Book Title: Vikas ka Bij Mantra Namrata aur Vinay
Author(s): Jayantsensuri
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf

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Page 6
________________ इसलिए अपने जीवन को व्यर्थ ही नष्ट मत करो। महामन्त्र की आराधना करके अपने जीवन को सौभाग्य से भर दो। जीवन का कोई भरोसा नहीं है। यह तो पानी के बुलबुले के समान है, जो फूटते ही नष्ट हो जाता है। कोई भाग्यशाली जीव ही इस महामन्त्र की आराधना कर सकता है। श्वासोच्छ्वास में जिन भजो, वथा श्वास मत खोय। ना जाने फिर श्वास का, आना होय न होय॥ इस संसार में नवकार मन्त्र को छोड़कर अन्य कुछ भी सारभूत नहीं है। कोई भी मन्त्र आप लीजिये, उसके प्रारम्भ में आपको ओम् ही दिखायी देगा। और यह ओम्कार तो संपूर्ण नवकार मन्त्र का संक्षिप्ततम रूप है। तो ओम् के अभाव में किसी भी मन्त्र की गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती, इसीलिए ओमकार उस मन्त्रगाड़ी के लिए इंजिन स्वरूप है। गाड़ी का सब से महत्त्वपूर्ण भाग इंजिन ही होता है। उसके अभाव में गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं सकती। इंजिन चलेगा तो गाड़ी भी चलने लगेगी। ओम्कार होगा-नवकार होगा तो ही अन्य मन्त्र सफल होंगे। हम इस इंजिन की देख-भाल करें तो हमारी जीवन-गाड़ी भी मंजिल तक चलती रहेगी। ओम्कार बना कैसे मैंने पहले ही बता दिया है कि 'ओम्कार' नवकार का सारांश है अर्थात् ओम्कार मूल है और पंच परमेष्ठी उसका विस्तार। ओमकार बिन्दु है और पंच परमेष्ठी सिन्धु। यहाँ बिन्दु में सिन्धु समाया हुआ है। अरिहंत, अशरीरी (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय और मुनि (साधु) ये पाँच परमेष्ठी हैं। इन पाँचों के आद्य अक्षर इस प्रकार हैं - अ + अ + आ + उ + म्। इन पाँचों की संधि होने पर ओम् बनता है। - अ + अ + आ = आ; आ + उ = ओ; और ओ + म् = ओम् अर्थात् ओम्। यह ओम् हर मन्त्र का प्रारम्भ है। लोग सोचते हैं कि अन्य मन्त्रों से भी काम सिद्ध हो सकता है। अन्य मन्त्रों से भी काम होगा क्योंकि उनके प्रारम्भ में ओम् है। यदि इस ओम् को हटा दिया जाए तो फिर वह मन्त्र मन्त्र नहीं रहेगा; केवल शब्द-समुच्चय रह जाएगा। तो भाई! इस महामन्त्र ओम् को समझ लेना है और सिद्ध करना है। ओम् प्राप्त हो गया कि सभी मन्त्र प्राप्त हो गये। जनम-जनम का साथी यह नवकार मन्त्र तो जनम-जनम का साथी है. बेसहारों का सहारा है। यह निर्बलों को बल प्रदान करता है, निराशा में आशा की प्रकाश किरण फैलाता है, शरीर को रोग-मुक्त करता है और तो क्या, यह इस जीव को भव-रोग से मुक्त भी करता है ये पंच परमेष्ठी भव-रोग के वैद्य हैं। इनका इलाज रामबाण इलाज है - एकदम अचूक इलाज है; इसलिए नवकार से घड़ी-भर का नहीं जन्म-भर का सम्बध बना लो। मधुकर मौक्तिक हे देव! आप महागोप हैं। राग द्वेषादि की प्रत्येक विपरिणति का आपने संपूर्ण दमन किया है। चतुर्गति में भ्रमण करनेवाले जीवों को आप कुशल गोपालक के समान स्व स्थान की तरफ ले जानेवाले हैं। गोपालक पशुओं को हरेभरे जंगल में ले जाता है और वहाँ भी हिंसक जानवरों से उसकी रक्षा करता है, इसी प्रकार आप भी षटकाय के जीवों को आत्मविकास की हरियाली की ओर ले जाते हैं और कषायादि हिंसक जन्तुओं से उनकी रक्षा करते हैं। हे देव! आप महामाहण भी हैं। इस संसार में सब जीव दु:खी हो रहे हैं। प्रत्येक जीव सुखमय जीवन जीने की इच्छा रखता है। दु:ख कोई नहीं चाहता। ऐसी स्थिति में 'मा हण'-'मत मारो' का उद्घोष करनेवाले मात्र आप ही है। आप निराधार के आधार हैं। वीतराग होते हुए भी जीवमात्र को जीने का अधिकार प्रदान करने वाले आप हैं। आप तो बस आप ही हैं। आपसा अन्य कोई नहीं हैं। आप स्वयंभू है। हे देव! महानिर्यामक भी आप ही हैं। जिसका किनारा अदृश्य है और जिसकी गहराई अथाह है, ऐसा है यह भयंकर संसार समुद्र! जीवन जहाज में आसीन होकर हम इस संसार में आगे बढ़ रहे हैं। चारों गतियों के जीव हमारे साथ हैं। कुशल निर्यामक-नाविक ही इस जीवन नैया को पार लगा सकता है। वही हमें उस पार पहुंचा सकता है। आप ही तो हैं, इन चतुति के जीवों के जीवन जहाज को पार लगाने वाले महानिर्यामक, समर्थ और दक्ष नाविक! हे देव! आप सचमुच महासार्थवाह भी हैं। इष्ट स्थान के अभिलाषी असहाय जीवों को साथ दे कर निस्वार्थ भाव से गन्तव्य की तरफ गतिमान होने की प्रेरणा देनेवाले आप ही तो हैं। जिसने आपका आश्रय ले लिया, वह सचमुच अभिष्ट पा गया और उसने उससे अपना साध्य भी सिद्ध कर लिया। - जैनाचार्य श्रीमद् जयन्तसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद जयंतसेनसरि अभिनंदन पंथावाचना क्रोध मानसिक रोग का, उदित करे विज्ञान / जयन्तसेन रहे नहीं, मर्यादा का ज्ञान / www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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