Book Title: Vidyapati Ek Bhakta Kavi
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 10
________________ डॉ० हरीश एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सत्य यह भी सामने बाता है कि चैतन्य के बाद वैष्णव भक्त कवियों में यह विश्वास असाधारण गति से बढ़ा कि प्रत्येक व्यक्ति में कृष्ण का स्वरूप है, जो लौकिक भावना लौकिक जीवन से मिला है। लौकिक जीवन में दूसरा तत्व रूप राधा का अंश है । अतः इस भावना ने और अधिक तीव्रता पकड़ी कि प्रत्येक व्यक्ति कृष्ण है और प्रत्येक नारी, जो रूपवती है, राधा है और विद्यापति ने शिवा सिंह तथा लखिमारानी को इन्हीं कारणों से निरन्तर अपने पदों में संबोधित किया है। इस प्रकार हिंदू तांत्रिकों का यह सिद्धान्त कि प्रत्येक पुरुष शिव है और हर नारी शक्ति, प्रसत्य नहीं है। बौद्ध दर्शन में वही शून्य या करुणा, प्रज्ञा या उपाय के रूप में मिलता है। महाकवि विद्यापति ने इन्हीं सिद्धान्तों से प्रेरित होकर काव्य रचना की है । अतः यदि चैतन्य पर इन भावनाओं का तांत्रिकी से असर पड़ा है, तो विद्यापति पर भी यह सब होना अत्यन्त स्वाभाविक है । १०० विद्यापति के राधाकृष्ण विषयक इसी दृष्टिकोण का समर्थन कर उनका भक्त के रूप में व्यक्तित्व स्पष्ट करते हुए एक विद्वान प्रालोचक ने एक राधाकृष्ण विषयक धारणा का स्पष्टीकरण किया है । उनके इस अवतरण से इस बात को पूर्ण बल मिलता है कि विद्यापति का राधाकृष्ण विषयक दृष्टिकोण उनके काव्य में किस रूप में आया है । 'कृष्ण व राधा रस व रति हैं केवल रसिक ही इसे जान सकते हैं । पुरुष व स्त्री को पहले अपने को कृष्ण व राधा समझकर लौकिक रति करना चाहिए और धीरे धीरे लौकिक वासना को अलौकिक प्रेम में परिणित करना चाहिए । तब पुरुष को कृष्णत्व और स्त्री को राधात्व प्राप्त हो जायगा और लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम में बदल जायगा ।' इस प्रकार हमारे उक्त विश्लेषण से विद्यापति का कृष्ण और राधा सम्बन्धी दृष्टिकोण स्पष्ट होता है और यह विचार तथ्य के अधिक निकट पहुंचता है कि विद्यापति वैष्णव सगुण सहजिया सम्प्रदाय के कवि थे और इस संप्रदाय पर बौद्ध तथा हिन्दू दर्शन का ही प्रभाव था । वस्तुतः इस सम्प्रदाय की दी धाराएं मानी जा सकती हैं। १. एक वह, जो तांत्रिक प्रभाव से कम प्रभावित, शुद्ध सगुरण वष्णव धारा है । २. श्रीर दूसरी वह, जो तांत्रिक प्रभाव से पूर्ण प्रभावित, सगुण सहजिया वैष्णव धारा । इस तरह हम चैतन्य को पहली धारा का कवि तथा चण्डीदास और विद्यापति को पूर्णतया सगुण वैष्णव सहजयान धारा के अनुयायी कवि कह सकते हैं । इस प्रकार वैष्णव सहजयान के अनुयायी भक्त कवि विद्यापति ने प्रेम को सामान्य स्तर पर रख समान महत्व दिया और अपनी पदावली में लिखे। क्योंकि वे जानते थे कि यदि लौकिक प्रेम में मनुष्य मानसिक संतुलन करे, तो वह लौकिक प्रेम अलौकिक या दिव्य प्रेम में बदल सकता है। विद्यापति प्रेम को काम का ही एक रूप मानते हैं और उनकी दृष्टि से काम ही महासुख प्राप्ति का एक मात्र माध्यम है । अतः यह बात समझ में आ जाती है कि उन्होंने लौकिक प्रोम और काम आदि के इतने खुले चित्र क्यों प्रस्तुत किये हैं। वस्तुतः कवि का मन श्रृंगार के मूल भाव काम के चित्रण में इसीलिए खूब रमा । Jain Education International इसीलिए लौकिक व अलौकिक निर्भीक होकर श्रृंगारिक पद रखे और स्वयं को अनुशासित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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