Book Title: Aagam 24 CHATU SHARAN Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004124/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [२४] श्री चतु:शरणं (प्रकीर्णक)सूत्रम् । नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । "चतु:शरण” मूलं एवं छाया [मूलं एवं संस्कृतछाया] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ।। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२५], प्रकीर्णकसूत्र-[] "चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४) “चतु:शरण" - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [-] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२४], प्रकीर्णकसूत्र - [१] “चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया चतु:शरण' प्रकीर्णक(१) श्रीआगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, पूर्वमुद्रितग्रन्थाङ्कः-४५, अर्थ-ग्रन्थाङ्कः-४६. श्रुतस्थविरसूत्रितं । चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं (छायायुतम्। प्रतिसाद प्रकाशक:-श्रीआगमोदयसमितेः कार्यवाहकः झवेरी-वेणीचंद सूरचंद । --00000 इदं पुस्तकं मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटवीथ्यां-२६-२८ तमे गृहे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापयित्वा प्रकाशितम् । 20-4 वीर सं० २४५३. विक्रम सं० १९८३. सन १९२७. वेतन रू.२-9-9. चतुःशरण-प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाड़का: ६३ 'चतु:शरण' प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ६३ मूलांक: गाथा पृष्ठांक: मूलांक: गाथा पृष्ठांकः | | मूलांक: गाथा पृष्ठांक: | ००४ ००८ ००५ ००५ ००१ । | ०४९ | आवश्यक-अर्थाधिकारः दुष्कृत् गर्दा मंगल-आदि सुकृत् अनुमोदना ०१० ०५९ चतु:शरणम् उपसंहारः ०१० । ०५५ । ०११ । । | । ०१२ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [२४], प्रकीर्णकसूत्र - [१] "चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया ~2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['चतु:शरण' - मूलं एवं संस्कृतछाया] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “चतु:शरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं” नामसे सन १९२७ (विक्रम संवत १९८३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इस प्रतमे १० प्रकीर्णक थे. इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२४], प्रकीर्णक सूत्र - [१] "चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१] ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२४], प्रकीर्णकसूत्र - [१] "चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया PRG ॥ अहम् ॥ प्रत सच्छाये प्रकीर्णकदशके-चउसरणपइण्णयं । ॥ Dona दीप अनुक्रम | सावजजोगविरई १ उकित्तण २ गुणचओ अ पडिवत्ती ३ । खलिअस्स निंदणा ४ वणतिगिच्छ ५ गुणधारणा| चेव ६॥१॥ चारित्तस्स विसोही कीरइ सामाइएण विल इहयं । सायजेअरजोगाण बजणासेषणत्तणओ ।।२।। दसणयारविसोही चउवीसायथएण किचद य । अचम्भुअगुणकित्तणावेण जिणवरिंदाणं ॥ ३ ॥ नाणाईआ उ गुणा तस्संपन्नपडिवत्तिकरणाओ। वंदणएणं विहिणा कीरइ सोही उ तेसिं तु ॥ ४॥ खलिअस्स य तेसि पुणो सावद्ययोगविरतिः १ उत्कीर्तनं २ गुणवतश्च प्रतिपत्तिः ३ । स्खलितस्य निन्दनं ४ व्रणचिकित्सा ५ गुणधारण ६ चैव ॥ १॥ चारिनस्य विशुद्धिः क्रियते सामायिकेन किलेह । सावद्येतरयोगानां वर्जनाऽऽसेवनतः ॥ २॥ दर्शनाचारविशुद्धिश्चतुर्विशत्यात्मसवेन क्रियते | च । अत्यद्भुतगुणकीर्तनरूपेण जिनवरेन्द्राणाम् ॥ ३ ॥ ज्ञानादिका एव गुणास्तरसंपन्नप्रतिपत्तिकरणान् । वन्दनकेन विधिना क्रियते शुद्धि स्तुतिः (लोकस्योद्योतकरः)। २ वन्दनम् । ३ पडावश्यकाधिकाराः । अथ षड् आवश्यकस्य व्याख्या लिख्यते ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [५] ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [२४], प्रकीर्णकसूत्र - [१] "चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||५|| ASKAR 96 १ चउसर-विहिणा जं निंदणाइ पटिकमणं । तेण पडिकमणेणं तेसिपि अकीरए सोही ॥५॥ चरणाईयारा(इयाइया]णं पञ्चाचाणपइन्नयं. जहकम्मं वणतिगिच्छरूवेणं । पडिकमणासुद्धाणं सोही तह काउसग्गेणं ॥ ६॥ गुणधारणरूवेणं पसक्खा-13राः। उपो॥१॥ गेण तवहारस्स । विरिआयारस्स पुणो सब्वेहिवि कीरए सोही ॥७॥ गय १ वसह २ सीह ३ अभिसे रातः दाम ५ ससि ६ दिणयरं ७ सय ८ कुंभं ९ । पउमसर १० सागर ११ विमाण-भवण १२ रयणुचय १३ सि- गा. ११ हिं१४ च ॥८॥ अमरिंदनरिंदमुर्णिदवंदिरं वंदिउं महावीरं । कुसलाणुषंधि बंधुरमज्झयणं कित्सहस्सामि ॥९॥ |चउसरणगमण १ दुकडगरिहा २ सुकडाणुमोअणा ३ चेव । एस गणो अणवरयं कायव्यो कुसलहेजत्ति ॥१०॥ अरिहंत सिद्ध साह केवलिकहिओ सुहावहो धम्मो । एए चउरो चउगइहरणा सरणं लहर धन्नो ॥ ११॥ अह | रेव तेषां तु ॥ ४ ॥ स्खलिता च तेषां पुनर्विधिना यन् निन्दनादि प्रतिक्रमणम् । तेन प्रतिक्रमणेन तेषामपि च क्रियते शुद्धिः ॥ ५॥ | चरणातिचाराणां यथाक्रमं प्रणचिकित्सारूपेण । प्रतिक्रमणाशुद्धानां शुद्धिसथा कायोत्सर्गेण ॥ ६॥ गुणधारणरूपेण प्राण्यानेन तपोऽतिचारस्य (शुद्धिः)। बीर्याचारस्य पुनः संरपि क्रियते शुद्धि ।। ७॥ गज पर्म सिंह अभिषेक (भियः) दाम शशिनं दिनकर ध्वज कुम्भम् । परासरः सागर विमानभवनं जोच्चयं शिखिनं ॥८॥ अमरेन्द्रनरेन्द्रमुनीन्द्रवन्दितं वन्दित्वा महावीरम् । कुशलानुपन्धि बन्धुरमध्यकायन कीर्तयिष्यामि ||९| चतुःशरणगमनं दुष्कृतगर्दा सुकतानुमोदना चैव । एप गणोऽनवरतं कर्तव्यः कुशलहेतुरिति ॥१०|| अर्हन्तः १ परणाईचारयाण (प.) परणातिगादीनाम् । २ आवश्यकपन पन्नाचारशुद्धिः। एतान् पश्यन्ति जिनमातरः।। दीप अनुक्रम S*XXC KAR ॥ १ ॥ गाथा ९ - चौद-स्वप्नानाम् नामानि दर्शितानि, अब चतुःशरणं वक्तव्यता आरब्धा ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+संस्कृतछाया) ----------- मूलं [१२] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [२४], प्रकीर्णकसूत्र - [१] "चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया P- प्रत सूत्रांक REA4% ||१२|| दासो जिणभत्तिभरुच्छरंतरोमंचकंचुअकरालो । पहरिसपणउम्मीसं सीसंमि कपंजली भणइ ॥ १२ ॥ रागहो। सारीणं हंता कम्मट्ठगाइ अरिहंता। विसयकसायारीणं अरिहंता हुंतु मे सरणं ॥ १३ ॥ रायसिरिमुवफमि-IA (सित्ता तवचरणं दुचरं अणुचरित्ता । केवलसिरिमरिहंता॥१४॥ धुइवंदणमरिहंता अमरिंदनरिंदपूअमरिपाहता । सासयसुहमरहंता॥१५॥ परमणगयं मुर्णता जोइंदमहिंदशाणमरहता। धम्मकहं अरहंता अरि-5 हंता ॥ १६ ॥ सबजिआणमहिसं अरहंता सवयणमरहंता । बंभवयमरहंता॥१७॥ ओसरणमवसरित्ता चउतीसं अइसए निसेवित्ता । धम्मकहं च कहता अरिहंता०॥ १८ ॥ एगाइ गिराऽणेगे संदेहे देहिणं समं सिद्धाः २ साधवः ३ केवलिकधितः सुखावहो धर्मः। एतावतुरश्चतुर्गतिहरणान् शरणं लभते धन्यः ॥ ११॥ अथ स जिनमकिमरोग्छलद्रोमाञ्चक शुककरालः । प्रहर्षप्रणयोनिमय शी कृताजलिर्भणति ॥ १२ ॥ रागोपारीणां हन्तार: फर्माएकाचरीणां हन्ता । विषषकायारीणां (हन्तारः) अहेन्तो भवन्तु मे शरणम् ॥१शा राजश्रियमुपक्रम्य तपश्चरण दुधरमनुचर्य । केवलनियमहन्तोऽईतो भवन्त मे शरणम् ॥ १४॥ स्तुतिवन्दनमहतोऽमरेन्द्रनरेन्द्रपूजामईन्तः । शाश्वतमुखमईन्तोऽईन्तो० ॥ १५॥ परमनोगतं जानन्तो। योगीन्द्रमहेन्द्रध्यानमहन्तः । धर्मकथामईन्तोऽन्तो० ॥१६॥ सर्वजीवानामहिंसामहन्तः सत्यवचनमहन्तः । मनतमन्तोऽन्तिो. १७ || समवसरणे समवसत्व चतुर्विंशतमतिशयान् निसेव्य । धर्मकथा कथयन्तः ॥ १८॥ एकया गिरा अनेकान् सन्देहान् मवकसिता(म०)अवस्य । दीप अनुक्रम [१२] 82 34304 | अरहंत, अरिहंत, अरुहंत शब्दानाम् व्याख्या ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४) प्रत सूत्रांक ||१९|| दीप अनुक्रम [P9] १ चउसर पन्नयं. ॥ २ ॥ “चतुः शरण" प्रकीर्णकसूत्र १ (मूलं संस्कृतछाया) मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [२४] प्रकीर्णकसूत्र [०१] "चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया tem सिद्ध शब्दस्य व्याख्या - छिप्ता । तियणमणुसाता अरिहंता० ॥ १९ ॥ वर्षाणामरण भूषणं निश्वाविंता गुणेसु ठावंता। जिअलोजमुद्धता अरिहंता० ॥ २० ॥ अच्चन्भुयगुणवंते निअजसससहरपसाहिआदिअंते । निअयमणाइअनंते पडिबन्नो सरणमरिहंते ॥ २१ ॥ उज्झिअजरमरणाणं समन्तदृक्खससत्तसरणाणं । तिहुअणजणसुहयाणं अरिहंताणं नमो ताणं ॥ २२ ॥ अरिहंतसरणमल सुद्धिलद्वसुविसुद्धसिद्धबहुमाणो । पणय सिररश्य करकमलसेहो सहरिसं भइ || २३ || कम्मट्टकखयसिद्धा साहाविअलाणदंसणसमिद्धा । सट्टलसिद्धा ते सिद्धा हंतु मे सरणं ||२४|| तिअलोअमत्थपत्था परमपयत्था अर्थितसामत्था । मंगलसिद्धपयत्था सिद्धा सरणं सुहपसत्था ।। २५ ।। मूलुक्यपटिवक्खा अमूढलक्खा सजोगिपचक्खा । साहाविअत्तसुक्खा सिद्धा सरणं परममुक्खा ।। २६ ।। पडिपिल्लिअपडिणीया समग्गझाणग्गिदह भवधी आ। जोईसरसरणीया सिद्धा सरणं सुमरणीया ॥ २७ ॥ पादेहिनां युगपछि त्रिभुवनमनुशासतः ॥ १९ ॥ वचनामृतेन भुवनं निर्वापयन्तो गुणेषु स्थापयन्तः जीवलोकमुद्धर्त्तारः ॥ २० ॥ अत्यद्भुतगुणवतो निजयशः शशभर प्रभासितदिगन्धान् नियतमनाद्यनन्तान् प्रतिपन्नः शरणमर्हतः ।। २१ ।। उज्झितजरामरणेभ्यः समतदुःखार्तसस्वशरणेभ्यः । त्रिभुवनजनसुखदेभ्योऽयो नमस्तेभ्यः ॥ २२ ॥ अचरणमलशुद्विधसुविशुद्धसिद्धबहुमानः । प्रणयशिरोरचित करकमलशेखरः सह भणति ।। २३ ।। कर्माष्टकयसिद्धाः स्वाभाविकज्ञानदर्शनसमृद्धाः । सर्वार्थलब्धिसिद्धास्ते सिद्धा भवन्तु मम शरणम् ॥ २४ ॥ त्रिलोक मस्तकस्थाः परमपदस्था अचिन्त्यसामर्थ्याः । मङ्गलसिद्धपदार्थाः सिद्धाः शरणं सुखप्रशस्ताः ॥ २५ ॥ मूढोत्खानप्रतिपक्षा अनूपक्षाः सयोगिप्रत्यक्षाः स्वाभाविकात्म सौख्याः सिद्धाः शरणं परममोक्षाः ।। २६ ।। प्रतिप्रेरितप्रत्य TUO ~7~ अर्हसि द्धशरणं गा. २७ ॥ २ ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+संस्कृतछाया) ----------- मूलं [२८] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [२४], प्रकीर्णकसूत्र - [१] "चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२८|| KAPOCROCRCRAYACANCY दीप अनुक्रम [२८] विषपरमाणंदा गुणनीसंदा विभिन्न(विईपण]भवकंदा । लहुईकपरविचंदा सिद्धा सरणं खविअदंदा ॥ २८ ॥ उवलद्धपरमवंभा दुल्लहलंभा विमुफसरंमा । भुवणघरधरणखंभा सिद्धा सरणं निरारंभा ॥ २९॥ सिद्धसरपण नवर्षभहेउसाहुगुणजणिअबहुमाणो (अणुराओ] | मेइणिमिलंतसुपसस्थमस्थओ तस्थिम भणइ ॥ ३०॥1 जिअलोअपंधुणो कुगइसिंधुणो पारगा महाभागा । नाणाइएहिं सिवसुक्खसाहगा साहुणो सरणं ॥ ३१ ॥ केवलिणो परमोही विउलमई सुअहरा जिणमयंमि । आयरिअ उवज्झाया ते सचे साहुणो सरणं ॥३२॥ चउदसदसनवपुची दुचालसिकारसंगिणो जे अ । जिणकप्पाहालंदिश परिहारविसुद्धिसाह अ॥ ३३ ॥ खी-13 रासवमहुआसवसंभिन्नस्सोअकुहबुद्धी अ । चारणवेउविषयाणुसारिणो साहुणो सरणं ॥ ३४ ॥ उज्झियवहर-12 नीकाः सममध्यानामिदग्धभववीजाः । योगीश्वरस्मरणीयाः (शरणीयाः) सिद्धाः शरणं स्मरणीयाः ॥ २७ ॥ प्रापितपरमानन्दा गुण-18 | निरस्यन्दा विभिन्न (विदीर्ण) भवकन्दाः। धूफतरविचन्द्राः सिद्धाः शरणं क्षपितद्वन्द्वाः ॥ २८॥ उपलब्धपरमत्रमाणो दुर्लभलाभा | विमुक्तसरम्भाः । भुवनगृहधरणसम्भाः सिद्धाः शरणं निरारम्भाः ॥ २९॥ सिद्धशरणेन नवब्रह्मदेनुसाधुगुणजनितबहुमानः (ORIX नुरागः) । मेदिनीमिटरसुप्रशस्तमस्तकस्तदं भगति ।।३०।। जीवलोकचन्धवः कुगतिसिन्धोः पारगा महाभागाः । ज्ञानादिकैः शिवसौख्यसाधकाः साधवः शरणम् ॥ ३१ ॥ केवलिनः परमावधयो बिपुलमतयः' भुतधरा जिनमते । आचार्या उपाध्यायाने सर्वे सा-15 धवः शरणम् ॥ ३२ ॥ चतुर्दशदशनवपूर्षिणो द्वादशैकादशाङ्गिनो ये च । जिनकस्पिका यधालन्दिकाः परिहारविशुद्धिकसाधवाच ॥३३॥ क्षीराभवमधाभवसं भिन्न मोतसः कोष्ठभुद्धिश्च । चारणवैक्रिय पदानुसारिणः साधवः शरणम् ॥३४॥ मितौरविरोधा नित्यमद्रोहाः प्रशा-13 | साधु एवं केवलिप्रज्ञप्तधर्म शब्दयो: व्याख्या ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+संस्कृतछाया) ----------- मूलं [३५] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [२४], प्रकीर्णकसूत्र - [१] "चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३५|| १चउसर-G विरोहा निश्चमदोहा पसंतमुहसोहा । अभिमयगुणसंदोहा हयमोहा साहुणो सरणं ॥ ३५ ॥ खंहिअसिणेह-साधशरण णपइन्नयं. दामा अकामधामा निकामहहकामा । सुपुरिसमणाभिरामा आपारामा मुणी सरणं ॥ ३६॥ मिल्हिअविस- Iगा.४१ यकसाया जिसपघरघरणिसंगसुहसाया । अकलिअहरिसविसाया साह सरगं गयपमापा ।। ३७ ॥ हिंसा-31 ॥३ ॥ दिइदोससुन्ना कयकारुना सांभुरुप्पना (प्पुण्णा] । अजरामरपहखुन्ना साह सरणं सुकय पुन्ना ॥ ३८ ॥ काम-12 विडंपण चुका कलिमलमुफा विवि(मचिोरिका । पावरयसुरमरिका साह गुणरपणचचिका ॥३९॥ साहुत्तसुट्ठिया जं आयरिआहे तओय ते साहू | साहुभणिएण गहिया तम्हा ते साहुणो सरणं ॥४०॥ पडियन्नसाहुसरणो सरणं का पुणोवि जिणधम्मं । पहरिसरोमंचपवंचकंचुअंचिअतणू 'भणह ।। ४१ ।। पवरसुकरहिं पत्तं | न्तिमुखशोभाः । अभिमतगुणसन्दोहा इतमोहाः साधवः शरणम् ॥ ३५ ॥ खण्डित नेहदामानोऽकामधामानो निकाममुसकामाः । सुपुरपमनोऽभिरामा आरमारामा मुनयः शरणम् ।। ३६ ॥ मुक्तविषयकषाया उझितगृहगृहिणी सङ्गमुखसाताः । अकलितहर्ष विपादाः साधवः | भारणं गतममाः || ३७॥ हिंसादिदोषशून्याः कृतकारुण्याः स्वयम्भूरुक्मज्ञाः (पूर्णाः) । क्षुण्णाजरामरपथा: साधवः शरणं मुफतपूर्णाः ।। ३८ ॥ त्यक्तकामविहम्मकः मुक्तकलिमला विवि(म)क्तचौर्याः। रिक्तपापरजःसुरताः साधको गुणरजमण्डिताः ॥ ३९॥ साधुस्वसुस्थिता यद् आचार्यादयस्वनच ते साधवः । सापभणनेन गृहीतास्तस्माते साधवः दारणम ॥४०॥ प्रतिपन्नसाधशरणः शरणIM॥३॥ |कर्तुं पुनरपि जिनधर्मम् । प्रहर्षरोमाञ्चप्रपञ्चककाश्चिततनुर्भणति ।।११।। प्रवर सुकृतैः प्राप्त पात्रैरपि पर कैश्चिन्न प्राप्तम् । तं केवलिप्रज्ञप्तं AAAACAKACCX दीप PACSCRXXXX अनुक्रम [३५] ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+संस्कृतछाया) ....................-- मूलं [४२] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [२४], प्रकीर्णकसूत्र - [१] "चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||४२|| KACACAKACANCE दीप अनुक्रम [४२] पत्तेहिवि नवरि केहिवि न पत्तं । तं केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवन्नोऽहं ॥ ४२ ॥ पत्तेण अपसेण य पत्ताणि अ जेण नरसुरसुहाई । मुक्समुहं पुण पत्तेण नवरि धम्मो स मे सरणं ॥४३॥ निहलिअकलुसकम्मो कपसुहजम्मो खलीकपअहम्मो । पमुहपरिणामरम्मो सरणं मे होउ जिणधमो ॥ ४४ ॥ कालत्तएविन मयं जम्म-| जरमरणवाहिसयसमयं । अमयं व बहुमपं जिणमयं च सरणं पवन्नोऽहं ॥४५॥ पसमिअकामपमोहं। [दिहादिवेसु नकलिअविरोहं । सिवसुहफलयममोहं धर्म सरणं पवन्नोऽहं ॥ ४६ ॥ नरपगइगमणरोहं गुणसंदोहं पयाइ निक्खोहं । निहणिअबम्महजोहं धर्म सरणं पवन्नोऽहं ।। ४७॥ भासुरसुवनसुंदररपणालंकारगारवमहरघं । निहि मिव दोगचहरं धम्मं जिणदेसिअं वंदे ॥ ४८ ॥ चउसरणगमणसंचिअसुचरिअरोमंचअंचियसरीरो । कयदुकडगरिहा असुहकम्मकखयकंखिरो भणइ ॥४९॥ इहभविअमनमवि मिच्छत्तपत्तणं | धम शरणं प्रपन्नोऽहम् ॥ ४२ ॥ पात्रेण अपात्रेण च प्राप्तानि येन नरसुरसुखानि । मोक्षसुखं पुनः पात्रेणैव केवलो धर्मः स मे शरणम् ॥ ४३ ॥ निर्दलितकलुषको कृतशुभजन्मा खलीकृताधर्मः। प्रमुखपरिणामरम्यः शरणं मे भवतु जिनधर्मः ॥४४॥ कालत्रयेऽपि न मृतं जन्मजरामरणण्याधिशवशमकम् । अमृतमिव बहुमतं जिनमतं च शरणं प्रपन्नोऽहम् ॥ ४५ ॥ प्रशमितकामप्रमोदं ष्टादृष्टयोनकलितविरोधम् । शिवसुखफलदममो धर्म शरणं प्रपन्नोऽहम् ॥ ४६॥ नरफगतिगमनरोधक गुणसन्दोहं प्रवादिनिःक्षोभम् । निहतमन्मअयोधं धर्म शरणं प्रपन्नोऽहम् ॥ १७ ॥ भास्वरसुवर्णसुन्दररचना(रजा)लकारगौरवमहाघम् । निधिमिव दौगैत्यहरं धर्म जिनदेशित बन्दै ।। ४८ ॥ चतुःशरणगमनसच्चितमुपरितरोमाञ्चाश्चितशरीरः । कृतदुष्कृतगहोंऽशुभकर्मक्षयकारक्षी भणति ॥४९॥ ऐहभवि-| ACCOCOCKR अथ दुष्कृत् गहाँ आरभ्यते ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+संस्कृतछाया) ----------- मूलं [५०] ---- १ चमर- णपइन्नयः ॥४॥ प्रत सूत्रांक ||५०|| जमहिगरणं । जिणपक्षणपडिकुई दुई गरिहामि तं पावं ॥५०॥ मिच्छत्सतमंघेणं अरिहंताइसु अवनवणं रहताइसु अवन्नवयणंदुकडनिं। अनाणेण विरइयं इहि गरिहामि तं पावं ॥५१॥ सुअधम्मसंघसाहुसु पापं पहिणीअयाइ जं रइअंदा सुकृअनेसु अ पावेसुं इहि गरिहामि ॥५२॥ अनेसु अ जीवेसुं मित्तीकरुणाइगोयरेसु कपं। परिआवणाइतानु. ५८ दुक्खं इहि गरिहामि तं पापं ॥५३॥ जं मणषयकाएहिं कयकारिअअणुमहहिं आपरियं । धम्मविरुद्धमसुद्धं | सर्व गरिहामि तं पावं ॥ ५४॥ अह सो दुक्कडगरिहादलिउक्कडदुकडो फुडं भणह । सुकटाणुरापसमुहलपुनपु-18 लयंकरकरालो ॥ ५५॥ अरिहत्तं अरिहंतेसु जं च सिद्धत्तणं च सिद्धेसु । आपारं आयरिए उज्मापत्तं| उवज्झाए ॥ ५६ ॥ साहण साहुचरिअं च देसविरई च सावयजणाणं । अणुमन्ने सबेसि सम्मत्तं सम्मविट्ठीणं ॥५७॥ अहया सर्व चित्र पीअरायवयणाणुसारि जं सुकयं । कालत्तएवि तिविहं अणुमोएमो तयं सर्व । कमन्यभविक मिध्यात्वप्रवर्तनं यदधिकरणम्। जिनप्रवचनप्रतिकुष्ठं दुऐ गहें तत्पापम् ॥५०॥ मिध्यात्वतमोऽन्धेन अईदादिषु अवर्णवचना: यत् । अज्ञानेन विरचितं इदानी गर्दै तत्पारम् ॥