Book Title: Viharki Mahan Den Mahavir aur Indrabhuti Author(s): Darbarilal Kothiya Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf View full book textPage 4
________________ वीरसेनके शिष्य और आदिपुराणके कर्ता आचार्य जिनसेन' ( विक्रम की ९वीं शती ) ने 'इन्द्रभूति' और 'गौतम' पदोंकी व्युत्पत्ति भी दिखाई है। बतलाया है कि इन्द्रने आकर उनकी पूजा की थी, इससे वे 'इन्द्रभूति' और गौ-सर्वज्ञभारतीको उन्होंने जाना-पढ़ा, इससे वे गौतम कहे गये । जैन साहित्यके अन्य स्रोतोंसे भी अवगत होता है कि आर्य सोमिलने मध्यमा पावामें जो महन् यज्ञ आयोजित किया था, उसका नेतृत्व इन्द्रभूति गौतमके हाथमें था। इस यज्ञमें बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान् शिष्य-परिवार सहित आमंत्रित थे । इससे यह प्रकट है कि इन्द्रभूति निःसन्देह प्रकाण्ड वैदिक विद्वान् थे और उनका अप्रतिम प्रभाव था। किन्तु आश्चर्य है कि इतने महान् प्रभावशाली वैदिक विद्वान्का वैदिक साहित्यमें न उल्लेख मिलता है और न परिचय । इसका एकमात्र कारण यही प्रतीत होता है कि इन्द्रभूति तीर्थंकर महावीरके शिष्य हो गये थे और वैदिक विचार-धाराका उन्होंने परित्याग कर दिया था। ऐसी स्थति में उनका वैदिक साहित्यमें कोई उल्लेख एवं परिचय न मिले, तो कोई आश्चर्य नहीं है । महावीरका शिष्यत्व जैन साहित्यके उल्लेखोंसे विदित है कि तीर्थंकर महावीरको कैवल्य प्राप्त हो जानेपर भी ६५ दिन तक उनका उपदेश नहीं हुआ। इसका कारण था उनके अव्यर्थ उपदेशोंको संकलन-अवधारण करनेकी योग्यता रखनेवाले असामान्य व्यक्तिका अभाव । इन्द्रने अपने विशिष्ट ज्ञानसे ज्ञात किया कि तीर्थकर महावीरकी वाणीको अवधारण करनेकी क्षमता इन्द्रभूतिमें है। पर वह वैदिक है और महाभिमानी है । इन्द्रने विप्र-वटुका स्वयं वेश बनाया और इन्द्रभूतिके चरण-सान्निध्य में पहुँचा। उस समय इन्द्रभूति अपने ५०० शिष्योंसे घिरे हुए थे और वेदाध्ययनाध्यापनमें रत थे । विप्रवटु बेशधारी इन्द्र प्रणाम करके इन्द्रभूतिसे बोला-गुरुदेव, मैं बहुत बड़ी जिज्ञासा लेकर आपके पादमूलमें आया हूँ । आशा है आप मेरी जिज्ञासा पूरी करेंगे और मुझे निराश नहीं लौटना पड़ेगा। इन्द्रके विनम्र निवेदन पर इन्द्रभूतिने त्वरित ध्यान दिया और कहा कि वटो! अपनी जिज्ञासा व्यक्त करो। मैं उसकी पूर्ति करूँगा । इन्द्रने निम्न गाथा पढ़कर उसका अर्थ स्पष्ट करनेका अनुरोध किया पंचेव अस्थिकाया छज्जीव-णियाया महव्वया पंच । अट्ट य पवयणमादा सहेउओ बंध-मोक्खो य । -धवला, पु० ९, पृ० १२९ में उद्धृत । इन्द्रभूति इस गाथाका अर्थ और उसमें निरूपित पारिभाषिक विषयोंको बहत सोचनेपर भी समझ न सके। तब वे वटुसे बोले-कि यह गाथा तुमने किससे पढ़ी और किस ग्रन्थकी है ? ब्राह्मण वटुवेषधारी इन्द्रने कहा गुरुदेव ! उक्त गाथा जिनसे पढ़ी है वे विपुलगिरिपर मौनावस्थित हैं और कब तक मौन रहेंगे, कहा नहीं जा सकता। अतएव श्रीचरणोंमें उसका अर्थ अवगत करनेके लिए उपस्थित हुआ हूँ। १. (क) इन्द्रेण प्राप्त पूद्धिरिन्द्रभूतिस्त्वमिष्यते । (ख) गौतमा गौः प्रकृष्टा स्यात् सा च सर्वज्ञभारती। तां वेत्सि तामधीष्टे च त्वमतो गौतमो मतः ॥ -आ० पु० २।५२-५४ २. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड १, परि० ७, पृ० १८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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