तन, समीकरण, लोप, आगम, आदि महाराष्ट्री प्राकृत के नियमानुसार ही हैं । यद्यपि व्याकरण के प्रयोगों में वृत्तिकार ने पूर्ण कुशलता का परिचय दिया है तथापि इस अधि
१. आवश्यकचूर्णि, भाग -१, पृ० ५२२, ५२५.
२. जैन, जगदीशचन्द्र, प्राकृतजैनकथा साहित्य.
३. आख्यानकमणिकोश - वृत्ति, २४।७६.१-५.
४. वही २४ । ७८.३२, २१, २२, ४१।७७. १३, १५/८० के बाद दो
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आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार का मूल्यांकन
१६९ कार की कथाओं में कुछ विभक्तियों एवं क्रियाओं के विभिन्न रूपों के प्रयोगों का अभाव है। विशेषणों, कृदन्तों, अव्ययों एवं तद्धितों के पर्याप्त प्रयोग मिलते हैं। इस अधिकार की मूल गाथाओं की व्याख्या संस्कृत भाषा में है। आख्यान प्राकृत भाषा में ही प्रस्तुत किये गये हैं, संस्कृत भाषा के केवल तीन सुभाषित पद्य ही प्राप्त होते हैं। यद्यपि अपभ्रंश भाषा का प्रयोग इन कथाओं में नहीं हुआ है तथापि देशी शब्दों का कहीं-कहीं उपयोग किया गया है।
___ सांस्कृतिक महत्त्व : - इस अधिकार में वर्णित कथाओं में तत्कालीन भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि विवरण प्राप्त होते हैं, इनसे उन कथाओं का सांस्कृतिक महत्त्व स्पष्ट होता है, अतएव उक्त विवरणों को यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत करना आवश्यक है।
भौगोलिक वर्णन के अन्तर्गत विभिन्न नगरों, ग्रामों, पर्वतों, नदियों, आदि के कुछ प्रसंग आये हैं। इनकी स्थिति एवं ऐतिहासिकता आदि के संबंध में रोचक तथ्य प्राप्त होते हैं।' इनमें गंगा एवं गंधवती नदियों के संक्षिप्त वर्णन मिलते हैं। अंजनपर्वत और विंध्याचलपर्वत के भी उल्लेख हैं साथ ही शिशिर एवं वसंत ऋतु का उल्लेख क्रमशः नंद एवं चित्र-सम्भूत की कथाओं में हुआ है।
ऐतिहासिक एवं राजनैतिक संदर्भो में चित्र-सम्भूति-कथा में उल्लिखित सनत्कुमार को हस्तिनापुर का चक्रवर्ती बताया गया है । यह बारह चक्रवर्तियों में से चौथा था।२ वाराणसी, साकेत एवं वसंतपुर के शासकों के नाम क्रमशः शंख, चन्द्रावतंसक और जितशत्रु थे। नाविक नंद का भी अपने छठे जन्म में वाराणसी के राजा के रूप में उत्पन्न होने का प्रसंग आया है।' एक अज्ञात नाम भील-सेनापति, ग्राम-प्रमुख और सैनिकों के उल्लेख हुये हैं। प्रान्तीय व्यवस्था में जनपदों, नगरों, ग्रामों आदि की व्यवस्था थी। न्याय-प्रणाली में अपराधियों को दिये जाने वाले मृत्यु-दण्ड, कारागृह निवास शारीरिक यातना व देश-निष्कासन आदि दण्डों का वर्णन हुआ है साथ ही पुरस्कार देने के प्रावधान भी बताये गये हैं।"
इन कथाओं में अनेक सामाजिक तथ्यों का संकलन हुआ है। कर्मगत वर्ण-व्यवस्था के आधार पर वर्गीकृत चार वर्गों में से क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्ण के पात्रों का उल्लेख हुआ है। जनजाति में भील; अन्त्यज जाति में चाण्डाल; कर्मकार जाति में कृषक, खनक, स्वर्णकार, मछुआरे, नाविक आदि का वर्णन है । इन कथाओं से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय सामूहिक परिवार में रहने की प्रथा प्रचलित थी। समस्त मानव वर्ग विभिन्न वर्ण एवं जातियों में विभक्त था। नारियां प्रायः कामुक एवं लोभीवृत्ति की होती थीं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
१. आख्यानकमणिकोशवृत्ति के २४वें अधिकार का सानुवाद मूल्यांकन, पृ० ७८, अनिल कुमार मेहता २. आवश्यकचूणि भाग-१, पृ० ४२९. ३. आख्यानकमणिकोशवृत्ति २४।७५.१६ 1. वही २४७६. १२, ७७.७, ७७.२७, ७९.१४. ५. आख्यानकमणिकोशवृत्ति २४।७९. १२.