५१॥ बुतधर्मससाधुषु पापं प्रत्यनीकतादि यद्रचितम् । अन्येषु च पापेषु (यकृत)। इदानी गर्दै तत्यापम ।।५।। अन्येष्वपि जीवेपु मैत्रीकरुणा दिगोचरेषु कृतम् । परिवानादि दुःखं इदानी गर्दै तत्पापम् ॥ ५३ ॥ यत् | मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतिभिराचरितम् । धर्म विरुद्धमशुद्ध सर्व गहें तत्पापम् ।। ५४॥ अब स दुष्कृतमहादलितोत्कटदुष्कृतः। स्फुट भणति । मुकृतानुरागसमुदीर्णपुण्यपुलकारकरालः ।। ५५ ।। अहं त्वमईन्सु यच सिद्धलं च सिद्धेषु आचार्ये आचारम् , उपाध्याये ॥४॥ उपाध्यायत्वं च ।। साधूनां साधुचरितं, देशविरसिप श्रावकजनानाम् । अनुमन्ये सर्वेषां सम्यक्त्वं सम्यग्दृष्टीनाम् ॥५६॥ ५४॥ अथवा दीप अनुक्रम [१०] RS अथ सुकृत् अनुमोदना आरभ्यते ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+संस्कृतछाया) ----------- मूलं [५९] ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [२४], प्रकीर्णकसूत्र - [१] "चतुःशरण" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||५९|| सहपरिणामो निचं चउसरणगमाइ आयरं जीवो। कसलपयडी बंधड़ बद्धाउ सुहाणुबंधाउ ॥ ५९॥ मंदणु-!! | भावा बद्धा तिवणुभावाउ कुणइ ता चेव । असुहाउ निरणुबंधाउ कुणइ तिचाउ मंदाउ ॥ ६॥ ता एवं| काय गुहेरि निचंपि संकिलेसम्मि । होइ तिकालं सम्मं असंकिलेसंमि सुकयफलं ॥ ६१॥ चउरंगो जिण-| धम्मो न कओ चरंगसरणमवि न कयं । चउरंगभवुकछेओ न कओ हा हारिओ जम्मो ॥ १२॥ इअ-जी-| |वपमायमहारिवीरभदंतमेअमज्झयणं । झाएसु तिसंझमझकारणं निलुइसुहाणं ॥६३॥ चउसरणं समत्तं ॥१॥ दीप KKROAC-AAACHCRENCM अनुक्रम RANG [५९] सघमय वीतरागवचनानुसारि यत्सुकृतम् । कालत्रयेऽपि त्रिविधं अनुमोदयामि तकत्सर्वम् ।।५८॥ शुभपरिणामो नित्यं चतुःशरणगमनादि आचरन् जीवः । कुशलप्रकृतीनाति, बद्धाः (अशुभानुबन्धाः) शुभानुबन्धाः ।। मन्दानुभाषा (शुभाः) बदाम्तीत्रानुभावास्ता एवं करोति । अशुभा निरनुबन्धाः करोति तीवाश्च मन्दाः ॥ ५९॥ ६॥ तद् एतत् कर्तव्यं बुधैर्नित्यमपि सोशे । भवति त्रिकालं सम्पक अस-1 श्लेषो सुकृतफलम ॥६१॥ चतुरङ्गो जिनधर्मों न कृतः, चतुरङ्गशरणमपि न कृतम् । चतुरङ्गभवोच्छेदोन कूतो हा ! हारितं जन्म ॥२॥ इति-जीवप्रमादमहाऽस्पिीरे भद्रान्तमेतदध्ययनम् । ध्याये त्रिसन्ध्यमवन्ध्यकारणं निपुतिमुखानाम् ॥६३।। इति चतु-शरणप्रकीर्णकम् ।।१।। मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र २४) “चतुःशरण” परिसमाप्त: ~ 12~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः | 24 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “चतुःशरण-प्रकीर्णकसूत्र” [मूलं एवं छायाः | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “चतुःशरण” मूलं एवं संस्कृतछाया:” नामेण परिसमाप्त: - Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~13~