Book Title: Vyavahar Nishchanay va Anekantvad Author(s): Fulkunvar Jain Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 1
________________ व्यवहार, निश्चयनय व अनेकान्तवाद श्रीमती फूलकुंवर जैन आज व्यवहार और निश्चयनय के विषय में समाज में काफ़ी चर्चा है। चर्चा से कुछ जन-जागृति हुई, कुछ लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित भी हुआ, कुछ लोगों ने अनेकान्तवाद के रहस्य को समझा। अनेकान्तवाद को समझते हुए भी संसार में नाना प्राणी और उनकी अपनी नाना परिणतियां हैं, जो कि उनके विचारानुसार भले ही ठीक हों एवं अच्छी हों, पर सबसे अच्छी चीज यह है कि बिना किसी ननु नच के पक्ष व्यामोह से रहित होकर वस्तु के स्वरूप को सिद्धान्त के आधार पर अनेकांत दृष्टिपूर्वक अपने में उतारना चाहिये। सबसे पहले नय की परिभाषा को समझना अतीव आवश्यक है। "व्यक्ति कीर्ण वस्तु व्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्" राजवातिके । परस्पर मिली हुई वस्तुओं में से कोई एक वस्तु अलग की जाती है वह लक्षण है। "प्रमाण गृहीतार्थेकदेशग्राही प्रमातुरभिप्राय: नयः" प्रमाण से जाने हुए पदार्थ के एक देश (अंश) को ग्रहण करने वाला ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं । अथवा "ज्ञातुरभिप्राय: नयः" ज्ञाता का अभिप्राय नय है । नयों द्वारा ही वस्तु के नाना गुणांशों का विवेचन संभव है, जिसका यथोचित प्रसंग नय विचार के द्वारा ही संभव हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि जितने प्रकार के वचन हैं उतने ही प्रकार के नय कहे जा सकते हैं । तथापि वर्गीकरण की सुविधा के लिये नयों की संख्या सात स्थित की गई है, जिनके नाम हैं:--नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । नैगम का अर्थ है न एक: गमः अर्थात् एक ही बात नहीं। जब सामान्यतया किसी वस्तु की भूत, भविष्यत्, वर्तमान पर्यायों को मिला जुलाकर बात कही जाती है तब वक्ता का अभिप्राय नैगम नयात्मक होता है। संग्रहनय के द्वारा हम उत्तरोत्तर वस्तुओं को विशाल की दृष्टि से समझने का प्रयत्न करते हैं। जब हम कहते हैं कि यहां के सभी प्रदेशों के वासी, सभी जातियों के और सभी पंथों के चालीस करोड़ मनुष्य भारतवासी होने की अपेक्षा एक हैं तब ये सभी बातें संग्रहनय की अपेक्षा सत्य हैं। इसके विपरीत जब हम मनुष्य जाति को भेदों में विभाजित करते हैं, तथा इनका पुनः अवान्तर प्रदेशों एवं प्रान्तीय, राजनैतिक, धार्मिक, जातीय आदि उत्तरोत्तर अल्प अल्पतर वर्गों में विभाजन करते हैं, तब हमारा अभिप्राय व्यवहार नयात्मक होता है। इस प्रकार संग्रह और व्यवहार नय परस्पर सापेक्ष है और विस्तार व संकोचात्मक दृष्टियों को प्रकट करने वाले हैं । दोनों सत्य हैं और दोनों अपनी अपनी जगह सार्थकता रखते हैं । उनमें परस्पर विरोध नहीं है किन्तु वे एक दूसरे के पूरक हैं । ये नैगमादि तीनों नय द्रव्यार्थिक माने गये हैं क्योंकि इनमें प्रतिपाद्य वस्तु को द्रव्यात्मकता का ग्रहण कर विचार किया जाता है और उसकी पर्याय गौण रहती है। ऋजुसूत्रादि अगले चार नय पर्यायार्थक कहे गये हैं, क्योंकि उनमें पदार्थों की पर्याय विशेष का ही विचार किया जाता है। यदि कोई मुझसे पूछे कि तुम कौन हो और मैं उत्तर दूं कि मैं प्रवक्ता हूं तो यह उत्तर ऋजुसूत्र नय से सत्य ठहरेगा, क्योंकि मैं उस उत्तर द्वारा अपनी एक पर्याय या अवस्था विशेष को प्रकट कर रही हूँ, जो एक काल मर्यादा के लिए निश्चित हो गई है। इस प्रकार वर्तमान पर्यायमात्र को विक्षय करने वाला नय ऋजुसुत्र कहलाता है। इसी प्रकार व्युत्पत्ति की अपेक्षा भिन्नार्थक शब्दों को जब हम रूढ़ि द्वारा एकार्थवाची बनाकर प्रयोग करते हैं तब यह बात समभिरूढ़ नय की अपेक्षा उचित सिद्ध होती है। जैसे देवराज के लिये इन्द्र, पुरन्दर या शक्र, घोड़े के लिये अश्व आदि शब्दों का प्रयोग। इन शब्दों का पृथक् पृथक् अर्थ है तथापि रूढ़िवशात् वे पर्यायवाची से बन गये यही समभिरूढ नय है। एवम्भतनय की अपेक्षा वस्तु की जिस समय जो पर्याय हो, उस समय उसी पर्याय के वाची शब्द का प्रयोग किया जाता है, जैसे किसी मनुष्य को पढ़ाते समय पाठक, पूजा करते समय पुजारी, एवं युद्ध करते समय योद्धा कहना। वस्तुतः नय के द्वारा ही वस्तु के एक देश और प्रमाण के द्वारा वस्तु के सर्व का ज्ञात होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि वस्तु का राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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