Book Title: Vichar ki Samasya Kaise Sulze Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 8
________________ 20100085288050 00599%8000080920495888058 स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ 8 888888883399889 यह विकास का क्रम है। यह न समझें कि आज ध्यान करने बैठे हैं और आज ही विचार आना बन्द हो जायेगा। यह संभव नहीं है, क्योंकि हमने अनगिन संबंध जोड़ रखे हैं। व्यक्ति घर में बैठा है और कारखाना मन में चल रहा है। दुकान में बैठा है और परिवार पीछे चल रहा है। ध्यान-शिविर में आप अकेले आए हैं, पत्नी पीछे है, आपका मन उसकी चिंता में उलझा हुआ है। संबंध जाड़ रखा है हजारों चीजों के साथ और विचार किसी न आए, यह कैसे संभव है ? संबंध और विचार संबंध और विचार - दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं। जहां संबंध है, वहा विचार का आना अनिवार्य है। यदि ध्यान के लिए आते समय सारे संबंधों से मुक्त होकर आते तो संभव भी हो सकता था, किन्तु बंध कर आते हैं, इसलिए इतनी जल्दी छूट पाना संभव नहीं इस सूत्र पर ध्यान दें - जितने ज्यादा संबध, उतनी ज्यादा विचार। जितनी ज्यादा संबंधमुक्तता का भाव, उतना ज्यादा निर्विचार। आप विचारों को रोकने का प्रयत्न न करें, पहले संबंधों को कम करने का प्रयत्न करें। आपने अनुबंध कर लिया - तीन बजे मिलना है तो ढाई बजे ही आपका मानसिक भाव बदल जायेगा और आप घड़ी देखना शुरू कर देंगे। किसी और काम में फिर मन नहीं लगेगा। अगर आधा घंटा की देरी हो जाए तो आपकी झुंझलाहट बढ़ जायेगी। आप इस भ्रम में न रहें एक ही दिन में मन के सारे संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाएंगे। ऐसा कभी न सोचें। एक-दो या पांच सात दिनों का ध्यान से भी ऐसा संभव नहीं होगा। बिल्कुल यथार्थवादी होकर चलें। सच्चाई को समझ कर चलें। हमने अपने अनुबंधों का जितना विस्तार किया है, संबंधों को जितना विस्तृत किया है, उनके प्रति जब तक हमारी मूर्छा कम नहीं होगी, वे संबंध कम नहीं होंगे, तब तक विचारों के प्रवाह को कभी रोका नहीं जा सकेगा। विचार की चिन्ता छोड़ें ___ध्यान करने वाले के लिए यह अपेक्षित है कि वह विचारों की चिंता छोड़े, पहले मूर्छा को कम करने की सोचे। यदि विचार आते हैं तो वे आपका क्या बिगाड़ते हैं। आप उनके साथ जुड़ते हैं, तभी आपका कुछ बनता बिगड़ता है, अन्यथा आपको उनसे कुछ भी लाभ-हानि नहीं होगी। आप अनुबंधों में फसते हैं, विचारों में उलझते हैं, उसकी चिंता Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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