Book Title: Vedsamya Vaishmya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 3
________________ वेदसाम्य-वैषम्य ५३६ और एकदेशीयता भी रह गई है जो तात्त्विक और ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर स्पष्ट मालूम होती हैं। हम जन्म संस्कार और दृष्टि संकोच के कारण कुछ भी कह और मान नहीं सकते हैं। पर साम्प्रदायिक मोक्ष का स्वरूप और निवृत्ति की कल्पना न केवल अधूरी हैं; किंतु मानवता के उत्कर्ष में आत्मीय सद्गुणों के व्यापक विकास में बहुत कुछ बाधक भी हैं। हमारी चिरकालीन साम्प्रदायिक जड़ता और अकर्मण्यता ने केवल बाह्य खोखे में और कल्पनाराशि में जैनत्व बांध रखा है। और जैन प्रस्थान में जो कुछ तत्त्वतः सारभाग है उसे भी ढांक दिया है। खास बात तो यह है कि हमारी निर्मर्याद सोचने की शक्ति ही साम्प्र दायिक जड़ता के कारण मोठी हो गई है । ऐसी स्थिति में एक अव्यवहार्य विषय पर शक्ति खर्च करने का उत्साह कैसे हो ? तथापि आपने इस विषय पर जो इतनी एकाग्रता से स्वतन्त्र चिंतन किया है उसका मैं अवश्य कायल हूँ । क्योंकि मेरा मानस विद्यापक्षपाती तो है ही । खास कर जब कोई किसी विषय में स्वतन्त्र चिंतन करें तब मेरा आदर और भी बढ़ता है । इसलिए आपकी दलीलों और विचारों ने मेरा पूर्वग्रह छुडाया है । 1 स्त्री शरीर में पुरुष वासना और पुरुष शरीर में स्त्रीत्वयोग्य वासना के जो किस्से और लक्षण देखे सुने जाते हैं उनका खुलासा दूसरी तरह से हो जाता है जो आपके पक्ष का पोषक है । पर इस नए विचार को यहाँ चित्रित नहीं कर सकता । भोगभूमि में गर्भ में स्त्रीपुरुषयुगल योग्य उपादान हैं और कर्म भूमि में नहीं इत्यादि विचार निरे बालीश हैं । जो अनुभव हमारे प्रत्यक्ष हों, जिन्हें हम देख सकें, जांच सकें, उन पर यदि कर्मशास्त्र के नियम सुघटित हो नहीं सकते और उन्हें घटाने के लिए हमें स्वर्ग, नरक या कल्पित भोगभूमि में जाना पड़े तो अच्छा होगा कि हम उस कर्मशास्त्र को ही छोड़ दें । हमारे मान्य पूर्वजों ने जिस किसी कारण से वैसा विचार किया; पर हम उतने मात्र में बद्ध रह नहीं सकते। हम उनके विचार की भी परीक्षा कर सकते हैं । इसलिए द्रव्य और भाववेद के साम्य के समर्थन में दी गई युक्तियाँ मुझको आकृष्ट करती हैं और जो एक आकृति में विजातीय वेदोदय की कल्पना के पोषक विचार और बाह्य लक्षण देखे जाते हैं उनका खुलासा दूसरी तरह से करने को वे युक्तियों बाधित करती हैं । कोई पुरुष स्त्रीत्व की अभिलाषा करे इतने मात्र से स्त्रीवेदानुभवी नहीं हो सकता । गर्भग्रहण - धारण-पोषण की योग्यता ही स्त्रीवेद है न कि मात्र स्त्रीयोग्य भोगाभिलाषा । मैं यदि ऐसा सोचूँ कि कान से देखता तो अन्ध न रहता या ऐसा सोचूँ कि सिर से चलता और दौड़ता तो पङ्गु न रहता तो क्या इतने सोचने मात्र से चक्षुज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम का या पादकर्मेन्द्रिय का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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