Book Title: Vivek Chudamani
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 5
________________ विवेक-चूडामणि भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्तिका कारण है वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होनेकी इच्छा) और महान् पुरुषोंका संग–ये तीनों ही दुर्लभ हैं। लब्ध्वा कथञ्चिन्नरजन्म दुर्लभं तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम्। यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढधी: स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात्॥४॥ किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्यजन्मको पाकर और उसमें भी, जिसमें श्रुतिके सिद्धान्तका ज्ञान होता है ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढबुद्धि अपने आत्माकी मुक्तिके लिये प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चय ही आत्मघाती है; वह असत्में आस्था रखनेके कारण अपनेको नष्ट करता है। इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति। दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम्॥५॥ दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पुरुषत्वको पाकर जो स्वार्थसाधनमें प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ और कौन होगा? वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान् । कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः। आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्ति न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेऽपि॥६॥ भले ही कोई शास्त्रोंकी व्याख्या करें, देवताओंका यजन करें, नाना शुभ कर्म करें अथवा देवताओंको भजें, तथापि जबतक ब्रह्म और आत्माकी एकताका बोध नहीं होता तबतक सौ ब्रह्माओंके बीत जानेपर भी [ अर्थात् सौ कल्पमें भी ] मुक्ति नहीं हो सकती। अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेनेत्येव हि श्रुतिः।। ब्रवीति कर्मणो मुक्तेरहेतुत्वं स्फुटं यतः॥ ७ ॥ क्योंकि 'धनसे अमृतत्वकी आशा नहीं है' यह श्रुति 'मुक्तिका हेतु कर्म नहीं है, यह बात स्पष्ट बतलाती है।

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