Book Title: Vitragta Ka Pathey Dharm Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 1
________________ ३ वीतरागता का पाथेय : धर्म आज हर गली, हर बाजार और हर द्वार पर धर्म की चर्चाएँ हो रही हैं, धर्म का शोर मचाया जा रहा है, धर्म की दुहाई दी जा रही है, और धर्म के नाम पर लड़ाई भी लड़ी जा रही है । किन्तु, पता नहीं, वे इस प्रश्न पर भी कभी सोचते हैं या नहीं कि यह धर्म है क्या चीज ? उसका क्या लक्षण है ? क्या स्वरूप है उसका और उसका अर्थ क्या है ? जो हमेशा धर्म की बातें करते हैं, क्या उन्होंने कभी इस प्रश्न पर भी विचार किया है ? धर्म की गहराई : • सैकड़ों-हजारों वर्ष पहले इस प्रश्न पर चिन्तन चला है, इस गुत्थी को सुलझाने के लिए चिन्तन की गहराइयों में पैठने का प्रयत्न भी किया गया है और धर्म के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के निर्णय एवं निष्कर्ष प्रस्तुत किए गए हैं। यह निश्चय है कि सागर के ऊपर तैरने से कभी मणि - मुक्ता नहीं मिलते । मोतियों और रत्नों के लिए तो उसकी गहराइयों में डुबकियाँ लगानी पड़ती है। तो फिर ज्ञान और सच्चाई को पाने के लिए क्यों न हम उसकी गहराई में उतरने का प्रयत्न करें ? चिन्तन-मनन ऊपर-ऊपर तैरते रहने की वस्तु नहीं है, वह तो गहराई में और बहुत गहराई में पैठने से ही फलित होता है। जो जितना गहरा गोता लगाएगा, वह उतने ही मुल्यवान मणि मुक्ता प्राप्त कर सकेगा। तभी तो हमारे यहाँ कहा जाता है- “जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ ।" श्रतः सत्य के दर्शन के लिए श्रात्म-सागर की अतल गहराइयों को नापना होगा, जिससे चिन्तन-मनन के महार्घ मोती पा सकेंगे । हाँ, इतना अवश्य हो सकता है, समुद्र के किनारे-किनारे घूमने वाले उसके लुभावने सौंदर्य का दर्शन कर सकते हैं और शीतलमंद समीर का आनन्द लूट सकते हैं, किन्तु सागर के तट पर घूमने वाला व्यक्ति कभी भी उसकी अतल गहराई और उसके गर्भ में छिपे मोतियों के बारे में कुछ नहीं जान सकता । वैदिक सम्प्रदाय के एक प्राचार्य मुरारि ने कहा है कि--भारत के तट से लंका के तट तक पहुँचने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सेना के बहादुर बानरों ने अपनी लम्बी उड़ानों से लंका तक सागर को लाँघा तो जरूर पर उन्हें समुद्र की गहराई का क्या पता कि वह कितनी है ? सागर की सही गहराई को तो वह मंथाचल पर्वत ही बता सकता है, जिसका मूल पाताल में बहुत गहरा है । यह सही है कि सागर की गहराई और विस्तार साधारण बुद्धि के लिए सीमांकन परे है, किन्तु जीवन की, सत्य की गहराई उससे भी कहीं अनंत गुनी है। यदि महावीर के शब्दों में कहा जाए, तो वह महासमुद्रों से भी अधिक गम्भीर है। १ अनन्त काल से यह अबोध जीव- यात्री जीवन के लहराते समुद्र को पार करत आ रहा है अनन्त काल बीत गया, किन्तु अभी तक वह यह नहीं जान पाया कि यह जीवन क्या है? मैं कौन हूँ? क्यों भटक रहा हूँ ? मेरा तट और धर्म क्या है ? यात्री के सामने इन सारे प्रश्नों का अपना एक विशिष्ट महत्त्व है ? इनकी गहराई में जाना, उसके लिए अनिवार्य है । १. “गंभीरतरं-महासमुद्दाओ ।" - प्रश्नव्याकरण २१२. वीतरागता का पाथेय : धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only १२१ www.jainelibrary.org.Page Navigation
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