Book Title: Vijayvallabhsuri Author(s): Punyavijay Publisher: Punyavijayji View full book textPage 6
________________ આચાર્ય શ્રી વિજયવલ્લભસૂરિવર [ 119 शक्ति है / चर्चा करने वाला चाहे श्वेताम्बर हो या दिगंबर, स्वगच्छका हो या परगच्छका, मूर्तिपूजक हो या स्थानकवासी, सनातनी हो या आर्यसमाजी, जैन हो या जैनेतर, हिन्दु हो या मुसलमान, पारसी आदि कोई हो, चाहे जिज्ञासावृत्तिसे आया हो, चाहे आपके पांडित्यकी परीक्षा करनेके इरादेसे आया हो या वक्रतासे केवल विरोध करनेके लिए आया हो, सभीके साथ आप प्रसन्न चित्तसे धर्मचर्चा करते हैं, और अपने वक्तव्य को स्थापित करते हैं। धर्मचर्चा करने वाला चाहे कैसे भी प्रश्न करे, चाहे किसी प्रकारसे करे, आपकी प्रसन्नतामें तनिक भी न्यूनता होने नहीं पाती है। धर्मचर्चाके समय चर्चा करनेवाला चाहे कितना भो गर्म हो जाय लेकिन आपके मुख पर कोई तरहका विकार दृष्टिगोचर नहीं होता है। आपको शान्ति आदिसे अंत तक एक सी कायम रहती है / आपको धर्म चर्चा करनेकी इन विशेषताओंके कारण आज जनता आपको पंजाब केसरी' इस उपनामसे सम्बोधन दे रही है।। संस्थाओंकी स्थापना-अपने चरितनायकने स्वर्गवासी गुरुदेवके संकेतानुसार अपने धारावाही उपदेश द्वारा स्थान स्थान पर विद्यालय, गुरुकुल, लाइब्रेरी आदिके रूपमें अनेक ज्ञानसत्र खड़े किये हैं / स्वर्गवासी गुरुदेव सदा यह कहते रहे थे कि जब तक जैन प्रजा ज्ञानसम्पन्न न होगी उनके ज्ञानभंडार एवं साहित्यका संरक्षण और प्रचार न होगा तब तक जैनधर्म की उन्नति होना संभव नहीं है / साथ साथ उन्हें यह भी पता चल गया था कि जब तक जैन प्रजा, जो आज सदियोंसे धार्मिक, नैतिक, विद्याकला और आर्थिक आदिके विषयमें दिन प्रतिदिन क्षीण होती चली है, उसका पुनरुत्थान न होगा तब तक जैनधर्म एवं जैन प्रजाको उन्नति न होगी। इसके विषयों स्वर्गवासी गुरुदेवने अपने ग्रन्थों में प्रसंग पाकर कई प्रकारके उल्लेख किये हैं / इन सब बातोंको ध्यानमें रखते हुए अपने चरितनायकने उन गुरुदेवको हृदयगत भावनाओंको मूर्त रूप दिया है। उपसंहार -हम पूज्यपाद माननीय परमगुरुदेव आचार्य श्री 1008 श्री विजयवल्लभसूरिकी जीवनकथाका उपसंहार करते हुए इतना ही कहना काफी समझते हैं कि यहां पर हमने इन महापुरुषका जो जीवन लीस्वा है, वह संक्षिप्त रूपरेखा मात्र है, विस्तारसे आपश्रीजीका जीवन एक बृहद् ग्रन्थका रूप धारण कर सकता है। अंतमें हमारी यही हार्दिक भावना है कि हमारे चरितनायक सुदीर्घायु हो और उनकी छत्रछायामें यह जैन समाज दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की करता रहे। [ 'सेवक' साप्ताहिक, गुजरांवाला-पंजाब, ता. 1 नवेम्बर सने 1940 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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