Book Title: Yugin Parivesh me Mahavir ke Siddhant Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf View full book textPage 2
________________ १६२ कृत्रिमता और छों का बाहुल्य है। उसके भीतर उसका ‘पशुत्व' कुलांचे भर रहा है, किन्तु बाहर वह अपने को 'सभ्य' दिखाना चाहता है। अन्दर वासना की उद्दाम ज्वालायें और बाहर सच्चरित्रता और सदाशयता का छद्म जीवन, यही आज के मानव-जीवन की त्रासदी है, पीड़ा है। आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की दमित मूल प्रवृत्तियों और उनसे जनित दोषों के कारण मानवता आज भी अभिशप्त है, आज वह दोहरे संघर्षों से गुजर रही है - एक आन्तरिक और दूसरे बाह्य । आन्तरिक संघर्षों के कारण आज उसका मानस तनावयुक्त है - विक्षुब्ध है, तो बाह्य संघर्षों के कारण सामाजिक जीवन अशान्त और अस्त-व्यस्त । आज का मनुष्य परमाणु तकनीक की बारीकियों को अधिक जानता है किन्तु एक सार्थक सामंजस्यपूर्ण जीवन के आवश्यक मूल्यों के प्रति उसका उपेक्षा भाव है। वैज्ञानिक प्रगति से समाज के पुराने मूल्य ढह चुके हैं और नये मूल्यों का सृजन अभी हो नहीं पाया है। आज हम मूल्य-रिक्तता की स्थिति में जी रहे हैं और मानवता नये मूल्यों की प्रसव-पीड़ा से गुजर रही है। आज हम उस कगार पर खड़े हैं जहाँ मानव-जाति का सर्वनाश हमें पुकार रहा है। देखें, इस दुःखद स्थिति में भगवान् महावीर के सिद्धान्त हमारा क्या मार्गदर्शन कर सकते हैं ? वर्तमान मानव जीवन की समस्यायें निम्न हैं - १. मानसिक अन्तर्द्धन्द, २. सामाजिक एवं जातीय संघर्ष, ३. वैचारिक संघर्ष एवं ४. आर्थिक संघर्ष । अब हम इन चारों समस्याओं पर भगवान महावीर की शिक्षाओं की दृष्टि से विचार कर यह देखेंगे कि वे इन समस्याओं के समाधान के क्या उपाय प्रस्तुत करते हैं ? १. मानसिक अन्तर्द्वन्द मनुष्य में उपस्थित रागद्वेष की वृत्तियाँ और उनसे उत्पन्न क्रोध, मान, माया और लोभ के आवेग हमारी मानसिक समता को भंग करते हैं। विशेष रूप से राग और द्वेष की वृत्ति के कारण हमारे चित्त में तनाव उत्पन्न होते हैं और इसी मानसिक तनाव के कारण हमारा बाह्य व्यवहार भी असन्तुलित हो जाता है। इसलिए भगवान महावीर ने राग-द्वेष और कषायों अर्थात् अहंकार, लोभ आदि की वृत्तियों के विजय को आवश्यक माना था। वे कहते थे कि जब तक व्यक्ति राग-द्वेष से ऊपर नहीं उठ जाता है, तब तक वह मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। वीतरागता ही महावीर की दृष्टि में जीवन का सबसे बड़ा आदर्श है। इसी की उपलब्धि के लिए उन्होंने "समभाव' की 'साधना' पर बल दिया। यदि महावीर की साधना-पद्धति को एक वाक्य में कहना हो तो हम कहेंगे कि वह समभाव की साधना है। उनके विचारों में धर्म का एकमात्र लक्षण है - समता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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