Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 2 Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 7
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चन्दन जड़-चेतन की सब परिणति प्रभु ! अपने अपने में होती है। अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है।। प्रतिकूल संयोगो में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है। सन्तप्त हृदय प्रभु! चन्दन सम, शीतलता पाने आया है ।।२।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो कोधकषायमलविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। अक्षत उज्ज्वल हूँ कुन्द धवल हूँ प्रभु ! पर से न लगा हूँ किंचित भी। फिर भी अनुकूल लगे उन पर, करता अभिमान निरन्तर ही।। जड़ पर झुक झुक जाता चेतन, की मार्दव की खंडित काया। निज शाश्वत अक्षयनिधि पाने, अब दास चरण रज में पाया।।३।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो मानकषायमल विनाशनाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। पुष्प यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं। निज अंतर का प्रभु! भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नहीं।। चिंतन कुछ, फिर संभाषण कुछ, किरिया कुछ की कुछ होती है। स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ , अंतर का कालुष धोती है।।४।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो मायाकषायमलविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। नैवेद्य अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु भूख न मेरी शांत हुई। तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही।। युग-युग से इच्छा सागर में, प्रभु! गोते खाता आया हूँ। पंचेन्द्रिय मन के षट्रस तज, अनुपम रस पीने आया हूँ।।५।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो लोभकषायमलविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। १. निरभिमानी आत्मस्वभाव। २. सदा रहने वाला। ३. कभी नाश न होने वाली निधि। ४. सरलता। ५. विकार ६. खाली । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.comPage Navigation
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