Book Title: Vishwadharm ke Rup me Jain Dharm Darshan ki Prasangikta Author(s): Mahaveer Saran Jain Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 1
________________ विश्व - धर्म के रूप में जैन धर्म-दर्शन की प्रासंगिकता आज के विश्व को एक ऐसे धर्म-दर्शन की आवश्यकता है जो उसकी वर्तमान समस्याओं का समाधान कर सके । आज भौतिक विज्ञानों ने बहुत विकास किया है। उनकी उपलब्धियों एवं अनुसंधानों ने मनुष्य को चमत्कृत कर दिया है। ज्ञान का विकास इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि प्रबुद्ध पाठक भी उस ज्ञान से परिचय प्राप्त करने में असमर्थ एवं विवश है। ज्ञान की शाखा प्रशाखा में विशेषज्ञता का दायरा बढ़ता जा रहा है। एक विषय का विद्वान् दूसरे विषय की तथ्यात्मकता एवं अध्ययन पद्धति से अपने को अनभिज्ञ पा रहा है। हर जगह, हर दिशा में नयी खोज, नया अन्वेषण हो रहा है । प्रतिक्षण अनुसंधान हो रहे हैं। जो आज तक नहीं खोजा जा सका, उसकी खोज में व्यक्ति संलग्न है। जो आज तक नहीं सोचा गया उसे सोचने में व्यक्ति व्यस्त है। जिन घटनाओं को न समझ पाने के कारण उन्हें परात्परब्रह्म के धरातल पर अगम्य रहस्य मानकर उन पर चिन्तन करना बन्द कर दिया गया था, वे आज अनुसंधेय हो गई हैं । सृष्टि की बहुत सी गुत्थियों की व्याख्या हमारे दार्शनिकों ने परमात्मा एवं माया की सृष्टि के आधार पर की थी। उन व्याख्याओं के कारण वे 'परलोक' की बातें हो गयी थीं। आज उनके बारे में भी व्यक्ति जानना चाहता है । अन्वेषण की पिपासा बढ़ती जा रही है। आविष्कार का धरातल अब भौतिक पदार्थों तक ही सीमित होकर नहीं रह गया है । अन्तर्मुखी चेतना का अध्ययन एवं पहचान भी उसकी सीमा में आ रही है । पहले के व्यक्ति ने इस संसार में कष्ट अधिक भोगे थे। भौतिक उपकरणों का अभाव था । उसने स्वर्ग की कल्पना की । भौतिक इच्छाओं की सहज तृप्ति की कल्पना ही उस लोक की परिकल्पना का आधार थी। आज को प्रगति उन्हीं दिव्यताओं को धरती के अधिक निकट लाने के प्रयास में रत है। पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है। T इतना होने पर भी मनुष्य सुखी नहीं है । यह असंगति क्यों है ? वह सुख की तलाश में भटक रहा है। धन बटोर रहा है, भौतिक उपकरण जोड़ रहा है। वह अपना मकान बनाता है । आलीशान इमारत बनाने के स्वप्न को मूर्तिमान करता है । फिर मकान सजाता है । सोफा सेट, कालीन, वातानुकूलित व्यवस्था, महंगे पर्दे, प्रकाश ध्वनि के आधुनिकतम उपकरण एवं उनके द्वारा रचित मोहक प्रभाव सव कुछ अच्छा लगता है । मगर परिवार के सदस्यों के बीच जो प्यार, विश्वास पनपना चाहिए उसकी कमी होती जा रही है । पहिले पति-पत्नी भावना की डोरी से आजीवन बंधने के लिए प्रतिबद्ध रहते थे। दोनों को विश्वास रहता था कि वे इसी घर में आजीवन साथ-साथ रहेंगे । दोनों का सुख-दुःख एक होता था। उनकी इच्छाओं की धुरी 'स्व' न होकर 'परिवार' थी। वे अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को पूरा करने के बदले अपने बच्चों एवं परिवार के अन्य सदस्यों की इच्छाओं की पूर्ति में सहायक बनना अधिक अच्छा समझते थे । आज की चेतना क्षणिक, संशयपूर्ण एवं तात्कालिकता में केन्द्रित होकर रह गयी है। इस कारण व्यक्ति अपने में ही सिमटता जा रहा है । सम्पूर्ण भौतिक सुखों को अकेला भोगने की दिशा में व्यग्र मनुष्य अन्ततः अतृप्ति का अनुभव कर रहा है। भौतिक विज्ञानों के चमत्कारों से भयाकुल चेतना को हमें आस्था प्रदान करनी है। निराश एवं संत्रस्त मनुष्य को आशा एवं विश्वास की मशाल थमानी है। जिन परम्परागत मूल्यों को तोड़ दिया गया है उन पर दुबारा विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि वे अविश्वसनीय एवं अप्रासंगिक हो गये हैं। परम्परागत मूल्यों की विकृतियों को नष्ट कर देना ही अच्छा है। हमें नये युग 'को नये जीवन मूल्य प्रदान करने हैं । इस युग में जो बौद्धिक संकट एवं उलझनें पैदा हुई हैं, हमें समाधान का रास्ता ढूंढना है । आज विज्ञान ने हमें गति दी है, शक्ति दी है। लक्ष्य हमें धर्म एवं दर्शन से प्राप्त करने हैं। लक्ष्य विहीन होकर दौड़ने से जिन्दगी को मंजिल नहीं मिलती । डॉ० महावीर सरन जैन वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण जिस शक्ति का हमने संग्रह किया है उसका उपयोग किसप्रकार हो; गति का नियोजन किस प्रकार हो - यह आज के युग की जटिल समस्या है। इसके समाधान के लिए हमें धर्म एवं दर्शन की ओर देखना होगा । इसका कारण यह है कि धर्म ही ऐसा तत्त्व है जो मानव हृदय की असीम कामनाओं को सीमित करने की क्षमता रखता है, उसकी आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ ५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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