Book Title: Vartaman Yuga me Yoga ka Nari par Prabhav
Author(s): Mayarani Arya
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 3
________________ वर्तमान युग में योग का नारी पर प्रभाव | २३९ प्राज के भौतिक-युग में अध्यात्म का समावेश करना अनिवार्य हो गया है। पाश्चात्य जगत् भौतिक सम्पदा में अग्रणी होकर भी उसे आत्मिक संतोष नहीं है-नित्य प्रतिदिन वहां व्यभिचार, तनाव, रक्तचाप, हृदयरोग बढ़ता जा रहा है। उन्हें लगता है कि कहीं कुछ कमी रह गई है और वह है योग का व्यावहारिक प्रयोग कर समाज में नई जागति लाना। भारत में तो योग की साधना सामाजिक जीवन में रची-बसी हई थी। योग भारतीय संस्कृति का प्राण है। _ 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत' । योग द्वारा सब उत्पातों के केन्द्र 'मन' को जीतने की सामर्थ्य प्राप्त होती है। मन से ही हमें कष्ट की अनुभूति होती है और मन से ही हमें शांति प्राप्त हो सकती है। कामविचार भी मन में प्राते हैं और शोक विचार भी मन में पाते हैं। डिप्रेशन मन में आता है, क्रोध भी प्राता है। इसलिये मन को स्वस्थ रखने का ध्यान हमारी संस्कृति में विशेषरूप से किया गया है। आज के वैज्ञानिक योग को विज्ञान के रूप में स्वीकारते हैं और शरीर व मन पर उसके होने वाले परिणामों की जांच कर रहे हैं। उदाहरणार्थ बच्चा जब सात या आठ वर्ष का होने लगता है तो उस समय उसकी रीढ़ की हड्डी चक्र के ऊपर खिंचती है। सिर में एक ग्रन्थि होती है जिसे अंग्रेजी में 'पीनियल' कहते हैं और योग में 'प्राज्ञाचक्र' । यह ग्रन्थि सात साल के बाद धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। इसी प्रकार भावनात्मक विचार और यौन विकास में जो असंतुलन पैदा होता है उसके कारण बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं-मिर्गी, हिस्टीरिया आदि । प्राचीनकाल में जब बच्चा सात साल का होता था तो उस समय उसे तीन चीजें सिखाई जाती थीं। उसी समय से व्यावहारिक योगमय जीवन का प्रारम्भ हो जाता था। माता ही उसे इन तीन अभ्यासों को करने का उपदेश देती थी। पहला, प्राणायाम-जिसमें रेचक, पूरक और कुम्भक होता था। दूसरा मन्त्र व तीसरे व्यायाम व उपासना ।। काम को उद्भ्रांत करने वाले जो हार्मोन्सरूपी विकार ग्रन्थि से निकलते हैं, उनसे अपने को मुक्त करना था। योग में इन्हें ब्रह्मग्रन्थि, विष्णग्रन्थि एवं रुद्रग्रन्थि कहते हैं। इन ग्रन्थियों के विषय में माण्डकोपनिषद में विशेष चर्चा की गई है। इन तीनों में जो रुद्रग्रन्थि है वह उत्पाती ग्रन्थि है। इस रुद्रग्रन्थि को नियन्त्रण में लाने से मनुष्य अपना स्वामी बन जाता है। यही योग की प्रथम अवस्था है। इसको प्राणायाम द्वारा नियन्त्रित किया जाता है जिससे हम अधिक से अधिक दिनों व वर्षों तक अपने मस्तिष्क पर, अपने स्नायुमंडल पर, अपनी शारीरिक ग्रन्थियों पर, अपनी कामना व वासना पर और अपनी नाड़ियों पर नियंत्रण रख सकते हैं। इसीसे ब्रह्मचर्य पुष्ट होता है। योग सिखाता है कि विवाहित जीवन यज्ञ है। एक सत्यता लाने का पुण्य कर्म है, मात्र शारीरिक सुख उसका उद्देश्य नहीं । गृहस्थ से ही हमारा समाज बढ़ता है। योग की साधना प्रासन-क्रियाओं से मन में प्रानन्द उत्पन्न करती है। योग से तन, मन पौर जीवन शुद्ध होता है। प्रासन बैठते की वह अवस्था है जिससे शरीर पुष्ट होता है । पद्मासन और खड्गासन में तीर्थंकर प्रतिमाएं बनाई गई हैं। आसमस्थतम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only jainelibrasyon

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