Book Title: Yoga kyo Author(s): Narendra Sharma Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 3
________________ पंचम खण्ड | २३२ आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। बुद्धिस्तु सारथि विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ इन्द्रियाणि हयानाविषयास्तेषु गोचरान । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्ते त्याहर्मनीषणः॥ अर्चनार्चन -"मनुष्य का शरीर एक रथ है, इस रथ का सवार प्रात्मा, सारथी बुद्धि, लगाम मन और घोड़े इन्द्रियाँ हैं। इस रथ को भी ऐसा ही होना चाहिए कि प्रात्मा के अधीन बुद्धि, बुद्धि के अधीन मन और मन के अधिकार में इन्द्रियाँ हों तभी यह रथ अभ्युदय और निःश्रेयस रूप धर्म मार्ग पर चलकर सवार को निर्दिष्ट स्थान पर पहँचा देने का कारण बन सकता है।" योग का मार्ग ही व्यष्टि का कल्याण कर सकता है तथा व्यष्टि के विकास के द्वारा समष्टि का हित निश्चित है। योग की परम्परा भारत में अति प्राचीन है। भारत के आध्यात्मिक चिन्तन की मुख्य धाराओं-नैगम (वेदमूलक), बौद्ध और जैन-में योग की प्रचुर चर्चा है। योग जन-जीवन में इतना घुल मिल गया है कि धर्म, अध्यात्म, तंत्र-साधना, भक्ति, चमत्कार, जादू-टोना आदि का पर्याय-सा बन गया है। योग की अप्रतिहत धारा अबाधरूपेण हमारे देश में बहती रही है। योग का मार्ग कठिन अवश्य है पर असम्भव नहीं। 'योग-दर्शन के प्रणेता महर्षि पतञ्जलि ने अष्टांग-योग की रचना 'व्यक्ति' के प्रात्म-निर्माण एवं विकास हेतु की थी तथा व्यक्ति के माध्यम से समाज का कल्याण ही उनका अभीष्ट था । योग की संश्लिष्ट प्रणालीयम, नियम, प्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि-ही हमारी वर्तमान दुखद स्थिति का समाधान है। योग एक स्वस्थ विज्ञान है जो अपनी विशेष पद्धति द्वारा मानव को न केवल स्वस्थ, संयमित तथा नीरोग बनाता है, अपितु उसे पात्मिक विकास के माध्यम से परमात्मा का साक्षात्कार कराता है। योग-संस्थान, सान्ताक्रूज बम्बई के योगेन्द्रजी के अनुसार, "योग उस जीवनप्रणाली का द्योतक है जो शारीरिक, मानसिक, नैतिक और पात्मिक स्तरों पर पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करती है और मनुष्य में जो कुछ भी त्याज्य है उसे सर्वश्रेष्ठ तत्त्व में बदल देती है। इस उच्च जीवन-कला और जीवन-विज्ञान की सिद्धि के लिए प्रात्म-संस्कार की ऐसी विस्तत और व्यावहारिक पद्धति बनाई गयी है जो शारीरिक मानसिक तथा प्रात्मिक शक्तियों के परस्पर विनिमयशील तथा सन्तुलित विकास द्वारा शरीर को नीरोग, मन को शान्त तथा नैतिक जीवन को शुद्ध बनाकर उसे प्रात्म-साक्षात्कार का अभ्यासी बनाती है।" यम (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) तथा नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान) के अभ्यास से व्यक्ति में व्यष्टिगत एवं समष्टिगत शुचिता उत्पन्न होती है. आसनों के द्वारा शारीरिक स्वस्थता और नीरोगता मिलती है। प्राणायाम से प्राण-शक्ति अजित होती है, प्रत्याहार से प्रान्तरिक और बाह्य ज्ञानेन्द्रियों को संयमित करके अन्तर्मुखी बनाने का प्रयास होता है। 'धारणा' और 'ध्यान' से चेतन-प्रचेतन शक्तियों का उपयोग कर मात्म-साक्षात्कार की दिशा में बढ़ा जाता है, अन्त में परमानन्द की स्थिति समाधि तक पहुँचा जाता है। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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