Book Title: Anekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 285
________________ 93 अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 इसीलिए 10वें गुणस्थान तक के जीव को सराग सम्यक्त्वी और उससे ऊपर के गुणस्थानों में वीतराग सम्यक्त्वी कहा गया है। ऐसी अनेकों विशेषताओं को लिए हुए इन दोनों सम्यग्दर्शनों को प्राप्त करने का प्रयत्न सदैव करते रहना चाहिए। इनमें से प्रथम सराग सम्यक्त्व को प्राप्त करके वीतराग सम्यक्त्व की भावना करते रहना चाहिए। वीतराग सम्यक्त्व कार्य है तो सराग सम्यक्त्व कारण है। निश्चय से सम्यक्त्व की प्राप्ति करने का प्रयत्न निरन्तर करते हुए समाधि पूर्वक मरण करके अपने जीवन को सफल बनाने के मार्ग में लग जाना चाहिए। मोक्षप्राप्ति का प्रथम द्वार सम्यक्त्व ही है। अतः स्वाध्याय करते हुए व्यावहारिक जीवन में आचार्यों के उपदेश लागू करने का प्रयत्न करेंगे तो निश्चय ही हमको सम्यक्त्व की प्राप्ति संभव है। संदर्भ : ध. 6/1,9,1,21/138 प्र. सा. ता. वश. 240/333/15 3 मोक्षपाहुड गा. 90, भावसंग्रह गा. 262 * मूलाचार पंचाचाराधिकार गा. 265 त. सू. 1/2 6 र. श्रा. श्लोक 4 7 गो. जी. का. गा. 561 * व. श्रा. गा. 6 9 द्र. सं. गा. 41 10 आराधनासार गा. 4 ॥ गो. जी. का. गा. 27 12 गो. जी. गा. 28 13 ज्ञानार्णव 6/7 14 स. सि. 1/2/10, रा. वा. 1/2/29, 15 भ. आ. वि. 51/175/18 16 रा. वा. 1/2/31, अ. ग. श्रा. 2/65-66 17 द्र. सं. टी. 41 18 प. प्र. टी. 2/17 पं. ध./उ. 426-428, द. पा. 2 भ.आ. 35/127, स.सि. 6/24, रा.वा. 6/24/5, 21 द्र. सं. टी. 35 22 ध. 8/3,41/86/3 पं. ध. उ. 431 24 पं. का. 137, प्र. सा. ता. वश. 268 25 स. सि. 6/12 26 पं. ध. उ. 449 27 भ. आ. वि. 1834/1643/3 28 न्यायदीपिका 3/56/9 29 पं. ध. उ. 452 30 गो. जी. का/जी. प्र. 561 31 समयसार तात्पर्य वृत्ति गाथा 97 -उपनिदेशक वीर सेवा मन्दिर (जैनदर्शन शोध संस्थान) दरियागंज, नई दिल्ली

Loading...

Page Navigation
1 ... 283 284 285 286 287 288