Book Title: Vishwa ka Prachintam Dharm
Author(s): Meghraj Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 4
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि गणित, लेखन आदि संस्कृति के बीज ऋषभदेव ने समाज में बोये। यह निर्विवाद है कि ऋषभ को समझे विना भारतीय संस्कृति के प्रारम्भ विन्दु को नहीं समझा जा सकता।" ___णाणसायर' जैन शोध की एक महत्वपूर्ण त्रैमासिकी है। इसके ऋषभ अंक में संकलित डॉ. प्रेमसागर जैन का 'सिंधु घाटी में ऋषभ युग' का एक अंश - ___“सर वेल्स के अनुसार भारत में आर्यों के आने से पूर्व एक सभ्यता थी, जो भूमध्य सागर में, सुदूर दक्षिणपूर्व जावा तक विस्तृत थी। इसे विदेशी सभ्यता कह सकते हैं क्योंकि इसमें जितने लक्षण थे, वे सब भारत के द्राविड़ों में प्राप्त होते हैं। अतः यह भारतीय सभ्यता थी जो ईसा के चार हजार वर्ष पूर्व समृद्धि को प्राप्त हुई। मुण्डा आदिवासियों की अपनी सभ्यता थी। उसका समय भी विद्वानों ने ईसा से चार हजार वर्ष पूर्व कहा है। मुण्डा आदिवासी वर्मा से कम्बोडिया और वियतनाम होते हए भारत में आये थे। ईसा से ढाई हजार वर्ष पर्व जब आर्य भारत में आये तो उन्होंने मुण्डा आदिवासियों को देखा था। इनकी मुण्डरी भाषा थी। इसमें प्राकृत शब्द अधिक हैं। मुण्डा आदिवासी जिन पवित्र आत्माओं पर विश्वास करते हैं, उनमें औरतों की आत्माएँ भी शामिल फर्ग्युसिन ने अपनी पुस्तक 'विश्व की दृष्टि में' (पृष्ठ २६ से ५२) में लिखा है कि ऋषभ की परम्परा अरब में थी और अरव में स्थित पोदनपुर जैनधर्म का गढ़ था। इस्लाम के कलंदरी सम्प्रदाय के लोग जैनधर्म के सिद्धांतों से साम्य रखते हैं, वे आदिमानव सभ्यता के प्रवाह को सूचित करते हैं। साइवेरिया के पुरातात्विक उत्खनन में नरकंकाल २० से २५ फुट तक के निकले है जिन्हें एक करोड़ चालीस लाख वर्ष पहले का माना जाता है। डॉ. ज्योति प्रासद जैन ने “जैन ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि' निबंध में कहा है -- “तीर्थंकर ऋषभ का ज्येष्ठ पुत्र भरत ही इस देश का सर्वप्रथम चक्रवर्ती सम्राट् था और इसी के नाम पर यह देश भारत या भारतवर्ष कहलाया । यह जैन पौराणिक अनुश्रुति भी वैदिक साहित्य एवं वासणीय पुराणों से समर्थित है। ऋषभ के उपरान्त समय-समय पर २३ अन्य तीर्थंकर हुए जिन्होंने उनके सदाचार प्रधान योगकर्म का पुनः पुनः प्रचार किया और जैन संस्कृति का पोषण किया। बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ में अयोध्यापति रामचन्द्र हुए, जिन्होंने श्रमण-ब्राह्मण उभय संस्कृतियों के समन्वय का भगीरथ प्रयास किया। इक्कीसवें तीर्थंकर नमि विदेह के जनकों के पूर्वज मिथिला नरेश थे जो उस आध्यात्मिक परम्परा के सम्भवतया आद्य प्रस्तोता थे, जिसने जनकों के प्रश्रय में औपनिषदिक आत्मविद्या के रूप में विकास किया। बाइसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि नारायण कृष्ण के ताऊजात भाई थे। दोनों ही जैन परम्परा के शलाका पुरुष हैं। अरिष्टनेमि ने श्रमणधर्म पुनरुत्थान का नेतृत्व किया तो कृष्ण ने उभय परम्पराओं के समन्वय का स्तुत्य प्रयत्न किया। तेइसवें तीर्थंकर पाश्वे (८७७-७७७ ई.पू.) काशी के उरगवंशी क्षत्रिय राजकुमार थे और श्रमणधर्म पुनरुत्थान आंदोलन के सर्वमहान् नेता थे। उनका चातुयाम धर्म प्रसिद्ध है। सम्भवतया इसी कारण अनेक आधुनिक इतिहासकारों ने तीर्थंकर मौलाना सुलेमान नदवी ने अपने ग्रंथ - "भारत और अरब के सम्बन्ध में लिखा है कि समनियन और कैलिड्यन दो ही धर्म थे। समनियन नग्न रहते थे और पूर्व देश के थे। खुरासान देश के लोग इन्हें शमनान या । श्रमन कहते थे। ह्वेनसांग ने श्रमणेरस (shramneras) का उल्लेख किया है। अरवी कवि और तत्त्ववेत्ता अबु- ल-अला (६७३-१०५८) की रचनाओं में जैनत्व का पोषण है। वे शाकाहारी थे और दूध और मधु सेवन भी अधर्म मानते थे। ८६ विश्व का प्राचीनतम धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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