Book Title: Vidya ki Char Bhumikaye
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ २०६ धर्म और समाज चुना जाता है उसपर उस समयतक जितना काम हो चुका होता है, उस सबको समझकर और उपलब्ध ज्ञानको प्रास करके कुछ नई खोज करना, नई रचना करना, कुछ नई वृद्धि करना पड़ता है, पूर्वोक्त शब्द, स्मृति, संज्ञान और परीक्षाकी त्रिवेणीके आधारपर । इसमें किये हुए कामका परिमाण देखनेकी आवश्यकता नहीं होती, अर्थात् पन्नोंकी संख्या नहीं देखी जाती, किन्तु उसकी मौलिकता, उसका आधिकार देख जाता है। उसकी नई खोज कभी कभी एकाध वाक्यसे भी प्रकट हो जाती है । अभिप्राय यह कि यह खोज ओर सर्जन शक्तिकी भूमिका है। यहाँ एकत्र होनेवाले तीसरी और चौथी भूमिकाबाले हैं। इस समय में 'डिग्री . चाहनेवालों या परीक्षा पास कर चुकनेवालोंका विचार नहीं करता । विद्यार्थियों और अध्यापकोंका भी मैं एक ही साथ विचार करता हूँ । फिर भी अध्यापकोंके विषयमें थोड़ा-सा कहना है। यों तो सच्चा अध्यापक हमेशा विद्यार्थी-मानस के साथ ताल मिलाता हुआ ही चलता है । किन्तु जिस समय वह विद्यार्थीको संशोधन-प्रवृत्तिमें सहायक होता है उस समय जुदा ही रूप लेता है। इस कक्षामें अध्यापकको ऐसी ही बातें बतानी होती हैं जिनसे विद्यार्थीकी संशोधक-वृत्ति जाग्रत हो । अर्थात् अध्यापक प्रत्यक्ष शिक्षासे ही नहीं अपितु चर्चा, वार्तालाप, सूचना इत्यादिके द्वारा भी विद्यार्थीके मनमें कुछ नई चीज पैदा करता है। जिस प्रकार विद्यार्थीजीवनकी चार भूमिकाएँ हैं उसी प्रकार अध्यापकके जीवनकी भी चार भूमि. काएँ गिननी चाहिए। विद्यार्थी और अध्यापकका संबंध भी समझ लेने योग्य है । विद्याध्ययन दोनोंका सामान्य धर्म है। वास्तवमें अध्यापक और विद्यार्थी दोनों एक ही वर्गके हैं। केवल अध्यापकके पदपर नियुक्त हो जानेसे कोई अध्यापक नहीं होता, विद्यार्थीकी बुद्धि और जिज्ञासाको उत्तेजित करनेवाला ही सच्चा अध्यापक है । इसके अतिरिक्त विद्यार्थी और अध्यापकके बीच कोई ज्यादा तारतम्य नहीं है । फिर भी अध्यापकके बिना विद्यार्थीका काम नहीं चल सकता, जिस तरह रस्सीके बिना नाचनेवाले नटका । और यदि विद्यार्थी न हों, तो अध्यापक अथवा अध्यापनकी कोई संभावना ही नहीं हो सकती। वस्तुतः विद्यार्थीके सान्निध्यसे ही अध्यापककी आत्मा विकसित होती है, व्यक्त होती है । ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5