Book Title: Vasudaiv Kutumbakam Bund Nahi Sagar
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 3
________________ जो बँटवारा हो रहा है, उसे रोकने के लिए दे रहे हैं ? जो समय और श्रम आपको उनकी सेवा में लगाना पड़ रहा है, उससे ऊब कर ही तो आप यह वैराग्य की बात कर रहे हैं ? यदि अपने स्वार्थ और सुख के घेरे में बन्द होकर ही आप यह वैराग्य की बात करते हैं, तो फिर सोचिए कि जब आप अपने परिवार में ही व्यापक नहीं बन पा रहे हैं, माता-पिता तक हृदय को अभी तक स्पर्श नहीं कर सके हैं। उसके लिए भी कुछ त्याग और बलिदान नहीं कर सकते हैं, भाई-बहनों के अन्तस्तल को नहीं छू सकते हैं, तब समाज के हृदय तक पहुँचने की तो बात ही क्या करें ? यदि परिवार की छोटी-सी चारदीवारी के भीतर भी आप व्यापक नहीं बन पाए हैं, तो वह विश्वव्यापी परमात्मतत्त्व प्राप में कैसे जागृत होगा ? अपने सुख को माता-पिता और भाई-बहनों में भी प्राप नहीं बाँट सकते, तो समाज को बाँटने की बात कैसे सोची जा सकती है ? विचार कीजिए - घर में आपका पुत्र पौत्रादि का परिवार है, आपका सहोदर भाई भी है, उसका भी परिवार है, पत्नी है, बाल-बच्चे हैं- लड़के-लड़कियाँ है । अब आपके मन में अपने लिए अलग बात है, अपने भाई के लिए अलग बात है । अपनी पत्नी के लिए आपकी मनोवृत्ति अलग ढंग की है और भाई की पत्नी के लिए अलग ढंग की । लड़के-लड़कियों के लिए भी एक भिन्न ही प्रकार की मनोवृत्ति काम कर रही है। इस प्रकार घर में एक परिवार होते हुए भी मन की सृष्टि में अलग-अलग टुकड़े हैं, सब के लिए अलग-अलग खाने हैं और अलग-अलग दृष्टियाँ हैं । एक ही रक्त के परिवार में इन्सान जब इस प्रकार खण्डखण्ड होकर चलता है, क्षुद्र घेरे में बँट कर चलता है, तब उससे समाज और राष्ट्रिय क्षेत्र में व्यापकता की क्या आशा की जा सकती है ? में विचार करता हूँ, मनुष्य के मन में जो ईश्वर की खोज चल रही है, परमात्मा का अनुसन्धान हो रहा है, क्या वह सिर्फ एक धोखा है ? वंचना मात्र है ? क्या हजारोंलाखों मालाएँ जपने मात्र से ईश्वर के दर्शन हो जाएँगे ? व्रत और उपवास आदि का नाटक रचने से क्या परमात्म-तत्त्व जागृत हो जाएगा ? जब तक यह अलग-अलग सोचने का दृष्टिकोण नहीं मिटता, मन के ये खण्ड-खण्ड सम्पूर्ण मन के रूप में परिवर्तित नहीं होते, पने समान ही दूसरों को समझने की वृत्ति जागृत नहीं होती, अपने चैतन्य देवता के समान ही दूसरे चैतन्य देवता का महत्त्व नहीं समझा जाता, अपने समान ही उसका सम्मान नहीं ftaar जाता और अपने प्राप्त सुख को इधर-उधर बाँटने का भाव नहीं जगता, तबतक आत्मा परमात्मा नहीं बन सकता। जब आप सोचेंगे कि जो प्रभाव मुझे सता रहे हैं, वे ही प्रभाव दूसरों को भी पीड़ा देते हैं । जो सुख-सुविधाएँ मुझे अपेक्षित हैं, वे ही दूसरों को भी अपेक्षित । अतः जो संवेदन, अनुभूति स्वयं के लिए की जाती है, उसी तीव्रता से जब वह दूसरों के लिए की जाएँगी, तब कहीं आप के अन्तर में विश्वात्म भाव प्रकट हो सकेगा । विश्वात्मानुभूति : इधर-उधर के दो-चार प्राणियों को बचा लेना या दो-चार घण्टा या कुछ दिन अहिंसा व्रत का पालन कर लेना, अहिंसा और करुणा की मुख्य भूमिका नहीं है। विश्व समाज के प्रति अहिंसा की भावना जब तक नहीं जगे, व्यक्ति-व्यक्ति में समानता और सह-जीवन के संस्कार जब तक नहीं जन्में, तब तक अहिंसक - समाज - रचना की बात केवल विचारों में ही रहेगी। समाज में अहिंसा और प्रेम के भाव जगाने के लिए व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा । अपने-पराए के ये क्षुद्र घेरे, स्वार्थ और इच्छाओं के ये कलुषित - कठघरे तोड़ डालने होंगे । विश्व की प्रत्येक आत्मा के सुख-दुःख के साथ ऐक्यानुभूति का आदर्श, जीवन में लाना होगा । भारतीय संस्कृति का यह स्वर सदा-सदा से गूंजता रहा है- "अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥" वसुधैव कुटुम्बकम् : बूंद नहीं, सागर Jain Education International For Private & Personal Use Only ४२३ www.jainelibrary.org

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