Book Title: Yogi Pratyaksha aur Jyotirgyan
Author(s): Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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________________ योगि प्रत्यक्ष और ज्योतिर्ज्ञान डा० विद्याधर जोहरापुरकर प्राचार्य, केवलारी, म० प्र० सामान्य व्यवहार में पाँच इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है । भारत में बहुप्रचलित धारणा है कि इन्द्रियों की सहायता के बिना भी प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है । इसे अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष या मुख्य प्रत्यक्ष और इसकी तुलना इन्द्रियप्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है ।" प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्ष के चार प्रकार बताये हैं- इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष । जैन परम्परा में भावसेन के प्रमाप्रमेय में यही वर्गीकरण स्वीकृत है । स्पष्ट है कि पूर्व परम्परा के मुख्य प्रत्यक्ष को यहाँ योगिप्रत्यक्ष कहा है । मुख्य प्रत्यक्ष के तीन प्रकार बताये हैं-अवधि, मनः पयय और केवल । ध्यान देने की बात है कि इनमें मन:पर्यय और केवल तो योगी मुनियों के ही सम्भव माने गये हैं परन्तु अवधिज्ञान योगी मुनियों के अतिरिक्त देव, नारक और विशिष्ट गृहस्थों को भी होना स्वीकार किया गया है। योगिप्रत्यक्ष कैसे होता है ? पूर्व परम्परा के अनुसार सम्बद्ध ज्ञानावरण कर्म के क्षय या क्षयोपशम से यह ज्ञान प्राप्त होता है । धर्मकीर्ति का कथन है कि योगिप्रत्यक्ष भूतार्थ भावना के प्रकर्ष से होता है। इस प्रकार यहाँ योगिप्रत्यक्ष के लिए अध्ययन और चिन्तन की पृष्ठभूमि आवश्यक मानी गई है । जैन परम्परा में भी केवलज्ञान के लिए साधनभूत शुक्ल ध्यान की पहली दो अवस्थाएं पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क जिस योगी के सम्भव होती हैं वह पूर्वविद् होता है । पृथक्त्ववितर्क में शब्दों और अर्थों की विभिन्नता के माध्यम से वस्तु का चिन्तन होता है और एकत्ववितर्क में विभिन्नता पीछे छूट जाती है । 3 धर्म के व्याख्याकार प्रज्ञाकर ने अध्ययन और चिन्तन की पृष्ठभूमि के साथ योगिप्रत्यक्ष की प्राप्ति का वर्णन किया है । विद्यानन्द की अष्टसहस्री में भी लगभग इन्हीं शब्दों का प्रयोग है ।" ज्ञान प्राप्ति की यह प्रक्रिया वैज्ञानिक शोध की प्रक्रिया से बहुत मिलती जुलती है। "वैज्ञानिक को अपने विषय के पूर्ववर्ती अध्ययन से परिचित होना आवश्यक है। उस विषय के पृथक्-पृथक् पक्षों का चिन्तन-परीक्षण और उसके बाद निष्पन्न एक सिद्धान्त का प्रतिपादन ही वैज्ञानिक के कार्य को पूर्णता देता है । १. अकलंक विरचित लघीयस्त्रय, श्लो० ४। २. भावसेन कृत प्रमाप्रमेय, पृ० ४ । ३. अकलंक विरचित तत्वार्थवार्तिक, खण्ड २, पृ० ६३२ । ४. प्रमाणवार्तिक भाष्य, पृ० ३२७ : श्रुतमयेन ज्ञानेन अर्थात् गृहीत्वा युक्तिचिन्तामयेन व्यवस्थाप्य भावयतां तन्निष्पत्तो यदवितथविषयं तदेव प्रमाणं तद्युक्ता योगिनः । ५. अष्टसहस्त्री पृ० २३५ ते हि श्रुतमयीं चिन्तामयीं च भावनां प्रकर्षपर्यन्तं प्रापयन्तः अतीन्द्रिय प्रत्यक्षमात्मसात् कुर्वते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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