Book Title: Antarlok Me Mahavir Ka Mahajivan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 83
________________ Second Proof Dt. 31-3-2016 83 • महावीर दर्शन महावीर कथा • - प्रभु महावीर की क्षत्रियकुंड ग्राम की जन्मभूमि में ब्राह्मणकुंड के बीच होते होते उसमें श्रीमद् राजचंद्र की निश्चय व्यवहार के समन्वय की तत्त्वदृष्टि... सम्मिलित हुई। उसमें भी उनके पद और स्व. श्री. शांतिलाल शाह के हिन्दी में अनुदित गीत साथ देते रहे। इसके अतिरिक्त उपाध्याय अमरमुनि और उपाध्याय यशोविजयजी एवं महायोगी आनंदघनजी के पद प्रसंग प्रसंग पर सुनाई देते रहे । प्रभु के माता के १४ स्वप्नों द्वारा सूचित गर्भावस्था का समय इस प्रकार आलेखित किया गया कि वर्तमान की एवं सर्वकाल की माताओं के लिये आदर्शरूप बन सके। प्रभु की बालक्रीडा के सर्प एवं हाथी को वश करने के प्रसंग और कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य वर्णित यशोदा के पाणिग्रहण का, त्रिशलामाता और वर्धमानकुमार के हृदयस्पर्शी प्रसंग सभी को एक उपेक्षित भूमि में ले जाने वाले बने । प्रभु महावीर के सिद्धांत जैसे कि अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और क्षमापना आज भी जगत के जैनों के अतिरिक्त अन्य धर्म के लोग भी मानने लगे हैं। प्रभु महाभिनिष्क्रमण कर, सर्व संबंधों का त्याग कर एकलविहारी बन कर चल निकले और यह प्रसंग लोगों में हृदयद्रावक बन गया । इसके बाद के प्रभु के प्रसंग भी हृदयस्पर्शी बने जैसे कि चंडकौशिक नाग ने जब प्रभु को दंश दिया तब उसमें से दूध की धारा फूट पड़ी और चंडकौशिक को 'बुज्झ बुज्झ' कहकर उसके जीवन का उध्धार किया; चंदनबाला का उधार कर प्रभु ने स्त्री जाति का सन्मान कर उसे पुरुष समान आलेखित की और उनके कहर दुश्मन गोशाले को अपने दोषयुक्त जीवन का पश्चाताप कराया । इस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करते हुए घोरातिघोर उपसर्ग प्रभु ने साड़े बारह वर्ष तक सहन किये और अंत में संगम देवता ने प्रभु की प्रशंसा देवलोक में सुनी तब उसमें ईर्ष्याभाव उत्पन्न हुआ और प्रभु को परेशान करने पृथ्वीलोक में आया और प्रभु के प्रति अनेक प्रकार के उपसर्ग किये । प्रत्येक उपसर्गं प्रभु ने जिस प्रकार सहन किये उससे थककर वह लौटा, तब प्रभु की आँखों से दो अश्रुबिन्दु टपक पड़े जिसके द्वारा शत्रु को भी पश्चात्ताप करवाया गया । उनके प्रथम शिष्य इन्द्रभूति गौतम उनके ११ गणधर में से प्रथम गणधर बने। ये सब गणधर प्रभु को ज्ञान में पराजित करने हेतु आये थे, परंतु जैसे ही एक के बाद एक गणधर प्रभु के समवसरण में आये, तब प्रेम से उनके नाम बोलकर प्रभु ने उनको संबोधित किया । प्रभु ने साड़ेबारह वर्ष तक घोर तप करके ऋजुवालुका नदी के तट पर गोदोहिका आसन में बैठकर ध्यानमग्न बने थे तब शालिवृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त किया । इस प्रकार प्रभु अपना जीवन बीताते बीताते अपनी जीवनसंध्या में "विनय महिमा" के विनयसूत्र के उदाहरणों के साथ, अपनी अंतिम क्षणों के धीरगंभीर घोषपूर्वक जो महत्त्व का संदेश दे रहे थे. उसे जब प्रवक्ता ने संगीत के करुणतम स्वरों के साथ प्रस्तुत किया तब सभी श्रोताओं के लिये वह एक बिलकुल नया ही विशिष्ट अनुभव था। वह अनुभव एक ओर से प्रभु-निर्वाण के उस अद्भुत (83)

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