Book Title: Vyavaharik Jain Pratimano ki Adhunik Prasangikta
Author(s): L K Oad
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 2
________________ भावित प्रागुक्तियों (Probable Forecast)का मैं रुचिपूर्वक विश्लेषण तथा अवलोकन करता रहता हूं। मेरे पिताजी की प्रागुक्ति तो श्रद्धा समन्वित थी, परन्तु उसके बाद हरमन कान्ह, एल्विन टॉपलर आदि अनेक भविष्य शास्त्री लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित हुई और उनमें प्रतिदिन समाप्त होने वाले प्राकृतिक स्रोतों की तरफ मनुष्य का ध्यान आकृष्ट किया गया, तो मुझे मेरे पिताजी की प्रागुक्तियां पुनः स्मरण आने लगीं। बीसवीं शताब्दी के उत्तरांश में जो वैज्ञानिक अन्वेषण हुए हैं तथा जिस प्रकार के राजनैतिक तथा आर्थिक परिवर्तन हुए हैं, उनसे धीरे-धीरे अब ऐसा आभास होने लगा है कि यदि हमारी इस पृथ्वी को मानव के रहने लायक बनाए रखना है, तो भगवान महावीर के सिद्धान्तों को हमारे दैनिक जीवन व्यवहार में अपनाना होगा, अथवा मानव सृष्टि का विनाश अवश्यम्भावी है। दैनिक जीवन में सूक्ष्म एवं 'बादर' हिंसा का त्याग जैन दर्शन में जीवों की व्याख्या अत्यन्त विशद तथा सूक्ष्म रूप से की गई है। जैनागम में जीव का लक्षण 'उपयोग' माना गया है अर्थात् जिसमें ज्ञानादि का एकांश या विशेषांश है—वह जीव है। जीव द्रव्य चेतना गुण का धारक होता है, इन्द्रियगम्य नहीं होता तथा संकोच-विस्तार की शक्ति से युक्त तथा असंख्यातप्रदेशी एक द्रव्य होता है (उत्तराध्ययन, अध्याय २८) । जीव जिस माध्यम से प्रव्यक्त होता है, उसे काया कहते हैं, जो उत्पन्न होती है, वृद्धि पाती है तथा जिसका क्षय होता है। एककोशीय जीव से लेकर अनेक पर्यायों वाले जीवों का सविस्तार विवेचन जैन तत्त्वज्ञान का मूलाधार रहा है। जैन दर्शन में केवल एकेन्द्रिय जीव से लेकर पञ्चेन्द्रिय जीवों का स्थूल वर्गीकरण ही नहीं मिलता अपितु एकेन्द्रिय जीवों का भी पांच प्रमुख "काया" रूपों में श्रेणीकरण किया गया है। वैज्ञानिक गवेषणाओं ने अभी तक वनस्पति काया के जीदों का अस्तित्व स्वीकार किया है, और साथ ही अन्य "काया" में यथा-पृथ्वीकाय, अप्काय, वायुकाय एवं तेजस काय में परिव्याप्त बेक्टेरियल जीवाणुओं की उपस्थिति को भी स्वीकार किया है परन्तु इन्हें स्वयं जीव के रूप में नहीं माना गया, क्योंकि विज्ञान द्वारा मान्य “जीव" की परिभाषा में इनका समावेश नहीं हो पाता। कालान्तर में इस बात की पूरी सम्भावना नजर आती है कि जीव की मान्य परिभाषा को अधिक व्यापक बनाया जाएगा तथा सभी प्रकार के सूक्ष्म-बादर, पर्याप्त-अपर्याप्त, त्रस-स्थावर जीवों के अस्तित्व को स्वीकार करके उन सबके प्रति संवेदनशीलता बढ़ती जाएगी। स्थूल श्रेणीकरण के अतिरिक्त जैन तात्त्विकों ने विकास-क्रम की दृष्टि से जीवों का पुनर्वर्गीकरण किया है। सभी पंचेन्द्रिय जीव भी एक कोटि में नहीं आते। उनमें भी अनेक प्रकार के अल्पविकसित मस्तिष्क वाले असंज्ञी जीव हैं और विकसित मस्तिष्क एवं बुद्धि वाले संशी जीव जिनमें मनुष्य ही नहीं अपितु देवता भी हैं, इसी कोटि