Book Title: Vidwan aur Samaj Author(s): Darbarilal Kothiya Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf View full book textPage 6
________________ कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीका 'नयचक्र', पं० अमतलालजी शास्त्रीका 'चन्द्रप्रभचरित', डा० कस्तुरचन्द्रजी कासलीवालका 'राजस्थानके जैन सन्त : कृतित्व और व्यक्तित्व', श्री श्रीचन्द्रजी जैन उज्जनका 'जैन कथानकोंका सांस्कृतिक अध्ययन' आदि नव्य-भव्य रचनाओंने जैनवाङ्मयके भण्डारकी अभिवृद्धि की है । जैन शिक्षण-संस्थाएँ आजसे पचास वर्ष पूर्व एकाध ही शिक्षण-संस्था थी। गुरु गोपालदासजी वरैया और पूज्य श्रीगणेशप्रसादजी वर्णीके धारावाही प्रयत्नोंसे सौ-से भी अधिक शिक्षण-संस्थाओंकी स्थापना हुई। मोरेना विद्यालय और काशीका स्याद्वाद-महाविद्यालय उन्हीं मेंसे हैं। मोरेनासे जहाँ आरम्भमें सिद्धान्तके उच्च विद्वान तैयार हए वहाँ काशीसे न्याय, साहित्य, धर्म और व्याकरणके ज्ञाता तो हुए ही, अंग्रेजीके भी विद्वान निकले हैं। यह गर्व की बात है कि आज समाजमें जो बहुसंख्यक उच्च विद्वान् हैं वे इसी विद्यालयकी देन है । वस्तुतः इसका श्रेय प्राचार्य गुरुवर्य पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको है, जो विद्यालयके पर्यायवाची माने जाते हैं। सागरके गणेशविद्यालयकी भी समाजको कम देन नहीं है। इसने सैकड़ों बुझते दीपकोंमें तेल और बत्ती देकर उन्हें प्रज्वलित किया है। पर आज ये शिक्षण-संस्थाएँ प्राणहीन-सी हो रही हैं। इसका कारण मुख्यतया आर्थिक है। यहाँसे निकले विद्वानोंकी खपत समाजमें अब नहीं-के-बराबर है और है भी तो उन्हें श्रुतसेवाका पुरस्कार अल्प दिया जाता है । अतः छात्र, अब समाजके बाजारमें उनकी खपत कम होनेसे, दूसरे बाजारोंको टटोलने लगे हैं और उनमें उनका माल ऊँचे दामोंपर उठने लगा है। इससे विद्वानोंका ह्रास होने लगा है। फलतः समाज और संस्कृतिको जो क्षति पहुँचेगी, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। अतः समाजके नेताओंको इस दिशामें गम्भीरतासे विचार करना चाहिए। यदि तत्परतासे तुरन्त विचार न हुआ तो निश्चय ही हमारी हजारों वर्षोंकी संस्कृति और तत्त्वज्ञानकी रक्षाके लिए संकटकी स्थिति आ सकती है। विद्वत्परिषद्का भावी कार्यक्रम विद्वत्परिषद्के साधन सीमित हैं और उसके चालक अपने-अपने स्थानोंपर रहकर दूसरी सेवाओं में संलग्न हैं। उन आवश्यक सेवाओंसे बचे समय और शक्तिका ही उत्सर्ग वे समाज, साहित्य और संगठनमें करते हैं । अतः हमें अपनी परिधिके भीतर आगामी कार्यक्रम तय करना चाहिए । हमारा विचार है कि परिषद्को निम्न तीन कार्य हाथमें लेकर उन्हे सफल बनाना चाहिए । १. जैन विद्या-फण्डकी स्थापना। २. भगवान महावीरकी २५००वीं निर्वाणशतीपर सेमिनार ३. ग्रन्थ-प्रकाशन । १. पूज्य वर्णीजीके साभापत्यमें सन् १९४८ में परिषद्ने एक केन्द्रीय छात्रवृत्ति-फण्ड स्थापित करनेका प्रस्ताव किया था, जहाँ तक हमें ज्ञात है, इस प्रस्तावको क्रियात्मक रूप नहीं मिल सका है । आज इस प्रकारके फण्डकी आवश्यकता है। प्रस्तावित फण्डको 'जैन विद्या-फण्ड' जैसा नाम देकर उसे चालू किया जाय । यह फण्ड कम-से-कम एक लाख रुपएका होना चाहिए। इस फण्डसे (क) आर्थिक स्थितिसे कमजोर विद्वानोंके बच्चोंको सम्भव वृत्ति दी जाय। (ख) उन योग्य शोधाथियोंको भी वत्ति दी जाय, जो जैन-विद्याके किसी अङ्गपर किसी विश्वविद्यालयमें शोधकार्य करें । (ग) शोधार्थीके शोध-प्रबन्धके टङ्कन या शुल्क या दोनोंके लिए सम्भव मात्रामें आर्थिक साहाय्य किया जाय । ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7