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अनिल कुमार मेहता
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इन चारों पुरुषार्थी का महत्त्वपूर्ण स्थान था, समाज अनेक विकारों से ग्रस्त था । लोग कर्मसिद्धान्त पर विश्वास करते थे ।
आर्थिक विवरणों में "अर्थ अनर्थ की जड़" इस उक्ति को चरितार्थ करने वाले अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए नंद नाविक और धर्मरुचि का प्रसंग द्रष्टव्य है । मायादित्यकथा में अर्थ से संबंधित दो सुभाषित पद्य प्रयुक्त हुये हैं । इसी कथा में अर्थोपार्जन के लिये जुआ, चोरी, लूट-पाट आदि को गर्हित' तथा कृषि, धातुवाद, देव आराधना, राजा की सेवा, सागर - सन्तरण आदि धर्मसम्मत उपाय बतलाये गये हैं । अर्थ-प्राप्ति हेतु उस समय लोग हत्या जैसे घृणित कार्य करने में भी संकोच नहीं करते थे । धन के स्थानान्तरण हेतु नकुलक ( बटुए) आदि के उपयोग का भी प्रसंग है । क्रय-विक्रय आदि के वर्णन संक्षिप्त हैं ।
धार्मिक एवं दार्शनिक महत्व : जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है कि इन कथाओं को धार्मिक भावना से प्रेरित होकर लिखा गया है । अतः स्वाभाविक है कि इनमें धर्म, दर्शन और अध्यात्म के वर्णन निश्चित रूप से हुये ही हैं । इन कथाओं का प्रमुख उद्देश्य मानव में नैतिक सिद्धान्तों का संचरण करना और उसे मानसिक एवं वैचारिक दृष्टि से शुद्ध बनाना है । इस अधिकार के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि इसमें राग आदि अनर्थ परम्पराओं का वर्णन हुआ है । इन कथाओं में कषायरूपी राग-द्वेषात्मक उत्तापों के विस्तृत रूपों क्रोध, मान, माया एवं लोभ को ही मुख्य रूप से चित्रित किया गया है। इन कषायों के दुष्परिणामों के वर्णन उद्देश्य से ही इन उपदेशप्रद कथाओं की रचना हुई है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया और लोभ के प्रतिनिधित्व करने वाले पात्रों के नाम क्रमशः वणिक्-पत्नी, नाविक नंद और धर्मरुचि साधु, चंडभट, चित्र-सम्भूति, मायादित्य, लोभनंदी और शिव- शिवभद्र तथा उनकी बहिन है यद्यपि इन कषायों में प्रवृत्ति रखने वाले इन पात्रों को दुःख प्राप्ति होना ही बताया है तथापि तप-संयम, पश्चात्ताप आदि द्वारा उनके लिये पुनः मुक्ति प्राप्ति भी बताई गयी है । सारांशत इन कषायों पर विजय प्राप्ति के लिये ही मानव को प्रेरित किया गया है ।
इसके अतिरिक्त इन कथाओं में कर्म सिद्धान्त का भी मुख्य रूप से प्रतिपादन हुआ हैं। प्रत्येक पात्र, चाहे वह सत्कर्मी हो या दुष्कर्मी, उसको अपने कर्मानुसार परिणामों प्राप्ति होना अवश्य बताया गया है । उदाहरणार्थ:- वणिक्-पत्नी, नंद नाविक आदि अपने दुष्कर्मों के कारण अनंत संसार का भागी बताया गया है । दूसरी ओर गंगादित्य प्रायश्चित्त कर लेने व धर्मरुचि मुनि द्वारा अपने पूर्वकृत कर्मों की प्रत्यालोचना कर लेने उन्हें स्वर्ग प्राप्त होना भी बताया गया है ।
इसी प्रकार वणिक् पत्नी, नाविक नंद एवं चित्र सम्भूति की कथाओं में निदानफल अर्थात् सकाम कर्म करने के परिणाम के संबंध में भी वर्णन प्राप्त होता है । निदान बाँधने कारण ही अरिहन्त की पत्नी व नंद नाविक राग एवं द्वेष करते रहते हैं । इसके अतिरिक्त इन कथाओं में और भी
१. ( क ) वही पृ० २२३ गाथा २६-२७,
(ख) कुवलयमालाकहा, पृ० ५७ अनुच्छेद १६-१७ः
भाव के कारण संसार में परिभ्रमण अनेक धार्मिक एवं दार्शनिक तथ्यों
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________________ आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार का मूल्यांकन 171 समावेश हुआ है, किन्तु समयाभाव के कारण उन सबका विस्तार से वर्णन कर सकना संभव नहीं है। फिर भी कुछ दार्शनिक शब्दों के नाम प्रस्तुत कर देना आवश्यक है, यथा-जातिस्मरण, नीच-गोत्र, पुनर्जन्म, प्रायश्चित्त, शुक्लध्यान, लेश्या आदि / कषाय-विजय, कर्मफल के अतिरिक्त धर्मोपदेश, आलोचना-प्रतिक्रमण, गंगास्नान आदि धार्मिक प्रसंग भी इस अधिकार में रोचकता उत्पन्न करते हैं। निष्कर्ष यह है कि आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार की कथाएँ जैन धर्म के कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का प्रतिपादन करती हुई मानवता को जागृत करने में पूर्ण सक्षम हैं। जिससे व्यक्ति-व्यक्ति एवं राष्ट्र की नैतिकता की सुदृढ़ता को ठोस आधार मिलता है। ये कथाएँ अनेक प्राचीन सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक विवरणों को प्रस्तुत करती हैं, साथ ही प्राकृत कथा साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान प्रतिपादित करते हुए रोचक एवं धार्मिक कथानकों के माध्यम से लोगों का मनोरंजन भी करती हैं। प्राकृत कथा साहित्य के अन्य ग्रंथों से आख्यानकमणिकोश की इन कथाओं से तुलना करने पर और भी रोचक तत्त्वों और इनकी मौलिकता के बारे में नवीन जानकारी प्राप्त होगी। अतः इस क्षेत्र में शोध कार्य करने की आवश्यकता से कदापि इनकार नहीं किया जा सकता। शोध छात्र, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, मौलिक विज्ञान एवं मानविकी-संस्थान, (नव परिसर), सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर-३१३००१ (राज.)