Book Title: Yashastilaka Champu me Dhyan ka Vishleshan Author(s): Chhaganlal Shastri Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf View full book textPage 1
________________ डॉ० छगनलाल शास्त्री, एम० ए० (त्रय) पी-एच० डी० पूर्व प्रोफेसर मद्रास युनिवर्सिटी चेन्नई तथा प्राकृत रिसर्च इन्स्टीच्यूट वैशाली उपासकाध्ययन इन तीनों आश्वासों का नाम उन्होंने उपासकाध्ययन रखा है । उपासक के लिए साधना के अन्यान्य अंगों की तरह उन्होंने ध्यान को भी आवश्यक माना है। आठवें आश्वास के अन्तर्गत उन्होंने उनचालीसवें कल्प में ध्यानविधि, ध्याता एवं ध्येय का स्वरूप, ध्यान की दुर्लभता, ध्यान का काल और पातंजल योग आदि द्वारा अभिमत ध्यान प्रभृति योगांगों का समीक्षण उत्तम धर्म ध्यानी के पावन चरित्र हत्यादि विषयों का विश्लेषणात्मक विवेचन किया है। ध्यान विधि आचार्य सोमदेव ध्यान की विधि का निरूपण करते हुए लिखते हैं : Jain Education International "जो साधक परम ज्योति का ध्यान करना चाहता है, उसका शाश्वत स्थान अधिगत करना चाहता है, उसे चाहिये कि वह सावधानी से इस ध्यान विधि का अभ्यास करे, जिसका वर्णन किया जा रहा है। साधक तत्व चिन्तन के अमृत सागर में अपना मन दृढ़तापूर्वक मग्न कर बाहरी विषयों की व्याप्ति में उसे जह बनाकर अर्थात् जिस प्रकार किसी जड़ या निर्जीव वस्तु पर भौतिक भोग्य विषय कोई प्रभाव नहीं कर पाते, अपने को वैसी स्थिति में ढालकर दो आसन खड्गासन या वज्रासन में स्थित हो । जब ध्यानी साधक चक्षु, घ्राण, नेत्र, वाक् तथा स्पर्श इन पांच इन्द्रियों को आत्मोन्मुख बना लेता है, बाह्य विषयों से विरत यशस्तिलकचम्पू में हो जाता है, जब उसका चित्त आत्म-स्वरूप के चिन्तन में निमग्न ध्यान का विश्लेषण हो जाता है, तब अन्तज्योति आत्मज्योति उसमें प्रकाशित हो जाती है। २ सोमदेव सूरि ने यशस्तिलक चम्पू के आठवें आश्वास में ध्यान का विश्लेषण किया है। सोमदेव का संस्कृत साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है, उनका यशस्तिलक चम्पू बाणभट्ट की कादम्बरी की शैली पर लिखा गया एक महाकाव्य है, जो गद्य पद्य मिश्रित है। इसकी रचना उन्होंने ईसवी सन् ९५९ में की। इसमें पहले से पाँचवें आश्वास तक उज्जयिनी के राजा यशोधर की जन्म जन्मान्तर के उपाख्यानों से पूर्ण कथा है। छठे से आठवें आश्वास में उन्होंने आचार्य सुदत्त के मुंह से कथा के एक प्रमुख पात्र राजा मारिदत्त को संबांधित कर जैन धर्म के सिद्धांत एवं साधना-पक्ष का निरूपण किया है। ध्यान रूपी अमृत का आस्वाद लेते हुए साधक उच्छवास और निःश्वास को सूक्ष्म बना सब अंगों में प्राण वायु के हलनचलन मूलक संचार का निरोध कर ग्रीवोत्कीर्ण उत्कीर्ण पाषाण की मूर्ति-सा बन ध्यान में स्थिर रहे । ध्यान की परिभाषा ध्यान की परिभाषा करते हुए वे आगे लिखते हैं-"चित्त की एकाग्रता चित्त को एकमात्र ध्येय में व्याप्त करना ध्यान है । ध्यान का फल आन्तरिक उज्ज्वलता, निर्मलता एवं ऋद्धिमत्ता भोगने में अनुभूत करने में समर्थ आत्मा ध्याता है। आत्मा और आगम-ज्योति और श्रुत ध्येय है तथा देह यातना, दैहिक संयमइन्द्रिय समूह का नियन्त्रण ध्यान की विधि है ध्यान में विहित है, करणीय है। विघ्नों मे अविचलता : श्रेयांसि बहुविघ्नानि श्रेयस्कर कार्यों मे तो अनेक विघ्न आते ही हैं। फिर साधना में तो विघ्न ही विघ्न हैं, क्योकि लोकमुखी प्रवाह से वह भिन्न है, आत्मजनीन है। आचार्य साधक को विघ्नों से न घबराने की प्रेरणा देते हुए लिखते हैं। "ध्यान साधक तैरश्च पशु-पक्षिकृत आमर देवकृत मार्त्य मनुष्यकृत, नाभस, आकाश से उत्पन्न वज्रपात आदि, भौम-भूमि से उत्पन्न भूकम्प आदि तथा अंगज अपने शरीर के अंगों से उत्पन्न पीड़ा, रोग आदि विघ्नों को दृढ़ता से सहन करे तथा वह अनुकूलता एवं प्रतिकूलता को लांघ जाय अर्थात् उनमें कोई भेद न समझे राग और द्वेष के भाव से ऊँचा उठ जाय ।। ४ अष्टदशी / 218 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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