के विकास क्रम में आते हैं। जैन दर्शन के अनुसार दैनिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति से यह अपेक्षा की गई है कि वह यथासंभव सभी जीवों की रक्षा करे; दूसरे शब्दों में सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करे। प्रत्येक व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह अपने जीवन व्यवहार को इस प्रकार संयत रवखे जिससे कि जो जीव-वध केवल असावधानी से होता है उसे तो बचाया ही जा सके। उक्त परिप्रेक्ष्य में ही जैन धर्मावलम्बी अनावश्यक पानी का अपव्यय नहीं करते, तथा उतना ही जल का प्रयोग करते हैं जितना जीवन जीने के लिए आवश्यक है। यही बात भूमि-संरक्षण, ऊर्जा-संरक्षण, वायु-संरक्षण, वनस्पति-संरक्षण तथा समग्र त्रस (जंगम) जीवों के संरक्षण के बारे में कही जा सकती है । इन सब कार्यों में जीव विद्यमान है अतः इनका उपयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए। जैन दर्शन के उक्त जीवन व्यवहार का महत्व आज की परिस्थिति में अत्यधिक बढ़ गया है। हरमन कान्ट तथा अन्य भविष्य शास्त्रियों ने प्रागुक्ति की है कि हमारी पृथ्वी के प्राकृतिक साधनों का अविचारी दुरुपयोग हम जिस निर्दयता के साथ कर रहे हैं, उसको रोका नहीं गया, तो हमारी मानव सृष्टि एक शताब्दी से अधिक जीवित नहीं रह सकेगी। इन प्रागुक्तियों के बाद अन्तर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय स्तरों पर "पर्यावरण संरक्षण" पर ध्यान दिया जाने लगा। __ सहस्रों वर्षों से मनुष्य पृथ्वी के गर्भ से अमूल्य खनिजों को प्राप्त करता रहा है, तथा भूमि के ऊपर कृषि करके धन-धान्य उत्पन्न करता रहा है। प्रकृति का चक्र कुछ इस प्रकार संचालित होता रहता है कि यदि मनुष्य उसमें अतिरेक न करे तो सभी प्राणी एक-दूसरे के सहयोग से सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकते हैं। भगवान महावीर ने डार्विन के “जीवो जीवस्य भोजनम्" के नकारात्मक सिद्धान्त के स्थान पर सकारात्मक कथन किया-"परस्परोपग्रहो जीवानाम्"। औद्योगीकरण के आगमन के साथ हमने प्रकृति का शोषण अत्यन्त निर्दयता के साथ किया है तथा प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ दिया है। जैन दर्शन में पन्द्रह कर्मादानों निषेध किया गया है। इन पन्द्रह कर्मादानों में इस प्रकार के “महारंभ" सम्मिलित किए जाते हैं, जैसे वनों का समूलनाश करवाना, भूमि के गर्भ को शून्य बना देना, भूमि की उपज-शक्ति की रक्षा किए बिना उससे इतना उत्पादन लेना कि वह बंजर भूमि बन जाए, जल-संसाधनों को दूषित करना तथा उनके प्राकृतिक आगमन-निगमन में अवरोध उपस्थित करना, ऊर्जा शक्ति का अपव्यय करना इत्यादि । “परस्परोपग्रहः जीवानाम्" के सिद्धान्तानुसार प्रकृति एवं मनुष्य ही नहीं, बल्कि सृष्टि के सभी जीव एक-दूसरे पर आश्रित हैं तथा एक-दूसरे के सहयोग से जीवन यापन करते हैं। यदि मनुष्य अपने जीवन-यापन हेतु प्रकृति से कुछ लेता जैन धर्म एवं माचार १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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